लोहे का स्वाद
लोहार से मत पूछो
उस घोड़े से पूछो
जिस के मुँह में लगाम है
ये मुहावरा है..? सुभाषित है..? या आर्य सत्य है..?
ये सुदामा पांडे 'धूमिल' द्वारा लिखी हुई आखिरी पँक्ति है..
१४/१/१९७५ का दिन.. धूमिल भीषण सरदर्द से पीड़ित थे.. दृष्टि एकदम कमज़ोर हो चुकी थी.. छोटे भाई लोकनाथ पांडे से बोले—“ज़रा कागज़ पेंसिल लाओ, देखें-दृष्टि कमज़ोर हो गई है, चश्मा बगैर लिख पाता हूँ या नहीं”। कागज़ पेंसिल मँगाकर यह पँक्तियाँ लिखीं..
शब्द किस तरह
कविता बनते हैं
इसे देखो
अक्षरों के बीच गिरे हुए
आदमी को पढ़ो
क्या तुमने सुना कि यह
लोहे की आवाज़ है या
मिट्टी में गिरे हुए खून
का रंग।
लोहे का स्वाद
लोहार से मत पूछो
उस घोड़े से पूछो
जिस के मुँह में लगाम है।
आज़ादी के साठ साल बाद किस को कितनी आज़ादी मिली यह किससे पूछा जाय यह ज़रा अच्छे से सोचने की ज़रूरत है?
धूमिल को मरे बत्तीस साल हो गए.. मोबाइल फोन है.. इंटरनेट है.. हेमा मालिनी के गाल जैसी सड़क है..शॉपिंग मॉल है..शहरों-कस्बों की रंगत बदल गई है.. पर कुछ तो है जो इन सजावटों के पीछे इस देश में अभी भी नहीं बदला है..?
पढ़िये धूमिल की एक और कविता..
एक कविता: कुछ सूचनाएँ
सबसे अधिक हत्याएँ
समन्वयवादियों ने की।
दार्शनिकों ने
सबसे अधिक ज़ेवर खरीदा।
भीड़ ने कल बहुत पीटा
उस आदमी को
जिस का मुख ईसा से मिलता था।
वह कोई और महीना था।
जब प्रत्येक टहनी पर फूल खिलता था,
किंतु इस बार तो
मौसम बिना बरसे ही चला गया
न कहीं घटा घिरी
न बूँद गिरी
फिर भी लोगों में टी.बी. के कीटाणु
कई प्रतिशत बढ़ गए
कई बौखलाए हुए मेंढक
कुएँ की काई लगी दीवाल पर
चढ़ गए,
और सूरज को धिक्कारने लगे
--व्यर्थ ही प्रकाश की बड़ाई में बकता है
सूरज कितना मजबूर है
कि हर चीज़ पर एक सा चमकता है।
हवा बुदबुदाती है
बात कई पर्तों से आती है—
एक बहुत बारीक पीला कीड़ा
आकाश छू रहा था,
और युवक मीठे जुलाब की गोलियाँ खा कर
शौचालयों के सामने
पँक्तिबद्ध खड़े हैं।
आँखों में ज्योति के बच्चे मर गए हैं
लोग खोई हुई आवाज़ों में
एक दूसरे की सेहत पूछते हैं
और बेहद डर गए हैं।
सब के सब
रोशनी की आँच से
कुछ ऐसे बचते हैं
कि सूरज को पानी से
रचते हैं।
बुद्ध की आँख से खून चू रहा था
नगर के मुख्य चौरस्ते पर
शोकप्रस्ताव पारित हुए,
हिजड़ो ने भाषण दिए
लिंग-बोध पर,
वेश्याओं ने कविताएँ पढ़ीं
आत्म-शोध पर
प्रेम में असफल छात्राएँ
अध्यापिकाएँ बन गई हैं
और रिटायर्ड बूढ़े
सर्वोदयी-
आदमी की सबसे अच्छी नस्ल
युद्धों में नष्ट हो गई,
देश का सबसे अच्छा स्वास्थ्य
विद्यालयों में
संक्रामक रोगों से ग्रस्त है
(मैंने राष्ट्र के कर्णधारों को
सड़को पर
किश्तियों की खोज में
भटकते हुए देखा है)
संघर्ष की मुद्रा में घायल पुरुषार्थ
भीतर ही भीतर
एक निःशब्द विस्फोट से त्रस्त है
पिकनिक से लौटी हुई लड़कियाँ
प्रेम-गीतों से गरारे करती हैं
सबसे अच्छे मस्तिष्क,
आरामकुर्सी पर
चित्त पड़े हैं।
8 टिप्पणियां:
एकदम झंकझोर देने वाली प्रस्तुति धूमिल जी की रचनाओं की. आभार कहूँ?? या साधुवाद-कुछ खो गया हूँ.
अच्छा लगा धूमिल को पढ़कर । धूमिल और पाश को पढ़ना कालेज के दिनों में शुरू किया था । इन्हें पढ़ना नींद में से जागने की तरह है
धूमिल का बड़ा प्रशंसक हूं .
पर यार अभय! कम से कम आज के दिन तो यह कविता न देते . आत्मविष्लेषण और आत्मान्वेषण कई बार आत्मभर्त्सना और फिर आत्मदया में बदल जाता है . झूठ से बचना चाहिए और सच बात कहनी ही चाहिए पर आज के दिन इतनी निराशा कष्ट देती है . क्या सचमुच सब कुछ इतना बुरा है ?
धूमिल की कवितायें पढ़कर अच्छा लगा। मैंने भी धूमिल की कुछ कवितायें और उनके बारे में लेख पोस्ट किये थे। शायद किसी की रुचि हो इसलिये लिंक दे रहा हूं-
http://hindini.com/fursatiya/?p=130
http://hindini.com/fursatiya/?p=129
"लोहे का स्वाद" बहुत पहले पढ़ी थी। फिर से पढ़वाने के लिए शुक्रिया। दूसरी कविता भी अन्दर तक छूने वाली है - झकझोरने वाली - पुनः धन्यवाद।
आज के दिन धूमिल को पढ़ना अच्छा लगा। धूमिल की कविताएं बोलती सी हैं। इधर-उधर की गप्प नहीं सीधे मुद्दे की बात करती है हर कविता।
आज़ादी क्या तीन थके रंगों का नाम है?जिसे एक पहिया ढोता है?या इसका कोई और मतलब होता है?-धूमिल
अर्से बाद फिर धूमिल याद आए और खूब याद आए...
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