शनिवार, 12 सितंबर 2009

ई रजा कासी हॅ ! – ३

मुख्य मन्दिर से बाहर निकला तो कोई ऊँचे स्वर में कुछ गा रहा था। गेरुए कुर्ते और लुंगी में, गले में तुलसी की पत्तियों की माला डाले, माथे पर चन्दन, तीन दिन की दाढ़ी और दाँत लम्बे समय तक पान चर्वन से काले हो चुके। वो गा रहा था ऊँचे प्रभावशाली स्वर में लिंगाष्टक। उसकी वाणी में ओज, श्रद्धा और भक्ति का अद्भुत मिश्रण था। लिंगाष्टक गाते-गाते ही उसके गिर्द एक छोटी भीड़ इकठ्ठा हो गई। पहले से ही उसकी प्रतिभा से परिचित कुछ लोगों ने अनुनय किया कि बहुत दिन हुए उनके स्वर में रावण कृत शिव स्तोत्र सुने हुए। थोड़े मनव्वुअल के बाद वो गाने लगे। और उनकी वाणी में मुझे असली ईश्वरत्व के आभास होने लगे। मन्दिर के भीतर चालू पूरे ठग-विसर्ग में एक वही अकेले धर्म-प्राण मुझे नज़र आए। पत्थर के मन्दिर और पण्डो के बीच एक जीवित भाव बस वही थे।

बाहर जाने से पहले ज्ञानवापी मस्जिद की ओर निकल गया। मन्दिर और मस्जिद के बीच एक अस्थायी प्रांगण है जिसके बीच में एक कुँआ है। भीतर झांकने पर दिखा कि कुँए के मुँह पर चादर पड़ी है और उसके ऊपर फूलमाला का एक लिंग बना दिया गया है। एक साथी भक्त ने बताया कि जब औरंगज़ेब मन्दिर तुड़वाने लगा तो शंकर भगवान इसी कुँए में कूद गए- प्राचीन मन्दिर के लिंग को कुँए में फेंक दिया गया इस तथ्य को बताने का ये शायद एक मिथकीय रूप था। कुँए के पास कुछ पण्डे भक्तो को जेब ढीली करने के लिए प्रेरित कर रहे थे। उनसे बचने के लिए मैं दूर हट गया और कुँए के पीछे मस्जिद की ओर मुख करके बैठे सुन्दर नन्दी से आकर्षित हो गया। नन्दी के पास एक बीस-बाईस बरस का युवक पण्डा विराजमान था। उसके इकहरे बदन और चेहरे की युवा मृदुलता ने मुझे कुछ आश्वस्त रखा।

पास पहुँचते ही उसने बोलना शुरु कर दिया, मस्जिद की ओर इशारा करते हुए, “ये पुराना मन्दिर है। मन्दिर में इक्कीस फ़ुट का लिंग था। शुद्ध पन्ने का, जो दिन में घटता और रात को बढ़ता था। औरंगज़ेब ने मन्दिर तोड़ दिया। १६६५ में। जब नन्दी तोड़ने लगे तो उसमें से भौरें निकल कर मुसलमानों को काटने लगे। इसलिए नन्दी बच गए। यह नन्दी तब नौ फ़ुट के थे, फिर पाँच फ़ुट के रह गए थे, अब छै फ़ुट के हो गए हैं। विश्वनाथ जी के अभाव में काशी में धर्म को नन्दी जी और गंगा जी ने बचाए रखा”।

उसकी बातें दिलचस्प मालूम दे रही थीं। लिंग का घटना-बढ़ना तो तब भी समझा जा सकता है मगर नन्दी क्यों घट-बढ़ गए हैं? क्या वे धर्म रूपी वृषभ यही नन्दी हैं? मुझे अधिक सोचने का अवसर दिए बिना युवा पण्डा बोलता रहा। “फिर १०० साल बाद अहल्या बाई होलकर को सपना आया। तो उनकी गोद में तीन शिव लिंग प्रगट हुए, एक को सोमनाथ में, दूसरे को उज्जैन के ओंकारेश्वर, और तीसरे को काशी के विश्वनाथ मन्दिर में स्थापित किया गया। तुलसी दास जी ने यहीं बैठ कर, और अस्सी पर बैठ कर रामचरितमानस लिखी। तुलसीदास जी रोज़ नन्दी को लड्डू खिलाते थे। ढाई सौ मन लड्डू खिलाया। बाएं हाथ के ऊपर दहिना हाथ रखकर इनका गोड़ पूजने से तीन फल की प्राप्ति होती है। भक्ति, ज्ञान और मोक्ष। गोड़ पकड़ कर आशीर्वाद लीजिये!”

इतने सुदर्शन नन्दी के गोड़ पकड़ने का उपक्रम करने में मुझे कोई आपत्ति नहीं थी। गोड़ पकड़ने के लिए मेरा शरीर कमर से झुक गया। पण्डे ने बतलाया कि मैंने उलटा हाथ नीचे रखा है। मैंने हाथ उलट लिए। मैं झुका हुआ था। फिर उसने मेरे सर के ऊपर अपना हाथ रख कर हलके से दबा दिया। अब मैं पूरी तरह से उसके वश में था, समर्पण कर चुका था। कहानी सुनने के लालच ने मुझे असावधान कर दिया था। अब वो टूटी-फूटी संस्कृत में कुछ वाक्यांश बोल कर मुझे दुहराने का आदेश दे रहा था।

मेरी स्थिति आपत्ति करने वाली नहीं थी। शरीर कमर से झुका हुआ था, सर नन्दी के पैरों में था, दोनों हाथ सर के नीचे दबे थे, और पण्डे का हाथ मेरे सर को दबा रहा था। स्वयं को इतनी दबी हुई स्थिति में मैंने कभी नहीं पाया। कोई टंटा खड़ा करने की कोई मंशा न होने से मैंने बेमन से हलकी आवाज़ में उसके आधी-संस्कृत आधी हिन्दी के वाक्यों को दुहरा दिया। इस अस्फुट अपभ्रंश मंत्रोच्चार के बीच उसने मुझसे मेरे पिता, पत्नी और अन्य सम्बन्धियों की जानकारी लेनी शुरु कर दी। ये जानकर कि मेरे कोई सन्तान नहीं है और ये मानकर कि वो मेरी दुखती रग़ होगी, वो मुझसे पुत्रकामना के लिए संकल्प कराने लगा। बताने लगा कि ये वह विशेष स्थान है जहाँ दोये सौ रुपये में गौदान हो जाता है।

रुपये पैसे की बात सुनकर मेरे मस्तक के हथियार जाग गए। रुपये का चला जाना स्वीकार है, रुपया क्या है हाथ का मैल है, मगर किसी धूर्त पण्डे द्वारा ठग लिए जाना स्वीकार नहीं है। अपने अस्वीकार को मैंने मस्तक में मज़बूत किया और ज़ोर लगा कर अपने सर को ऊपर की ओर धकेला और उसके हाथों के दबाव से आज़ाद किया। मैंने उसे बताया कि मुझे न तो कोई पुत्रकामना है और न ही कोई संकल्प करना है। उसे नमस्कार कर के मैं उस के पाश से दूर चलने लगा। वह नरम हो कर पुकारने लगा कि खाली हाथ नहीं जाते हैं, कुछ चढा के जाते हैं। लेकिन लेकिन मैं रुका नहीं, खाली हाथ झुलाते हुए निकल आया।

इस तरह के संकल्प कराने वाले पण्डे मन्दिर के हर कोने में मौजूद रहते हैं। मैंने देखा है कि उनकी भाषा एक जादूगर की भाषा सी होती है। दोनों लोग का सम्मोहन इस बात पर निर्भर करता है कि आप उनके सामने कितना समर्पण करते हैं। इसलिए वो शुरुआत किसी बेहद मामूली आदेश से करते है। बाज़ीगर कहते हैं- हाथ की मुठ्ठियां खोल दें! बच्चों बजाओ ताली! पण्डे कहते हैं –फूल दहिने हाथ में लें लें! हाथ के ऊपर सर रखकर गोड़ पकड़ लें! एक बार आदेश मान लिया तो मस्तक समर्पण की स्थिति में चला जाता है। तब तक, जब तक कि आप सचेत रूप से विद्रोह की मुद्रा न पकड़ें।

(बनारस यात्रा के दौरान लिखी डायरी से)

14 टिप्‍पणियां:

L.Goswami ने कहा…

मेरा हाल यह होता है की मेरे पति/परिवार वाले मंदिर के अन्दर जाते हैं मैं बाहर ही रुक जाती हूँ ..सिर्फ प्रतिमा देखने के उद्देश्य से ही मंदिर के भीतर जाना हुआ है. मैं कितना भी रोक लूँ बहुत ज्यादा नही पर कुछ तो दे ही देते हैं वे लोग. बड़ी कोफ्त होती है.

सतीश पंचम ने कहा…

मुझे भी एकाध बार यह अनुभव हो चुका है। मुंबादेवी मंदिर में जाने पर सबसे पहले तो कई तिलकहरू लोग मिलेंगे, एक हाथ में तिलक लगाने के लिये छोटी सी सींक लिये रहेंगे और दूसरे हाथ में एक छोटी सी बोतल जिसमें टीका वगैरह का लेप रखा रहेगा। जिस हाथ में बोतल होगी उस हांथ की बांह पर लाल पीले धागे लटकाये रहेंगे और जैसे ही कोई मिला कि लगेंगे उसके माथे पर तिलक लगाने और रक्क्षा आदि बांधने।

न न करके भी ऐसे पंडे तिलक लगा देंगे और मजबूरी में एक दो रूपये देकर छुटकारा पाना ठीक लगता है। एक दिन दोपहर के करीब मुंबादेवी दर्शन करने गया था। एक पंडे ने जबरदस्ती तिलक लगा दिया। मेरे पास छुट्टा नहीं था एक रूपये का, इसलिये पांच का सिक्का ही टिकाते चला....तब तक पीछे से आकर वही पंडा मेरे कंधे पर हाथ रख बोला...पांच से नहीं चलेगा ...दोपहर का टाईम है अब तो भोजन होगा....।

मेरी खोपडी सनक गई। लगभग मुँह में आई गाली की जुगाली करते कहा....लेई क होई त ल सरउ...न द वापस ...चुतिया नाहीं त....

इतना सुनते ही पंडे को शायद शंका हुई कि लगता है गलत भक्त से पाला पडा है। बिना एक शब्द बोले वह पंडा वहां से निकल लिया । बगल में गन्ने के जूस वाला खडा था...वह लगा हंसने।

मैं भी थोडी हंसी और खिन्न भाव से चल दिया :)

आपकी पोस्ट तो मुझे मेरी उस घटना की याद दिला गई।

Meenu Khare ने कहा…

अभय जी बहुत बढ़िया भाषा शैली में लिखा गया यात्रा-वृत्तांत पसन्द आया. आपकी शैली की रोचकता और प्रवाह ने विशेष आकर्षित किया.

शुभकामनाएँ.

--
मीनू खरे

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

भाई,एक पुजारी का पौत्र हूँ। तो इन सब चीजों को समझता हूँ। वहाँ पण्डे का धंधा करने का उन लोगों को कोई शौक नहीं है। उस में कोई बहुत अधिक कमाई नहीं है। वे जानते हैं कि बिना कुछ करे-धरे अपने यजमान को मिथ्या दिलासाएँ दे कर जो कुछ वे बनाते हैं उस में कोई सम्मान भी नहीं है। लेकिन जैसी उन की स्थितियाँ हैं, जैसी देश में बेरोजगारी है। बहुत से लोग कुछ संस्कृत के श्लोक कंठस्थ कर इस लूट की रोजी के अंग बन गए हैं। उन की दशा वेश्याओं से अधिक नहीं। बस यह है कि वेश्याओं के उद्धार की तो बात भी की जाती है इन के उद्धार की नहीं। न जाने कब देश को बेरोजगारी से निजात मिलेगी।

अभय तिवारी ने कहा…

दिनेश राय द्विवेदी @
आप की बात उचित है दिनेश भाई..
कल की पोस्ट पर जो आपने बनारस की आत्मा का थोड़ा-थोड़ा अंश पूरे हिन्दुस्तान के हर गांव-कस्बे और नगर में मिलने की बात कही थी वो भी एकदम सटीक थी..

चंद्रभूषण ने कहा…

लेई क होई त ल सरउ...न द वापस ...चुतिया नाहीं त....

- क्या बात है सतीश जी। टिप्पणी भी अभय बाबू के लेख जैसी ही दुरुस्त।

Arvind Mishra ने कहा…

हा हा हा बच गए बाबू ! सर झुकाते ही सोच लेना था यह -गरीब ब्राह्मण का मंत्रोच्चार व्यर्थ कराया ! हाँ बिना फीस दिए कुछ इतिहास पुराण मुफ़्तै झटक लिए !
और हाँ शिव तांडव स्रोत सुनने का दक्षिणा दिया या नहीं -ये मार्क्सवादी क्या इतना अनुदार होते हैं ? हा हा
जटाटवी गलज्ज लप्प प्रवाह पावित्स्थ्ले
गले वलम्ब्यलम्बितां भुजंग तुंग मालिकाम
..................
चलिए जीवन सार्थक हो गया !
मैं पूरा खुद सुनाऊंगा जब अगली बार आप काशी पधारेगें !

Yogendra Singh Shekhawat ने कहा…

ऐसे लेख ही तो पढने आते हैं, आपको ये शैली सूट करती है | गुरु वाले से ज्यादा अच्छा लेख मुझे यही लगा |

Classes4English ने कहा…

दिनेश जी की बात से सहमत हूँ, ऐसे पण्डे-पुजारियों पर क्रोध करने के बजाय इनसे सहानुभूति रखनी चाहिए...इनकी धूर्तता के पीछे और कुछ नहीं, सिर्फ बेरोज़गारी और लाचारी ही है...तकलीफ तब होती है जब लज्जित होने की जगह इनके पेशे को महिमा-मंडित किया जाता है...

Classes4English ने कहा…

दिनेश जी की बात से सहमत हूँ, ऐसे पण्डे-पुजारियों पर क्रोध करने के बजाय इनसे सहानुभूति रखनी चाहिए...इनकी धूर्तता के पीछे और कुछ नहीं, सिर्फ बेरोज़गारी और लाचारी ही है...तकलीफ तब होती है जब लज्जित होने की जगह इनके पेशे को महिमा-मंडित किया जाता है...

विवेक रस्तोगी ने कहा…

पंडितों को जादूगरी की भाषा आती है वाकई ये सब मैंने उज्जैन में महसूस किया है।

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने कहा…

बनारस की ही तरह विन्ध्याचल में भी पण्डों का सामना करना पड़ता है। वहाँ का हर परिवार माँ विन्ध्यवासिनी का दिया ही खा रहा है। उनके बीच यजमान पर कब्जा जमाने की ऐसी होड़ लगी रहती है कि स्थिति शर्मनाक हद तक पहुँच जाती है। उनकी कारगुजारियाँ भक्तिभाव को तिरोहित कर देती हैं।

सरकार को पण्डों के पुनर्वास की योजना बनानी चाहिए। लेकिन इसमें शायद वे खुद बाधक बन जाएं।

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' ने कहा…

आप ने तो मात्र यात्रा-विवरण लिखा है...मैं तो यहीं रहता ही हूँ.....ये कईयों की मजबूरी भी है....
सारगर्भित प्रस्तुति....बहुत बहुत बधाई...

अनूप शुक्ल ने कहा…

ये भी पढ़ लिया और आनन्दित हुये।

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