पिछले दिनों मैंने अपने प्रिय लेखक विनोद कुमार शुक्ल की एक कविता और उपन्यास अंश को यहाँ पर छापा था.. प्रियंकर भाई जो निश्चित ही उनके लेखन के प्रशंसक है.. उन्होने प्रतिक्रिया की..
वाह-वा !
अब ब्लॉग में एक नई खिड़की खोलिये तथा सोनसी और रघुबर के प्रेम के एक-दो अद्वितीय दृश्य अवश्य दिखाइए .
प्रतीक्षा रहेगी . हाथी पर जाते हीरो की .
तो उनके आग्रह पर आज प्रस्तुत है.. 'दीवार में एक खिड़की रहती थी' का एक रोचक अंश.. जिसमें रघुवर-सोनसी का प्रेम भी है.. और हाथी पर जाता नहीं तो उसका चिन्तन करता हीरो भी..
दीवार में एक खिड़की रहती थी
(एक अंश)
‘धरती आसमान की तरह लगती थी।’ अंधेरे में सोनसी ने रघुवर प्रसाद के कान में फुसफुसा कर कहा है।
‘क्या हम अपने आप खिड़की से बाहर जा रहे हैं।’
‘नहीं खिड़की का बाहर अन्दर आ रहा है।’
‘तालाब पहले आया फिर तालाब का किनारा आया।’
‘पगडण्डी पहले आई फिर धरती आई।’
‘तारे पहले आए फिर आकाश आया।’
‘पेड़ का हरहराना पहले आया फिर पेड़ आए।’
‘फिर तेज़ हवा आई।’
‘महक आई।’
‘महक के बाद फूल खिले।’
‘साइकिल खिड़की से बाहर नहीं गई खिड़की का बाहर साइकिल तक आ गया।’
‘पर मैं कैरियर में नहीं बैठूँगी। सामने तुम्हारी बाहों के बीच बैठूँगी।’ सोनसी ने कहा।
सुबह कमरा नहाया हुआ लग रहा था। कमरे की हर चीज़ धुली हुई लग रही थी।
रघुवर प्रसाद बिस्तर से सोकर ऐसे उठे जैसे नहा धोकर उठे हैं। साइकिल धुली-पुँछी थी। रघुवर प्रसाद के पहले सोनसी उठ गई थी।
‘तुम कब उठीं?’
‘अभी थोड़ी देर पहले।’
‘घर धुला धुला लग रहा है।’
‘सुबह मैं उठी तो लगा कि तालाब खिड़की से बाहर जा रहा है।’
‘मैं बाद में उठा तो तालाब का किनारा जा रहा था।’
‘पेड़ चले गए। पर पेड़ का हरहराना अभी यहाँ रह गया है।’ सोनसी ने कहा।
‘महक है। किसी कोने में फूल अभी-अभी खिला है।’
‘कोनों में फूल खिले हुए हैं। मैं देख चुकी।’
रघुवर प्रसाद ने कहा, 'मुझे महाविद्यालय जल्दी जाना पड़ेगा साइकिल पहुँचानी है। नहीं तो हाथी पर लादना होगा। साइकिल, कार्यालय में जमा होगी। तुम डब्बे में भात दे देना। मैं वहीं खाऊँगा।’
‘शाम को टेम्पो से लौटोगे?’
‘सुबह से जा रहा हूँ महा विद्यालय खुलने तक इधर उधर घूमता रहूँगा। विभागाध्यक्ष से छुट्टी माँग लूँगा। मिल गई तो टेम्पो से नहीं तो हाथी से।’ रघुवर प्रसाद ने कहा।
'कमरे से पेड़ों का हरहराना चला गया। अब पेड़ों में हरहराने की आवाज़ बाहर से आ रही है।’ सोनसी ने कहा।
‘पेड़ों की हरहराने की आवाज़ में चिड़ियों की चहचहाहट भी बैठी थी। चिड़ियों की चहचहाहट भी साथ चली गई।’ रघुवर प्रसाद ने कहा।
‘पेड़ की आवाज़ के पहले चिड़ियों की चहचहाहट उड़ कर चली गई हो।’ सोनसी ने कहा।
‘पेड़ की आवाज़ की शाखा में चिड़ियों की चहचहाहट बैठी होगी।’
‘अचानक उड़ कर गई।’
‘चौंक कर गई।’
जब मैंने तुम्हारी चादर झटकारी थी तब चौंककर चहचहाहट उड़ी?’
‘हम दोनों एक ही चादर ओढ़े थे।’
‘परन्तु ठण्ड नहीं थी।’
‘परन्तु खिड़की के पल्ले खुले थे।’
‘परन्तु चादर में चिड़ियों की चहचहाहट थी।’
‘परन्तु कुछ यह भी हुआ।’
साइकिल लौटाने रघुवर प्रसाद चले गए। रास्ते में उनका ध्यान चार ताड़ के पेड़ों पर गया। पेड़ वहीं थे, और रघुवर प्रसाद वहाँ महाविद्यालय का इन्तज़ार किए बिना महाविद्यालय जा रहे थे। हो सकता है ताड़ के पेड़ों को इस तरह रघुवरप्रसाद का महाविद्यालय जाना अटपटा लगा हो। ताड़ के पेड़ों ने रघुवर प्रसाद को साइकिल से जाते हुए न भी देखा हो। हाथी से जाते हुए ज़रूर देखा हो। साइकिल सरपट जाती है। हाथी धीरे-धीरे जाता हुआ जाता था। रुककर इन्तज़ार किए नहीं चलते-चलते हाथी पर इन्तज़ार कर रहे हैं। -यह अन्तर होगा। रघुवर प्रसाद जितनी तेज़ी से आगे गए ताड़ के पेड़ उतनी तेज़ी से पीछे छूटते गए। जैसे कैरियर से सामान गिर गया। मालूम नहीं पड़ा और सामान पीछे और पीछे छूटता रहा। --साइकिल से जा रहे हैं का ऐसा उत्साह था। लौटते समय छूटी हुई चीज़ जहाँ छूटी थी, मिलती जाएगी। सड़क एकदम खाली थी। तब भी उन्होने घंटी बजाई। लगातार बजाई कि शायद जो भी सामने था हटता जाए। हो सकता है कि दोनों किनारे के पेड़ पहले सड़क पर रहे हों रघुवर प्रसाद की घंटी बजाने से दोनों किनारे हो गए और सड़क खाली हो गई...
(अगर आपने यह पुस्तक नहीं पढ़ी है.. तो ज़रूर पढ़ें.. हिन्दी में वैसे ही उपन्यास कम लिखे जाते हैं.. और अच्छे तो बस उँगलियों पर गिने जा सकने जितने.. विनोद जी हिन्दी के ही नहीं पूरी दुनिया में अपनी तरह के अनूठे लेखक हैं..उनके शिल्प की कोई बराबरी नहीं.. और उनकी भाषा के रस को अनुवाद कर पाना लगभग असम्भव.. 'दीवार में एक खिड़की रहती थी' उनका सबसे हाल में आया उपन्यास है.. उपन्यास क्या है.. हिन्दी के रेगिस्तान में एक नखलिस्तान है..)"दीवार में एक खिड़की रहती थी": प्रकाशन वर्ष-२००२, वाणी प्रकाशन, २१-ए, दरियागंज, नई दिल्ली-२; मूल्य १२५ रुपये
7 टिप्पणियां:
ये उपन्यास इतना शानदार है, इसके विवरण इतने खास हैं कि इसका किसी और भाषा में अनुवाद नहीं हो सकता। हिंदी शब्दों का कितना सुंदर इस्तेमाल हो सकता है, इसका आदर्श नमूना है ये उपन्यास।
बहुत शानदार!!
शुक्ल जी जैसे अंतर्मुखी व्यक्ति को देखकर या उनसे मिलकर आश्चर्य सा होता है कि इतने अंतर्मुखी होते हुए भी ऐसा लिखा जा सकता है।
शुक्ल जी जिस कृषि विश्वविद्यालय में रहे, वह रायपुर से करीब 10-12 किमी दूर शहर से बाहर है। शहर से वहां जाने के लिए पहले टेम्पो( और अब ऑटोरिक्शा या बस) ही सुलभ साधन था।
उनके लेखन में उनके आसपास का सारा वातावरण आसानी से झलक उठा है।
वाह, अति रोचक. आनन्द आ गया. अब उपन्यास जुगाड़ा जायेगा.
विनोद कुमार शुक्ल अपने ढंग के अनूठे रचनाकार हैं . सबसे अलग .
सोनसी और रघुबर के कुछ असल-तरल और कुछ वायवीय प्रेम-प्रसंग/प्रेम संवाद को प्रस्तुत करने लिए आभार!
शानदार। अगस्त की लिखी पोस्ट आज पढ़ी जा रही है। मजा आया। ये किताब फिर पढ़नी पड़ेगी। :)
हिंदी में यह एक अनोखा उपन्यास है.
इस उपन्यास के अंश उपलब्ध कराने हेतु धन्यवाद. कुछ अंशों से ही उपन्यास पढ़ने की याद ताज़ा हो जाती है. हिंदी में अपनी किस्म का यह एक अनोखा उपन्यास हे. उपन्यास से ज्यादा इसमें काव्य तत्व हें.
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