ब्लॉग की दुनिया में हम लिखने वाले ही एक दूसरे के पाठक भी हैं.. जो हाल कमोबेश हिन्दी साहित्य का भी है.. भाई बोधिसत्व हिन्दी के प्रतिष्टित कवि हैं.. मेरा उनको पढ़ना स्वाभाविक है.. पर वो मेरे एक नियमित पाठक हैं..और वो ही नहीं उनकी पत्नी आभा भी मेरी नियमित पाठक हैं.. वे खुद एक ब्लॉग खोल कर अपने लेखन को पुनर्जीवित करना चाहती हैं.. मैं और बोधि उनका उत्साहवर्धन करते ही रहते हैं.. मित्रों से निवेदन है कि आप भी देखें उनके ब्लॉग अपना घर को और उनके हौसले को बढा़एं..
कल आभा ने मेरे काव्य-लेखन के बारे में जिज्ञासा ज़ाहिर की.. यूँ तो मैंने इस ब्लॉग का बिस्मिल्लाह एक कविता से ही किया था.. पर काव्य मैं वैसे ही लिखता बहुत कम हूँ.. आजकल तो बिलकुल ही नहीं.. और जो पहले का लिखा है उसे लेकर हमेशा बहुत शर्मसार रहा हूँ.. मुझे वह बहुत ही दो कौड़ी का लगता रहा है.. मगर आज 'क्या लिखूँ' की दुविधा से बचने के लिए, और आभा के आग्रह का मान रखते हुए.. ये छाप रहा हूँ.. आप की गालियों का स्वागत है..
न मतला है.. न मक़ता है.. न रदीफ़, न क़ाफ़िया.. मीटर भी नहीं.. बस कुछ छुट्टे शेर समझें..
खुद को बेचकर मैंने भी क्या-क्या खरीदा है।
मुझ से अब मक़सद मेरा, इस बाज़ार में पोशीदा है॥(छिपा हुआ)
सबके लिए रात का, शहर में अलग एक वक्त है।
नींद कम है और चैन आता नहीं, कमबख्त है॥
शराब-शबाब सब है और नंगे खड़े हैं हम्माम में।
नश्शा नदारद मगर, और ईमान सर उठाता है॥
खूबसूरत कपड़े उतारने को, तैयार है सब लड़कियाँ।
मगर दिल अपना देखो कहाँ उलझा जाता है॥
साँस अटकती है, टूटती है फिर भी नहीं छूटती है।
आदमी मरता बाद में है, बहुत पहले मारा जाता है॥
छुटपन से जवानी तक, जिन्हे पोसा-पाला था।
आँसू नहीं ये सपने हैं, जलने का धुँआ आता है॥
रात है बस शहर में, सूरज उगता है न डूबता है।
और चाँद भी गोवा- गंगटोक में नज़र आता है॥
16 टिप्पणियां:
वाह वाह
इंसानों की बस्ती में शेरों को छुट्टा मत छोड़िए। बड़ा खतरा है। अपना घर से परिचित कराने के लिए शुक्रिया।
वाह जी समीर भाइ सभंलो..ये अभय जी मीटर् लेकर आ रहे है..:)और इसी तरन्नुम मे हम भी कुछ लाईने ठेल रहे है..:0
वाह ! वाह ! वाह !
अपना घर के उजाले सही हैं.. शेरों की अकुलाहट सही है..
आभा जी के बारे में जानकारी देने के लिए धन्यवाद। अपनी रचनाओं से भी मिलवाने के लिए धन्यवाद ।
मुझे यह विशेष पसन्द आया ...
छुटपन से जवानी तक, जिन्हे पोसा-पाला था।
आँसू नहीं ये सपने हैं, जलने का धुँआ आता है॥
घुघूती बासूती
बहुत सुंदर। वाह....मुंबई की देन।
आपके छुट्टे शेर अच्छे हैं। और आप के शेरों की नजर करता हूँ अपना एक छुट्टा शेर, यानी मेरा अपना कहा है, इलाहाबाद के दिनों का एक दम मौलिक और अब तक अप्रकाशित -
मैं हूँ उजड़ा घर जहाँ रहने को न राजी कोई
हवाओं के दस्तक से दरवाजे हिला करते हैं।
अपना घर की आवाज अब लोगों तक पहुँचेगी
आपने लोगों से मेरा और अपना घर का परिचय कराया। इस बात को लेकर मैं बहुत खुश हूँ और आपकी आभारी हूँ।
आपके पुराने शेर अच्छे हैं । लिखते रहे और हम पाठकों के लिए छापते रहें।
neend kam hai, chain bhee kambakht hai!
blog likhne ka munaasib waqt hai!!
अरे जनाब शायर अभय साहेब
छुट्टे काहे के. पूरी खरे खरे नोट हैं.
वाह वाह!! जरा इन्हें गाकर पॉड कास्ट का भी इंतजाम करें. युनूस भाई मदद कर ही देंगे. :)
कभी इसी टोन पर कुछ लिखा था-जोड़ बना लिजिये, छुट्टा यह है:
परछाई से अपनी, घबरा गया हूँ
लगे है कि घर से, दूर आ गया हूँ.
हम ढ़ूँढ़ने गये थे कुछ छूटी हुई बस्तियाँ
फ़िर आ गये ये गम, ये खवाब बिखरा जाता है
वाह अभय भाई ,
आप लिखा करिये ..
आप ये छोटे से शेर लिखकर ,
बहुत सी बातेँ कह जाते हैँ...
--लावण्या
जे अच्छा है । दुनिया में शेर कम हो रहे हैं । अच्छे शेर ।
चलिये हम शेरों को बचाएं ।
अरे! शेर तो छुट्टे ही ठीक . पालतू शेर किस काम के .
शब्दों के पीछे की बेचैनी हम तक पहुंचती है .
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