कभी-कभी बैठे-बैठे अचानक अपने मनुष्य होने का एहसास खत्म हो जाता है। लगने लगता है कि मैं भी मिट्टी-पत्थर-पेड़ की तरह बस एक पदार्थ-पुंज ही तो हूँ। एक चलता-फिरता पदार्थ-पुंज.. जो अपने अस्तित्व के लिए दूसरे पदार्थों को अपने भीतर से गुजारता है, और पता नहीं क्या-क्या रासायनिक परिवर्तन सम्पन्न कर के उसे वापस अपने से बाहर फेंक देता है। और फिर नज़र आता है कि मैं कोई अनोखा पदार्थ-पुंज नहीं हूँ, गली का कुत्ता भी यही कर रहा है, नाली का तिलचट्टा भी यही कर रहा है, तो मनुष्य ऐसा क्या अनोखा कर रहा है?
हम में संवेदना है, भाषा है, चेतना है। हम कुत्ते और तिलचट्टे से श्रेष्ठ हैं। और इसलिए हर धर्म में मनुष्य सृष्टि के शीर्ष पर है। कहीं ईश्वर ने मनुष्य को अपने रूप में बनाया है कहीं वह स्वयं मनुष्य के रूप में है। फिर मुझे लगता है कि क्यों नहीं ईश्वर तितली के रूप में हो सकता है, एक राजहंस के रूप में क्यों नहीं? क्यों मनुष्य की यह महासत्ता.. जिसमें सब उसके आधीन है?
क्या सच में मनुष्य के सिवा सब कुछ जड़ है? क्या सारा चिन्तन मस्तिष्क से ही होता है? क्या श्रोत्र का सारा गुण कान में ही केन्द्रित है? क्या अकेले आँख ही देखती है? मन की इच्छा बस मन में ही होती है? तो पोर-पोर में क्या होता है?
अगर चेतना सिर्फ़ प्राणियों में है तो फल क्यों मीठा होता है? अगर पेड़ में जगत तो क्या, स्वयं का भी कोई आभास नहीं तो उसका फूल गंध क्यों फैलाता है? सूरज निकल आया है पत्ती को ये कौन समझाता है?
7 टिप्पणियां:
अच्छा है। चलते चलिए ये यात्रा बड़ी लंबी है और मनोरम भी। दर्शन के मोहल्लों से लेकर विज्ञान की गलियों से गुजरती है। मंजिल तो पता नहीं, लेकिन यात्रा का अपना आनंद है, निर्मल आनंद...
क्या मतलब है इसका? क्या फल कड़वा नहीं होता?
अभयजी,
मानव में श्रेष्ठताबोध
आ जाए इसलिए
तथाकथित ईश्वर ने सृष्टि-रचना
नहीं की होगी। वैसे निर्मल-आनंद
का ये सिर्फ पड़ाव भर है।
अनिलजी सही कहते हैं,
यात्रा बड़ी लंबी है।
आपका यह लिखना मुझे किंचित आश्चर्यजनक लगा क्योंकि हम लोगों में हिंदू धर्म का ज्ञान आपमें ही सबसे ज्यादा है। संगठित धर्मों में यह संसार में अकेला है जिसने मनुष्येतर जीवों में ईश्वरत्व देखा है। अठारह पुराणों में ईश्वर कहीं मछली, कहीं सुअर, कहीं बंदर तो कहीं हाथी के रूप में, यहां तक कि महाभारत में एक जगह दो पेड़ों के रूप में अवतरित हुआ है। बौद्ध धर्म की जातक कथाओं में ईश्वरत्व तो नहीं लेकिन बुद्धत्व जैसी श्रेष्ठता कई मनुष्येतर प्राणियों को प्राप्त करते दिखाया गया है। आदिवासी धर्मों में अमूर्त ईश्वर के लिए जगह नहीं है और उनकी पूज्य वस्तुओं में बहुत सारी चीजें शामिल हैं लेकिन मनुष्य की जगह उनमें शायद ही कहीं हो। अलबत्ता यहूदियत, ईसाइयत और इस्लाम जैसे सेमिटिक धर्मों में ईश्वरत्व की गति अमूर्त से लेकर मनुष्यत्व तक फैली हुई है। इससे कुछ समस्याएं सुलझती हैं तो कुछ उलझ भी जाती हैं। विज्ञान में विकासवाद फूल खिलने से लेकर फल के खट्टे से मीठे होते जाने तक की जैविक क्रियाओं की व्याख्या जीवन की निरंतरता के तर्क से करता है- यानी जीव और जीव प्रजाति, दोनों की ही निरंतरता सुनिश्चित करने के लिए। इस सृष्टि-व्यापार में नर तत्व तरह-तरह से सौंदर्य प्रदर्शन करता है और नारी तत्व इस प्रदर्शन की तह में जाते हुए अपना ऐसा जोड़ीदार चुनता है जिससे वह सर्वश्रेष्ठ संतति उत्पन्न कर सके। सृष्टि की कई जटिल परिघटनाओं की व्याख्या में विकासवाद इतना सुंदर, सुसंगत और कारगर साबित होता है कि कोई नास्तिक भी इसे ईश्वरीय सिद्धांत मान सकता है। इसकी समस्या अगर कोई है तो सिर्फ यह कि लाख विकासवाद का अध्ययन करके भी आप किसी जीव के अगले विकास के बारे में कुछ नहीं बता सकते। मेरे ख्याल से जीवन के चमत्कार से चकित होने और उसकी अंतर्गति को समझने में ऐसा कोई विरोध नहीं है। चकित नहीं होंगे तो समझेंगे क्यों और समझेंगे नहीं तो एक हद के बाद पूजा करने लगेंगे, चकित होने को वहां बचेगा ही क्या...
चन्दू भाई..हिन्दू धर्म के बारे में जानता ज़रूर हूँ.. पर हिन्दू की तरह नहीं सोचता.. सोचते समय दिमाग में कपिल, बुद्ध, ईसा, मूसा और मुहम्मद सब आते जाते रहते हैं..कुछ बाते हैं जिन में धर्म से समझ मिलती है.. कुछ में विज्ञान से.. कहीं दोनों दगा देते हैं.. मगर विज्ञान हो या धर्म अद्भुत का आस्वादन कर के ही उपजते हैं.. और उसे छोड़ देने से ही जड़ हो जाते हैं.. आप का यह कहना सौ टके सही है कि चमत्कार से चकित होने और उसकी अंतर्गति को समझने में ऐसा कोई विरोध नहीं है..चकित नहीं होंगे तो समझेंगे क्यों और समझेंगे नहीं तो एक हद के बाद पूजा करने लगेंगे, चकित होने को वहां बचेगा ही क्या...शानदार बात कही है आप ने..
शायद इसीलिए बने बनाए खाँचो से नहीं हमेशा नए कोण से देखते हुए चकित रहना चाहता हूँ.. उसमें रस भी है और तत्व भी..
अति गहन चिन्तन में डूबे हैं-बढ़िया है. और गहराई में उतरें, शुभकामना.
अवधूता कुदरत की गति न्यारी
मच्छ शिकारी रमे जंगल में
सिंह समुद्र ही डोले..
अवधूता...
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