यूँ तो बाज़ार आपके बेडरूम तक बढ़ आया है। आप टीवी खोलते हैं, बाज़ार खुल जाता है। आप अखबार उठाते हैं ,बाज़ार हाथ आता है। आप खाने के लिए कुछ भी मुँह में डालते हैं, बाज़ार गले में अटक जाता है। आप अपने अस्तित्व की हदों को तोड़ कर कहीं खुले में साँस लेना चाहते हैं। मगर जगह कहाँ है? काफ़ी सारे लोग भूल भी जाते हैं ये साँस लेना, और अपने घर की बंद हवा में घुट-घुट कर मर जाते हैं।
कल तक जो स्थान मुम्बई के नक्शों पर दलदल(मार्श) के बतौर चिह्नित थे, आज वहाँ नए जगमगाते नगर उग आए हैं। इसे आप ‘प्रगति’ नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे? उन दलदलों में पल रहे पर्यावरण के लिए बेहद ज़रूरी मैन्ग्रोव नष्ट हो जाने के अलावा एक और पहलू है इस ‘प्रगति’ का। दुर्भाग्य से शहर में आ चुकी और आने वाली बाढ़ में इस ‘प्रगति’ की बड़ी भूमिका है।
करोडो़- करोड़ो गैलन पानी जो पहले के सालों में धरती पर गिर कर कुछ धरती के भीतर और बाकी नालियों-सड़कों आदि से होकर आस-पास के दलदल में चला जाता था। अब शहर की अधिकतर धरातल के सीमेंट से बंद हो जाने के कारण पानी के धरती के भीतर जाने का रास्ता बंद हो चुका है। दलदलों पर नए ‘प्रगति’ नगर बसा दिए गए हैं। पानी के निकलने का एकमात्र रास्ता सौ-डेढ़ सौ बरस पुरानी नालियाँ हैं। जो इतना पानी वहन करने में समर्थ नहीं। आने वाले दिनों में यह हाल हर बड़े शहर का होने वाला है। पीने का पानी नहीं होगा, मगर शहरों में बाढ़ का गंदा पानी भरा करेगा हर बरसात। अगर प्रशासन ने दूरदर्शिता न दिखाई तो!
इन नए प्रगति नगरों में, पुराने मोहल्लों की संकरी गलियों में, पुरानी मिलों के नए प्राँगणो में.. हर कहीं-सब जगह मॉल्स बनते जा रहे हैं। सवाल है कि क्या ये सिर्फ़ किसी पूर्व-योजना के अभाव में हो रहा है? कुछ लोग सच में इतने भोले हो कर सोचते हैं..कि यदि प्रशासन को याद दिलाया जाय कि भई मॉल्स बहुत हो गए तो अब एक पार्क बना दो, तो प्रशासन चट से अपनी भूल स्वीकार कर लेगा। मेरा खयाल है कि ये हमारे शासक वर्ग के भीतर किसी भी तरह के सामाजिक दायित्व के अभाव में हो रहा है। और एक कुरूप लोलुपता की सर्वांगीण उपस्थिति के दानवीय दबाव में हो रहा है।
हमारा शासक वर्ग हमारी ही अभिव्यक्ति है। हम जो आम आदमी है, उसी की मुखरता दिखती है खास-खास लोगों में। फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि जब शासक वर्ग को हवाखोरी करनी होती है तो वह ऑस्ट्रेलिया, आइसलैण्ड, अजरबैजान से लेकर गोवा, गंगटोक कहीं भी चला जाता है। मगर आम आदमी के पास साधन कहाँ, या तो वो प्रमोद भाई की तरह एक चीन यात्रा कर डालता है.. या फिर हार कर मॉल की दुनिया की चमक में अपनी धूसर धूमिलता को ढकने चला जाता है। और कुछ पल के लिए ही सही, अपनी टेढ़ी-मेढ़ी बेढंगी ज़िन्दगी को सार्थक समझता है, स्वयं को मॉल के उस हाहाकारी ऐश्वर्य को हिस्सा समझ कर।
2 टिप्पणियां:
इलाहाबाद में माल में भी अधेड़ सज्जन दिख रहे थे, कच्छा नुमा नेकर और हवाई चप्पल पहने. वातावरण देसी है और मनमाफ़िक. बीडी़ जलाइला पिया की हीरोइन तो पोस्टर में ही है. माल में माल है - पर "माल" नहीं जिसके लिये शोहदे जाते हैं.
एयर यहां पूर्वान्चल की है - चाहे अनिल किराना स्टोर हो या बिगबाजार.
सहमत
एक टिप्पणी भेजें