और बुद्ध ने आकर इतिहास को कोई क्रांतिकारी मोड़ दे दिया, ऐसा सोचना अतिरेक ही होगा। जो व्यक्ति, 'ईश्वर है या नहीं', इस सवाल पर मौन रह गया हो, उसका नाम प्रतिमा के नाम का पर्याय हो जाता है- बुत। कैसी विडम्बना है! यही नहीं, कर्मकाण्डियों का जुआ उतार फेंक कर एक प्रपंच रहित सच्चे धर्म की सदिच्छा से उपजा संघ आगे जा कर न सिर्फ़ एक अलग धर्म बनता है, बल्कि एक अति आनुष्ठानिक स्वरूप भी ग्रहण करता है। तिब्बती बौद्ध जिस तरह की पद्धतियों का पालन करते हैं वे हमारे देशज तांत्रिकों से ज़्यादा भिन्न नहीं हैं। कैसे हो जाता है यह?
ईसा जेरूसलम के मन्दिर में जाकर कोड़ों से मारते हैं वहाँ बैठे धर्म के छ्द्म व्यापारियों को और धरती के राज को भुला कर ईश्वर के राज्य का मार्ग दिखाते हैं। उनके भक्त उनकी मूर्ति बना के, गिरजे-गिरजे लटका कर मध्ययुगीन धरती का एक विस्तृत साम्राज्य स्थापित करते हैं।
मुहम्मद, आदमी के मानस की आँखे खोलने के लिए, काबा मे जाकर भौतिक आँखों से दृश्य मूर्त ईश्वर का भंजनकर के, मन की आँखों से दिखने वाले अदृश्य अल्लाह की ओर प्रेरित करते हैं। मगर उनके अनुगामी पीरों-मजारों में उसी मूर्ति-संस्कृति को पुनर्जीवित कर लेते हैं।
मज़दूर और मानवता को उसके सारे बन्धनों से मुक्त करा कर उसकी आज़ादी का सच्चा मार्ग प्रशस्त करने का दर्शन देने वाले मार्क्स के अनुयायी उनके साथ-साथ स्टालिन जैसे हत्यारे की भी 'पूजा' करते हैं।
इतना सब देखने के बाद जब मैं पूछता हूँ कि अगर अच्छी-अच्छी बातें दुनिया नहीं बदलती तो फिर दुनिया को क्या बदलता है? तो इसमें क्या गलत करता हूँ भाई.. क्या मैं अपना समय नष्ट कर रहा हूँ.. और आपका?
7 टिप्पणियां:
'इतना सब देखने के बाद जब मैं पूछता हूँ कि अगर अच्छी-अच्छी बातें दुनिया नहीं बदलती तो फिर दुनिया को क्या बदलता है? तो इसमें क्या गलत करता हूँ भाई.. क्या मैं अपना समय नष्ट कर रहा हूँ.. और आपका?'
अभय जी,
आप अपना समय नष्ट नहीं कर रहे. किसी का भी नहीं.लेकिन लोगों के विचार हैं, जो एक दूसरे के साथ नहीं मिलते. विचारों में असमानता और द्वंद भी शायद समाज को आगे ले जाने का काम करते हैं.
जहाँ तक स्टालिन को पूजने की बात है तो उसे तो हम सभी देख सकते हैं. पश्चिम बंगाल के उच्च माध्यमिक की अंग्रेज़ी की किताब में लुई फिशर का एक अध्याय था, 'माई वीक विद गांधी' जिसमें उन्होंने वरधा में गाँधी जी के साथ बिताये गए समय का वर्णन किया था.
गाँधी जी के एक सवाल कि; "क्या स्टालिन उतने क्रूर थे, जितना हिटलर"? के जवाब में फिशर के "हाँ" को लेकर यहाँ काफी चर्चा हुई. हमारे कम्युनिस्ट साथियों ने बवाल खडा कर दिया और आख़िर में वह अध्याय ही किताब से निकलवा दिया.
दूसरे के विचारों को इस तरह से देखने वालों को क्या कहेंगे हम? अब ऐसे लोगों से दुनिया को बदले की उम्मीद कर सकते हैं?
बहुत खूब। समय चक्र। विडम्बना तो शब्द मात्र है। दरअसल काल की गति में ये सब बातें तिरोहित हो जाती हैं। कोई उकासाता या प्रेरित नही करता , ये सब बस हो जाता है। मुझे ऐसा लगता है...
चीन में भी चैन से रहने दोगे कि नहीं? ऐसे ही पता नहीं पेट के अंदर क्या-क्या जा रहा है.. दिमाग़ में तो जा ही रहा है..
अभयजी, बड़ा बुनियादी सवाल उठाया है। जवाब भी बड़ा बुनियादी है। दुनिया को बदलता है उत्पादक शक्तियों और उत्पादक संबंधों का घर्षण-प्रतिघर्षण, उनका सतत संघर्ष। जीवन जीने की स्थितियां बदलती हैं तो हमारे विचार और समाजिक संस्थाएं उसी हिसाब से ढलने लगती हैं। हां, कभी ये आगे तो कभी वो आगे होता है। विचारों की स्थिति तो ये है कि पानी को लोटे में डालो, बीकर में डालो या सुराही में, वह वही शक्ल अख्तियार कर लेता है। बदलाव भी सतत प्रक्रिया है। quantitave बदलाव एक स्तर के बाद qualitative बदलाव में तब्दील होता है। कली फूल बनती और फूल बीज बनता है।
यही क्रम है साथी। बाकी हम जो कुछ कहें, लोग उसे अपने ही अर्थों में लेते हैं। विचार और क्रिया का गुंफित रिश्ता ही सार्थक बदलाव लाता है। मैटर और एनर्जी स्वतंत्र होते हुए भी आपस में गुंफित हैं। जीवन में आस्था और ईश्वर की मांग रहेगी, वैक्यूम रहेगा तो लोग किसी को भी बैठाकर इसकी पूर्ति कर लेंगे। मूर्ति भंजकों की मूर्तियां इसीलिए लगती हैं। कुमारधुबी में मैंने एक कॉमरेड के घर देखा था कि उनकी पत्नी कैसे हनुमान, शंकर, सीताराम के साथ मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन और माओ की तस्वीरों को भी अगरबत्ती दिखाया करती थीं।
stalin ne bhee duniya ko thoda badla thaa. mazdooron ke liye stalin kaa samay kya vishw-itihaas kaa sabse achchhaa samay nahin thaa?
विचारते विचारते एक स्थान पर यह प्रश्न उठता हीं है । लेकिन हम भौतिक साधनो से उत्तर की तलाश करते है और असफल होते है । क्योकि हमारी भौतिक संवेदनशीलता की एक सीमा है – वह उस कारक को अनुभुत तो करती है लेकिन एक संशय बना रह जाता है । शरीर का कारक प्राण है । वैसे ही समाज की भी एक सामुहिक प्राण धारा होती है और वही परिवर्तन का कारक होता है ।
कर्मकाण्डो से इतनी घृणा क्यो ? प्रहरी खाकी पोशाक पहनते है, सैनिक हरी पोशाक पहनते है - यह भी तो कर्मकाण्ड ही तो है । कर्म काण्डो का अपना महत्व है। बुद्ध, ईसा और मुहम्मद ने इस विश्व के लिए मुश्किले बढाई हैं । अध्यात्म को प्रचारवादी संगठन मे बदलने का काम इनके अनुयायियो ने किया । अध्यात्म दब गया धर्म के तले।
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