अचरज और पाखी के पैदा होने के पहले ही शांति ने अपने बच्चों के बारे में तमाम कल्पनाएं कर रखीं थीं। और अपने बच्चों को वो क्या सिखाएगी और क्या बनाएगी, इसकी एक मोटी रूपरेखा भी उसके और अजय के ज़ेहन में थी। हालांकि बच्चों के जन्मने के बाद से उसकी काल्पनिक रूपरेखा में काफ़ी बदलाव भी आया। उसने सोचा था कि वो पाखी को संगीत ज़रूर सिखाएगी ताकि वो उसकी नानी की तरह सुरीला गा सके। हालांकि पाखी का गला अच्छा है मगर उसे संगीत में दिलचस्पी ही नहीं। उंगलियों को कीपैड पर बार-बार दबाने से जो संगीत पैदा होता है आजकल उसी से पाखी का जीवन संचालित होता है। अचरज के लिए उसने सोचा था कि वो अपने दादा की तरह अकैडमिक्स में जाए। जब अचरज पुरानी धोतियों की लंगोटियाँ ही पहन रहा था, तभी अजय और शांति ने उसकी भविष्य की छवि में मोटे चश्मे और सुलगते पाइप के तत्व जोड़ने शुरु कर दिए थे। अभी तक जो रंग दिखाई दिए हैं उससे तो उस छवि के साथ न्याय होने के कोई आसार नहीं दिखते। बचपन से ही शांति ने अचरज को दादा जी के बहुत कहानियां सुनाई, महापुरुषों की प्रेरक कथाएं बताईं, अमर चित्र कथाएं भी दिखाईं। मगर अचरज के नायक दादाजी नहीं ही बन सके! पितृलोक या स्वर्गलोक या देवलोक, दादाजी जहाँ भी हैं, वहाँ से अचरज के हृदय में स्थित महानायक के आसन पर शिनचैन को बैठे देख उन्हे कैसा लगता होगा, कभी-कभी ऐसा सोचकर शांति मायूस भी हो जाती है। और नानी बेचारी अपनी नातिन को किशोरी अमोनकर के बदले हैना मोनटाना के नक़्शे क़दम पर चलते हुए देख किस करुणराग में आलाप लेतीं, यह कल्पना करके ही शांति सिहर उठती है? ये बात शांति की समझ के बाहर बनी हुई है कि आखिर क्या कारण है कि उसके अपने बच्चे उसकी बात कम और टीवी के आभासी चरित्रों की बात को अधिक तवज्जो देते हैं?
जब दफ़्तर से घर वापस आई तो शांति ने अचरज को घर के अन्दर कहीं नहीं पाया। फिर बालकनी में देखा। अचरज वहीं था। अपने कंधों पर एक चादर को डैनों के आकार में बदलने की कोशिश में व्यस्त। उसके इरादों की तफ़्तीश करने पर पता चला कि नन्हा अचरज दूसरी मंज़िल से धरातल तक का सफ़र उड़ कर करना चाहते हैं। वो ‘उड़’ ही गए होते मगर चादर को डैनों में बदलने की कोई तरकीब मिलने के पहले ही शांति ने दृश्य में प्रवेश कर लिया। शांति ने जब अपना डर बच्चे को बताया तो बच्चे ने समझाया - “डर के आगे जीत है!” यह सुनकर शांति जो आम तौर पर अपने को साहसी और निडर मानती है, सचमुच डर गई।
मन तो किया कि दो तमाचे मारे अचरज के, मगर तमाचे की धमकी से काम चलाया। अचरज ने तीन-चार मिनट तक हाथ-पैर फेंके और स्वर-साधना की। शांति ने उस प्रलाप को सुनते हुए अचरज का खाना गरम किया और थाली उसके सामने पटकते हुए आदेश दिया- खाओ! अचरज ने अपनी बाहें सीने पर बांधी और इन्कार में सर हिला दिया। तो जो रोज़ होता है वो हुआ। टीवी चालू हुआ और उसके आगे खाना चालू हुआ। अचरज को मुँह खोलकर भोजन ग्रहण करते और मन खोलकर टीवी की संस्कृति ग्रहण करते हुए अचानक शांति को महाबोध हुआ- कोई भी सबसे अधिक ग्रहणशील खाना खाते समय ही होता है। उस समय उससे जो भी बातें हो उनका प्रभाव मन पर सबसे गहरा होगा। शांति को याद आया कि इसीलिए प्राचीन दुनिया के परिवार खाते समय एक साथ बैठना चाहते थे ताकि उनके बीच एक प्रभावी सम्बन्ध क़ायम हो। और जो लोग किसी दूसरे के प्रभाव से बचना चाहते हैं वो अपने खाने को छिपा कर अकेले खाना बेहतर समझते रहे। इसीलिए युवा प्रेम की सबसे अधिक सम्भावना एक रूमानी डिनर के बाद ही बनती हैं। शांति के मस्तिष्क में एक के बाद एक कई बल्ब तड़तड़ा कर जल उठे! और उनकी रौशनी में जब उसने अपने दिल के टुकड़े को टीवी के आगे लगभग मंत्रबद्ध नज़र टिकाए और बेख़याली में कौर मुँह में डालते देखा तो उसके भीतर एक तरंग उठी, फिर वो सशरीर उठी और उसने सीधे टीवी का प्लग ही सौकेट से बाहर कर दिया। आज से खाते समय टीवी बंद!
बाक़ी का खाना शांति ने अचरज को अपने हाथों से जबरन खिलाया। अचरज ने टीवी देखने के लिए अपने स्वर यंत्र से शांति पर शोर के बार-बार हमले किए। बचाव में शांति ने टीवी न चलाने की अपनी दलीलें बिछाई। मगर अचरज की बुद्धि उनकी पकड़ में नहीं आई। उनमें से एक भी दलील इतनी तार्किक नहीं बन पाई जो टीवी के लिए उसके स्वाभाविक आकर्षण को कम कर देती। फिर अचरज ने खाने पर निशाना साधा। फ़रमाया कि उसे दाल और सब्ज़ी बिलकुल पसन्द नहीं। जबकि बर्गर और पिज़्ज़ा वो रोज़ खाने को तैयार है। शांति ने ऐसी अप्रिय बात और सुनने के बदले अचरज के मुँह में एक के बदले दूसरा कौर डालते रहना अधिक उचित समझा। बोलने की ज़िम्मेदारी स्वयं सम्हाली और आदरणीय दादा जी की स्मृति को अचरज की कल्पना में आरोपित करने लगी। अचरज के पास कान बंद कर लेने का कोई विकल्प नहीं था।
पहले पाखी ने आके पूछा। फिर सासू माँ ने और सबसे आख़िर में अजय ने। सबकी एक ही चाहत थी, एक ही ज़रूरत थी। टीवी का सानिध्य। शांति का फ़ैसला सबने दिल कड़ा कर के सुना।
‘घर में टीवी की राशनिंग होगी। और खाना सब साथ में खायेंगे और वो भी बिना टीवी के’।
सासू माँ ने कोई प्रतिवाद नहीं किया। अजय ने भी मौक़ेकी नज़ाकत को दूर से ही भाँपा, सर झुकाया और खाने पर ध्यान लगाया। पाखी ने खाने की प्लेट को मेज़ पर पटका, मुँह बनाया, टसुए बहाए, और पैर पटकते हुए अपने कमरे में बंद हो गई। अगली शाम सासू माँ ने प्लेट उठाई और धीरे से अपने कमरे में सरक गईं- अपने पर्सनल टीवी की सेवालाभ लेने। तीसरी शाम से पाखी को खाने की मेज़ पर बनाए रखने के लिए उसके मेसेजिंग पर शांति ने एतराज़ करना बंद कर दिया। हमेशा की ही तरह हर शाम अजय के औफ़िस से कोई फोन आता रहा और अजय एक हाथ से दाल-भात खाता रहा और दूसरे से फोन पर बतियाता रहा। खाने की मेज़ पर परिवार को एक साथ इकट्ठा करने की शांति की कोशिशों पर लगातार पानी पड़ता रहा। पर शांति और किसी की परवाह न कर सिर्फ़ अचरज पर केन्द्रित रही। एक के बाद एक कौर उसके मुँह में डालती रही और उसे हिन्दी की कहानियाँ सुनाती रही। और पांचवी शाम अचरज ने बोल ही दिया, ‘मम्मी, मुझे हिन्दी बिलकुल अच्छी नहीं लगती..’
और तब शांति के मस्तिष्क में एक और बल्ब जला और उस उजाले में उसे दिखाई दिया कि उसकी घरेलू दुनिया पर उसका अपना नियंत्रण कितना कम और समाज का नियंत्रण कितना अधिक है। उस बल्ब के उजाले में शांति देर रात तक उदास बैठी रही।
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(छै मार्च को दैनिक भास्कर में छपी)