विनोद कुमार शुक्ल हमारे समय के सबसे अनोखे और सबसे बेहतर उपन्यासकार हैं.. वे मेरे पसंदीदा हिन्दी के लेखक हैं.. उनके पहले उपन्यास नौकर की कमीज़ के कवर पर उनके बारे में एक छोटी सी परिचयात्मक टिप्प्णी है..उसका एक अंश देखिए..
"नौकर की कमीज़ एक ऐसे समाज के युवा विश्वास का वाहक है, जो अभी तक अपनी सामंती मानसिकता से मुक्त नहीं हुआ है... नौकर की कमीज़ में समय की अनुभूति इतनी गहन है कि वह एक ऐतिहासिकता रचती चलती है।.."
ज़रा इस भाषा के बरअक्स विनोद जी की भाषा की बानगी देखिये.. 'कितना सुख था कि हर बार घर लौट कर आने के लिए मैं बार बार घर से बाहर निकलूँगा।..' उपन्यास इसी पंक्ति से शुरु होता है..
एक साधारण शब्दों वाले साधारण वाक्य को वे कुछ इस तरह संयोजित करते हैं कि उस वाक्य के भीतर एक नई दुनिया की झाँकी दिखने लगती है.. वे उपन्यास में लगातार कविता करते हुए चलते हैं.. मैंने बहुत पहले फ़्रांसीसी कवि ज्याँ काक्त्यू की एक बात पढ़ी थी.. जो मुझे बहुत सटीक लगती रही है.. कि जो आप के अपने नाम के पहचानेपन को ऐसे तोड़ दे कि आप उस की ध्वनि में एक नया अर्थ देखने में मजबूर हो जाय.. वही कविता है.. विनोद जी यह जादू लगातार करते चलते हैं.. और यह उनके उपन्यासों में उत्तरोत्तर बढ़ता रहा है.. नौकर की कमीज़ में बहुत कम है.. खिलेगा तो देखेंगे में खिलता है.. और दीवार में एक खिड़की रहती थी में पूरी तरह निखर जाता है..
विनोद जी की किताब का यह अंश प्रमोद भाई की प्रेरणा से है जिन्होने कल विनोद कुमार शुक्ल की एक कविता चढ़ाई थी.. और अविनाश को प्रेरणा देने के लिए है जो परेशान है कि क्या लिखें.. कैसे लिखें..?
बिही के साथ एक हरी पत्ती भी टूट कर गिरती है तो बिही ताजी है। माली की मेहनत के फल के साथ क्या टूट कर लगेगा। आम से लदी अमराई बाज़ार में बिकने नहीं आती। टोकनी में आम बिकेंगे।
बहुत पहेल से दफ़्तर नौ बजे से पाँच बजे तक का हो गया था। सुबह खाना खा कर मैं कई बार आ नहीं पाता था। बीच में जब एक घंटे की छुट्टी होती तब मैं खाना खाने घर जाता था। आम तौर पर सभी खाना खाकर दफ़्तर आया करते थे और एक घंटे की छुट्टी में कार्यालय की कैंटीना या आसपास बनी छोटी-छोटी होटलों में चाय पीने चले जाते थे। नहीं तो अपनी टेबिल पर ही लोग चाय पीते और गप्प मारते।
दफ़्तर के अहाते में आम और कटहल जब फलते थे, तब कर्मचारी लोग उन पेड़ों की तरफ़ घूमना फिरना बंद कर देते थे। अहाते के आम की मिठास और खुशबू की चर्चा सभी करते थे। यदि उनसे पूछा जाता कि आप ने खाया है या सुनी सुनाई बात है, तब वे कहते कि नहीं, सुनी सुनाई बात है।
इत्तफ़ाक से देवांगन बाबू, गौराहा बाबू और मैं जिस पेड़ के नीचे खड़े थे, वह कटहल का ही पेड़ था। छोटे बड़े कटहल पेड़ की पीड़ से फले थे।
गौराहा बाबू को अचानक कुछ याद आया, “हम लोग कटहल के पेड़ के नीचे खड़े हैं।” चौकन्ना हो कर उन्होने कहा।
“कितना फला हुआ है?” नीचे से ऊपर तक पेड़ देखते हुए मैंने कहा।
“यहाँ से खिसक चलें।” देवांगन बाबू ने कहा।
“क्यों?” मैंने पूछा।
“कटहल और आम प्रायः चोरी चले जाते हैं। इन पेड़ों के आसपास जो दिखता है, साहब उसी पर शक करते हैं”
“दफ़्तर की खिड़की से कटहल की तरफ़ देखूंगा तब भी शक कर सकते हैं?” मैंने कहा।
पेड़ को देखना, और पेड़ के नीचे खड़े रहना और बात है।” देवांगन बाबू ने कहा।
“देवांगन बाबू, आप तो बड़े बाबू की तरह बात करते हैं। कटहल की बात करेंगे तो भी शक होगा?” मैंने कहा।
ज़बरदस्ती कोई मेरे ऊपर चोरी का शक करे, यह मैं नहीं चाहता।” देवांगन बाबू ने कहा।
“कटहल के पेड़ से दूर रहा जाय, यही ठीक है।” गौराहा बाबू ने कहा।
“जब पेड़ में फल न रहें, तब इनके आसपास घूमें और फल आ जाएँ तब दूर दूर रहें।” आश्चर्य से मैंने कहा।
“हर साल यही होता है। और हर साल आम और कटहल फलते हैं।”
“सुनिए, आप दोनों। कटहल बहुत कीमती चीज़ नहीं है, पिछले साल पन्द्रह पैसे किलो तक बिका है।”
“अभी दो रुपए किलो है।” दोनों ने एक साथ कहा।
“यह कटहल किसकी संपत्ति है?”
“सरकार की संपत्ति है। हमारी-आपकी संपत्ति।” दोनों ने एक साथ कहा।
क्या कटहल बेचे जाते हैं, और यदि बेचे जाते हैं तो उसके पैसे खजाने में जमा होते होंगे?” मैंने पूछा।
अगर बेचे जाएँ तो ज़रूर जमा होते होंगे। पर ऐसी नौबत नहीं आती। सब चोरी चले जाते हैं। साहब उस चोर का पता लगाना चाहते हैं।” दोनों ने एक साथ कहा।
“चोरी होकर साहब के घर पहुँच जाते होंगे?”
“साहब को किस बात की कमी है? इन चीज़ों पर हम लोगों की ही नीयत खराब होती है।” गौराहा बाबू ने कहा।
“मुझे आश्चर्य है।दिन रात संतरी रहता है और दिन भर हम लोग रहते हैं, कटहल कब चोरी चला जाता है?”
“मालूम नहीं पड़ता। वह जो बड़ा सा कटहल है, उसे पहचान लो, कल नहीं दिखेगा।” उँगली से इशारा करते हुए गौराहा बाबू ने कहा।
देवांगन बाबू ने इशारे के लिए उठे हुए गौराहा बाबू के हाथ को इस तरह पकड़ा कि इशारे वाली उँगली उनकी मुट्ठी में छुप गई, “इशारा मत करो।” देवांगन बाबू ने समझाते हुए कहा।
मैंने कहा, “मुझे बचपन की एक कहानी याद आ रही है। एक राजा था। उसका एक सुंदर बगीचा था। उस बगीचे में सोने, चाँदी, हीरे, जवाहरात, मीठे खुशबू वाले तरह-तरह के फल लगे थे। रोज़ सुबह मालूम होता था कि बगीचे के फल चोरी चले गए। राजा के बड़े लड़के ने पहरा दिया तब भी फल चोरी चले गए, राजा के मँझले लड़के ने पहरा दिया, तब भी चोरी गए।”
“छोटा लड़का चोर का पता लगा लेता है।” गौराहा बाबू ने कहा।
“चोर के सोने का तोता था।” देवांगन बाबू ने कहा।
“नहीं, ऐसा नहीं है। छोटा लड़का भी पता नहीं लगा पाता।” मैंने कहा। “चोर एक मिट्टी का तोता था। माली ने बगीचे की गीली मिट्टी से उसे बनाया था।”
“ऐसी कहानी नहीं थी?” देवांगन बाबू ने कहा।
मैंने ध्यान दिया कि बात करते-करते दोनों मुझे कटहल के पेड़ से दूर ले जा रहे थे।
“माली की इच्छा होती थी कि वह भी फल को चखे। पर राजा के डर से उसकी हिम्मत नहीं होती थी। मिट्टी का तोता माली के लिए फल तोड़कर लाना चाहता था। एक रात वह सचमुच का तोता हो गया। जल्दी-जल्दी फल तोड़कर उसने माली के सिरहाने इकट्ठा कर दिए। तोता फिर से मिट्टी का हो गया। बहुत सुबह माली की नींद खुली। सिरहाने बगीचे के फलों को देखकर वह घबरा गया। उसने सोचा कि राजा उसे चोर समझेगा। राजा का इतना अच्छा शासन था कि उसने किसी के पास छुपाने की जगह नहीं छोड़ी थी। केवल विचारों को छुपाने की जगह तक उसकी पहुँच नहीं हुई थी। फल खाने जो विचार था उसे तो राजा उसने राजा से छुपा लिया था। अब फल कहाँ छुपाए, इस डर से वह सारे फल खा गया। डर के मारे फल का स्वाद नहीं आया।”
“इतने कड़े पहरे में भी कोई तोते को नहीं देख पाया?” गौराहा बाबू ने पूछा।
“तोता बगीचे की मिट्टी का बना था। उसका रंग बरसात की बाद हरी हुई पत्तियों का नहीं था। गर्मियों में बाल्टी भर-भरकर माली सिंचाई करता था, उसी से हरी हुई पत्तियों का हरा रंग था। इसीलिए बगीचा तोते को छुपा लिया करता था।”
“फिर क्या हुआ?” देवांगन बाबू ने पूछा।
“रोज़ तोता उसके लिए फल तोड़ता और डरा हुआ माली इसलिए उसे खा जाता कि फल कहीं वह छुपा नहीं सकता था। खा लेने के बाद भी डर के कारण उसे फलों के स्वाद के बारे में कोई जानकारी नहीं थी और न उसका पेट भरता था। पहले की तरह दिन-भर काम करते हुए वह सोचता कि फल बहुत स्वादिष्ट होंगे। मेरे ख्याल से कहानी यहीं खत्म होनी चाहिए।”
“यहाँ नहीं, अभी पता कहाँ चला कि राजा ने उसे पकड़ा या नहीं।”
“यह हम लोग मान लेंगे कि राजा ने उसे पकड़ लिया है और उसे सजा हो गई।”
“मान लो और किस्सा खत्म करो। यहाँ से चलो।” देवांगन बाबू ने कहा।
“इधर से जाने की बात करोगे तो मैं कहानी मन से मानने नहीं दूँगा।”
वे मेरी बात सुनने के लिए तैयार नहीं थे। “अगर तुम दोनों पूरी बात सुने बिना चले जाओगे तो ज़ोर से चिल्ला कर कहूँगा।”
“सुनाओ भाई, पर जल्दी सुनाओ और जल्दी खत्म कर दो।” गौराहा बाबू ने कहा।
“फिर क्या हुआ।” देवांगन बाबू ने कहा।
“एक रात तोता फल तोड़कर लाया। सोते हुए माली को उसने जगाया। माली ने आश्चर्य से तोते को देखा। तोता उससे बाते करने लगा—“माली, तुम बहुत मेहनत करते हो।तुमने सुना होगा कि मेहनत का फल मीठा होता है। क्या तुमने यह सुना है?”
माली ने कहा, “हाँ।”
“ज़रा चख कर देखो, क्या यह फल मीठा है?”
माली ने फल चखा। उसने एक बढ़िया स्वाद का अनुभव किया। इस अनुभव से उसकी आँखों में आँसू आ गए। मेरा खयाल है, कहानी यहीं खत्म होनी चाहिए।” मैंने कहा।
“यह तुम्हारी बचपन की सुनी सुनाई कहानी नहीं है।” गौराहा बाबू ने कहा।
“हाँ, ऐसी कहानी माँ-बाप या अजिया दादा ने नहीं सुनाई थी। यह कहाने मैं अपने लड़के को सुनाऊँगा। थोड़ा और बदल दूँगा।”
“किस तरह बदलोगे?” देवांगन बाबू ने पूछा।
“कब बाप बनने वाले हो?” गौराहा बाबू ने पूछा।
“यह तो मैंने भविष्य की बात की थी। अभी अपने परिवार में एक पीढ़ी अलग होने की झंझट में मैं नहीं पड़ना चाहता। चूँकि जल्दी नौकरी मिल गई थी इसलिए जल्दी शादी हो गई। अगर पैंतीस की उम्र में नौकरी मिलती तो मैं पैंतीस की उम्र में शादी करता। शादी के लिए जवानी उम्र से नहीं, नौकरी से मिलती है। मैं अपने लड़के को बतलाऊँगा कि पेट भूख छुपाने की जगह नहीं है। मेहनत की कमाई से पूरा पेट भरना चाहिए और स्वाद लेकर खाना चाहिए।”
कटहल के पेड़ से ये लोग मुझे ज़्यादा दूर नहीं ला पाए थे क्योंकि जानबूझकर मैं भी पेड़ के इर्द-गिर्द होने की कोशिश कर रहा था।
“चलो, अब चलें।” देवांगन बाबू ने कहा।
“कभी फलों की चोरी का आपके ऊपर शक हुआ था?” मैंने देवांगन बाबू से पूछा।
“चोरी का नहीं हुआ था। लेकिन पिछले साल पेड़ के नीचे बैठनेवालों में और उसके आसपास घूमने वालों में मेरा नाम भी था।”
“आपका कुछ बिगड़ा?”
“कुछ नहीं बिगड़ा।”
“फिर डर किस बात का? मैं कटहल के पेड़ पर चढ़ूँगा।” मैंने कहा।
“ऐसा मत करना।” उन्होने कहा।
मैं तो चढ़ूँगा,” और कटहल के पेड़ की तरफ़ बढ़ा तो रोकते हुए देवांगन बाबू ने कहा, “लंच का टाइम खत्म हो रहा है। लौट चलें।”
“अभी पन्द्रह-बीस मिनट होंगे। देखिए कितने निश्चिंत होकर लोग होटलों में घुसे हुए हैं। पाँच मिनट में मैं तीन बार इस पेड़ पर चढ़ सकता हूँ।” मैंने कहा।
“आप हम लोगों की बात समझ नहीं पा रहे हैं।” गौराहा बाबू ने कहा।
“मैं समझ रहा हूँ।” मैं सधे कदमों से पेड़ की तरफ़ बढ़ा।
“संतू बाबू। थोड़ी देर के लिए रुक जाओ।” गौराहा बाबू ने कहा।
“मैं पेड़ पर चढ़ रहा हूँ।” मैं पेड़ की तरफ़ बढ़ता रहा। पेड़ के पास पहुँचकर चढ़ने के पहले मैंने सोचा एक बार दोनों को देख लूँ, वे कहाँ हैं। दोनों गायब थे।
प्रकाशक: आधार प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड
एस सी एफ़. २६७, सेक्टर १६
पंचकूला-१३४११३
मूल्य: १५० रुपये
11 टिप्पणियां:
शुक्रिया स्मृतियों को फ़िर से जगाने के लिए!!
शुक्ल जी के हर दूसरे वाक्य से एक नया प्रतिबिंब, एक नई परिभाषा सी झलकती है जबकि शब्द वही पुराने ही होते हैं।
माहौल बड़ा ठंडा-ठंडा है, भाई? लोग तुम्हारी श्रद्धा की लम्बी प्रस्तुति से डर गए.. या कि विनोदजी के सरस-सरल गद्य से?.. हिन्दी सेवा का ढोल बजानेवालों की यही सारी बातें प्यारी-मनोहारी हैं. हिन्दी की बात उठते ही गाल पर उंगली गड़ाये चेहरे पर चिन्ता व कब्ज वाला भाव बनाये रखेंगे, मगर पढ़ने-सुनने की बात आये तो मन लतीफ़े वाली पुस्तिकाओं में ही रमता है!
विनोद जी से लंदन में मुलाकात हुई थी, बहुत संक्षिप्त सी, उनके साथ चाय पी. उन्होंने कुछ बेहद मासूम से सवाल पूछे, इटली में कहीं से कविता पढ़कर लौट रहे थे. मुझे अपने किसी आत्मीय क़स्बाई रिश्तेदार की तरह लगे, ओढ़ी हुई बौद्धिकता नहीं थी ज़रा भी. उनका लेखन तो जादुई है, इसमें क्या शक है.
राजा का इतना अच्छा शासन था कि उसने किसी के पास छुपाने की जगह नहीं छोड़ी थी। केवल विचारों को छुपाने की जगह तक उसकी पहुँच नहीं हुई थी।
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बहुत खूब शासन था राजा का । आज भी बरकरार है ।बस आज राजा दिमाग की मशीन का एक्सरे और क्रास एग्ज़ामिनिन्ग करके यह भी पता लगा लेता है अक्सर कि भेजे मे क्या चल रहा है ।
प्रस्तुति के लिए धन्यवाद !
वाह-वा !
अब ब्लॉग में एक नई खिड़की खोलिये तथा सोनसी और रघुबर के प्रेम के एक-दो अद्वितीय दृश्य अवश्य दिखाइए .
प्रतीक्षा रहेगी . हाथी पर जाते हीरो की .
कहानी और उसे कहने का ढंग बहुत अच्छा लगा । एक बेहतरीन रचना को पढ़वाने के लिए धन्यवाद ।
घुघूती बासूती
विनोद कुमार शुक्ल मेरे भी प्रिय रचनाकार हैं । उनकी कविताएं हों या उनके उपन्यास दोनों ही लुभाते हैं । बहुत बरस हुए उन्हें मोदी फाउंडेशन के पुरस्कार समारोह में देखा था,
ऐसा लग रहा था जैसे फंस गये हैं अप्रिय महफिल में । नौकर की कमीज़ पर बहुत सुंदर फिल्म बनी है । देखिएगा । दीवार में एक खिड़की रहती थी भी मुझे उतना ही पसंद है जितना नौकर की कमीज
आज आपकी ये पोस्ट पढ़कर उस व्यक्ति पर गुस्सा आया जो उधार में मांगकर ये पुस्तक ले तो गया पर कभी वापस नहीं की ।
yunus bhaee mere man kee baat kaise jaan gaye?
saahitya akademi mein unhein dekhaa to baazoowaalee baniyaan unke aadhi aasteen qameez se jhaank rahi thee.unhen dikhne mein kam likhne me zyaadaa dilchaspee hai.long live vks.
देर से आये. गल्ती हुई जो इतनी बेहतरीन प्रस्तुति देर से पढ़ रहा हूँ. शुक्ल जी का लेखन जबरद्स्त है. बाँधता है. ऐसी ही अन्य पेशकश की आपसे आशा है. बहुत आभार.
बेहतरीन प्रस्तुति..विनोद जी को पढ़ना अच्छा लगा !
बढ़िया..मैंने इस किताब के कुछ अंश पढ़ें हैं...मौका मिलते ही पूरी पढूंगा..
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