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रनवीर और विनय इस वक़्त मुल्क के बेहतरीन हँसोड़ हैं। मगर आम तौर पर घटिया शाइरी करने वाले जावेद साब सेंस ऑफ़ ह्यूमर की बेहतरीन परिभाषा देकर उन्हे चित कर गए। जावेद साब ने कहा कि जो काम गाड़ी में शॉक-एबज़ॉर्बर का होता है वही काम सेंस ऑफ़ ह्यूमर आदमी के अन्दर निभाता है। सीधी सपाट चिकनी सड़क पर शॉक-एबज़ॉर्बर्स की क्या ज़रूरत, उसका इस्तेमाल तो ऊबड़-खाबड़ गड्ढों से भरी राह को आसान करने में होता है।
बात में दम है। यह बात और भी ज़्यादा मारक लगने लगती है जब आप उस आदमी की कल्पना कीजिये जो कठिनाइयों और मुश्किलों से भरी ज़िन्दगी में बग़ैर किसी सेंस ऑफ़ ह्यूमर के चला जा रहा है। विडम्बना यह है कि हम में से कुछ विरले ही होते हैं जो इस कुदरती शॉक-एबज़ॉर्बर्स के साथ प्रि-फ़िटेड आते हैं। ज़्यादातर दूसरों के गिरने पर हँसते और अपने दर्द पर रोते पाए जाते हैं।
एक बात और.. बेहद गहरे दुख में रोते हुए लोग अक्सर हँसने क्यों लगते हैं?
और एक बात और.. हँसते हुए चेहरे और रोते हुए चेहरे लगभग एक से क्यों दिखते हैं?
9 टिप्पणियां:
सेंस ऑफ ह्यूमर तभी जगता है जब आप तनावमुक्त होते हैं। ये भी सच है कि एक गहरी हंसी आपको तनावों से बाहर निकाल लेती है। वैसे, आपने कभी गौर किया है, सारे जीवों में सिर्फ इंसान ही है जो हंस सकता है। आप हंसते है तो अपने इंसान होने का सबूत पेश करते हैं।...
अच्छी है शॉक एब्जॉर्वर की उपमा।
सेंस ऑफ ह्यूमर ब्यूटी टाईप है..इन द आईज ऑफ बी होल्डर...जो झेलता है वो कैसे लेता है इस पर डिपेंड करता है. कभी वही बेहूदगी लगती है और कभी सेंस ऑफ ह्यूमर.
यह विडंबना ही है. जावेद जी का तो ऐसा है कि एक बेहतरीन शायर होने के बानजूद भी कभी अहम के शिकार भी लगते हैं अक्सर.
बाकि तो समझने वाले की आँख मे है..कम से कम मेरी आँख में तो है.
अन्यथा न लें मगर मैं इसे ब्यूटी से ज्यादा कुछ नहीं मानता.
बहुत वेरी गुड कहा । लेकिन दिक्कत ये है कि हम भारतीय बहुधा रोतले होते हैं ।
और अगर कोई क्राइसिस के वक्त हंसे तो उसे पागल समझते हैं
अच्छा है। हंसने के लिये मन निर्मल मन जरूरी होता है। सो आप हो। फिर क्या समस्या?
बहुत सटीक कहा। आम आदमी की दुख भरी सामान्य जिंदगी में खुशी कभी-कभार क्षणिक अंतराल के रूप में ही आती है। ("Happiness is an occasional episode in the general drama of pain"-Thomas Hardy) ऐसे में, सेंस ऑफ ह्यूमर के रूप में शॉक आब्जर्वर का होना जिंदगी की राह को कुछ आसान बना देता है।
मेरे भीतर यह शॉक आब्जर्वर प्री-गिफ्टेड नहीं है। इसलिए जिंदगी और दुनियादारी के तनावों-हिचकोलों को सीधा दिमाग और दिल पर ले लिया करता हूं और उन्हें अपने भीतर जज्ब कर जाता हूं। यह खतरनाक है। शायद परिपक्वता और समझदारी बढ़ने पर सेंस ऑफ ह्यूमर का कुछ हद तक विकास हो जाता हो।
'सेन्स ऑफ़ ह्यूमन' इंसान के अन्दर सेन्स आफ ह्युमर लाता है. बहुत जरूरी है कि हम छोटी-छोटी खुशियाँ बटोरें. बड़ी खुशी के इंतजार में रहने से जीवन जीने का मजा नहीं आएगा. कल किसने देखा है?
सटीक!!
खुशियाँ इतनी उदास कयो लगती है .
झेलना सच में एक मुश्किल काम है। झेल कर शांत रह जाना तो तपसी लोगों के बस में भी अक्सर नहीं होता था। जरा-जरा सी बात पर कई तो शकुंतलाओं को शाप तक दे डालते थे।
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