मंगलवार, 31 मई 2011

पहले कैमरा नहीं था

पहले कैमरा नहीं था। निरन्तरता की नदी से फांक काट लेने का एकमात्र औज़ार स्मृति ही था। स्मृति का निवास आत्मा की खोह में था। शरीर मर जाता पर आत्मा न मरती। आत्मा के साथ-साथ स्मृतियां भी जन्म के चक्र में घूमती रहतीं। सम्बन्धों की स्मृति से कर्मों की स्मृति अधिक प्रगाढ़ कही गई है।

आत्मा के शुद्धि और संवर्द्धन के लिए लोग तरह-तरह से तप करते, व्रत, उपवास और प्रायश्चित करते। सम्बन्ध और कर्म दोनों ही आत्मा के प्रदूषक समझे जाते। शुद्धता सबसे बड़ा मूल्य और सबसे ऊँचा लक्ष्य बन गया। हर व्यक्ति अपनी आत्मा को बचाकर चलता- किसी से मैल न लग जाय, कोई छींट न पड़ जाय।

तांत्रिक और जादूगर जिसे वश में करना चाहते उसके शरीर के किसी भी भाग को हस्तगत करके उसे प्रदूषित कर देते। बालों के कुछ रेशे भी काफ़ी होते। तस्वीर या पुतले के सहारे भी वे अपने उद्देश्य को सिद्ध कर लेते। नाम और जन्मांक के सहारे भी कुचक्र कर लेते। प्रतीक में सकारात्मक या नकारात्मक, कैसी भी ऊर्जा आविष्ट हो सकती है, ऐसा माना जाता रहा।

समाज में सदा इन तांत्रिको का भय व आतंक व्याप्त रहता। किसी अनजान को लोग अपना नाम भी न बताते। जन्मांक और जन्मचक्र तो बहुत विश्वास के बाद ही देते। किसी भी सूचना, किसी भी बात से वैरी व्यक्ति को नियंत्रित कर सकता था, हानि कर सकता था, विनाश कर सकता था।

फिर जब कैमरा आया तो एक नया आतंक छा गया। लोगों ने माना कि कैमरा व्यक्ति की आत्मा को खींचकर डब्बे में बंद कर लेता है। कोई भी फोटो नहीं खिंचवाना चाहता। सब कैमरा देखते ही भाग खड़े होते। लोगों को समझाने में पीढ़ियां लगीं। अब लोग सरलता से चित्र और दूसरी सूचनाएं देते हैं। ये जानते हुए भी कि चित्र और सूचनाओं का उपयोग अभी भी नियंत्रण के लिए हो रहा है।

हर आदमी के पास आज एक या एक से भी अधिक कैमरा है। शुद्धि, संयम, व्रत और प्रायश्चित लोगों ने भुला दिया। कुछ लोग कभी-कभी दबे स्वर में आत्मा की बात भी करते हैं। पर बड़े-बड़े कैमरे वाले जब स्वयं कैमरे के सामने आते हैं तो अपने अस्तित्व को लेकर घबरा जाते हैं, मैंने देखा है।

***

11 टिप्‍पणियां:

योगेन्द्र सिंह शेखावत ने कहा…

अंग्रेजों के टाईम से आज तक सरकारी मुख्यालयों का फोटू लेने से मनाही है, अंग्रेजों को डर था की ये कमीने दूर बैठे कुछ कर न दे, बन्दूक की भी एक रेंज होती है पर काले जादू की रेंज...| तो उनको तांत्रिकों से डर लगता था कहीं दफ्तर पर न कुछ करा दे | ;-)

और ऐसी बातें उजागर करके डराएंगे तो लगता है हमें सोशियल-नेट्वर्किंग से फोटू और सारा बियो-डाटा हटाना पड़ेगा | फोटो भी बड़ी डरावनी लगा दी है आपने | किसी ने मेरा पुतला बना दिया तो पता चला रात को ही मैं तो सोता का सोता ही रह गया |

बाल के रेशे की तरह, जिस कैमरे से फोटो ली है उसका बंटाधार समझो, उससे फोटो खींचकर, पीसी में गयी, पीसी से नेट पर, नेट से पता नहीं कहाँ-कहाँ |

Satish Chandra Satyarthi ने कहा…

छोटी और अच्छी पोस्ट... पर आपने लिखा आजकल हर किसी के पास कैमरा है.. सही में ऐसा है क्या? :)

Udan Tashtari ने कहा…

अस्तित्व की घबराहट तो कैमरे के सामने भी हो उठती है और आईने के सामने भी....

अभय तिवारी ने कहा…

सत्यार्थी जी, सबसे पास फोन तो है न.. फोन में कैमरा है.. (ग्रामीण क्षेत्रों के लिए आंशिक रूप से सत्य)

डॉ .अनुराग ने कहा…

आपका ये रूप मुझे बेहद पसंद है .

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

मन जीतने के लिये स्वयं ही ऊपर उठना होगा।

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

पहले कैमरा नहीं था। लेखक हुआ करता था। फिर कैमरा आया। लेखक मर गया। भूत बन गया। भूत को ब्लॉगर कहते हैं शायद!
(पोस्ट से डिसज्वाइण्ट टिप्पणी के लिये सॉरी! :) )

Patali-The-Village ने कहा…

छोटी और अच्छी पोस्ट|धन्यवाद|

मीनाक्षी ने कहा…

यहाँ अभी भी पुरानी मान्यताओं को मानते हुए तस्वीर खींचने और खिंचवाने की पूरी तरह से मनाही है..मेरी पड़ोसन के घर में उस नए जोड़े की एक भी तस्वीर नहीं है और शायद आगे भी न हो..यहाँ शायद पुरुष को अपने अस्तित्व पर खतरा दिखाई देता हो...

pallavi trivedi ने कहा…

कैमरा के सामने तो लगता ही है की दो आँखें घूर रही हैं... कैमरे के अलावा भी दो आँखों के घूरने का एहसास होता है! आत्मा पर खुदा का कैमरा लगा है शायद..

रंजना ने कहा…

बस मन डूब गया आपके शब्दों में....

इस प्रकार का चिंतन मुझे अतिशय प्रिय है...

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