हम शाम के वक्त समोसा, चाट, वड़ापाव, बर्गर वगैरा खाते हैं, और उसके बाद भी आखिरी खाने का अवसर बचा रहता है। जो रात को नौ, दस, ग्यारह बजे तक सम्पन्न होता है। मेरे कुछ मित्र अपना ये सुप्रतीक्षित आहार रात के एक दो बजे भी कर के तृप्त होते हैं।
वैसे आयुर्वेद के अनुसार भोजन को पचाने में सहयोगी तत्व पित्त मध्य-दिवस और मध्य-रात्रि में ही प्रबल होता है। उस दृष्टिकोण से मध्य-रात्रि भोजन करने का सबसे उचित समय ही तो हुआ। मगर उस से दूसरी जटिलताएं पैदा होती हैं।
इस तरह के खाने के तुरन्त बाद व्यक्ति क्या करेगा; सो जाएगा या दो अढ़ाई घंटे और जागता रहेगा? अगर जागता रहेगा तो खाया हुआ खाना तो पच जाएगा मगर चार बजे सोकर अगले रोज़ दस बजे के बाद ही उठेगा। तो इस तरह से दिन की शुरुआत में पित्त प्रबल होगा और वात मन्द। मल की निकासी ठीक ढँग से नहीं हो सकेगी और शरीर में विकार जन्म लेगा। और पूरे शरीर का पाचन-चक्र बिगड़ जाएगा। और लम्बे समय तक इसी तरह चलते रहने पर शरीर में गम्भीर रोग उत्पन्न हो जाएंगे।
अगर व्यक्ति उपरोक्त मध्यरात्रि के भोजन के बाद तुरंत सो जाता है तो और भी मुश्किल है। एक तो खाये हुए भोजन का पाचन सही तरह से नहीं हो सकेगा। दूसरे शरीर की अधिकतर ऊर्जा खाने के पाचन में लग जाने के कारण, नींद अच्छी नहीं आएगी। और सोकर उठने के बाद भी व्यक्ति को भारीपन लगता रहेगा।
कुछ लोग तो नींद को बेहोशी के सिवा कुछ नहीं मानते इसलिए हमेशा दारू पीकर छाई बेहोशी को ही नींद का पर्याय मानते रहे हैं। मेरा खयाल है कि ऐसे लोग बेहोशी के अँधेरे में ही नहीं, शुद्ध जहालत के अँधेरे में भी हैं। थोड़ी बुरी लगने वाली बात कह दी है, माफ़ कीजियेगा। इस अँधेरे में रहने और अपनी हानि करने का आप को पूरा हक़ है। मगर जानकर करें, अज्ञानता में क्यों?
नींद के वक्त लोग सोचते हैं कि शरीर आराम कर रहा है। क्या सचमुच? एक नज़रिया यह कहता है कि व्यक्ति आराम कर रहा है मगर शरीर काम कर रहा है। नई कोशिकाएं जन्म ले रही हैं, जो बीमार हैं, टूट-फूट गई हैं उनका इलाज हो रहा है। असल में तो जागते हुए शरीर आराम कर रहा है.. हल्की फुल्की गतिविधि कर रहा है। मगर 'सोते हुए' उसका काम इतना ज़्यादा है कि उसे दूसरे एप्लीकेशन्स शट-डाउन करने पड़ते हैं। इसीलिए बच्चा सोता है बीस-बीस घंटे। उसके पास बहुत काम है, बहुत तेज़ी से और बहुत सारा विकास करना है। जैसे-जैसे बचपन छूटता जाता है, नींद के घंटे कम होते जाते हैं। शरीर का विकास धीमा पड़ता जाता है, और एक मकाम पर आकर एकदम रुक जाता है।
मगर फिर भी नींद की ज़रूरत पड़ती रहती है। क्योंकि शरीर जीवित है और तमाम क़िस्म के बाहरी आक्रमण और भीतरी कमज़ोरियों का इलाज वह खुद करता है। ये लोगों की भ्रांति है कि दवाईयाँ कोई इलाज करती हैं। दवाईयाँ सिर्फ़ आपूर्ति करती हैं। शेष सारा काम शरीर स्वयं करता है। अतिवृद्ध हो जाने पर नींद आनी बंद हो जाती है- शरीर धीरे-धीरे जवाब दे रहा होता है; नई कोशिकाएँ बनना बंद हो जाती हैं, पुरानी की टूट-फूट की मरम्मत भी ठप पड़ जाती है।
इसलिए देर से खाकर तुरंत सोने पर नींद का बड़ा भाग और शरीर की अधिकतर ऊर्जा खाना पचाने में चली जाएगी। और जागने पर भी एक नई सुबह का एहसास नहीं होगा। क्योंकि टूट-फूट की मरम्मत का काम नहीं हो पाया। अगर ऐसी ही दिनचर्या चलती रही तो वो कब होगा? वो मुल्तवी पड़ा रहेगा। और फिर धीरे धीरे एक गम्भीर रोग के रूप में विकसित हो जाएगा।
देर से खाने और भारी खाने से कितने नुकसान हैं, देखिए.. मेरा खयाल है कि यही कुछ कारण रहे होंगे जिसकी वजह से लगभग सभी पुरातनपंथी रात के खाने को जल्दी और हल्का रखने की कोशिश करते हैं।
कभी कभी इस तरह उपदेशात्मक लिखने का अधिकार मैंने सुरक्षित रख छोड़ा है..प्लीज़ एडजस्ट!
15 टिप्पणियां:
एडजस्ट करने की कोशिश कर रहा हूं. बड़ी दिक्कत आ रही है लेकिन? एडजस्ट करने में?
बिल्कुल एडजस्ट करेंगे जी आप लिखते रहिये.हाँलाकि मेरे लिये ये ज्ञान नया नहीं है ना जाने कितनी किताबों और कार्यक्र्मों मे पढ़,देख चुका हूँ...इसका पालन भी किया था शादी के पहले.. लेकिन इसका पालन करना आजकल की भागमभाग वाली दुनिया में बड़ा कठिन हो गया है.. इसलिए पिछ्ले 1 साल में मेरा वजन 11 किग्रा बड़ा और पिछ्ले 2 साल में 21 किग्रा बढ़ गया और सारा का सारा ज्ञान धरा रह गया.
बहुत अच्छी बात है.
वैसे हमारे परिवार में तो इसका पालन होता है, रात का खाना आठ बजे तक.
काकेश जी ने दो साल में 21 किग्रा बढ़ा डाला!
इन्हें तो अपने बेडरूम में अदनान सामी की पहले और बाद वाली फोटो लगा लेनी चाहिये
लेख कापी कराके कई मित्रों में बंटवा रहा हूं।
सरजी आपकी वैराइटी चकित करने वाली है।
पहली वाली तस्वीर माउथ-वाटरिंग है!
मैंने जर्मनी रहने के दौरान देखा था कि वहां के लोग 7 बजे शाम तक खाना लेते हैं। उसके बाद रात 12-1 बजे तक वाइन पीते है। इससे मैंने सुविधाजनक निष्कर्ष ये निकाला कि जल्दी खाना खाकर मजे में दारू पी जा सकती है।
वाकई....पहली वाली तस्वीर 'मुँह में पानी ला देने' वाली है
:)
ज्ञान भरा पड़ा है लेकिन ज्ञान की विस्मृति बड़ी भयानक है. ऐसे में किसी की बुद्धि में कोई ऐसी बात आये जिसमें कोई संदेश छिपा हो तो इसे सौभाग्य कहना चाहिए.हम सब जो लिखते-पढ़ते हैं वह शब्दों का दोहराव है जो जमाने के साथ मिलकर एक अर्थ धारण कर लेता है.
स्मृति जागृत करने के लिए धन्यवाद और अनुपम मिश्र के परिचय के नीचे जो फोन नम्बर दिये हैं वहां बात करने से वे किताबें डाक से भिजवा देते हैं. उनकी व्यवस्था चुस्त है.
एडजस्ट कर लिया। अब जा रहे हैं खाने!
एडजस्ट तो कर लेते मगर क्या खाना परोसा है थाली में उपर..कल से करेंगे. आज तो खा ही लेते हैं.
और हमारी तस्वीर छापने के पहले पूछ तो लेते,भाई. खैर कोई बात नहीं. आपको तो यह भी है. :)
बहुत खूब!!
कविराज अभयजी
पूरा भेषज-निघंटु उलट दीजिए. ज्ञान बाँटिए. ऐसे त्रिदोषनाशक पोस्ट के लिए धन्यवाद. यह जैनियों वाली थाली क्यों परोस दी, कुछ कबाब-बिरयानी भी तो हो सकती थी.
हमारे मित्र ने आपका सुझाया नुस्खा अपनाया जिससे उनका वज़न और बढ़ गया क्योंकि वे आधी रात के बाद फ्रिज पर हमला बोलते और मिठाइयों पर टूट पड़ते थे.
सोचती हूँ खाने के समय पर तो अपना वश नहीं है पर सोना तो थोड़ा जल्दी करा ही जा सकता है ।
आपके उपदेश को मान सोने जा रही हूँ । शुभ रात्री !
घुघूती बासूती
उपदेश तो निर्मल, मंगल हैं महाराज पर अमल कैसे हो ? जिस पेशे में हैं न शाम घर, न दिन घर बस सिर्फ देर रात अपनी। सुबह साढ़े चार , पांच बजे खाना। क्या करें ? कोई उपाय ?
वैसे आपकी थाली आज हिट हो गई है। खूब सजाई है।
बाबा अभयानन्द महाराज आपके उपदेश बहुत काम के हैं। हम सुन रहे हैं आप अपने निर्मल विचारों से हमें आनन्द का बोध कराते रहें।
आपके श्री चरणों में प्रणाम
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