गुरुवार, 27 सितंबर 2007

पराजय का मूल्य

सफल आदमी के चेहरे पर एक चमक होती है। दिल में एक गुदगुदी होती है। अपनी जीत का एहसास होता है। जब वह नज़र उठा के देखता है तो उसे हारे हुए लोगों की भीड़ दिखती है। उनके लटके हुए उदास चेहरों को देख वह थोड़ा और अकड़ जाता है। वो जो कुछ भी सोच रहा होता है उसे अपनी जीत का मूलमंत्र मानकर उस में और जकड़ जाता है। जब वह मुँह खोलता है तो अपने बारे में बोलता है। वह सामने वाले को नहीं देखता उस के सन्दर्भ में सिर्फ़ अपने को ही देखता है। वह बताता है कि उसके आस-पास दुनिया कितनी प्रतिभाहीन है। ऐसा कहकर वह जतलाता है कि सारी गुणवत्ता उसी में आसीन है।

उसकी जगह हम होते तो हम कुछ अलग बरताव करते इसमें संदेह है। माना गया है कि जीवन में सफलता बड़ा मूल्य है। मगर कई पाठ ऐसे भी हैं जो पराजय के गुणगान करते हैं। जैसे हराल्ड हेट्ज़ेल की किताब ‘बुद्धाज़ लास्ट सरमन – इन हेल’ .. देखिये उसका एक अंश:

हर सच्ची साधक एक बेलौस और बाशौक़ जंगजू है। उसे जंग से कोई खौफ़ नहीं। वह जीत की प्यास से बेचैन है और लगातार तलाशती है अपनी मुक्ति को – अपनी आखिरी शिकस्त।

इस आखिरी शिकस्त- उसकी गुरु- में ही वह शक्ति है जो इस दुनिया में सीखी हुई हुशियारी और दुनियादारी के उस बेहद मजबूती से जकड़े हुए बख्तरबंद को छिन्न-भिन्न कर सकती है, जो पहले ही पुराना हो चला है। यह आखिरी शिकस्त सब कुछ मांगती है, पूरी और समूची ताक़त, साहस, इरादा, हुशियारी, दर्द, तमन्ना, शौक़, समर्पण, इल्म और उम्मीद। इस आखिरी शिकस्त से हासिल होता है अन्तहीन शून्य- सम्पूर्ण पराजय, मगर सिर्फ़ फ़ौरी तौर पर।

इस आखिरी और समूची शिकस्त से ही सुधर कर और पूरी तरह बदल कर उपजती है सच्ची (रूमानी नहीं) साधक और जंगजू, जैसे एक नया जन्म लेकर। यह नई शख्सियत बुज़ुर्ग है, शालीन है; यह गहराई से करती है सवाल और समझती है, यह शख्सियत ज़्यादा गम्भीर है और ज़्यादा शांत है। ज़िन्दगी और लोगों से पहचान की आदत को त्याग दिया गया है या कहें कि बदल लिया गया है। और क्योंकि यह शख्सियत आनन्दरहित नहीं है- बिलकुल भी नहीं- यह एक अलग जीवन जीती है एक नई मासूमियत के साथ।

बुधवार, 26 सितंबर 2007

एक दिन दिल्ली में दोस्तों के साथ

आजकल दिल्ली में हूँ। प्रमोद भाई पहले से ही दिल्ली में हैं। दिल्ली सालों मेरा घर रहा है-१९८४ से १९९६ तक। जिस बीच मैं इलाहाबाद और मुम्बई रहते हुए भी बार-बार दिल्ली लौटता रहा। मेरे बड़े भाई का घर आज भी यहीं है। इसलिए कानपुर- जहाँ अब मेरा दूसरा भाई और माँ रहतीं हैं- जाने का रास्ता दिल्ली हो कर ही बना हुआ है। इस बार लगभग दो बरस बाद मुम्बई से निकला है। बोधि तो मुझे हमेशा ही कहते रहते हैं कि तुम तो कभी भी आश्रम बना लो क्योंकि तुम ने तो क्षेत्र-सन्यास लिया ही हुआ है। तो इस सन्यासाश्रम से घबरा कर मैं भागा हुआ हूँ। इस पलायित अवस्था में अचानक ढेर सारे दोस्तों के साथ एक पूरा दिन बिताना एक सुखद अनुभव रहा। वैसे तो हम जिस दौर में हैं जहाँ साये भी साथ छोड़ जाते हैं दोस्तों का तो कहना क्या! बावजूद उसके मुझे दोस्तों की कमी कभी खली नहीं। मेरे पुराने दोस्त मेजर संजय और प्रमोद जी से मिलने की बात थी, जगह तय हुई श्रीराम सेंटर का पुस्तक बिक्री केंद्र की, जिसे लोग दिल्ली की एकमात्र हिन्दी किताबों की दुकान मानते हैं(बाकी प्रकाशन घर हैं या वितरण के अड्डे)। इरफ़ान मियाँ, प्रमोद भाई और अविनाश को वहाँ छोड़ अपनी नौकरी बजाने चल दिये। भूपेन अलग दिशा से आए। मैं पहुँचा। मेजर संजय चतुर्वेदी पधारे। रवीश कुमार किसी कहानी की पीछा करते हुए कुछ देर यहाँ भी उसकी बू लेते रहे।


मसिजीवी सुबह की पारी की अध्यापकी करने के बाद घर लौटने के बजाय पुरानी अड्डेबाजी का लुत्फ़ लेने यहाँ ऐसा रुके कि शाम तक रुके रहे। जब सुजाता आईं। उनके आने के पहले जमशेदपुर की रश्मि आईं, कार्टूनिस्ट पवन आए, हिन्दुस्तान के पत्रकार धर्मेन्द्र आए। और सबसे आखिर में सैय्यद मुहम्मद इरफ़ान आए।
कुछ दोस्तों से तो सचमुच पहली ही बार मिला। लेकिन अधिकतर से तो आभासी दुनिया का अंतरंग नाता बना ही हुआ है। लगा ही नहीं कि नए दोस्तों से मिल रहा था। बात करते रहे बैठे हुए, चलते हुए, घूमते हुए। श्रीराम सेंटर की कैंटीन में बतकही, बाहर पेड़ के नीचे चाय के अड्डे की चाय। वापस किताबों की दुकान से किताबों की खरीद और कैंटीन की कॉफ़ी। फिर बंगाली मार्केट की ओर टहलते हुए फ़्रूट मार्ट से केले और बंगाली से मिठाई और दोसा और लौटते में वापस पेड़ के नीचे बैठकी। और आखिर में साहित्य अकादमी की हरी घास पर क्षण भर से ज़्यादा।
देश-दुनिया, टीवी-अखबार, साहित्य-समाज और एक दूसरे के निजी प्रसंगो पर बातों का सिलसिला अबाध चलता ही रहा। शाम ढल गई। अँधेरा हो गया। मेरी भाभी ने फोन पर घर लौटने की बात उठाई और मुझे अपने आजकल के अनुशासित जीवन की याद दिलाई। लोभ तो था कि रमा रहता इस दोस्ताने में देर रात तक पर दोस्ती से भरे दिल में थोड़ी जगह संतोष को भी दी। और अपने भाई के साथ लिफ़्ट ले कर वापस लौट आया।

शुक्रवार, 21 सितंबर 2007

लेखक का कमरा

हम में से कम ही लोग हैं जो खुले आसमान के नीचे बैठ कर लिखते हैं.. अधिकतर कमरों में बैठ कर लिखते हैं.. अधिक उचित होगा कहना- कमरों के कोनों में बैठ कर.. दो-ढाई कमरों के मकान में एक लिखने का भी कमरा चाहना, औक़ात से बढ़कर बात करना है क्या..? शायद हाँ.. मगर उसके सपने देखना कोई जुर्म तो नहीं.. कम से कम सपनों में तो कंगाली नहीं होनी चाहिये.. आइये देखिये इन तस्वीरों को और सजोइये सपने अपनी निजी स्टडी/ लेखन-अध्ययन कक्ष के..
चाहे तो भर ले अपने कमरे को किताबों से.. दुनिया भर के विचारों के बीच रहकर रचा जाय अपना एक संसार.. या रखें सिर्फ़ काम की चीज़ें..ताकि कर सकें सन्नाटे में सृजन.. या फिर इतनी भी न भरें किताबें कि उन के शोर में सुन भी न सकें आप अपनी बात.. और इतना भी खाली न कर दें कि विचार ही आना बन्द हों जाय..

ये सारे कमरे बड़े-बड़े लेखकों के हैं और मैं कईयों के नाम भी नहीं जानता.. पर उनके कमरे देखने में क्या जाता है.. इन लेखन-कक्षों के बारे में विस्तार से पढ़ने के लिए गार्डियन के वेब पन्ने पर जायं..

गुरुवार, 20 सितंबर 2007

अपवाद नहीं थी यह हिंसा..

ये तस्वीरें जर्मनी के ऑशवित्ज़ नाम के एक कुख्यात नाज़ी कैम्प में तैनात अफ़सरों के दैनिक जीवन से हैं। इन्हे कार्ल हॉपर नाम के एक नाज़ी अफ़सर ने अपने फोटो एलबम में संकलित कर रखा था, जो हाल ही में अमरीकी म्यूज़ियम के हाथ आया।
क्या आप इन मर्दों-औरतों के उल्लासपूर्ण चेहरों को देखकर कह सकते हैं कि इनका काम था कैम्प में आए हुए यहूदियों और दूसरे लोगों में से कुछ को तुरंत गैस चैम्बर में दम घोट कर मार डालना, और कुछ को कैम्प में मेहनत मज़दूरी करने के लिए सिर्फ़ तब तक जिलाए रखना जब तक क़ैदियों की दूसरी खेप नहीं आ जाती।

ये कोई बीमार लोग नहीं थे। अनोखे.. विचित्र.. अमानवीय लोग नहीं थे.. पूरी तरह मनुष्य थे। हम ऐसे ही हैं। ईश्वर और शैतान दोनों को अपने ही भीतर लिए घूमते हैं।

जो लोग इन्हे इतिहास के अनोखे हत्यारों के रूप में चित्रित करते हैं वे भूल जाते हैं कि मनुष्य का पूरा इतिहास ऐसी बर्बरताओं से भरा पड़ा है। लेकिन यहूदी और अमरीका लगातार गैस चैम्बर्स को ही बर्बरता का चरम साबित करना चाहते हैं। वे किसी को भूलने नहीं देते यह बात।

अगर बर्बरता का चरम यह है तो हिरोशिमा और नागासाकी में जो हुआ वह क्या था? दुनिया भर में जो अमरीकी फ़ौजे आज भी बम-वर्षा कर रही हैं, वह क्या है? क्या हर अमरीकी सिपाही हर निर्दोष हत्या के बाद दोस्तोव्यस्की का नायक हो जाता है?

सच तो यह है कि अमरीका ही नहीं उसकी जगह अगर इराक़ भी होता तो वो भी इसी क़िस्म की 'मानवीय' हिंसा में लिप्त रहता, रहा है। अलग-अलग इतिहास-खण्डों में चीन, भारत, अरब, ग्रीस सबने ये किया है। अफ़्रीकी देश अपने स्तर पर भी ये करते रहे हैं, कर रहे हैं।

ये व्यवहार मनुष्यता के लिए नियम है, दोस्तोव्यस्की के नायक का अपराध-बोध अपवाद है। मगर हम उसे मानवीय मानते हैं। क्योंकि एक मनुष्य के बतौर हम वैसी करुणा पाना चाहते हैं। हर मसीहा जन्नत का ये संदेश ले कर आता है मगर एक ऐसा धर्म छोड़ जाता है जिसके नाम पर लाखों को जहन्नुम रसीद किया जाता है।

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मंगलवार, 18 सितंबर 2007

मैं हर जगह बन्धन में हूँ..

कमरे में दीवारें मुझे क़ैद रखती हैं। खिड़कियां मुझे और मेरे संसार को भीतर और आकाश को बाहर, सलाखों से बंद रखती हैं। दरवाज़ें खोलने का आभास ज़रूर देते हैं लेकिन हर दरवाज़ा किसी के लिए राह खोलता है तो कहीं ज़्यादा लोगों के लिए राह रोकता है।

रुकता हूँ तो रुका ही हूँ और चलता हूँ तो दिशाएं मुझे छेकती हैं और गति आगे कम बढ़ाती है पीछे ज़्यादा फेंकती है।

जल में साँस रोक कर रखने की एक हद है और पृथ्वी के वायुमण्डल की भी हद है। देश की ही नहीं, राज्य और ज़िलों की भी सरहद हैं। समाज में मर्यादाएं हैं, फिर का़नून हैं। और रिश्तों का तो दूसरा नाम ही सम्बन्ध है। उम्मीदें हमें पकड़े हुए हैं और फ़र्ज़ हमें जकड़े हुए हैं।

अपने नाम की ध्वनि से बँध गए हैं मेरे कान उम्र भर के लिए। चाहूँ तो बस सकता हूँ दूसरे देश के दूसरे शहर में, बोल सकता हूँ कोई और भाषा और बदल भी सकता हूँ अपना नाम। लेकिन जिन्होने जन्म दिया, अपने उन माँ-पिता से जनम भर चिपका रहता हूँ।

शरीर में रूप-रंग और कद-काठी की स्थूल और रोगों की सूक्ष्म सीमाएं हैं। मन के भीतर गाँठों की बाधाएं हैं। जागता हूँ तो जागृति के बन्धन हैं और सोता हूँ तो सपनों के बन्धन हैं। कल्पनाएं-इच्छाएं.. ऐसा लगता है कि कहीं भी आती-जाती हैं पर वे भी अनुभवों के डोर से उड़ाई जाती हैं।

मैं कितना होना चाहता हूँ आज़ाद पर हर जगह बन्धन में हूँ..

सोमवार, 17 सितंबर 2007

फ़ुरसतिया की आँखों से छलकता खून

लीजिये हो गई ब्लॉगर मीट.. फ़ुरसतिया जहाँ जाते हैं ब्लॉगरों का मीट ज़रूर पकाते हैं.. शेर के मुँह खून लग चुका है.. कानपुर में दो चार बार पका चुके हैं.. दिल्ली में पकाया.. पुने और नासिक से होते हुए मुम्बई भी आ धमके.. और हमें मीट पकाने के लिए मजबूर कर दिया.. उनकी दादागिरी के आगे हम कुछ न कर सके.. और मुझ जैसे शाकाहारी को भी इस पकाऊ मीट में शामिल ही नहीं होना पड़ा.. बल्कि शशि सिंह के साथ उसका सह-आयोजक भी होना पड़ा..

सबसे पहले तो ये सफ़ाई देना चाहता हूँ कि लोग आए ज़रूर थे मीट का स्वाद लेने मगर उन के साथ धोखा हुआ.. मीट के बदले केक मिला वो भी एगलेस.. फ़ुरसतिया के जन्मदिन का केक.. फ़ुरसतिया के जन्मदिन की बात बोधिसत्व ने सब को बताई और बोधि को उनकी पत्नी आभा ने घर से निकलने के बाद याद दिलाई.. (वो क्यों नहीं आई यह किसी ने नहीं पूछा).. तो उन्हे कुछ उपहार लेने का समय न मिला तो आनन-फानन नागर जी द्वारा लिखित 'मानस का हंस' की एक प्रति मेरे घर से बोधि भैया ने बरामद की और जबरिया सुकुल जी को सामूहिक तौर पर भेंट करवा दी.. मैं कहता ही रह गया कि मेरा नाम-मेरा नाम.. पर बोधि ने अपनी बलशाली काया के प्रभाव का इस्तेमाल कर के मुझे मेरे भेंट देने का यश पाने के प्राकृतिक अधिकार से वंचित कर दिया..

इस केक खाने के दौरान सबने सुकुल जी से बहुत ज़ोर देकर उनसे उनकी बुज़ुर्गी की पैमाइश जाननी चाही.. मगर फ़ुरसतिया ने बार-बार बात को दूसरी-दूसरी दिशाओं में ले जा कर पटक दिया.. हम समझ गए कि इस हठ-इंकार के पीछे अनूपजी की अपने हसीन होने में आस्था ही है.. लोगों ने इधर उधर की खूब बतकही की..और आखिरकार मेरे द्वारा धकेले जाने पर ही ब्लॉगिंग पर चर्चा करनी शुरु की.. सबसे काम की बात कम शब्दों में बोलने वालों में थे पुने से अनूप जी के साथ आए आशीष श्रीवास्तव, अजय ब्रह्मात्मज,शशि सिंह, विमल वर्मा और युनुस खान, और अनिल रघुराज ने सबसे ज़्यादा सुनकर और कम से कम बोलकर अपने बुद्धिमान होने का मुज़ाहिरा किया.. बोधिसत्व ने लोगों की इस मितभाषिता से उपजे खालीपन को महसूस नहीं होने दिया.. और वे इतना बोले कि फ़ुरसत से बोलने के लिए आए फ़ुरसतिया भी उनसे आतंकित दिखे..

(बायें से दायें: बोधिसत्व, अनूप जी, विमल भाई, खाकसार और अनिल रघुराज)
आशीष अपनी ब्लॉगिंग यात्रा में एक पड़ाव पर थमे दिखे.. उन्होने बताया कि हिन्दी लिखने के टूल्स विकसित हो जाने के बाद से अब वे अपनी भूमिका नहीं देख पा रहे.. उन्हे सलाह दी गई कि वे कासे कहूँ-कासे पूछूँ हालत वाले आम ब्लॉगर के तकनीकि सवालों के जवाब देने वाले ई-डॉक्टर बन जायं.. जिसकी सख्त ज़रूरत है.. उन्होने इस पर थोड़ा विचार किया.. थोड़ा बाद में करेंगे.. ऐसा हमें लगा..

(बायें से दायें: युनुस खान, अनिल रघुराज, और आशीष)
शशि ने बताया कि कैसे वे लिखने से ज़्यादा लोगों से लिखाने में व्यस्त हैं..
बोधिसत्व ने ब्लॉग को अपनी आज़ादी का पर्याय बताया..और बहुत सारे नए लोगों तक पहुँचने का साधन..
अजय ब्रह्मात्मज ने बताया कि ब्लॉग उनके लिए वे सारी बातें लिखने का मंच है जिसे परम्परागत मीडिया छापना नहीं चाहता.. वे अपने ब्लॉग के ज़रिये के ऐसी नज़र विकसित करना चाहते हैं जो आमदर्शक की तरह पारदर्शी हो..
युनूस खान के लिए ब्लॉग वो जगह बनी हुई है जहाँ वे लोगों को अपने पसन्द के गाने अपनी तरह से सुना सकते हैं..
(बायें से दायें: अजय ब्रह्मात्मज, शशि सिंह, बोधिसत्व और अनूप जी)
विमल जी ने कहा कि वे ब्लॉग के ज़रिये अपने भीतर एक नई लेखकीय प्रतिभा को जन्म लेते हुए देख रहे हैं.. और यह कहते ही वे ठुमकते हुए चले गए गणेश जी का आशीर्वाद लेने..
अनिल रघुराज ने कहा कि वे ब्लॉग-लेखन के सहारे अपने को खोज रहे हैं.. पागुर कर रहे हैं.. पचा रहे हैं पहले के पढ़े हु़ए को ..
खाकसार ने भी अपने इलाहाबादी कामरेडों की बात को ही दोहराया और अपने विचारों को सही-सही पहचानने की कोशिश में ब्लॉग का अर्थ खोजने की बात की..

(बायें से दायें: अजय ब्रह्मात्मज, युनुस खान, बोधिसत्व, अनिल रघुराज, आशीष, अनूप जी, और शशि)
तीन घंटे तक जावा ग्राइंड की कुर्सियाँ तोड़ने बाद और शोर मचाने के बाद हमें वहाँ से बाहर किया गया.. मैंने सोचा कि चलो छुट्टी मिली. मगर फ़ुरसतिया हमें छोड़ने को तैयार न हुए. उन्होने कहा कि वे देखना चाहते हैं कि हम कहाँ और कैसे रहते हैं.. मुझे उनके इरादों में हिंसा की बू सी आई.. पिछले महीनों मैं जो उनके खिलाफ़ यहाँ-वहाँ टिप्पणियाँ करता रहा हूँ.. मुझे उनकी आँखों में उस के बदले की भूख तैरती नज़र आई जो उबल के बाहर छलकी पड़ रही थी.. अब मुझे उनके मुम्बई आने का असली मक़्सद दिखने लगा..मैं बुरी तरह डर गया.. मैंने बोधि और युनुस से साथ चलने को कहा.. मगर इस बार आतंकित होने की बारी बोधि की थी और वे फ़ुरसतिया के सर पर सवार खून को देख कर भाग खड़े हुए..

अनिल जी ही मेरे असली मित्र साबित हुए और मेरे रक्षार्थ घर तक आए.. फ़ुरसतिया अपने द्वारा बनाए हुए बम गोलों और तोप का भय दिखा कर अनिल जी को भी डराने की कोशिश करते रहे, मगर वे नहीं डरे.. आखिर में फ़ुरसतिया को अपने बदले की चाहत से ज़्यादा पुने में अपने बॉस की डाँट से डर लगा.. और वे जाने के लिए उठ खड़े हुए.. वे अपना इरादा न बदल दें इसलिए मैंने उन्हे स्टेशन तक भिजवा कर ही चैन की साँस ली..
(अनूप जी के उठ खड़े होने पर खाकसार के चेहरे पर आई खुशी.. आशीष और अनिल जी के चेहरे की खुशी मेरे बच जाने की हमदर्दी में है.. )

*चलते चलते फ़ुरसतिया प्रमोद भाई के घर की दिशा भी पूछ रहे थे.. लगता है उनसे भी कोई पुराना हिसाब चुकाना था.. मगर प्रमोद भाई पहले ही उसे भाँप कर दिल्ली भाग खड़े हुए..
*किसने क्या कहा ..ये याद करने में मैंने बोधि की स्मृति का सहारा लिया है.. अगर कुछ ग़लती हुई तो उनको पकड़िये.. अगर सही है तो मेरी पीठ ठोंकिये..
*सभी तस्वीरें आशीष के कैमरे से

रविवार, 16 सितंबर 2007

मारेसि मोहिं कुठाँउ -२

(पिछली कड़ी से जारी)

बौद्ध हमारे यहीं से निकले थे। उस समय के वे आर्यसमाजी ही थे। उन्होने भी हमारे भंडार को भरा। हम तो 'देवानां प्रिय' मूर्ख को कहा करते थे। उन्होने पुण्यश्लोक धर्माशोक के साथ यह उपाधि लगाकर इसे पवित्र कर दिया। हम निर्वाण के माने दिये को बिना हवा के बुझना ही जानते थे, उन्होने मोक्ष का अर्थ कर दिया। अवदान का अर्थ परम सात्त्विक दान भी उन्होने किया।

बकौल शेक्सपीयर के जो मेरा धन छीनता है, वह कूड़ा चुराता है, पर जो मेरा नाम चुराता है वह सितम ढाता है, आर्यसमाज ने मर्मस्थल पर वह मार की है कि कुछ कहा नहीं जाता, हमारी ऐसी चोटी पकड़ी है कि सिर नीचा कर दिया। औरों ने तो गाँव को कुछ न दिया, उन्होने अच्छे-अच्छे शब्द छीन लिए।इसी से कहते हैं कि 'मारेसि मोहिं कुठाँउ'। अच्छे-अच्छे पद तो यूँ सफ़ाई से ले लिए हैं कि इस पुरानी दुकानों का दिवाला निकल गया। लेने के देने पड़ गए।

हम अपने आपको 'आर्य' नहीं कहते, 'हिंदू' कहते हैं। जैसे परशुराम के भय से क्षत्रियकुमार माता के लहँगों में छिपाए जाते थे वैसे ही विदेशी शब्द हिन्दू की शरण लेनी पड़ती है और आर्यसमाज पुकार-पुकार कर जले पर नमक छिड़कता है कि हैं क्या करते हो? हिन्दू माने काला चोर काफ़िर। अरे भाई कहीं बसने भी दोगे? हमारी मंडलियाँ भले 'सभा' कहलावें 'समाज' नहीं कहला सकतीं। न आर्य रहे और न समाज रहा तो क्या अनार्य कहे और समाज कहें(समाज पशुओं का टोला होता है)? हमारी सभाओं के पति या उपपति(गुस्ताखी माफ़, उपसभापति से मुराद है) हो जावें किन्तु प्रधान या उपप्रधान नहीं कहा सकते। हमारा धर्म वैदिक धर्म नहीं कहलावेगा, उसका नाम रह गया है- सनातन धर्म। हम हवन नहीं कर सकते, होम करते हैं। हमारे संस्कारों की विधि- संस्कार विधि नहीं रही, वह पद्धति (पैर पीटना) रह गई। उनके समाज-मन्दिर होते हैं हमारे सभा-भवन होते हैं।

और तो क्या 'नमस्ते' का वैदिक फ़िक़रा हाथ से गया, चाहे जयरामजी कह लो चाहे जयश्रीकृष्ण, नमस्ते मत कहना। ओंकार बड़ा मांगलिक शब्द है। कहते हैं कि यह पहले-पहल ब्रह्मा का कंठ फाड़ कर निकला था। प्रत्येक मंगल कार्य के आरंभ में हिन्दू श्री गणेशाय नमः कहते हैं। अभी इस बात का श्रीगणेश हुआ है- इस मुहावरे का अर्थ है कि अभी आरंभ हुआ है। एक वैश्य यजमान के यहाँ मृत्यु हो जाने पर पंडित जी गरुड़पुराण की कथा कहने गए। आरम्भ किया श्री गणेशाय नमः। सेठ जी चिल्ला उठे- 'वाह महाराज! हमारे यहाँ तो यह बीत रहा है। और आप कहते हैं कि श्री गणेशाय नमः। माफ़ करो।' तब से चाल चल गई है कि गरुड़पुराण की कथा में श्री गणेशाय नमः नहीं कहते हैं श्री कृष्णाय नमः कहते हैं। उसी तरह सनातनी हिन्दू अब ना बोल सकते हैं ना लिख सकते हैं, संध्या या यज्ञ करने पर ज़ोर नहीं देते। श्रीमद्भागवत की कथा या ब्राह्मण-भोजन पर संतोष करते हैं।

और तो और, आर्यसमाज ने हमें झूठ बोलने पर लाचार किया। यों हम लिल्लाही झूठ न बोलते, पर क्या करें। इश्क़बाज़ी और लड़ाई में सब कुछ ज़ायज़ है। हिरण्यगर्भ के माने सोने की कौंधनी पहने हुए कृष्णचन्द्र करना पड़ता है, 'चत्वारि श्रृंगा' वाले मंत्र का अर्थ मुरली करना पड़ता है, 'अष्टवर्षो‍ऽष्टवर्षो वा' में अष्ट च अष्ट च एकशेष करना पड़ता है। शतपथ ब्राह्मण नामक कपालों की मूर्तियाँ बनाना पड़ता है। नाम तो रह गया हिन्दू। तुम चिढ़ाते हो कि इसके माने होता है काला चोर या काफ़िर।

अब क्या करें? कभी तो इसकी व्युत्पत्ति करते हैं कि हि+इंदु। कभी मेरुतंत्र का सहारा लेते हैं कि ' हीनं च दूषयत्येव हिन्दुरित्युच्यते प्रिये' यह उमा-महेश्वर संवाद है, कभी सुभाषित के श्लोक 'हिंदवो विंध्यमाविशन' को पुराना कहते हैं और यह उड़ा जाते हैं कि उसी के पहले यवनैरवनिः क्रांता' भी कहा है, कभी महाराज कश्मीर के पुस्तकालय में कालिदास रचित विक्रम महाकाव्य में 'हिन्दूपतिः पाल्यताम' पद प्रथम श्लोक में मानना पड़ता है। इसके लिए महाराज कश्मीर के पुस्तकालय की कल्पना की, जिसका सूचीपत्र डॉक्टर स्टाइन ने बनाया हो, वहाँ पर कालिदास के कल्पित काव्य की कल्पना, कालिदास के विक्रम संवत चलाने वाले विक्रम के यहाँ होने की कल्पना, तथा यवनों के अस्पृष्ट (यवन माने मुसलमान! भला यूनानी नहीं) समय में हिन्दूपद के प्रयोग की कल्पना; कितना दुःख तुम्हारे कारण उठाना पड़ता है।

बाबा दयानन्द ने चरक के एक प्रसिद्ध श्लोक का हवाला दिया कि सोलह वर्ष से कम अवस्था की स्त्री में पच्चीस वर्ष से कम पुरुष का गर्भ रहे तो या तो वह गर्भ में ही मर जाय, या चिरंजीवी न हो या दुर्बलेन्द्रिय जीवे। हम समझ गए कि यह हमारे बालिका विवाह की जड़ कटी नहीं, बालिकारभस पर कुठार चला। अब क्या करें? चरक कोई धर्मग्रंथ तो है नहीं कि जोड़ की दूसरी स्मृति में से दूसरा वाक्य तुर्की-बतुर्की में दे दिया जाय। धर्मग्रंथ नहीं है आयुर्वेद का ग्रंथ हैइसलिए उसके चिरकाल न जीने या दुर्बलेन्द्रिय हो कर जीने की बात का मान भी कुछ अधिक हुआ। यों चाहे मान भी लेते और व्यवहार में मानते ही हैं- पर बाबा दयानन्द ने कहा तो उसकी तरदीद होनी चाहिए। एक मुरादाबादी पंडितजी लिखते हैं कि हमारे परदादा के पुस्तकालय में जो चरक की पोथी है, उसमें पाठ है--
ऊनद्वादशवर्षायामप्राप्तः पंचविशतिम।
लीजिए चरक तो बारह वर्ष पर ही 'एज ऑफ़ कंसेट विल' देता है, बाबा जी क्यों सोलह कहते हैं? चरक की छपी पोथियों में कहीं यह पाठ न मूल में है न पाठान्तरों में। न हुआ करे-- हमारे परदादा की पोथी में तो है।

इसीलिए आर्यसमाज से कहते हैं कि 'मारेसि मोहि कुठाँउ'।


-चन्द्रधर शर्मा 'गुलेरी'

साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित और विद्यानिवास मिश्र द्वारा संपादित ग्रंथ 'स्तबक' में संकलित


शनिवार, 15 सितंबर 2007

मारेसि मोहिं कुठाँउ: गुलेरी जी का एक लेख

तीन कहानियाँ लिख कर अमर हो चुके गुलेरी जी निबन्ध लेखन में भी एक बेजोड़ अंदाज़ रखते थे, ये बात कम लोग जानते हैं। इस निबन्ध को पढ़ने के पहले मैं भी नहीं जानता था। आर्य समाज के बहाने भाषा, धर्म, इतिहास सभी पर एक टिप्पणी है यह लेख।

गुलेरी जी का जन्म १८८३ में कांगड़ा में हुआ और ३९ वर्ष की उम्र में ही काशी में वे चल बसे। इस गणित से इस लेख का रचनाकाल बीसवीं सदी के पहले या दूसरे दशक में कभी का होना चाहिये; यानी आज से तकरीबन १०० बरस पहले।


मारेसि मोहिं कुठाँउ: चन्द्रधर शर्मा 'गुलेरी'

जब कैकेयी ने दशरथ से यह वर माँगा कि राम को बनवास दे दो तब दशरथ तिलमिला उठे, कहने लगे कि चाहे मेरा सिर माँग ले अभी दे दूँगा, किन्तु मुझे राम के विरह से मत मार। गोसाई तुलसीदासजी की भाव भरे शब्दों में राजा ने सिर धुनकर लम्बी साँस भर कर कहा 'मारेसि मोहिं कुठाँउ- मुझे बुरी जगह पर घात किया। ठीक यही शिकायत हमारी आर्यसमाज से है। आर्यसमाज ने भी हमें कुठाँव मारा है, कुश्ती में बुरे पेच से चित पटका है।

हमारे यहाँ पूँजी शब्दों की है। जिससे हमें काम पड़ा, चाहे और बातों में हमें ठगा गया पर हमारी शब्दों की गाँठ नहीं कतरी गई। राज के और धन के गठकटे यहाँ कई आए पर शब्दों की चोरी (महाभारत के ऋषियों के कमल-नाल की ताँत की चोरी की तरह) किसी ने नहीं की। यही नहीं, जो आया उससे हमने कुछ ले लिया।

पहले हमें काम असुरों से पड़ा, असीरियावालों से। उनके यहाँ असुर शब्द बड़ी शान का था। असुर माने प्राणवाला, ज़बरदस्त। हमारे यहाँ इन्द्र को भी यही उपाधि प्राप्त हुई, पीछे चाहे शब्द का अर्थ बुरा हो गया। फिर काम पड़ा पणियों से- फ़िनीशियन व्यापारियों से। उनसे हमने पण धातु पाया, जिसका अर्थ लेन-देन करना, व्यापार करना है।एक पणि उनमें ऋषि भी हो गया, जो विश्वामित्र के दादा गाधि की कुर्सी के बराबर जा बैठा। कहते हैं कि उसी का पोता पाणिनि था, जो दुनिया को चकराने वाला सर्वाङ्ग सुन्दर व्याकरण हमारे यहाँ बना गया।

पारस के पार्श्वों या पारसियों से काम पड़ा तो वे अपने सूबेदारों की उपाधि क्षत्रप या क्षत्रपावन या महाक्षत्रप हमारे यहाँ रखे गए और गुस्तास्य, विस्तास्य के वज़न के कृश्वाश्व, श्यावश्व, बृहदश्व आदि ऋषियों और राजाओं के नाम दे गए। यूनानी यवनों से काम पड़ा तो वे यवन की स्त्री यवनी तो नहीं, पर यवन की लिपि यवनानी शब्द हमारे व्याकरण को भेंट कर गए। साथ ही बारह राशियाँ मेष, वृष, मिथुन आदि भी यहाँ पहुँचा गए। इन राशियों के ये नाम तो उनकी असली ग्रीक शकलों के नामों के संस्कृत तक में हैं, पुराने ग्रंथकार तो शुद्ध यूनानी नाम आर, तार, जितुम आदि काम में लेते थे। ज्योतिष में यवन सिद्धान्त को आदर से स्थान मिला। वराहमिहिर की पत्नी यवनी रही हो या न रही हो, उसने आदर से कहा है कि म्लेच्छ यवन भी ज्योतिःशास्त्र जानने से ऋषियों की तरह पूजे जाते हैं। अब चाहे वेल्यूयेबल सिस्टम भी वेद में निकाला जाय पर पुराने हिन्दू कृतघ्न और गुरुमार नहीं थे।

सेल्यूकस निकेटर की कन्या चन्द्रगुप्त मौर्य के ज़माने में आयी, यवन-राजदूतों ने विष्णु के मंदिरों में गरुड़ध्वज बनाए और यवन राजाओं की उपाधि सोटर त्रातर का रूप लेकर हमारे राजाओं के यहाँ आने लगी। गांधार से न केवल दुर्योधन की माँ गान्धारी आई, बालवाली भेड़ों का नाम भी आया। बल्ख से केसर और हींग का नाम बाल्हीक आया। घोड़ों के नाम पारसीक, कांबोज, वनायुज, बाल्हीक आए। शको के हमले हुए तो शाकपार्थिव वैयाकरणों के हाथ लगा और शक्संवत या शाका सर्वसाधारण के। हूण वंक्षु (oxus) नदी के किनारे पर से यहाँ चढ़ आए तो कवियों को नारंगी उपमा मिली कि ताजा मुड़े हुए हूण की ठुड्डी की सी नारंगी। कल-चुरी राजाओं को हूणों की कन्या मिली।

पंजाब में वाहीक नामक जंगली जाति आ जमी तो बेवकूफ़, बौड़म के अर्थ में (गौर्वाहीकः) मुहाविरा चल गया। हाँ, रोमवालों से कोरा व्यापार ही रहा, पर रोमक सिद्धांत ज्योतिष को के कोष में आ गया। पारसी राज्य न रहा पर सोने के सिक्के निष्क और द्रम्भ (दिरहम) और दीनार (डिनारियस) हमारे भण्डार में आ गए। अरबों ने हमारे 'हिंदसे' लिए तो ताजिक, मुजका, इत्थशाल आदि दे भी गए, कश्मीरी कवियों को प्रेम अर्थ में हेवाक दे गए। मुसलमान आए तो सुलतान का सुरत्राण, हमीर का हम्मीर, मुग़ल का मुंगल, मसजिद का मसीतिः, कई शब्द आ गए।

लोग कहते हैं कि हिन्दुस्तान अब एक हो रहा है, हम कहते हैं कि पहले एक था, अब बिखर रहा है। काशी की नागरी प्रचारिणी सभा वैज्ञानिक परिभाषा का कोष बनाती है। उसी की नाक के नीचे बाबू लक्ष्मीचन्द वैज्ञानिक पुस्तकों में नयी परिभाषा काम में लाते हैं। पिछवाड़े में प्रयाग की विज्ञान परिषद और ही शब्द गढ़ती है। मुसलमान आए तो कौन सी बाबू श्यामसुन्दर की कमिटी बैठी थी कि सुलतान को सुरत्राण कहो और मुग़ल को मुंगल? तो कभी कश्मीरी कवि या गुजराती कवि या राजपूताने के पंडित सब सुरत्राण कहने लग गए। एकता तब थी कि अब?
...


(शेष लेख दूसरी कड़ी में )



साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित और विद्यानिवास मिश्र द्वारा संपादित ग्रंथ 'स्तबक' में संकलित

शुक्रवार, 14 सितंबर 2007

अँधेरे में

चरन-कमल बंदौ हरि-राइ।
जाकी कृपा पंगु गिरि लंघै, अंधै को सब कुछ दरसाइ।


सूरदास के ऊपर ये हरि-राइ की कृपा थी या कुछ और कि आँख वालों से ज़्यादा देखने की शक्ति उन्हे मिली हुई थी। जो भी बात थी, अपने रंगीले श्याम के विविध रंगो को जिस दृष्टि से सूरबाबा देख गए और दिखा गए.. आज तक कौन देख पाया है भला।

नेत्रहीनों को अंधा कहें, सूरदास कहें या विज़ुअली चैलेन्जड या कुछ और.. मानते तो हम उन्हे विकलांग ही हैं। इस खयाल से कि उनके पास हम से कुछ कम है। मगर सभी लोग ऐसा नहीं सोचते.. ये चिंतन धीरे-धीरे बदल रहा है। मेरी एक मित्र रितिका साहनी की एक संस्था त्रिनयनी इस सामाजिक व्यवहार को बदलने के लिए लगातार काम कर रही है। इस विषय पर उन्होने स्थापित फ़िल्म निर्देशकों की मदद से कुछ लघु फ़िल्में तैयार की हैं। जिनमें से एक मेरे बेहद करीबी मित्र काबुल दा ने बनाई है।

काबुल दा कनाडा के मॉन्ट्रियल फ़िल्म स्कूल से प्रशिक्षित हैं और आजकल मुम्बई में डेरा डाले हुए हैं। उनके द्वारा कई टी.वी सीरियल तमाम पुरुस्कारों से नवाज़े जा चुके हैं। वे एक ऐसी प्रतिभा हैं जिनकी चमक से अभी काफ़ी दुनिया वंचित है। मैंने और काबुल दा ने मिल कर एक फ़िल्म स्किप्ट लिखी हुई है जिसे बनाने में प्रोड्यूसर्स घबराते हैं। काबुल दा का असल नाम इन्द्रनील गोस्वामी है; प्यार से लोग उन्हे काबुल दा पुकारते हैं।

त्रिनयनी द्वारा बनाई दूसरी फ़िल्में हाउ डज़ इट मैटर और डिसएबिलिटी अवेयरनेस, यू ट्यूब की साइट पर देखी जा सकती हैं। यहाँ देखिये काबुल दा द्वारा बनाई लघु फ़िल्म..डार्क..


गुरुवार, 13 सितंबर 2007

कुदरती शॉक-एबज़ॉर्बर्स

सेंस ऑफ़ ह्यूमर खुशी के मौके के लिए नहीं होता, उसकी ज़रूरत क्राइसिस के समय आती है, जावेद अख्तर बताते हैं। स्टार वन पर रात दस बजे रनवीर, विनय और कौन के नाम से एक कार्यक्रम आता है। परसों रात को रनवीर शोरी और विनय पाठक के साथ 'कौन' के रूप में जावेद अख्तर मौजूद थे।

रनवीर और विनय इस वक़्त मुल्क के बेहतरीन हँसोड़ हैं। मगर आम तौर पर घटिया शाइरी करने वाले जावेद साब सेंस ऑफ़ ह्यूमर की बेहतरीन परिभाषा देकर उन्हे चित कर गए। जावेद साब ने कहा कि जो काम गाड़ी में शॉक-एबज़ॉर्बर का होता है वही काम सेंस ऑफ़ ह्यूमर आदमी के अन्दर निभाता है। सीधी सपाट चिकनी सड़क पर शॉक-एबज़ॉर्बर्स की क्या ज़रूरत, उसका इस्तेमाल तो ऊबड़-खाबड़ गड्ढों से भरी राह को आसान करने में होता है।

बात में दम है। यह बात और भी ज़्यादा मारक लगने लगती है जब आप उस आदमी की कल्पना कीजिये जो कठिनाइयों और मुश्किलों से भरी ज़िन्दगी में बग़ैर किसी सेंस ऑफ़ ह्यूमर के चला जा रहा है। विडम्बना यह है कि हम में से कुछ विरले ही होते हैं जो इस कुदरती शॉक-एबज़ॉर्बर्स के साथ प्रि-फ़िटेड आते हैं। ज़्यादातर दूसरों के गिरने पर हँसते और अपने दर्द पर रोते पाए जाते हैं।

एक बात और.. बेहद गहरे दुख में रोते हुए लोग अक्सर हँसने क्यों लगते हैं?


और एक बात और.. हँसते हुए चेहरे और रोते हुए चेहरे लगभग एक से क्यों दिखते हैं?

बुधवार, 12 सितंबर 2007

समझौते की गुहार

नवाज़ शरीफ़ को उलटे पाँव लौटा दिया गया। सात साल बाद वतन लौट के आए थे। सोचा था कि मुल्क की बदलती हुई फ़िज़ा का कुछ फ़ाएदा उठायेंगे। लेकिन जनरल मुशर्रफ़ के तो हाथ-पाँव फूल गए; न उनसे निगलते बना न उगलते। चुपचाप शरीफ़ को जेद्दा के उड़ान में पार्सल बना कर रवाना कर दिया। अब कहा जा रहा है कि मियाँ साहिब ने वादाखिलाफ़ी की है लिहाज़ा उन्हे अब सऊदी से बाहर ही नहीं निकलने दिया जाएगा। ये वादाखिलाफ़ी का सन्दर्भ सन २००० में मुशर्रफ़ और नवाज़शरीफ़ के बीच हुए एक समझौते का है, जिसमें नवाज़ शरीफ़ ने एक दस्तावेज़ पर दस्तखत किए हैं कि हुए इस समझौते के दस साल बाद तक न तो वे पाकिस्तान लौटेंगे और न सियासत करेंगे।

नवाज़ शरीफ़ ने यह समझौता किन हालात में किया, ज़रा उसका भी मुआयना कर लिया जाय। एक फ़ौजी डिक्टेटर ने उन की गद्दी हथिया ली। पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट से क़ानून की मुहर भी लगवा ली। हाईजैकिंग, टैक्स-चोरी, घोटाला और दहशतगर्दी के इल्ज़ामों में उन्हे दो-चार उम्रक़ैद की सजा भी हो गई। तब सऊदी अरब की बीच-बचाव की अदालत में इन सजाओं को 'इस समझौते' के तहत जलावतन में तब्दील कर दिया गया। इस पर शरीफ़ साहिब के दिल में जनरल के लिए गुस्सा तो बहुत रहा होगा, पर शायद कहीं शुक्रगुज़ार भी रहें हो। जनरल मुशर्रफ़ से पहले के फ़ौजी हुक्मरान जनरल ज़िया ने तो भुट्टो साहिब को सू-ए-दार भेज दिया था।

आज पूरा वेस्टर्न मीडिया(अपना सीएनएन-आईबीएन भी, आखिर वो भी तो सीएनएन ही है) मियाँ साहिब के ऊपर इसी समझौते के हवाले से उँगली उठा रहा है। कि उन्होने वादाखिलाफ़ी की है, बहुत ग़लत काम किया है। इस पूरे खेल में जनरल साहिब के साथ, सऊदी अरब तो है ही, पीछे से अमरीका की भी हामी है। उसकी मंशा पाकिस्तान में जम्हूरियत के नाटक को नई शक़्ल देने की है, जिसमें जनरल बनें तो रहे मगर बेनज़ीर के पहलू में। बाक़ी दुनिया के लिए आगे का पाकिस्तानी जम्हूरी जलवा ये जोड़ी दिखाए।

मगर पाकिस्तान की अवाम का सोचिए ज़रा! माना जा रहा है कि मियाँ साहिब इस वक़्त पाकिस्तान के सबसे मक़बूल लीडर हैं। उनकी सुप्रीम कोर्ट उनके साथ है मगर उन्हे पाकिस्तान में घुसने भी नहीं दिया जा रहा। और पाकिस्तान की तक़दीर का फ़ैसला अमरीका, सऊदी अरब, बेनज़ीर भुट्टो और जनरल साहिब मिल कर रहे हैं। इसे अंग्रेज़ी में कहते हैं सो मच फ़ॉर फ़्रीडम एंड डेमोक्रेसी!

कहा ये भी जा रहा है कि इस पूरे मामले में सब का नुक़्सान हुआ है सिवाय सऊदी अरब के। उसने इस्लामी दुनिया के आपसी झगड़ों में समझौते कराने और पूरी ईमानदारी से निभाने वाले अपने किरदार को एक बार फिर साबित कर के अपनी साख को बढ़ाया है।

इस पूरे एपीसोड में मुझे एक ही बात समझ आई कि समझौते कभी बराबरी के नहीं होते। एकाधे इस्तिसना को छोड़ दें तो वे कमज़ोर की ओर से अपनी हार का इक़रारनामा होते हैं और आइन्दा भी हारे हुए ही बने रहने का वाएदा।

वांछना की विदाई

जब से सिगरेट छोड़ी है... (क्या बात है.. यह कहने में ही कितना आनन्द है..) एक उपलब्धि का एहसास है। जब से सिगरेट छोड़ी है(अहहा.. हर बार वही आनन्द.. हर कश में वही स्फूर्ति) एक नई बात गौ़र की है: मेरे आस-पास सिगरेट हमेशा बनी रहती है। कुछ दिन तक तो मेरी बीबी ने मुझ पर रहम खा कर सिगरेट को मुझसे दूर रखा, मगर कुछ और दिन बाद लिहाज़ जाता रहा। अब उस की सिगरेट(वही ब्राण्ड जो मैं पीता था) के दो चार पैकेट घर में यहाँ-वहाँ पड़े ही रहते हैं। वह मेरी तरह और शैतान की तरह सीधा सोचने वाली नहीं है कि एक वक़्त में एक ही पैकेट से सिगरेट पिए।

तो जनाब, पहले तो मेरा ब्राण्ड ही मुझे मज़े से मुहैय्या होने लगा। अब ये दौर भी पार हुआ और एक नया दौर आया है। अब दूसरे-दूसरे ब्राण्ड भी खिंचे चले आते हैं। पिछले हफ़्ते मेरे एक अज़ीज़ दोस्त काबुल दा अपना मार्लबोरो रेगुलर का पैकेट और लाइटर छोड़ गए। बाद में मुझसे कहने लगे कि ऐसा कभी होता नहीं कि वो सिगरेट कहीं छोड़ दें। बटुआ वो बाद में सँभालते हैं, पहले सिगरेट और लाइटर। वे कैसे जानेंगे और कैसे समझेंगे कि ये कोई संयोग नहीं मेरे सिगरेट-त्याग का प्रताप है जिसके आकर्षण में सिगरेट यहाँ रह गई। इस की पुष्टि मुझे कल पूरी तौर पर हो गई जब प्रमोद भाई भी अपनी गोल्ड फ़्लेक का पैकेट और लाइटर फिर छोड़ गए(दूसरी बार.. ह हा)।

इसकी सत्यता स्थापित हो जाने के बाद ही मैंने आप तक यह निष्कर्ष प्रेषित करने का निर्णय लिया कि जीवन में जो पाना चाहते हो उसे छोड़ दो; भरभरा कर आप के ऊपर गिर पड़ेगी आपकी वांछना। सिगरेट के बिना मैं मरा जाता था, हमेशा एक दो पैकेट लुका छिपा के रखता। कभी रात-बिरात सिगरेट खतम हो गई तो.. तो क्या करेंगे; शहर में हड़ताल हो गई तो क्या करेंगे, दंगा-फ़साद हो गया तो क्या करेंगे। हमेशा असुरक्षा का भाव मानस में डेरा डाले रहता। अब जब कि लात मार दी है, स्वयं चरणों की दासी बन न्योछावर होने को तैयार रहती है।

आप खुद इस प्रयोग को आजमा कर देखें। लड़कियों की बहुत लालसा हो मन में तो हो जायं ब्रह्मचारी; कूद-कूद कर लड़कियाँ गिरेंगी आप के ऊपर। ऐश्वर्य की कामना हो तो लंगोटी लगा कर सन्यासी हो जायँ; लोग-बाग आप के लिए महल बनवायेंगे और सिंहासन में बिठा कर चंवर डुलाएंगे। दुनिया का एकछत्र राज्य चाहिये तो लात मार दीजिए महत्वाकांक्षा को, कहिये मैं जनता का सेवक हूँ, मुझे कुछ नहीं चाहिए, मैं सिर्फ़ सेवा करना चाहता हूँ। लोग आप को खुद राजगद्दी सौंप देंगे।

यक़ीन मानिये.. आप को सिर्फ़ अपनी वांछना को विदा करना है और फिर वो कभी आप को प्रवंचित नहीं करेगी।

(इस पोस्ट से प्रेरित हो कर आप पैसा-रुपया, गाड़ी आदि त्यागने का मन बनाएं तो मुझे ज़रूर याद कर लें.. मैंने सिर्फ़ सिगरेट त्यागी है, शेष अभीप्साएं शेष हैं)

मंगलवार, 11 सितंबर 2007

स्क्रीन-शॉट्स पकड़ने का एक आसान औज़ार

दोस्तों आप ने अक्सर देखा होगा, हिन्दी ब्लॉगिंग दुनिया के बड़े-बड़े ब्लॉगर अपने ब्लॉग्स पर तमाम तस्वीरों के अलावा अपने कम्प्यूटर के स्क्रीनशॉट्स की तस्वीरें भी दे देते हैं। किसी मसले की चर्चा करते हुए, या कुछ समझाते हुए.. कुछ ऐसे..

मैं उनकी इस अदा से काफ़ी आतंकित रहता था। तो मैंने उदारमना मित्र भाई अरुण अरोड़ा से इस तक्लीफ़ का ज़िक्र किया। उन्होने अपने स्वभावानुसार ही तुरंत इसका हल बता डाला। कि अपने ब्राउज़र के एडिट पैनल में जाकर कॉपी कर लें या कन्ट्रोल + सी कर लें.. और फिर माइक्रोसॉफ़्ट वर्ड में या पेंट में जा कर पेस्ट कर दें (कन्ट्रोल + वी); बात बन जाएगी। बाद में किसी फोटो एडिटिंग सॉफ़्टवेयर में उसे जीचाहे तरह से क्राप कर लें। मैंने उनके कहे को आजमा कर देखा, और सफल हुआ। दिक़्क़्त बस एक थी कि ब्राउज़र के भीतर के माल को इस तरह से पकड़ा जा सकता है, पर स्क्रीन पर आने जाने वाली दूसरी सामग्रियों को इस तरह से नहीं गिरफ़्तार किया जा सकता।

कुछ दिन शांत बैठा रहा। फिर एक रोज़ श्रीश पंडित का कोई लेख पढ़ा। वे तो हर दो लाइन के बाद एक स्क्रीनशॉट डालते हैं। जिज्ञासा ने फिर फन उठाया। तो उनको एक खत लिख कर विनती की..

उनका जवाब आया..

तब से अब तक इन्तज़ार कर ही रहा था। अचानक आज सवेरे मेरे गूगल रीडर ने श्रीश के पुराने लेख पकड़ कर हाज़िर किए। उसने ऐसा क्यों किया, ये मेरी समझ के बाहर है। तो श्रीश और उनके बहाने अपनी जिज्ञासा की याद ताज़ा हुई। और सोचा कि लगता है पंडितजी बुरी तरह कहीं फँसे हुए है। खुद ही जाके देखो अन्तर्जाल में.. देखा तो ये मिला..

ऊपर की तस्वीर में लाल हो गई खोज से ही कुल सबब है.. स्क्रीनशॉट यूटिलिटी..आप भी आजमा के देखिये.. बुरी तरह आसान है.. कोई अँधा भी कर लेगा.. उसका वेबपेज कुछ यूँ दिखता है..

यहाँ दिए हुए सारे स्क्रीनशॉट्स इसी के मदद से पकड़ कर आप के सामने पेश किए गए। सीधे जाने के लिए यहाँ क्लिक करें। बहुत ही नन्हा सॉफ़्टवेयर है कुल ७६२ केबी का..

कुछ ग़लती हुई हो तो श्रीश समेत सभी ज्ञानीजन सुधार करने में हिचकिचाएं नहीं। और श्रीश, आप योजनानुसार अपनी क्लास ज़रूर लें। निश्चित ही दूसरे बेहतर तरीक़े होंगे यही नतीजा पाने के..


सोमवार, 10 सितंबर 2007

गद्दार को गद्दार कहना

क्या आप ने कभी सोचा है कि तात्या टोपे के वंशज कहाँ हैं? या मंगल पाण्डेय के वंशजो का क्या हाल है? अच्छा इन सैनिक और सेनापतियों को छोड़ दीजिये। आज़ादी के सितारों की बात कीजिये; रानी लक्ष्मीबाई, अज़ीमुल्ला खान, नाना साहिब के वंशजो का क्या हुआ? हो सकता है इन में से कुछ का वंश समाप्त ही हो गया हो और कुछ का इस हाल में हो, जिस की चर्चा न ही की जाय तो बेहतर!

पिछले साल मैंने टीवी पर कलकत्ता में एक फटेहाल परिवार की दारुण कथा देखी थी- कहते थे कि बहादुरशाह 'ज़फ़र' के वंशज हैं। उनकी फटेहाली पर किसी को हैरान होने की क्या वज़ह हो सकती है.. देश आज़ाद हो चुका है.. अब देश में लोकतंत्र है और राजशाही खत्म हो चुकी है। मगर ये बात सिन्धिया, होलकर और कश्मीर के डोगरों पर लागू नहीं होती? वे तो अभी भी राजसी ठाठ-बाट बनाए हुए हैं। क्यों और कैसे?

क्या इसलिए कि १८५७ की लड़ाई में अंग्रेज़ो का साथ देने वाले यही राजघराने थे? जो तब भी मलाई चाँभ रहे थे और अब भी चाँभ रहे हैं। सवाल है कि १९४७ में मिली आज़ादी के बाद ये तस्वीर बदली क्यों नहीं? जिन्होने १८५७ की लड़ाई में क़ुर्बानी दी, उनके वंशजो को आमंत्रित करके पुराने ठाठ वापस न करना समझ आता है। मगर गद्दारों को गद्दार कहने से चूक जाना समझ नहीं आता!

विचार स्रोत: अखिलेश मितल

रविवार, 9 सितंबर 2007

कैसे बनें सफल ब्लॉगर

टेक्नोराटी की लोकप्रियता सूची में नम्बर दो ब्लॉग बोइंग-बोइंग के सदस्य कोरी डॉक्टरो से सुनिये कि अच्छे (सफल) ब्लॉगर होने के गुर क्या हैं.. ये राज़ उन्होने चीन के किसी सम्मेलन के दौरान एक दूसरे ब्लॉगर के जवाब में ज़ाहिर किए.. उनके अपने अनुसार मूल बात है कि आप स्वयं को किसी समाचार-सेवा का संवाददाता समझें.. और आप बेहतर मुखड़े लिख सकेंगे.. पूरी बात सुनने के लिए नीचे दिए विडियो को प्ले करें..



कोरी डॉक्टरो कुछ नौकरी किया करते थे, मगर अब, वे ही कहते हैं, बेरोज़गार हैं। साइंस-फ़िक्शन उपन्यास और ब्लॉग लिखते हैं। उन्हें और उनके विचारों को बेहतर समझने के लिए देखें कॉपीराइट मसले पर गूगल के दफ़्तर में दिया गया उनका एक लेक्चर.. यूट्यूब की साइट पर




शनिवार, 8 सितंबर 2007

राहुल गाँधी की गहन मुद्राएं

सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी का विश्वास है कि राहुल गाँधी के सक्षम नेतृत्व में ही देश प्रगति कर सकता है.. आइये देखें उनकी छबीली छवि की कुछ अनूठी मुद्राएं..















मुद्रा नम्बर एक..
गम्भीर विषयों पर गहन चिंता से पड़ी माथे पर त्योरियाँ..


















मुद्रा नम्बर दो...
लगता है गहन समस्या का कुछ सरल हल मिला है..


















मुद्रा नम्बर तीन...
उबासी..!!?? ह्म्म्म...



कुछ भी कहिये.. समस्या कितनी ही गहन क्यों न हो.. हल तो सरल है..

ये सारी मुद्राएं राहुल गाँधी ने मैगासेसे पुरुस्कार विजेता पी साईनाथ के एक लेक्चर के दौरान प्रदर्शित की। लेक्चर संसद भवन के पुस्तकालय में आयोजित किया गया था। और विषय था - 'खेती का संकट: पिछले दशक में क्यों की एक लाख किसानों ने आत्महत्या?'

अब ऐसे उबाऊ विषय पर और ऐसी उबाऊ जगह पर लेक्चर हो तो क्यों न आए किसी को उबासी! और राहुल भी तो हमारी आप की तरह आम आदमी ही हैं। उन्होने क्या ठेका लिया है समाज-सुधार का?

स्रोत: डी एन ए, मुम्बई, ७ सितम्बर २००७


आई वान्ट टु गेट सम एअर..

कल कहीं जाते हुए रास्ते में तमाम नई मॉल्स के दर्शन किए। और सोचा कि क्यों बना रहें है लोग इतनी नई-नई मॉल्स? क्या शहर चलाने वाले लोग(!) नहीं देख पाते कि बान्द्रा से लेकर बोरीवली तक एक बच्चों के खेलने का पार्क नहीं है, लाइब्रेरी नहीं है, म्यूज़ियम, ज़ू या ऐसी कोई भी सार्वजनिक जगह नहीं है, जहाँ आप अपने घर से निकल कर दो पल चैन से बैठ सकें। घर से निकलते ही सड़क है, सड़क पर गुर्राता-गरजता ट्रैफ़िक है। कारें हैं, बाइक्स हैं, बसे हैं, ट्रक हैं, ट्रेन हैं, स्टेशन्स हैं, गँजागज भरे लोग है.. पसीने, पेट्रोल और परफ़्यूम में गजबजाता मनुष्यता का समुद्र है। और बाज़ार है।

यूँ तो बाज़ार आपके बेडरूम तक बढ़ आया है। आप टीवी खोलते हैं, बाज़ार खुल जाता है। आप अखबार उठाते हैं ,बाज़ार हाथ आता है। आप खाने के लिए कुछ भी मुँह में डालते हैं, बाज़ार गले में अटक जाता है। आप अपने अस्तित्व की हदों को तोड़ कर कहीं खुले में साँस लेना चाहते हैं। मगर जगह कहाँ है? काफ़ी सारे लोग भूल भी जाते हैं ये साँस लेना, और अपने घर की बंद हवा में घुट-घुट कर मर जाते हैं।

अंग्रेज़ी फ़िल्मों में मैंने अक्सर देखा है, अचानक कोई चरित्र कहेगा कि, आई वान्ट टु गेट सम एअर!.. इतना कह कर वह बाहर किसी टेरेस या हवादार छत या खुली सड़क पर निकल कर खुले आकाश को ताकता है! दिल्ली वाले अंग्रेज़ी फ़िल्मों की इस अदा से कुछ सीख सकते हैं, मगर मैं असहाय हो जाता हूँ। दिन में कई दफ़े मैं कहना चाहता हूँ कि आई वान्ट टु गेट सम एअर.. लेकिन हवाखोरी की कोई खुली जगह इस शहर ने अपने शहरियों के लिए नहीं छोड़ी है।

कल तक जो स्थान मुम्बई के नक्शों पर दलदल(मार्श) के बतौर चिह्नित थे, आज वहाँ नए जगमगाते नगर उग आए हैं। इसे आप प्रगति नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे? उन दलदलों में पल रहे पर्यावरण के लिए बेहद ज़रूरी मैन्ग्रोव नष्ट हो जाने के अलावा एक और पहलू है इस प्रगति का। दुर्भाग्य से शहर में आ चुकी और आने वाली बाढ़ में इस प्रगति की बड़ी भूमिका है।

करोडो़- करोड़ो गैलन पानी जो पहले के सालों में धरती पर गिर कर कुछ धरती के भीतर और बाकी नालियों-सड़कों आदि से होकर आस-पास के दलदल में चला जाता था। अब शहर की अधिकतर धरातल के सीमेंट से बंद हो जाने के कारण पानी के धरती के भीतर जाने का रास्ता बंद हो चुका है। दलदलों पर नए प्रगति नगर बसा दिए गए हैं। पानी के निकलने का एकमात्र रास्ता सौ-डेढ़ सौ बरस पुरानी नालियाँ हैं। जो इतना पानी वहन करने में समर्थ नहीं। आने वाले दिनों में यह हाल हर बड़े शहर का होने वाला है। पीने का पानी नहीं होगा, मगर शहरों में बाढ़ का गंदा पानी भरा करेगा हर बरसात। अगर प्रशासन ने दूरदर्शिता न दिखाई तो!

इन नए प्रगति नगरों में, पुराने मोहल्लों की संकरी गलियों में, पुरानी मिलों के नए प्राँगणो में.. हर कहीं-सब जगह मॉल्स बनते जा रहे हैं। सवाल है कि क्या ये सिर्फ़ किसी पूर्व-योजना के अभाव में हो रहा है? कुछ लोग सच में इतने भोले हो कर सोचते हैं..कि यदि प्रशासन को याद दिलाया जाय कि भई मॉल्स बहुत हो गए तो अब एक पार्क बना दो, तो प्रशासन चट से अपनी भूल स्वीकार कर लेगा। मेरा खयाल है कि ये हमारे शासक वर्ग के भीतर किसी भी तरह के सामाजिक दायित्व के अभाव में हो रहा है। और एक कुरूप लोलुपता की सर्वांगीण उपस्थिति के दानवीय दबाव में हो रहा है।

हमारा शासक वर्ग हमारी ही अभिव्यक्ति है। हम जो आम आदमी है, उसी की मुखरता दिखती है खास-खास लोगों में। फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि जब शासक वर्ग को हवाखोरी करनी होती है तो वह ऑस्ट्रेलिया, आइसलैण्ड, अजरबैजान से लेकर गोवा, गंगटोक कहीं भी चला जाता है। मगर आम आदमी के पास साधन कहाँ, या तो वो प्रमोद भाई की तरह एक चीन यात्रा कर डालता है.. या फिर हार कर मॉल की दुनिया की चमक में अपनी धूसर धूमिलता को ढकने चला जाता है। और कुछ पल के लिए ही सही, अपनी टेढ़ी-मेढ़ी बेढंगी ज़िन्दगी को सार्थक समझता है, स्वयं को मॉल के उस हाहाकारी ऐश्वर्य को हिस्सा समझ कर।


चित्र:सबसे ऊपर दलदल को निगलता मुम्बई शहर, फिर न्यू यॉर्क का विस्तृत सेन्ट्रल पार्क, मुम्बई की बाढ़ और अन्त में शहरियों के जीवन को जगमगाता इन-ऑर्बिट मॉल


शुक्रवार, 7 सितंबर 2007

कला की हिफ़ाज़त

कल प्रमोद भाई और मैंने साथ बैठ कर "द ब्लैक डाहलिया" डीवीडी पर देखी। फ़िल्म का नायक एक मौके पर एक धन्ना सेठ के घर में घुस कर अपने खतरनाक इरादों के प्रमाण में कुछ कलाकृतियों को अपनी गोली का निशाना बनाता है| इस पर घर की मालकिन एक बेहद दिलचस्प बात कहती है.. "I would appreciate if you stopped shooting things, officer, though. The rich don't own art just for themselves, we safe keep it for future generations.." (अभिजात्य वर्ग कला की मिल्कियत महज़ अपने लिए ही नहीं करते, हम इसे आने वाली नस्लों के लिए महफ़ूज़ भी कर लेते हैं..)

मैंने सोचा कि क्या शानदार बात है! जन-संघर्ष की लोकप्रिय विचारधारा में हमेशा अभिजात्य वर्ग खलनायक की भूमिका निभाता रहा है, मगर वन हैज़ टु गिव द डेविल इट्स ड्यू। मानव विकास को, इतिहास को अवस्थाओं में समझने वालों को अपनी समझ में ये गुंजाइश बनाए रखनी चाहिए कि इतिहास की द्वन्द्वात्मक व्याख्या करते समय द्वन्द्वरत दोनों पहलुओं की भूमिका की क़दरदानी हो। एक को आसमान पर बिठा कर दूसरे को खाक में न मिलाया जाय। अभिजात्य वर्ग ने जहाँ मानवता के बड़े हिस्से को अभी तक शोषण के चक्र में झोंके रखा है, वहीं दूसरी तरफ़ अपनी सत्ता शक्ति का इस्तेमाल उसने कला, विज्ञान, साहित्य और दर्शन को प्रायोजित करने में भी किया है।

पर फिर खयाल आया कि जन संघर्ष की लोकप्रिय विचारधारा इस तर्क को, इस नज़रिये को स्वीकार नहीं करती। क्यों? उसके अनुसार वास्तव में आम लोग ही अपनी परिपाटियों, मान्यताओं, और परमपराओं में संस्कृति को कला को जीवित रखते हैं। जबकि शासक वर्ग हमेशा विचार के, कला के, दर्शन के दमन की ही भूमिका निभाता रहा है। समाज को आगे ले जाने में उसकी कभी कोई प्रगतिशील भूमिका नहीं रही। क्योंकि सत्ता हमेशा वर्तमान को, स्टेटस-को को क़ायम रखने की कोशिश में ही रहती है, स्वभावतः। और प्रगति, स्वभाव से ही व्यवस्था को बदलने को उन्मुख होती है।

मध्यकाल में सत्ताधारी चर्च ऐसे किसी भी विचार के विरोध में था जो उसकी रूढ़ियों को चुनौती देता हो- जैसे पृथ्वी गोल है। मगर व्यापारी वर्ग को इस विचार से कोई तक्लीफ़ नहीं थी, वह प्रगतिशील था। आज के दौर में अन्धाधुन्ध औद्योगीकरण मनुष्य ही नहीं, पृथ्वी पर जीवन मात्र के लिए खतरनाक है, इस विचार को व्यापारी वर्ग पचा नहीं पा रहा। क्योंकि यह मानवता के वृहत हित में भले ही हो मगर उसके 'अपने' हितों के विरुद्ध है। या ऊर्जा के दूसरे स्रोतों पर किसी भी नई खोजों को लगातार कुचला जाता रहेगा क्योंकि वे पेट्रोलियम लॉबी के हितों के खिलाफ़ जाता है। सीधी बात है आज का व्यापारी वर्ग, जो शासक वर्ग है, प्रगतिशील नहीं रह गया; वह समाज को आगे बढ़ने से रोक रहा है। वह अपने हितों को महफ़ूज़ रखनें में रत है।

सवाल उठता है कि जीवन एक अवस्था को, बनाए रखने का उसे महफ़ूज़ रखने का नाम है या लगातार बदलते जाने का? इन्सान जवानी को दोनों हाथों से पकड़े रहना चाहता है, शायद दाँतों से भी। मगर कुदरत उसके ऐसे किसी इरादों पर गौर नहीं करती, वह बदलती जाती है। फिर भी अगर आदमी बन-ठन कर, मेकप थोप कर, बाल रंग कर, सर्जरी कराकर जवानी को महफ़ूज़ रखने की कोशिश करता रहे, या मिस्र के शासकों की तरह बाम-लेपन आदि करके मृत्यु के बाद भी बने रहने की कोशिश करता रहे, तो वह एक चलता फिरता जोकर बनेगा या ममी बनेगा। और मानव समाज एक जीवित समाज नहीं रहेगा बन जाएगा एक अजायबघर।

गुरुवार, 6 सितंबर 2007

कुत्ते और आदमी

मुझे बचपन में दो बार कुत्ते काट चुके हैं और इस वक़्त मेरी गली में दस बारह कुत्ते हैं। जो भौंकते हैं, गुर्राते हैं, आने-जाने वालों को चौंभिया कर गली पर अपना हक़ जमाते हैं। इन्ही का हवाला दे-देकर मैं लोगों के अन्दर एक भय जगाता रहता हूँ। पर सच्चाई ये है कि मैं स्वयं कुत्तों से बहुत भयभीत हूँ। मुझे उनके अस्तित्व से कोई शिकायत नहीं। मैं उन्हे मारना-पीटना भी नहीं चाहता, उल्टे उनसे स्नेह है सहानुभूति है पर दूर से। क्योंकि.. वे मुझे काट लेंगे, इस डर से आक्रांत रहता हूँ।

समझाने वाले मुझे समझाते हैं कि डरने की क्या ज़रूरत है, एक बार ज़ोर से झिड़क दो, दुम दबा के भाग जाएंगे। न भागे तो पत्थर उठा लो, मार दो.. या दौड़ा लो। पर किसी को इस तरह दुरदुराराना, हड़काना, या धमकाना मेरा स्वभाव नहीं। और मैं अपने पिता के लिए अपने स्वभाव को बदलने के लिए तैयार नहीं हुआ, बीबी के लिए नहीं हुआ, ज़्यादा पैसा कमाने के लिए नहीं हुआ.. तो क्या अब कुत्तो से मुकाबला करने के लिए अपने स्वभाव को बदल दूँ?

कुत्तो से मुकाबला ही तो हुआ न यह! आप को कुत्ते के साथ एक द्वन्द्व में उतरना पड़ेगा। तभी न आप उसे पराजित कर पाएंगे, और वह दुम दबा के अपने हार स्वीकार कर लेगा। नीत्शे का एक वचन याद आता है, राक्षसों से लड़ने वालों को गौर करना चाहिये कि वे खुद एक राक्षस न बन जायँ। जब आप किसी घाटी में लम्बे समय तक देखते हैं, तो घाटी भी देखती है आपके अन्दर।

इस बात का राज़ क्या है कि आदमी लोगों के चरित्र को जानवरो से तुलना करता रहता है? कोई शेर है, कोई कीड़ा, कोई लोमड़ी, कोई गिद्ध.. और कोई कुत्ता।

आदमी मानवता की राह पर कदम कैसे बढ़ाए जबकि कुत्ते और दूसरे जानवर उसके भीतर जीवित बने रहते हैं?

आखिर इंसान और कुत्ते जैसे जानवर कैसे रहें साथ में?

इन महीन सवालो के अलावा एक मोटा सवाल, शहर में सड़क के कुत्तो का क्या करना चाहिये? क्या उन्हे उतने ही अधिकार होने चाहिये कि जितने झुग्गी बनाने वालों के होते हैं? या उनके लिए सरकार के पास कोई स्पष्ट नीति होनी चाहिये? कुत्ता प्रगट रूप से हिंसा कर सकता है, शहर में रहने वाले आम शहरी प्रगट हिंसा को भूल चुका है। झपटते कुत्ते को देखकर वह वापस नहीं झपटता, वह डर के दुबकता है। इस सच के बावजूद कि सीधे द्वन्द में आदमी कुत्ते पर हमेशा भारी पड़ेगा।

तो क्या करना चाहिए.. कुत्तो को खुला छोड़ देना चाहिए? जहाँ वे अपना एक समान्तर समाज बनाने के लिए और कारों, बाइकों, और छोटे बच्चों पर झपटने के लिए आज़ाद हों?

उन्हे केनल में रखना चाहिये?

हर परिवार को एक कुत्ते को गोद ले लेना चाहिए?

उन्हे गोली मार देनी चाहिए?

सभी जीवित कुत्तों को नपुंसक बना देना चाहिए?


बुधवार, 5 सितंबर 2007

बलिहारी गुरु आपने

आजकल शिक्षकों का जो हाल है वो किसी से छिपा नहीं है। समाज में जो कुछ नहीं बन सकते वे शिक्षक बन जाते हैं। और इसके बाद वे हिन्दी फ़िल्मों में तमाशा बन जाते हैं। अपनी भारत-भूमि में गुरु की बड़ी महिमा गाई गई है। किन्तु आज की तारीख में गुरु के नाम पर आप को धूर्त ही दुकान चलाते मिलेंगे। श्रीमद भागवत में दत्तात्रेय की कहानी पढ़ कर हैरानी होती है, उन्हे २४ गुरु मिल गए थे। उनके २४ गुरु थे;

पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, अग्नि, चन्द्रमा, सूर्य, कबूतर, अजगर, समुद्र, पतंग, भौंरा, हाथी, शहद निकालने वाला, हरिन, मछली, पिंगला वेश्या, कुरर पक्षी, बालक, कुँआरी कन्या, बाण बनाने वाला, सर्प, मकड़ी, और भॄंगी कीट। इन सब से उन्होने कुछ न कुछ सीखा।

उनकी इस कहानी से एक बात तो समझ आती है कि गुरु का चेले से हर पहलू में श्रेष्ठ होना उसके गुरु होने की शर्त नहीं है। कई बारी ये भी हो सकता है कि गुरु निहायत ही गया-गुज़रा हो। जैसे कि दत्तात्रेय का गुरु नम्बर ८- कबूतर जो अपनी कबूतरी और अपने बच्चों से बिछुड़ने के संताप से बौखला कर स्वयं भी बहेलिये के जाल में कूद पड़ा था। अब मान लीजिये.. वह कबूतर आकर दत्तात्रेय से कहे कि चल बेटा पानी भर के ला, मेरे कपड़े धो, रोज़ सुबह उठकर मेरे लिए चन्दन घिस.. तो दत्तात्रेय क्या करेंगे? बलिहारी गुरु आपने हो जाएंगे? अब परोक्ष रूप से तो कबूतर महाराज ने भी गोबिन्द दियो बताय?

माफ़ कीजियेगा मेरा इरादा आप के या किसी के भी गुरु के अपमान का नहीं है। ये तो मैं स्वयं अपनी एक ग्रंथि के खिलाफ़ तर्क बटोर रहा हूँ, जो बीच बीच में पुकार लगाती है कि तेरा कोई गुरु नहीं तेरा बेड़ा पार कैसे होगा। अब इस पुकार में निहितार्थ यही होता है कि तेरा कोई एक गुरु नहीं.. जिस पर तू बलिहारी होता रहा.. जो तेरे जीवन की सारी जिम्मेवारी लेकर तुझे मुक्त कर दे। उसके बाद तू बस उनका हुकुम बजाता रहे।

नानक बड़े गुरु थे। मेरी बड़ी श्रद्धा है उनमें। पर उन्होने ने भी भाई लहणा को अपना उत्तराधिकारी घोषित करने के पहले ऐसे तमाम इम्तिहान लिए-- कि जा बेटा.. पूस की रात में मेरे कपड़े धो के ला.. सुबह नहीं अभी धो के ला। ऐसे-ऐसे तमाम अवरोधों को पार कर के ही भाई लहणा गुरु अंगददेव बन सके। जिन्होने गुरु नानक की इस अतार्किक सनकों का मर्म नहीं समझा वे चेले ही रह गए; कभी गुरु नहीं बन पाए।

मैं गुरु नानक की इस कहानी के आध्यात्मिक मर्म को नकारता नहीं, मगर ऐसी कहानियां अभी हमारे समाज में इतनी आम हैं कि हर धूर्त उसे अपने हित में सिद्ध कर लेता है। ऐसे गुरुओं के सम्मुख कबीर साहिब अपने लिखे पर दुबारा विचार करने पर मजबूर हो जाते। उन धूर्तों को गुरु बनाने से बेहतर है कि हम कबूतर टाईप गुरु ही बनाते रहें। मेरी शुभकामनाएं.. गुरु बनाते रहें.. सीखते रहें.. चरैवेति!चरैवेति!!


Emerson has said that consistency is a virtue of an ass. No thinking human being can be tied down to a view once expressed in the name of consistency. More important than consistency is responsibility. A responsible person must learn to unlearn what he has learned. A responsible person must have the courage to rethink and change his thoughts. Of course there must be good and sufficient reason for unlearning what he has learned and for recasting his thoughts. There can be no finality in rethinking.


मंगलवार, 4 सितंबर 2007

ईसा नक्सलियों के साथ नहीं है!

नक्सलवादी अब नासिक, जलगाँव, अमरावती, थाने और मुम्बई जैसे शहरों पर हमला बोलने की योजना बना रहे हैं, ऐसा एटीएस के 'गुप्त सूत्रों' से पता चला है। इसके पहले अगस्त १९ व २० को मुम्बई पुलिस ने शहर से श्रीधर श्रीनिवासन और वरनॉन गॉन्सॉल्वेज़ नाम के दो नक्सलियों को गिरफ़्तार करके हिरासत में ले लिया है। आरोप है कि उनके पास आपत्तिजनक साहित्य के अलावा हथियार और बारूद भी बरामद हुआ, जिसे पुलिस ने अदालत की इजाज़त से गैर-क़ानूनी होने के नाते नष्ट कर दिया। अदालत को पुलिस की 'सचबयानी' पर पूरा भरोसा है, और अब मुकद्दमा इस नष्ट किए गए हथियार के बिना पर जारी है। मानवाधिकार का हल्ला मचाने वाले विधि-विशेषज्ञों ने इस मामले पर फिर से टिल्ल-बिल्ल करना शुरु किया है; पर हमेशा की तरह उनकी आवाज़ को सुनने वाले उनके जैसे कुछ खलिहर लोगों के सिवा कोई अन्य नहीं है।

नक्सली हमारे समाज का कोढ़ हैं और पुलिस-प्रशासन हमारे हितों के सजग रक्षक।

इसके काफ़ी पहले नागपुर में ८ मई को अरुन फ़ैरेरा नाम के एक और नक्सली को उसके दो साथियों के साथ गिरफ़्तार कर लिया। वैसे तो पुलिस १५ दिन तक किसी आरोपी को अपनी कस्टडी में रख सकती है, मगर इन विश्वस्त अपराधियों को पुलिस ने सत्य-वमन के उद्देश्य से ४० दिन तक अपनी हिरासत में बनाये रखने के बाद ही उन्हे न्यायिक हिरासत में भेजा। नक्सलवाद के समर्थकों का कहना है कि ये गैर क़ानूनी है, और पुलिस इन लोगों पर गुदा द्वार से एक पेग पेट्रोल प्रवेश कराने जैसे अत्याचार कर रही है। पुलिस ने ऐसे किसी भी आरोप का खण्डन किया है, और देश के न्याय और नियम का पूरी तरह से पालन करने का अपना संकल्प दोहराया है।

ये तीनों नक्सली मुम्बई के ही रहने वाले हैं। और इनके कॉलेज के दोस्त बता रहे हैं कि ये लोग ईमानदार और न्यायप्रिय किस्म के लोग हैं, और देशद्रोही या व्यवस्थाद्रोही आदि नहीं है; साथ-साथ अपील भी कर रहे हैं कि पुलिस और प्रशासन इनके मानवाधिकारों की रक्षा करे। ज़ाहिर है पुलिस, प्रशासन और हमारी व्यवस्था के चलाने वालों के पास इनको सुनने-पढ़ने से ज़्यादा ज़रूरी अनेको काम हैं।

पता ये भी चला है कि इनमें से दो व्यक्ति जो ईसाई धर्म से ताल्लुक रखते हैं। १९६० के दशक में दक्षिण अमेरिका में जन्मी लिबरेशन थियॉलजी नाम की नई विचारधारा में विश्वास रखते हैं। यह विचारधारा मानती है कि ईसा का वह कथन भूलना नहीं चाहिये कि सुई के छेद से ऊँट का प्रवेश सम्भव है, किन्तु स्वर्ग के द्वार से अमीरों का प्रवेश नामुमकिन है। इसके मानने वालों ने मार्क्स के साम्यवादी विचारधारा को ईसा के विचार की ही एक बढ़त स्वीकार किया। इन्हे कहीं ज़्यादा सफलता नहीं मिली, दक्षिणी अमरीका में ये मारे गए, यहाँ भी मारे जा रहे हैं। और पोप बेनेडिक्ट ने भी इनकी विचारधारा को नकार की लात मार दी है। पोप की इस बात से अब शंका की कोई गुंजाइश नहीं रही कि ईसा भी नक्सलियों के साथ नहीं है !


सोमवार, 3 सितंबर 2007

ऐंठी समय की सुईयाँ

मैंने हाल में जो स्कित्ज़ोफ़्रेनिया पर जो पोस्ट चढ़ाई थी उस पर मेरे उन मित्र की प्रतिक्रिया आई है जो इस रोग का शिकार हुए हैं.. प्रतिक्रिया दो हिस्सो में है.. एक उस प्रारूप पर जो मैंने उन्हे छापने से पहले एक नज़र मारने को भेजा था ताकि कोई गलत बात न चली जाय.. जो यह रही..

अभय भाई

सबसे परेशानी की वो ऐंठी समय की सुईयाँ होती हैं जो आपको अपने समय से दूसरे के समय में निषेधात्मक चाल से प्रेक्षित करती हैं और मरीज़ मात्र श्रोता हो जाते हैं. ये निगेशन की स्थिति है और वो ही पॉज़िटिव सेन्स में समाज का बैरोमीटर भी हो सकती है; सुईयाँ ही तो हैं, चाहे पारे की या किसी धातु की. समयहीन समाज. मुझे ये रोग नहीं लगता ये तो हर एक पल बढ़ता है आज कल में घुस नहीं जाता है. जैसे डी जे हॉस्टल. (इलाहाबाद में जहाँ मैं रहता था; इस उदाहरण से मित्र का मतलब है कि समय का कोई दौर जो आया और गया..)

पागलपन नहीं है पावती सिर्फ़ आप एडिट प्वायंट्स देख लें पर पिटी टाइप नहीं ना योद्धा. पहली बात स्कित्ज़ोफ़्रेनिया होता ही नहीं है, ब्रेन की अवस्था है. और सबकी मौलिकता है अपने-अपने प्राणवायु की.

उनकी इस प्रतिक्रिया के आधार पर मैंने अपने आलेख के प्रारूप में कुछ परिवर्तन किए.. किन्ही वजहों से मित्र मेरे सुधारे हुए लेख और आप लोगों की टिप्पणियों को कल ही पढ़ सके.. और पढ़ने के बाद उन्होने यह प्रतिक्रिया भेजी है..

डियर

आर्टिकल बहुत बैलेन्स बन पड़ा है, वैसे आप की जानकारी के लिए इस बीमारी के रेफ़्लेक्शन्स सबमें अलग-अलग तरीक से हाई और लो नोट्स पर होते हैं.< इट्स लाइक ए ब्लैक बोर्ड एंड व्हाट कलर चाक यू आर यूज़िंग टु एक्सप्रेस, इफ़ आई टेल यू दैट आई डिड गॉट इन्टू द प्रैक्टिसेज़ व्हिच वर आकल्ट इन नेचर एंड इनस्टिन्क्ट, जैसे पहले कहा कि रुझान महत्वपूर्ण है और कन्डीशनिंग,,, एंड आई स्टिल बिलीव दे वर ट्रू एंड ओरिजिनल इन पर्फ़ारमेन्स.>

मैं खुद के खिलाफ़ न खड़ा हो जाऊँ डर लगता रहता है. खतरनाक हैं शायद इन्टरप्रेटेशन,, गोरख पांडे किस फेसिंग से गुज़रते होंगे कह नहीं सकता लेकिन सोसायटी अवश्य एक डेटेरेंट का काम करती है और आस-पास के लोग, संवेदनशीलता का ग्राफ़ हद से ऊपर रहता है... संजय भाई ने ठीक कहा कि गायत्री मंत्र से शायद लाभ होता है, आई एग्री. सन्मार्ग... लेकिन कौन वाला? यहाँ तो उलटबासी हो जाती है.

भाई क्या ये ठीक होगा कि मैं अपने को रिलोकेट करूँ और कुछ समय पहाड़ या किसी जगह चला जाऊँ, नेचर आई थिंक शुड डू सम गुड... या आपकी नज़र में कोई एनजीओ हो या कोई प्रोजेक्ट जो मुझे एन्गेज कर सके.

क्या कहते हैं..............



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