रविवार, 13 सितंबर 2015

अपने मन की करना ही ख़तरनाक राजनीति है !

बैटल ऑफ बनारस के बहाने कमल स्वरूप से बातचीत



प्रश्न : आप की फिल्म बैटल ऑफ बनारस का अभी क्या स्टेटस है?

कमल: फिल्म को स्क्रीनिंग कमेटी ने रिजेक्ट कर दिया है। पर अभी ट्रिब्यूनल में जा सकती है। ट्रिब्यूनल तो सेसंर बोर्ड से बाहर है। वो सेंसर बोर्ड के निहित स्वार्थो से परे हैं। इसलिए कह सकते हैं कि अभी उम्मीद की एक किरन बाकी है।

प्रश्न : आप को अंदाज़ा था कि आप की फिल्म सेंसर में परेशानी आ सकती है?

उत्तर : मुझे कोई अंदाज़ा नहीं था। सेंसर में जाने के बाद भी मुझे किसी ने कहा था कि आप की फिल्म में दो चार जगह कट आ सकता है जहाँ पर मोदी जी के उनके बारे में कड़ी टिप्पणी कर रहे हैं, उन हिस्सों में हो सकता है कि आपत्ति हो। क्योंकि वे तब एक प्रत्याशी थे पर आज वे प्रधान मंत्री है, और हो सकता है कि उन्हे वे बातें उनके पद की गरिमा के अनुरूप न लगे। लेकिन यह उम्मीद नहीं थी कि सेंसर सर्टिफिकेट ही नहीं मिलेगा।


प्रश्न : कमल भाई आपकी फिल्म ओम दर बदर एक कल्ट फिल्म का दर्जा पा चुकी है। परदे पर जितने लोगों ने देखा इस फिल्म को देखा है, उससे कहीं ज्यादा लोगों ने टोरेंट से डाउनलोड करके, दोस्तों से मांगकर, खोजकर, आंखे फाड़कर चकित होते हुए देखा है। वो किसी भी नज़रिये से राजनीतिक फिल्म नहीं कही जा सकती। बल्कि सच्चाई ये है कि उस फिल्म को तब के तमाम वामपंथी धुरंधरों ने नकार दिया था। क्योंकि उसमें उनको कोई वर्ग संघर्ष जैसी बात समझ नहीं आई। या इमेज मीट्स द शैडो जैसी डाक्यूमेंटरी जो एक शहर को बेहद निजी नज़र से देखते हुए भी उसकी आत्मा को उद्घाटित कर देती है- वो भी राजनीतिक फिल्म नहीं कही जा सकती। जो आप को जानते हैं वे जानते हैं कि समाज में जिसे राजनीतिक आदमी कहा जाता है- वो आप नहीं हैं। बैटल ऑफ बनारस आप ने क्या सोचकर बनाई ?

उत्तर: इलियास कनेटि की किताब है क्राउड एंड पावर। मैं उस पर एक फिल्म बनाना चाहता था। कनेटि उसमें बताते हैं कि भीड़ कितने प्रकार की होती है, किसका कैसा व्यवहार होता है, कैसी संरचना होती है, कैसे गति करती है आदि। वे उदाहरण लेते हैं, जगन्नाथ रथ यात्रा के, मुहर्रम के जुलूस के, तुगलक के दिल्ली से दौलताबाद के सफ़र के, दो समुदाय में झगड़े के। मेरी दिलचस्पी उस को डाक्यूमेंट करने में थी। मैं देखणा चाहता था कि भीड़ का ग्राफिक्स क्या होता है? और साथ में ये जो राजनीतिक नारे हैं, रेटारिक है, गाना बजाना है- वो तो हमारे लिए उत्सव की तरह था।

प्रश्न : ये मामला बड़ा दिलचस्प है कमल भाई, आप ने एक कलात्मक दृष्टि से फिल्म बनाई जो राजनीति में फंस गई। ये जो कला और राजनीति का चिरविवादित रिश्ता है- इस पर आप क्या कहेंगे?

उत्तर : देखिए राजनीति तो होती है- हर सौन्दर्य दृष्टि की एक राजनीति होती है। नई कलात्मक सोच पुरानी कलात्मक सोच के विरोध में जन्म लेती है। और उनकी भी राजनीतिक गोलबंदियां होती हैं। उनको भी संघर्ष करना होता है। अब जैसे यदि में भाजपा को होता तो कोई अड़चन नहों आती। आप वालों का होता तो भी शायद सुरक्षित रहता। नहीं तो मेरे लिए कम से कम लड़ने वाले होते। अब जैसी आननंद पटवर्धन और राकेश शर्मा की फिल्में राजनीतिक सुरक्षा में बनती हैं। उनका दर्शकवर्ग है। एक वर्ग है जो चाहता है कि इनको इनको गाली दे जाय। पर मेरी फिल्में न तो इतनी खतरनाक हैं, और न किसी को खुलकर गाली देती हैं। मेरी सोच या ये कहिए कि मेरी राजनीति स्वतंत्र है। इसलिए उसे अराजनीतिक मान लिया जाता है।

प्रश्न : तो आप की क्या राजनीति है?

उत्तर : मैं तो अपने मन की करता हूँ। अपने मन की करना ही बड़ी खतरनाक राजनीति है।

प्रश्न : अगर मैं आप से यह पूछूँ कि कला कला के लिए? या कला समाज बदलने के लिए?

उत्तर : मुझे तो फिल्म बनाने के दौरान भी पता नहीं होता कि मैं क्या करने जा रहा हूँ । फिल्म मेरे नियंत्रण में नहीं होती। मैं ही अपने आप को पूरी तरह समर्पण करता हूँ। मैं अंत तक उत्सुक रहता हूँ कि फिल्म कैसी बननी वाली है।
मेरा ये कहना है कि आज जिन्हे भी हम समाज बदलने वाले लोगों में गिनते हैं, वे कलाकार सामाजिक धारणाओं को बदलने की कोशिश कर रहे थे, ऐसा नहीं है। जैसे पिकासो। जैसे बेला टार। वे परसेप्शन को समझने की, एक नया परसेप्शन (बोध, ख़याल) को विकसित करना चाहते हैं। परसेप्शन का भी एक विज्ञान होता है। और उसे समझना एक वैज्ञानिक अनुसंधान है। जब आपका परसेप्शन बदलेगा। उससे विचार बदलेगा, नज़रिया बदलेगा, भौतिक व्यवहार बदलेगा। ऐसे ही तो बदलता है समाज।
अब देखिए कैमरा कैसे बना? दौड़ते समय क्या कभी घोड़े के चारों पैर हवा में होते हैं- यह जानने के लिए कैमरे का ईजाद हुआ। उदाहरण के लिए लूमियर है वो इंजीनियर है। उसकी दिलचस्पी एक गतिमान चित्र खींचने वाली मशीन बनाने में थी। इसीलिए जो जैसा है वैसा ही दिखा देता है। उसके द्वारा रियलिज़्म, नियो रियलिज़्म आदि का विकास हुआ। और मेलिएस जादूगर है। वो चौंकाना चाहता है। मेलियस से फैन्टैसी फिल्मों का विकास हुआ।
और विकास कैसे होता है? उपकरणों का, विचारों का, नज़रियों का? मैं यह मानता हूँ कि विकास की, बदलाव की भी एक प्राकृतिक प्रक्रिया है। इसे आप कैमरे के विकास में भी देख सकते हैं। किसी को कुछ नहीं मालूम था कि आगे ये होने वाला है? एक आदमी तो नहीं कर रहा? बदलाव की एक प्राकृतिक गति होती है।

प्रश्नकर्ता : पर कमल भाई अाप अक्सर कहते हैं कि आर्ट इज़ आर्टिफिशियल। यदि कला कृत्रिम है तो फिर उसका प्रकृति से रिश्ता?

उत्तर : (मणि) कौल साहब बोलते थे कि स्वाभाविक हो जा। हम बोलते थे- आर्टिफिशयल। मेरा ये कहना था कि इस माध्यम से जो टेक्नोलोजी जुड़ी है, उसमें केवल रेकार्ड करना काफी नहीं है। उसको पुनरुत्पादित भी करना होता है। इसलिए उसमें एक कृत्रिमता आ जाती है।

प्रश्न : और टेक्नोलोजी जुड़ने से उद्योग बीच में आ जाता है। कला और उद्योग के रिश्ते पर आप क्या कहेंगे?

उत्तर : कला और उद्योग के संबध को वैन गौघ की मिसाल से समझिए। वैन गौघ ग्रम्य जीवन की छवियां बनाता था। पर उसका माध्यम आइल पेंट है। जो उस समय की सबसे विकसित टेकनोलोजी का प्रयोग करके बनता था। वैन गौघ के चित्रों में लोगों ने सुरम्य ग्राम्य जीवन में आग के दर्शन किए। वैन गौघ के अग्निमय दृश्य उस अग्नि से मिलते है जिस से आइल पेंट पैदा होता है। इस तरह माध्यम और अभिव्यक्ति दोनों एक हो जाते हैं। तभी वैन गौघ के चित्रों में वो दृष्टि है जिसे इम्प्रेशनिस्ट नहीं पा सके थे।

रही बात औद्योगिक कला की- ये फिल्म कला एक आदमी का काम नहीं है। फिल्म बनाने के लिए अपने अपने क्षेत्र के बहुत सारे निपुण लोगों का साथ चाहिए। पानी बरसाने वाले से प्लेन उड़ाने वाले तक। इसलिए उसका एक अर्थशास्त्र विकसित होता है। निर्माण के बाद भी पूरे देश भर में वितरण, प्रदर्शन सब कुछ अलग अलग है। एक महाजीव तैयार हो जाता है। जिसकी गति का, केंद्र का पता नहीं चलता। पर कला में इस तरह का महाजीव नहीं है। कला एक तरह का लघु उद्योग है। और अब तो सुपरमैन ऑफ मालेगांव जैसे प्रयोग होने लगे हैं। हर फिल्म का अपना एक अलग दर्शक वर्ग होता है। छोटा या बड़ा- जो उसको अच्छा या बुरा तय करता है।
उदाहरण के लिए एंडी वारहोल को देखिए। कला के बाहर कला कि छवि गढ़ने का निराला काम किया उसने। मैंने जब पहली बार एंडी वारहोल को देखा तो चकित रह गया। वो ऐसा मेरे साथ लगा कि मैं ज़िन्दगी भर उसका पीछा करता रहा। जैसे वो मेरा गुरु हो- प्रेतगुरु! बाद में जाकर पता चला कि वो कितना महान है, और क्यों महान है। पर उसने जकड़ लिया था मुझे। वो भी एक तरह का गेम है। अलग प्रकार का गेम।

प्रश्न : नए लोगों के लिए क्या कहना चाहेंगे... जो फिल्में बना रहे हैं या बनाने वाले हैं?

उत्तर : हर कलाकार अपनी विशिष्ट कलात्मक बाधा में होता है। उसे वहीं मदद चाहिए होती है। तो इसलिए मैं नए लोगों के आइडिये को छेड़ता नहीं। उनके अंदर जो बात है, उसे ही सुनता है और उसमें मदद करता हूँ। हाँ मैं उनसे ये ज़रूर कहता हूँ कि एक प्रिसिनेमा कल्पना भी होती है। जो सिनेमा के जन्म के पहले मौजूद थी। आज भी है पर सोई रहती है। हर किसी की एक अनोखी कल्पना होती है, उसका अपना सिनेमेटिक वीज़न होता है। रिदम होता है। अपना यूनिक सिनेमा। जिसे वही देखता है। कोई दूसरा नहीं। उसी को बाहर लाना चाहिए।

प्रश्न : तो वैसा कलाकार कैसे बना जाय? और वो समाज के साथ कैसा रिश्ता बनाए?

उत्तर : ये तो बड़ा मुश्किल सवाल है.. भगवान जाने यार!

***
(इस इंटरव्यू का एक संक्षिप्त प्रारूप १२ सितम्बर २०१५ को नवभारत टाइम्स में छपा) 

रविवार, 14 जून 2015

दऽऽ से




क बार ब्रम्हा जी अकेले बैठे थे।
कमल के फूल पर नहीं थे। नाभिकमल पर भी नहीं थे। पहाड की चोटी पर थे। सर पर मुकुट भी नहीं था शायद। छाप तिलक भी बराबर नहीं था। जो जैसा था, वैसा मानकर बैठे थे। चुपचाप। अकेले। ध्यानमगन!

सृष्टि कर चुके थे। प्राकृत वैकृत सब। मानसी सृष्टि हो चुकी थी। दक्ष, नारद, सातों ऋषि, सब हो चुके थे। मानसी सृष्टि में कुछ करना पड़ना नहीं पड़ता। सोचा हो जाओ। बस काम हो जाता है। उसके बाद ब्रम्हा जी फटकर दो हो गए थे। दायां भाग नर। बायां नारी। जिन्हे मनु और शतरूपा कहा गया। उनसे ही लैंगिक सृष्टि शुरु हुई। फिर तो झड़ी लग गई। दैत्य, देव, मनुष्य, पशु-पक्षी, सब बनने लगे।

तो बहुत कुछ हो चुका था। ब्रम्हा जी शायद थोड़ा चट भी चुके थे सृष्टि से। पहले उनको अपनी सृष्टि से मोह हो गया था। उन्हे लगा था जो वो बनाएंगे। वो ईश्वर की छवि में होगा। शांत। सुन्दर। कल्याणकारी। पर ये सब कुछ हुआ नहीं। सब कुछ बिगड़ता चला गया। लड़ाई-झगड़ा। हिंसा। आपसी कलह। ये सब देखकर उन्हे अपनी ही सृष्टि से विमोह हो गया। विरक्ति। जी उचट गया। सोचने लगे कि सब मिथ्या है। एक केवल ईश्वर ही सत्य है।

तो इतना कुछ होने के बाद ब्रम्हा जी बैठे अपने मन को साध रहे थे। तभी की बात है कि दैत्य उनके पास आए। अपने राजा बलि को आगे रखकर। वही दैत्य जिनके सिर पर सींग आदि की कल्पना की गई है। अहंकार के सींग। और देवों के सर पर आलोक बताया गया है। ज्ञान का आलोक। दैत्यों के बारे में प्रसिद्ध है कि वे देवों से पहले उपजे। देवता उनके बाद हुए। छोटे होकर भी लड़-झगड़ कर उन्होने सृष्टि पर अपना अधिकार कर लिया।

ख़ैर। दैत्य आए। ब्रम्हा जी को प्रणाम किया। ब्रम्हा लगे उनके पिता के पिता के पिता के .. लम्बी चेन है। इसलिए सब बड़ा आदर करते थे। ये उस समय की बात है जब लोग बूढे लोगों का ज्ञान का भण्डार मानते थे। भले लोग सब काम उनसे पूछकर करते थे। आजकल भी भले लोग होते हैं। पर ज़रा कम।

तो प्रणाम-व्रणाम के बाद हालचाल पूछा गया। दैत्यों में जो समझदार थे, शुक्र जैसे ऋषि। वही बोले कि पितामह हमें जीवन के बारे में कुछ बताइये! कैसे समृद्धि हासिल की जाय! प्रगति कैसे की जाय! समानता का संसार कैसे लाया जाय! अधिकतम सुख कैसे प्राप्त किया जाय! आदि-आदि।

दैत्यगुरु शुक्र स्वयं बड़े ज्ञानी थे। ज्ञान का आयतन बड़ा होता है। वो छोटे में नहीं समाता। ज्ञान मिलते ही आदमी आसमान छूने लगते हैं। सब उसके आगे बौने हो जाते हैं। उसके वाक्यों में भी बड़प्पन आ जाता है। विस्तार आ जाता है। तो शुक्र ने अपनी बात के हर पहलू को समेटते हुए ब्रम्हा जी के सामने रखा। देर तक।

ब्रम्हा जी चटे हुए थे। पर उन्होने धीरज से सुना। शुक्र के पीछे जो दैत्य चुप खड़े थे। राजा बलि भी। वो सब धीरे-धीरे बेचैन होने लगे। सवाल के खतम होने की प्रतीक्षा करने लगे। उनमें शुक्र जितनी बुद्धि नहीं थी। उन्हे समझ में आना बंद हो चुका था। वे उठकर भाग जाना चाहते थे। पर शिष्टता उन्हे जकड़े रही। आखिरकार शुक्र का सवाल खतम हुआ।

शुक्र चुप हुए। दैत्यों को बड़ी राहत हुई। अब ब्रम्हा जी की बारी थी। सब ब्रम्हा जी को देखने लगे। अब ब्रम्हा जी बताएंगे। समृद्धि कैसे मिले। प्रगति कैसे हो। अधिकतम सुख कैसे मिले। इन सब सवालों का जवाब देंगे। जो बलि जैसे थोड़े बुद्धिमान थे, वो सोचने लगे कि अब ब्रम्हा जी बोलेंगे। शुक्र तो छोटे ज्ञानी हैं। उन्होने तो इतना बोला। ब्रम्हा जी तो सर्वज्ञ माने जाते हैं, वो पता नहीं कितना बोलेंगे। सब बेचैन हो उठे।

पर ब्रम्हा जी चुप थे। काफी देर तक वे चुप रहे। फिर उनके अंगो में हरकत हुई। होंठ हिले। और कहीं बहुत गहरे से एक भर्राई हुई सी आवाज़ निकली- दऽऽऽ ।

दैत्य सांस रोके खड़े थे। बहुत दिन से बोले नहीं हैं ब्रम्हा जी। गला बैठ गया है। कैसी खरखराहट के साथ दऽऽ भर बोल पाए हैं। अब गला खखारकर आगे बोलेंगे। जिनमें सेवा भावना अधिक थी-वे सोचने लगे कि शायद ब्रम्हा जी को पानी चाहिए। दौड़कर पानी ले आएं क्या! पर सोचते ही रह गए। सब पहल करने से डरते थे। कोई कहे तो हम कर लेंगे। अपने से करने लगें और लोगों ने डांट दिया तो। बलि राजा हैं। शुक्र गुरु हैं। वे समझदार हैं। वे चुप हैं। हम काहे बोलें। तो सब एक दूसरे का मुंह देखते रहे। बलि शुक्र के डर से चुप रहे। और शुक्र तो ज्ञानी थे। वे करने से पहले सोचते थे। वे भला बिना सोचे कुछ कैसे कर डालते।

ब्रम्हा जी ने आगे कुछ नहीं बोला। कुछ देर तक शुक्र को देखा। उससे कम देर बलि को। और दैत्यों के झुंड पर एक उड़ती हुई सी नज़र डाली और आंखे मूंद ली। उसके बाद सन्नाटा। पहले हलचल भीड़ में हुई। फिर राजा बलि कसमसाए। शुक्र की तरफ उम्मीद भरी निगाहों से देखने लगे। क्या कहा पितामह ने? क्या अर्थ है दऽऽ का?

शुक्र को पता लगा कि लोग बेचैन हो रहे हैं। पर स्वयं उन्हे कुछ समझ नहीं आया था। वे सोच रहे थे- क्या पितामह की बात पूरी हो गई थी? या वे हमसे इतना चट चुके हैं कि बात करना भी व्यर्थ समझते हैं? पितामह को बात न करनी होती तो चुप रहते, दऽऽ भी क्यों बोलते! अगर दऽऽ बोला है तो उसे पूरे वाक्य की तरह बोला है। और उसमें ही सारी बात है। पर वो बात क्या है- शुक्र नहीं समझ पा रहे थे।

प्राचीन ऋषि कठिन-कठिन विषयों को छोटे-छोटे सूत्रों में कहकर छुट्टी पा लेते थे। जिसको समझना हो समझें। न समझना हो मरें। कोई विरला ही समझता था। बहुत सारे मरते थे। लोग बहस करते। मतलब निकालते। बहुत सारे मतलब निकालते। एक ही सूत्र के कई-कई मतलब निकाले। जीवन निकल जाता। पर हाथ कुछ न आता।

तो दैत्यगुरु शुक्र ने इतना तो समझा कि दऽऽ एक सूत्र है। और इसका कुछ विशेष मतलब है। और उस पर गहरे विचार मंथन की जरूरत है। उन्होने बलि को उठने को इशारा किया। बलि उठे तो सब उठ गए। बलि चले तो सब चल पड़े। रास्ते में बलि ने चलते-चलते पूछा। कहा क्या पितामह ने, कुछ समझ नहीं आया!

शुक्र को राहत हुई। वो तो समझे नहीं और अगर बलि को समझ आ गया होता तो उनके गुरु होने पर लानत थी। शुक्र मौन साधते रहे। बलि आज्ञाकारी थे। गुरु जो बोल देते थे, करते थे। तो शुक्र ने आज्ञाकारी शिष्य को टाल दिया। शाम हो रही है, सुबह चर्चा करेंगे। ब्रम्हा जी की बात गहरी है। सुबह के शांत मानस में कहना उचित रहेगा। बलि क्या कहते। जो आज्ञा गुरुदेव- कहकर चुप हो गए।

शुक्र रात भर बिस्तर पर करवटें लेते रहे। कभी दिया तेज करते कभी मद्धम। कभी खिड़की पर जाकर चांद-तारे देखने लगते। कभी सांस साधकर अपने भीतर दऽऽ का उत्तर तलाशने लगते। पर सुबह हो गई। उत्तर न मिला। नित्य कर्म से मुक्त हुए ही थे कि बलि आ गए। कुछ मंतरी-संतरी भी थे उनके साथ।

बलि पैर छूकर खड़े हो गए। शुक्र ने आसन दिया। सब शुक्र का मुंह देखने लगे। शुक्र के पास कहने के लिए कुछ नहीं था। उनके अहंकार ने बहुत कोशिश की पर शुक्र से झूठ न बोला गया। उन्होने सर झुकाकर कह दिया कि महाराज बलि- मैं पक्की तौर पर नहीं कह सकता कि पितामह ने जो दऽऽ कहा, उसका क्या अर्थ था!

बलि को ये उम्मीद नही थी। पर वो बहुत ऊंची नैतिकता के राजा थे। एक पल भी गुरु की विद्वता पर शक नहीं किया। कहा कोई बात नहीं- चलिए ब्रम्हा जी के पास एक बार फिर चलते हैं। और उन्ही से पूछते हैं कि उनका क्या मतलब था।

शुक्र को ये बात पसंद आई। वो झट तैयार हो गए। और चलते चलते बलि से बोले कि मुझे लगता है कि दऽऽ का अर्थ है-दंड। पर मैं पूरी तरह निश्चित नहीं हूं। क्योंकि इसे मैंने विचार में जाना है, समाधि में नहीं। बलि सहमत हो गए।

कहने लगे कि दऽऽ का अर्थ दंड ही होना चाहिए। दुनिया बहुत बुरी है। एक से एक हरामी लोगों का संसार है। भलाई का तो जमाना ही नहीं। दो जूते मारकर रखो तो सब सही रहते हैं। थोड़ी सी छूट दो तो सर पर चढ़ जाते हैं। सभ्य समाज अनुशासित समाज होता है। बिना दंड के अनुशासन कैसे आएगा।

यही बात करते-करते सारे पहुंचे ब्रम्हा जी के पास। ब्रम्हा जी क्या करते, उन्ही की सृष्टि थी। जिम्मेवारी उन्ही की थी। तो आंखें खोलकर शुक्र और बलि की बात सुननी पड़ी। इस बार बलि भी बोले। ब्रम्हा जी ने सब सुना। फिर चुप हो गए।

जब काफी समय बीत गया तो बलि के साथ दूसरे दैत्य अधीर होने लगे। तो बलि ने साहस करके कहा कि पितामह, हमें लगता है कि दऽऽ एक सूत्र है। जिसका अर्थ है- दंड! पर हम पूरी तरह निश्चित नहीं हैं। क्योंकि इसे हमने विचार में जाना है, समाधि में नहीं।

अचानक ब्रम्हा जी के होंठ हिले। आंखें हालांकि बंद ही रहीं। और शब्द निकला। वैसे ही घरघराया हुआ- ठीक समझा!

बस उनका इतना कहना था कि शुक्र के चेहरे पर लाली आ गई। बलि का चेहरा भी चमकने लगा। दैत्यों के भीतर भी उत्साह आ गया। वे ब्रम्हा जी की जैजैकार करने लगे।

पर ब्रम्हा जी ने न आंखें खोली और न कुछ मुंह से उचारा। आशीर्वाद तक नहीं दिया। ऐसी जैजैकार वो बहुत बार सुन चुके थे। और उसका परिणाम भी देख चुके थे। उन्हे जीत-हार, जैजैकार सब से वितृष्णा हो चुकी थी। उन्हें शांति चाहिए थे केवल।

पर दैत्य खुश थे। उन्हे उनका जीवन सूत्र मिल गया। दऽऽ से दंड! हर बात का एक कानून। और कानून तोड़ने का दंड। वे हंसी खुशी अपने राज्य लौट आए। और दंड व्यवस्था बनाकर अपना जीवन व्यतीत करने लगे।

***

फिर एक बार। दैत्यों के छोटे भाई। देव। वैसे ही दल बनाकर ब्रम्हा जी के पहाड़ी शिला तक जा पहुँचे। ब्रम्हा जी देवों से उतने खफा नहीं थे। क्योंकि देव सब कुकर्म करने के बाद ब्रम्हा जी की इज्जत थोड़ी ज्यादा करते थे। ब्रम्हा जी रहते भी उन्ही के इलाके में थे। इसलिए भी ब्रम्हा जी उन्हे थोड़ा भाव देते थे।

पर सच बात ये थी कि ब्रम्हा जी को उनसे बात करना भी पसन्द नहीं था। कोई मुसीबत आई। चले आते थे। कुछ करिए। आप नहीं करेंगे तो कौन करेगा। चलकर उनसे बात करवा दीजिए। उनसे मिलवा दीजिए। तंग किए रहते थे। पर क्या करते। सृष्टि उन्ही की थी। और ब्रम्हा जी ठहरे जिम्मेदार आदमी। तो करते थे।

इसके पहले कि देवगण और उनके नेता इंद्र मीठी-मीठी बातें करतें। लम्बी-चौड़ी स्तुति करते। ब्रम्हा जी ने पहले ही आंखे खोल दीं। और कुछ इस निगाह से उनकी ओर देखा- कि अब क्या! इंद्र तो गंधर्वों और अप्सराओं को तिरछी दृष्टि से स्तुति आरम्भ करने का संकेत भी दे चुके थे।

पर देवगुरु बृहस्पति पितामह का भाव ताड़ गए। और गंधर्वों को हाथ दिखाकर चुप करा दिया। और हाथ जोड़कर बोले। पितामह! हम देव बड़े व्यथित हैं। हमारे पास सब कुछ है। धन। ऐश्वर्य। विद्या। ज्ञान। साम्राज्य। पर फिर भी कुछ अधूरा-अधूरा लगता है। आखिर हमारे जीवन में क्या कमी है? हमें क्या करना चाहिए कि हमारे जीवन में पूर्णता आ जाय!

ब्रम्हा जी ने आँखें बंद कर ली। दो पल बाद खोलीं। तो ऊपर देखने लगे। मानो भगवान से शिकायत कर रहे हों। फिर बृहस्पति को देखकर मुंह खोला। और वही हुआ जो पहले हुआ था। भरभराकर बोला - दऽऽ !

देवगण भी इसके लिए तैयार नहीं थे। प्रतीक्षा करते रहे। कि कुछ और बोला जाएगा। पर कहाँ कुछ बोला जाना था। सन्नाटा रहा। देर तक। देव चूंकि दैत्यों से ज्यादा ज्ञानी थे। इसलिए बृहस्पति ने इंद्र की ओर देखा। इंद्र ने कंधे उचका दिए। दऽऽ का का मतलब गुरुजी? बृहस्पति ने संकोच नहीं किया। शर्म भी नहीं की। बिना अहंकार के इंद्र से दबी जुबान में बतियाने लगे। हमें तो कुछ समझ नहीं आया बेटा!

तो सारे देवता जुट आए। वायु, अग्नि, वरुण, पृथिवी, सरस्वती, गंगा। चंद्र, सूर्य, बुध। सब मिल विचार-विमर्श करने लगे। बीच-बीच में ब्रम्हा जी में हरकत होती। वो कसमसाते। देवों को लगता कि शायद पितामह कुछ बोल रहे हैं। वे चुप हो जाते। शायद पितामह और कुछ बोलें पर पितामह को न बोलना था।

अंत में मीटिंग समाप्त हुई। बृहस्पति ने ब्रम्हा जी की तरफ वापस देखा। अदब से हाथ बांधकर कहने लगे। हे पद्मसंभव! हमने आपके सूत्र पर बहुत सोचा। हमें यही समझ आया कि हम देव अपने ज्ञान के कारण अति विनम्र हो जाते हैं। और लोक कल्याण की भावना से सर्वसुलभ हो जाते हैं। जिसके कारण जनता हमारा अनुचित लाभ उठाती है।

सूर्य निष्काम भाव से सबके लिए प्रकाश और ऊर्जा की व्यवस्था करते हैं। पृथिवी, चंद्र, वरुण, वायु, अग्नि आदि भी बिना भेदभाव के सेवा करते हैं। किंतु हमारी प्रापर वैल्यू नहीं होती। जब हम अपने दिव्य तत्व का उचित सत्कार नहीं करते, तो कोई दूसरा क्यों करेगा।

इसलिए आपने हमें दऽऽ का सूत्र दिया है। दऽऽ यानी दर्प। अपनी उपलब्धियों को पहचानो। समाज से उसका उचित मूल्य लो! नथिंग कम् फॉर फ्री यू नो! तुम अपनी वैल्यू करोगे तो दूसरे करेंगे। इसलिए दऽऽ ! दऽऽ  यानी दर्प! अभिमान! स्वाभिमान!

इतना कहके देव चुप। ब्रम्हाजी भी चुप। जब काफी देर मौन बना रहा। और देव खलबलाने लगे तो ब्रम्हा जी को लगा कि यदि नहीं बोला तो ये जाएंगे नहीं। और चले भी गएं तो शायद फिर आ जाएंगे। अतः उन्होने होंठों को हिलाया। और पहले की तरह ही कह दिया- ठीक समझा!

बस देवों के दल में भी मंगलध्वनियां बजने लगीं। गंधर्व गाने लगे। अप्सराएं नाचने लगीं। और सब अपने-अपने लोक लौट गए।

और ब्रम्हा जी शांति की साधना में लौट गए।

***
र ब्रम्हाजी की सृष्टि बड़ी थी। मनुष्य हो ही चुके थे। दैत्य और दानव सवाल लेकर गए। तो वो कैसे पीछे रह जाते। वे भी गए। ब्रम्हा जी को परेशान करने। ब्रम्हाजी हुए तो परेशान। पर दिखाया नहीं। मनुष्य भी नेता लेकर आए थे। पर एक नहीं अनेक नेता थे। छोटे-बड़े सब प्रकार के दल थे। झंडे, डंडे और नारे थे। धक्कामुक्की भी थी। कि कौन पहले बोलेगा। सब बोले। एक साथ बोले।

महाराज का करी। कौनो मंत्र दे द्या! कौनो सुत्र बतावा महाराज! कुल जीवन खरमंडल हुइ चुका है। जरा चैन नहीं। मेहनत बहुत करित है, फल मिलबो नाहिं करित। तबहुं दूसर मनई देख-देख जलित आहें। पैसा आवित है पर टिकित नाहिं। जरूरत हमेसा बनी रहित है। कबौं पूरा नाहिं पड़ित। कौनौ उपाइ बतावा गुरु जी।

चूंकि सब एक साथ बोल रहे थे। ब्रह्मा जी को समझ कुछ नहीं आया। बस एक शोर सा सुनाई दिया। वैसे भी वे कहाँ कुछ सुनना चाहते थे। बड़ी देर तक हल्ला-गुल्ला होता रहा। जब ब्रम्हा जी को असह हो गया। क्रोध सा आने लगा। तो वो कसमसाए। मुंह खोला। और बोला - दऽऽ !
पर इस बार किसी ने नहीं सुना। शोर वैसे ही होता रहा। तो घबड़ाकर ब्रम्हा जी ने गला खखारकर दुबारा जोर से बोला- दऽऽऽऽ !

कुछ लोगों ने सुना। पर शोर जारी रहा। जिन्होने सुना था। वो सब लोगों को चुप कराने लगे। फिर जिन्होने चुप कराने वालों को सुना, वो दूसरों को चुप कराने लगे। फिर बड़ी देर तक साइलेंस! साइलेंस! के स्वर गूंजते रहे। दो-चार घड़ी बाद फाइनली साइलेंस हुआ। पर टोटल न था। ब्रम्हा जी को आदत न थी। पर उन्होने भी मारे डर के अनटोटल साइलेंस पर समझौता कर लिया और सब को सुनाते हुए आखिरी बार बोला- दऽऽऽऽऽ !


और फिर चुप हो गए। मनुष्यों में सब ज्ञानी थे। तुरंत व्याख्याएं होने लगीं। कुछ लोगों ने तो आनन-फानन टीकाएं भी लिख डालीं। कुछ शोध प्रबंध भी तैयार हो गए। सब बोल रहे थे। अपना-अपना अर्थ बता रहे थे। दुबारा उन्हे शांत करना नामुमकिन था।

किसी ने ब्रम्हा जी से दुबारा पूछा तक नहीं कि उनके दऽऽ का सही अर्थ क्या है। क्योंकि उसकी कोई जरूरत नहीं थी। मनुष्यों के पास हर चीज को तय करने का एक बढ़िया सिस्टम था- चुनाव। तो उन्होने क्विक पोल कराए। तमाम तरह के विचार थे। सब लड़े। पर तीन विचार जिनको सबसे अधिक वोट मिले- वो थे;

) दऽऽ से दंड- इनको तीन में से सबसे कम वोट मिले।
) दऽऽ से दर्प- ये विचार मुख्य विपक्षी दल का पद पा गया। और;
) दऽऽ से दुह- यानी दुहना, निचोड़ना; इस विचार ने सबसे अधिक वोट पाकर सरकार बना डाली।

पर सत्ता में सबको साझेदारी मिली। और ब्रम्हा जी के आदेशानुसार मनुष्यों ने सारे साधन-संसाधनों का दोहन शुरु कर दिया।

ब्रम्हा जी बड़ी देर तक उनके जाने का इंतजार करते रहे। उन्होने सोचा था कि अपना जवाब मिल जाने पर मनुष्य वापस लौट जाएंगे। और वे शांति से अपनी साधना कर सकेंगे। पर मनुष्य नहीं टले। वे वहीं बस गए। उन्होने पर्वत काटकर नगर बना लिए। नदी नाले की शकल की हो गई। बाजार लग गया। होटल खुल गए। मनुष्य दऽऽ से दोहन करते हुए अपना जीवन बिताने लगे।

इतना कुछ होता देख ब्रम्हा जी ने कमंडल, चिमटा, और कम्बल उठाया। और चुप्पेचाप कहीं ऊपर की चोटी पर कट लिए। जहाँ कोई उनको डिस्टर्ब न कर सके।

***

ब्रम्हा जी बड़े उमरदराज हैं। कई बार सृष्टि कर चुके हैं। रोज करते हैं। जब रात हो जाती है। तो सारा संसार समेटकर जलप्रलय कर देते हैं। और सो जाते हैं। फिर अगली सुबह वापस सृष्टि करते हैं। फिर से सब कुछ बनाते हैं। और फिर से वही सब कुछ होता है, जो पहले हो चुका है। हर बार ये दैत्य, देवता और मनुष्य आकर उनसे यही सब सवाल करते हैं। हर बार ब्रम्हा जी जवाब देते हैं। पर हर बार थोड़ा बहुत अंतर हो जाता है।

जैसे इसके पहले के कल्प में जब ये तीनों प्राणी पितामह के पास आए थे। तब भी ब्रम्हा जी ने ऐसे ही दऽऽ बोला था। पर उस बार हर एक ने दऽऽ से कुछ अलग मतलब निकाला था।

दैत्य क्रूर थे। फिर भी उन्होने दऽऽ से समझा था- दया!
देव विलासी थे। फिर भी उन्होने दऽऽ से समझा था- दमन!
और मनुष्य लोभी थे। फिर भी उन्होने दऽऽ से समझा था- दान!

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(ऐसी एक कथा बृहदारण्यकोपनिषद में भी आती है। पर इस कथा का उससे कोई संबंध नहीं है। यह पूरी तरह मौलिक है। कहीं से कोई प्रेरणा नहीं है। यदि है भी तो, उन्होने मुझसे ली होगी प्रेरणा। लोग अक्सर भविष्य से प्रेरित होते हैं। पुराने ऋषि मुझसे प्रेरित रहे होंगे। लुब्बेलुबाब ये कि उपरोक्त कहानी मेरी है केवल मेरी। )
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