मेरी समझ में नहीं आता कि ये किस तरह का उदारवाद है? जब तक फ़्रांस का निज़ाम एक समुदाय द्वारा उसकी औरतों पर धर्म की आड़ से उसकी आज़ादी में लगाई गई बन्दिश पर बन्दिश लगा रहा था, तो वे फ़्रांस के निज़ाम का विरोध कर रहे थे। लेकिन अब जबकि एक व्यक्ति ने अपनी निजी भावनाओं को एक सार्वजनिक मंच से व्यक्त करने की कोशिश की, और उसे निकाल बाहर किया गया, तो वे इस दमन की हिमायत कर रहे हैं? क्या अर्थ है इसका - धर्म की दमनकारी व्यवहार के लिए सारी आज़ादी और व्यक्ति की अभिव्यक्ति के लिए ज़रा नहीं?
हो सकता है बहुत सारे दोस्त इस मामले से परिचित न हों। लार्स वैन ट्रायर नाम का एक डैनिश निर्देशक है जो अपनी फ़िल्मों के कथ्य और शिल्प को लेकर लगातार चर्चा और विवादों के केन्द्र में बने रहते हैं। इस बार भी कैन्न फ़िल्मोत्सव में उनकी फ़िल्म ‘मेलनकोलिया’ ईनामों की होड़ में है। हुआ यह कि उन्होने फ़िल्म के प्रचार के लिए बुलाए एक संवाददाता सम्मेलन में अचानक कहा-
What can I say? I understand Hitler, but I think he did some wrong things, yes, absolutely. ... He's not what you would call a good guy, but I understand much about him, and I sympathize with him a little bit. But come on, I'm not for the Second World War, and I'm not against Jews.
इस 'मज़ाक़' की बुनियाद में एक बात और भी है - लार्स वौन ट्रायर ३४ बरस की उमर तक यह विश्वास करते रहे कि उनका जन्म एक यहूदी परम्परा में हुआ है। मगर मरने से पहले उनकी माँ ने उन्हे बताया कि असल में उनका बाप एक रोमन कैथोलिक जर्मन था और उस परिवार की जड़े नाज़ी विचारधारा में धंसी थी। इस बात ने वौन ट्रायर को काफ़ी हिला दिया और इसका असर उनकी बाद की फ़िल्मों में ज़बरदस्त तरह से हुआ है। और शायद अपने जीवन की इसी निजी त्रासदी को वो एक अस्फुट हास्य के आकार में व्यक्त करने की कोशिश कर रहे थे।
हिटलर बुरा था, उसने बुरा किया- यह तो कह ही रहे हैं वौन ट्रायर। लेकिन उसको समझने या उसके साथ हमदर्दी रखने की बात करना भी अपराध है? हमदर्दी का दायरा बेहद विस्तृत हो सकता है। और वो उसकी किस बात से हमदर्दी ज़ाहिर कर रहा है या सिर्फ़ मज़ाक़ कर रहा है, इसको पहले से कैसे तय किया जा सकता है? ये कैसी विचित्र बात है? आप कला और अभिव्यक्ति को ‘नैतिकता’ के दायरे में कैसे क़ैद कर सकते हैं? इतने सालों के उदारवाद की यात्रा सब बेकार है तब तो! आप क्या उम्मीद करते हैं कलाकार से? वो वही बोले और दिखाए जो राजनैतिक शुचिता पर खरा उतरता हो? यह दमनकारी समाजों से किस तरह से भिन्न है? मैं इसे कट्टरता ही कहूँगा- उदारता की कट्टरता। और ये बुरक़े वाले प्रकरण से अलग नहीं है। बुरक़े वाले सवाल पर फिर भी मैं धर्म की कट्टरता के बदले 'उदारता की कट्टरता' के पक्ष में खड़ा होने का तैयार हूँ। मगर इस मामले में तो नहीं।
हिटलर ने राजनीति की धुरी यह थी कि उसने जर्मनों का आह्वान किया कि अपने भीतर की सारी नफ़रत यहूदियो पर आरोपित कर दो- समाज में, दुनिया में जो कुछ बुरा है उसके लिए यहूदी ज़िम्मेदार हैं। यहूदी मायने बुराईयों का जीवंत पुतला। हिटलर के मरने के बाद पश्चिमी समाज ने वही काम हिटलर के साथ कर दिया। हिटलर माने- बुराईयों का पुतला। आज की तारीख़ में उसके भीतर मानवता के किसी अंश की भी कल्पना करना धर्मद्रोह है, उसको समझने की कोशिश पाप है, उसके साथ हमदर्दी हराम है। इसीलिए लार्स वौन ट्रायर के छोटे से मज़ाक़ (असल में उसकी निजी त्रासदी) को बरदाशत ही नहीं कर सके वे लोग। दुखद है कि उसकी माफ़ी के बाद भी उसे माफ़ नहीं कर सके।
अफ़सोस है कि मेरे कई निहायत उदारवादी मित्र भी लार्स की इस अभिव्यक्ति पर उसे गरिया रहे हैं। शायद आदमी कभी नहीं बदलेगा। कितनी भी उच्च नैतिकता के कपड़े पहन ले। अपनी आंतरिक जड़ वृत्तियों से इतनी आसानी से छुटकारा नहीं मिलने वाला उसे।
8 टिप्पणियां:
मुझे इस लेख के बारे में कुछ खास नहीं कहना है कि ये मुझे पसंद है. खूबी क्या है पाता नहीं मगर जब कोई इंसान दोनों पट खोल कर मिलता बोलता है तो सुहाता है. पंथ की पैरोकारी की जगह अपने जायज सवालों के जरिये बात करता है तो बड़ा निर्मल लगता है. अपने आप को संवारने के लिए लिखता, पढता और गढ़ता है उसके पास बैठने में सुख है.
मुझे बुद्ध का वह दुखियारा पसंद है जो तथ्यगत बात को सम्मानजनक तरीके से प्रस्तुत करता है. जिसकी अपनी आस्थाएं जीवन आरोहण से संचित ज्ञान से हो न कि किसी उन्माद के चरम सुख से अभिप्रेरित. धर्म के प्रति किसी आग्रह के बिना अपने धारण किये हुए को टटोलते रहना श्रेयस्कर है.
यही निर्मल आनंद है. इसी की चाह में मन दौड़ा आता है.
भाई आप की यह टिप्पणी तो तमगे की तरह है! बहुत शुक्रिया!!
अपनी अपनी प्रकृति है, अपना अपना चाव।
ठीक है इसको दोनों के साथ देखना चाहूँगा :
"पश्चिमी समाज ने वही काम हिटलर के साथ कर दिया | हिटलर माने- बुराईयों का पुतला।"
की जगह
"भारतीय समाज (खासकर मुस्लिम समाज) ने वही काम मोदी के साथ कर दिया | नरेन्द्र मोदी माने- बुराईयों का पुतला |"
कर देता हूँ
तो क्या आज की तारीख़ में आप उस (नरेन्द्र मोदी और जिसे हिटलर के बराबर का दुर्दांत तो निश्चित ही नहीं ठहराया जा सकता) के भीतर मानवता के किसी अंश की भी कल्पना करना धर्मद्रोह वाकई में नहीं समझते ?
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"दुखद है कि उसकी माफ़ी के बाद भी उसे माफ़ नहीं कर सके।"
और क्या मोदी (दुसरे मायने में यहाँ भी मोदी और ट्रायर बराबर नहीं हैं) यदि माफ़ी मांग लें तो आपके हिसाब से हमें उसे माफ़ कर देना चाहिए ?
क्योंकि
"कितनी भी उच्च नैतिकता के कपड़े पहन ले। अपनी आंतरिक जड़ वृत्तियों से इतनी आसानी से छुटकारा नहीं मिलने वाला उसे।"
की जगह
मतलब कि और तो और जब आज की तारीख में कईओं ने उनका endorsement भी किया हैं, तारीफ के कथन किये हैं जो मोदी को अपराध-बोध से मुक्त करने में मदद करते हों और हमें एहसास कराते हों कि मोदी भी अब अच्छे हैं |
और यदि माफ़ी न भी मांगी हो तो इस एवज में कि ना तो उनका अपराध हिटलर के बराबर है ना ही वो ट्रायर से किसी मायने में कम हैं राज्य कि भलाई करने में, हमें भी उनकी बुराईयां अब भुला देनी चाहिए ?
चाहे कोई कितना भी विकसित हो जाय, अपने आप को उदारवाद का ठेकेदार माने, लेकिन जब इतिहास के दुखती रग को कहीं ठेस पहुंचती है तो वह ठीक उसी तरह का व्यवहार करता है जैसा कि फ्रांस ने किया....यह एक स्वभावगत तत्व है और इसे नकारा नहीं जा सकता। फिर यह तो अभी अभी कुछ दशकों पहले की ही ठेस है, हो सकता है फ्रांस को आगे कहीं जाकर इसका भान हो और अपने फैसले पर पुनर्विचार करे।
अच्छा होता यदि कैन्न में मानवीय तत्वों के प्रति कट्टरता दिखलायी जाती, न कि फ़्राँसिसी सोच द्वारा गढ़ी मान्याताओं के प्रति ।
ब्लॉगर पर ऎसा विचारोत्तेजक आलेख देख कर चकित हूँ.. साथ ही किशोर चौधरी की टिप्पणी में निहित दर्शन को गुन कर अभिभूत भी.. बधाई हो आप दोनों को !
लार्स वैन ट्रायर के बयान पर प्रतिक्रिया के बाद मुझे फ्रांस से हमदर्दी शुरू हो गयी है :)
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