युवा अमरीकी फ़िल्ममेकर जेम्स लॉन्गले की फ़िल्म
इराक़ इन फ़्रैगमेन्ट्स दावा करती है कि युद्ध अमरीकी कब्ज़े और फ़िरक़ाई तनाव के बीच वह इराक़ की कहानी इराकि़यों की ज़ुबानी है। मगर अपने इस शिल्प में वह जहाँ बिखरते हुए इराक़ी समाज की तो एक अच्छी तस्वीर खींच देती है वहीं पूरा ध्यान अमरीकी भूमिका से हटा कर इराक़ियों पर केन्द्रित कर देती है। ऐसा लगता है कि अमरीकी तो मायने रखते ही नहीं, समस्या तो इराक़ियों में है। क्या फ़िरक़ापरस्ती की ये समस्याएं दूसरे समाजो में नहीं है? पूरी तरह से अमरीकी चिन्तन और इसलिए अमरीकी हितों को ही आगे बढ़ाती है यह फ़िल्म।
खैर, इस के बावजूद फ़िल्म ठीक-ठाक है और कुर्दियों वाला हिस्सा सचमुच अच्छा बन पड़ा है। उसमें से दो बातें न भूलने लायक है। मुख्य चरित्र का बूढ़ा पिता एक जगह कहता है कि रसूल ने कहा था कि मुझमें कोई इच्छा नहीं। उन्होने कहा कि ज़िन्दगी कुछ नहीं एक खाली घर है जिसके दो दरवाज़े हैं; आप एक से भीतर आते हैं और दूसरे से निकल जाते हैं।
फिर एक दूसरी जगह वही बूढ़ा एक लघु कथा बताता है कि दो लोग लड़ रहे थे। किसी ने पूछा कि खुदा किस की तरफ़ है? जवाब मिला कि खुदा हमेशा जीतने वाले के साथ होता है। जो जीतेगा, खुदा उसी की तरफ़ है।
सीधी-सादी-सच्ची बात!
4 टिप्पणियां:
बस इस ही बात की कमी थी कि भगवान भी जीतने वाले की तरफदारी करे । पर गलत भी क्या है ? वह हमारे ही मन की उपज है तो हमारे ही अनुसार चलेगा ।
घुघूती बासूती
इस लिहाज से तो खुदा अमरीका जाकर बस गया लगता है. लेकिन रूकिये....किसी झोपड़ी से भी किसी प्रकाश की किरण फूटी है...कहीं वह खुदा की आभा तो नहीं?
"पूरी तरह से अमरीकी चिन्तन और इसलिए अमरीकी हितों को ही आगे बढ़ाती है यह फ़िल्म।
खैर, इस के बावजूद फ़िल्म ठीक-ठाक है..."
बस ऐसे ही कुछ-कुछ दूसरे खेमे से सहमति जताते रहा करो!
हमेशा से यही विश्वास रहा है की खुदा अच्छे लोगों के साथ रहता है और आगे भी रहेगा...
हो सकता है इराक़ के सन्दर्भ में यह बात आज सच नहीं लगे, लेकिन आज का दिन तो समय का एक हिस्सा भर है, पूरा समय नहीं.
एक टिप्पणी भेजें