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बुधवार, 15 अक्टूबर 2008

क्यों दिए जाते हैं पुरस्कार?

अरविन्द अडिगा की पहले उपन्यास दि व्हाईट टाइगर को मैन बुकर प्राईज़ मिल गया है। उनके नामाकंन पर मैं इतना हैरान नहीं हुआ था, मगर उनकी इस जीत के बाद मैं वाक़ई हतप्रभ रह गया। दुनिया भर में पुरस्कार एक निश्चित राजनीति के तहत दिए जाते हैं, इस तथ्य से मैं अनजान नहीं रहा हूँ मगर आप सब की तरह कहीं न कहीं मेरे भीतर भी एक सहज-विश्वासी मानुस जीवित है जो चीज़ों की सतही सच्चाई पर यकी़न करके ज़िन्दगी से गुज़रते हैं।

अरविन्द अडिगा के साथ अमिताव घोष के साथ की किताब सी ऑफ़ पॉपीज़ भी नामांकित थी, मैंने वो किताब नहीं पढ़ी है, पर अमिताव घोष की पिछली किताबों के आधार पर यह मेरा आकलन है कि सी ऑफ़ पॉपीज़ कितनी भी बुरी हो दि व्हाईट टाइगर से बेहतर होगी। पर मुद्दा यहाँ दो किताबों की तुलना नहीं है, मुद्दा दि व्हाईट टाईगर की अपनी गुणवत्ता है।

लगभग तीन-चार मास पहले एच टी में एक रिव्यू पढ़ने के बाद मैं इस किताब को दो दुकानों में खोजने और तीसरे में पाने के बाद हासिल किया और पढ़ने लगा। कहानी की ज़मीन बेहद आकर्षक है; बलराम नाम का एक भारतीय चीन के प्रधानमंत्री को लिखे गए पत्रों में अपने जीवन और उसके निचोड़ों की कथा कह रहा है। बलराम की खासियत यह है कि वो एक रिक्शेवाले का बेटा है और एक बड़े ज़मीन्दार के बेटे का ड्राईवर है जिसे मारकर वो अपने सफल जीवन की नीँव रखता है।

अडिगा तहलका में लिखे अपने लेख में बताते हैं कि कैसे कलकत्ता के रिक्शेवालो से कुछ दिन बात-चीत कर के उन्हे अपने फँसे हुए उपन्यास का उद्धार करने की प्रेरणा मिली। यह पूरा डिज़ाइन पश्चिम में बैठे उन उपभोक्ताओं के लिए ज़रूर कारगर और आकर्षक होगा जो भारत की साँपों, राजपूतों और राज वाली छवि से ऊब चुके हैं और भारत में अमीर और ग़रीब के बीच फैलते हुए अन्तराल में रुचि दिखा रहे हैं।


मगर मेरे लिए इस किताब को पढ़ना इतना उबाऊ अनुभव रहा कि पचासेक पन्ने के बाद मैं अपने आप से सवाल करने लगा कि मैं ऐसे वाहियात किताब पर क्यों अपना समय नष्ट कर रहा हूँ, जिसे कु़छ वैसे ही चालाकी से लिखा गया है जैसे मैं कभी टीवी सीरियल लिखा करता था। जो मुझे मेरे भारत के बारे में जो कुछ बताती है वो मुझे उस विवरण से कहीं बेहतर मालूम है। और जिन चरित्रों के जरिये बताती है वो न तो सहानुभूति करने योग्य बनाए गए हैं और न ही किसी मानवीय तरलता में डूब के बनाए गए हैं। मुझे अफ़सोस है कि मैं एक उपन्यास से कहीं अधिक उम्मीद करता हूँ।

मैं नहीं जानता कि अडिगा को बुकर पुरस्कार दिए जाने के पीछे क्या मानक रहे होंगे? मैं जान भी कैसे सकता हूँ.. पश्चिम के नज़रिये से भारतीय सच्चाई को देखने की तरकीब कुछ और ही होती है? तभी तो ग्यारह बार नामांकित होने के बाद भी नेहरू को कभी नोबेल शांति पुरस्कार नहीं मिला; गाँधी जी की तो बात छोड़ ही दीजिये। लेकिन कलकत्ता के पेगन नरक में बीमारों की सुश्रूषा करने वाली एक नन, मदर टेरेसा को शांति पुरस्कार के योग्य माना गया।



(ओड़िसा में पिछले दिनों हुई बर्बरता के लिए बजरंग दल और अन्य हिन्दू संगठनो की जितनी निन्दा की जाय कम है। उन पर सरकार प्रतिबंध क्यों नहीं लगाती, उसके पीछे शुद्ध राजनीतिक कारण हैं। मगर धर्म परिवर्तन में संलग्न चर्च की संस्थाएं, बजरंग दल की तरह आपराधिक सोच के भले न हों पर निहायत निर्दोष मानसिकता से अपना कार्य-व्यापार चला रहे हैं , ऐसा सोचना भी बचकाना होगा।)
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