क्या आप ने कभी सोचा है कि तात्या टोपे के वंशज कहाँ हैं? या मंगल पाण्डेय के वंशजो का क्या हाल है? अच्छा इन सैनिक और सेनापतियों को छोड़ दीजिये। आज़ादी के सितारों की बात कीजिये; रानी लक्ष्मीबाई, अज़ीमुल्ला खान, नाना साहिब के वंशजो का क्या हुआ? हो सकता है इन में से कुछ का वंश समाप्त ही हो गया हो और कुछ का इस हाल में हो, जिस की चर्चा न ही की जाय तो बेहतर!
पिछले साल मैंने टीवी पर कलकत्ता में एक फटेहाल परिवार की दारुण कथा देखी थी- कहते थे कि बहादुरशाह 'ज़फ़र' के वंशज हैं। उनकी फटेहाली पर किसी को हैरान होने की क्या वज़ह हो सकती है.. देश आज़ाद हो चुका है.. अब देश में लोकतंत्र है और राजशाही खत्म हो चुकी है। मगर ये बात सिन्धिया, होलकर और कश्मीर के डोगरों पर लागू नहीं होती? वे तो अभी भी राजसी ठाठ-बाट बनाए हुए हैं। क्यों और कैसे?
क्या इसलिए कि १८५७ की लड़ाई में अंग्रेज़ो का साथ देने वाले यही राजघराने थे? जो तब भी मलाई चाँभ रहे थे और अब भी चाँभ रहे हैं। सवाल है कि १९४७ में मिली आज़ादी के बाद ये तस्वीर बदली क्यों नहीं? जिन्होने १८५७ की लड़ाई में क़ुर्बानी दी, उनके वंशजो को आमंत्रित करके पुराने ठाठ वापस न करना समझ आता है। मगर गद्दारों को गद्दार कहने से चूक जाना समझ नहीं आता!
विचार स्रोत: अखिलेश मितल
13 टिप्पणियां:
अभय जी जिन्होने जेल मे किताबे लिखी मलाई खाई शासन भी उन्होने ही किया,इसीलिए कि १८५७ की लड़ाई में अंग्रेज़ो का साथ देने वाले यही राजघराने थे? जो तब भी मलाई चाँभ रहे थे और अब भी चाँभ रहे हैं। जो कालापानी मे सड रहे थे जिन्होने जान दी जवानी दी कुर्बानी दे वे आज भी कुर्बानी ही दे रहे है..मलाई जिनके बीच तब बटी थी अभी भी बट रही है..
तुम्हारी इस टिप्पणी का जवाब टिप्पणी के ज़रा नीचे नीत्ज़े साहब की आज उद्धृत वचनामृत में है! यही होता है उन समाजों-सभ्यताओं में जो इतिहास नहीं याद रखते, कुछ भी नहीं याद रखते.. महज़ बल्ले-बल्ले और हाय-हाय का हल्ला करना जानते हैं!..
जब राज ही ऐसे लोगों का होगा तो उन्हें गद्दार कहेगा कौन?इस लड़ाई में असली लोग जो पिसते रहें हैं,अगर उन्हें ये लोग पूछेगे तो यह बेनकाब नही हो जाएंगे।
आपका कहा बिल्कुल सही है । राजनीति में भी ऐसा लगता है कि केवल एक परिवार ने स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ी ।
घुघूती बासूती
साथी आप ने जो बयाँ किया हैं उससे जो हालात सामने आ रहे है अर्ज़ है-
हर शाख पे उल्लू बैठे है अन्जाम गुलिस्ता क्या होगा?
बदनाम गुलिस्ताँ करने को बस एक ही उल्लू काफ़ी है।
अब तो जनाब कुत्तों को भी घी हज़म होने लगा है और बन्दर भी अदरक का स्वाद बताते हैं!
कुर्बानी देने वालों की नस्ल अलग होती है और उनके कन्धे पे चढ़ के मलाई चाँभने वाली नस्ल ही और होती है!
मेरी मोटी बुद्धी की समझ बस इतने तक ही कहती है।
एक गहरा शब्द रचा गया था-"सतत-मौका-परस्त"
यह वो लोग होंगे जो हमेशा मजे में रहेंगे चाहे जो हो जाये बाकि या तो कभी हंसेंगे या रोयेंगे.
यदा कदा तो सभी मौका परस्त होते हैं मगर "सतत-मौका-परस्त" होना सबके बस की बात नहीं, कभी न कभी तो मानस कचोट ही लेता है न!!
इन्हीं की दुनिया है और शायद बहुतों की नजर में बेहतर जीवन शैली.
यह हमारे-आपके लिए नैतिक सवाल है, उनके लिए जो राजकाज चला रहे हैं। वो तो तब भी एक्सपोज्ड थे, आज भी एक्सपोज्ड हैं। लेकिन इतने थेंथर हैं कि उन पर कोई फर्क नहीं पड़ता।
समीरलालजी ने सही शब्द चुने है, "सतत मौका परस्त"
यह नियम सास्वत रहेगा.
राज ही जब ऐसे लोग कर रहे है तब गद्दार कौन किसे कहे?
स्थिति शोचनीय है ।यहां सन्त भी राजधानी में बसते है और मलाई चाटते है फ़िर राजघरानो का ऐश करना क्या हैरानी की बात है । शासक कोइ भी हो उसका चमचा हमेशा मौज उडाता है ।मलाई खाने मिलेगी तो क्यो न खाएन्गे जी ।आम जन तो बस दर्शक है;ब्लू लाइन में बैठ ,पनवाडी की दुकान पर ,चायवाले के यहां कभी-कभार भडास निकाल लेता है ।
1857 के गद्दारों की सूची बड़ी लंबी है। उतनी ही लंबी है देश के गद्दारों की। पर ऐसे लोग ही असल मौका परस्त होते हैं । देश के आजाद होते ही पलटीमार कर फिर सत्ता के पाए से चिपक गये।
इन गद्दारों की सूची छापी जानी चाहिए । सुंदर लाल जी ने भारत में अंग्रेजी राज में ऐसे लोगों के नाम कुल गोत्र छाप रखा है। सावरकर ने भी कुछ का मान लिया है। तत्कालीन काशी नरेश ने भी देश के साथ गद्दारी की थी।
विष्णु भट्ट ने भी बताया है कि रानी झांसी का पालना और सामान की निलामी में सिंधिया भी शामिल थे। क्या करें ऐसे लोगों का।
गद्दार या गद्दारी अपने आप में खतरनाक नहीं होते।जनता अगर इनका साथ न दे तो यह बेमानी हो जाँए,इतिहास के कुड़ेदान में जगह बना लें।वे खतरनाक होते हैं जब उन्हें जनता का समर्थन हासिल हो जाता है । ऐसे लोगों के राजनैतिक दल बने(स्वतंत्र और जनसंघ),ऐसे लोग आज़ाद भारत में कुलपति और राष्ट्रपति तक बने,चुनावों में उन्हें टिकट मिले और कुछ जीते भी।
मलाई तो आनन्द भवन वाले भी छक रहे हैं. सारे देश भक्तों के निकम्मे सपूत भी मस्त हैं.
गद्दार हर युग में रहे हैं चाहे 1857 का संग्राम रहा हो उसके बाद की आजादी की लड़ाई। आज भी गद्दारी का ही नतीजा है कि हम अपने ही वतन में सुरक्षित नहीं हैं।
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