शुक्रवार, 30 मार्च 2007

रसोई और रिश्तों का रस

नोटपैड वाली सुजाता जी (ग़लती से पहले प्रत्यक्षा लिख गया).. रसोई से दुखी हैं.. वो मानती हैं कि "एक रसोई रिश्तो की असमानता की आधारभूमि है".. लिहाज़ा रसोई को घर से बाहर ही कर दिया जाय... ना रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी.. मैं ऐसा नहीं मानता.. मैं इस पूरे मामले को अलग बिन्दु से देखता हूँ.. जिसे मैंने उनके लेख पर अपनी प्रतिक्रिया में दर्ज किया.. वही बात थोड़े फ़ेर बदल के साथ यहाँ भी दे रहा हूँ..

रसोई है क्या.. रस का जहाँ निर्माण हो वह जगह है रसोई.. रसोई को आप घर से निकाल देंगी तो घर से जीवन से रस भी जायेगा..रसोई तो घर का केन्द्र है.. कभी आपने कुवाँरे लड़कों का घर देखा है.. प्लेटफ़ार्म और उनके घर में कोई ज़्यादा फ़र्क नहीं होता.. एक दृष्टिकोण ये है कि घर में किसी स्त्री के न होने से ऐसा भाव उपजता है.. दूसरा नज़रिया ये है कि चूँकि अधिकतर लड़कों को जीवन में रस और रसोई के महत्व के बारे में कोई अता पता नहीं होता इसलिये उनके घर की वो दशा होती है.. लेकिन कुछ लड़के ऐसे भी मिलते हैं जो खाना भी पकाते हैं और जीवन में रस की समझ भी रखते हैं..उनके घर से भूतों के डेरे वाला भाव नहीं पैदा होता..

दूसरी बात रसोई से निकलकर व्यक्ति कितने रचनात्मक कार्य कर सकता है इस पर शक़ है.. स्त्री तो अपने स्वभाव से प्रकृति से ही रचनात्मक है..वो तो एक मौलिक मनुष्य की रचना करती है और फिर रसोई में भी सुबह शाम की रसों की रचना करती है.. शास्त्रों में ब्रह्म के बारे में कहा ही गया है.. रसोवैसः.. पुरुष उसकी इस रचनात्मकता से हमेशा आतंकित रहता है.. स्त्री की इसी लगभग जादुई रचनात्मकता से अभिभूत हो कर मनुष्य ने सर्वप्रथम स्त्री को ही दैवीय भाव से सुसज्जित किया.. अभी तक पाई जाने वाले प्राचीनतम शिल्प कलाकृतियों में मातृशक्ति की याद दिलाने वाली मूर्तियां ही मिलती हैं जैसी एक बायें तरफ़ की तस्वीर में आप देख सकते है..

और कुदरत की डिज़ाइन में अपनी कोई विशेष उपयोगिता ना पाकर जीवन में उद्देश्य की खोज में भटकता फिरता है..आम तौर पर उद्देश्य का ये संकट आदमी के ही जीवन में आता है.. मैं तो आज तक किसी स्त्री से नहीं मिला जो जीवन के उद्द्देश्य को लेकर अपना माथा यहाँ वहाँ फोड़ रही हो.. स्त्री को पता होता है जीवन क्या है.. और इसे विषय में बात करके वह अपना समय नष्ट नहीं करती.. वह जीवन जीती है.. आदमी जीवन के बारे में ऊँट पटाँग विश्लेषण करता है.. बावजूद इसके कि एक आम आदमी की संवाद निपुणता एक स्त्री से कहीं कम होती है.. और शब्द भण्डार भी कम होता है.. बच्चा भाषा ज्ञान भी माँ से ही प्राप्त करता है .. पिता से नहीं.. फिर भी आदमी साहित्य का रचियता होने का गुमान लिये यहाँ से वहाँ टहलता रहता है.. स्त्री को अपने आपको महान और श्रेष्ठ सिद्ध करने की कोई आवश्यकता नहीं.. वो पुरुष से श्रेष्ठ है.. और ये वह जानती है..पुरुष तभी श्रेष्ठ कहलाता है जब उसमें आम तौर पर स्त्रैण कहने वाले गुण.. दया सहानुभूति, करुणा, प्रेम आदि प्रबल हो.. और यदि इनके अभाव में यदि उसमें बुद्धि, शौर्य, धैर्य, बल आदि ही गुण हों .. फिर तो वो पाशविक ही माना जाता है..


ऊपर की रंगीन तस्वीर: एवरिन साहिन के फ़्लिकर डॉट कॉम के संग्रह से

गुरुवार, 29 मार्च 2007

क्यों न गरियायें अमेरिका को..?

ये प्रविष्टि समर्पित है.. आदरणीय बड़े भाई ज्ञान दत्त पाण्डेय जी और तमाम दूसरे भाई बहन को.. जिन्हे सच में ऐसा लगता है कि मैं और मेरे जैसे दूसरे सरफिरे अमेरिका को गरियाने का कोई नैतिक अधिकार नहीं रखते.. क्यों?.. क्योंकि अमेरिका निर्दोष है.. और हमारे दिमाग़ में कुत्सित विचार हैं..?

ये सच नहीं है.. उलटे मुझे ऐसा लगता है कि आप सोचते हैं अमेरिका एक बेचारा निरीह बच्चा है जिसे हमारे जैसे अराजक तत्त्व आते जाते कभी भी कान उमेंठ कर निकल जाते हैं.. तमाम किस्म के आपराधिक कुकृत्य हमारे करकमलों से होता है और फिर हम नाम लगाते हैं लुटे पिटे अमेरिका का.. तभी तो हमारी इसी हरमजदगी से तंग आकर बड़े भाई ज्ञानदत्त जी ने हमारे ज़ुल्म और अन्याय के राज के खिलाफ़ ऐलान करने का बीड़ा उठाया और मासूम अमेरिका को अपनी शरण में ले लिया.. अगर ज्ञानदत्त जी ना होते तो अमेरिका हमारे पापाचार के तले यूँ ही पिसता रहता.. अब हमें अमेरिका को चिकोटी काटने के लिये भी पहले बड़े भाई ज्ञानदत्त जी का सामना करना होगा.. फिर जा के हमे अमेरिका के नाज़ुक और मासूम गालों को मसलने का मौका मिलेगा.. मगर हम भी तो दुष्ट नम्बर वन हैं.. हमने तो कसम खाई है कि अमेरिका को टीप मारते रहेंगे.. हमें सैडेस्टिक प्लेज़र मिलता है.. और इसी क्रम में आपको धोखा देने और भरमाने के लिये हम विस्तार से अपनी बात नीचे कह रहे हैं.. .

हमारे अमेरिका को गरियाने के हजार कारण हो सकते हैं.. मगर आप उसका बचाव क्यों कर रहे हैं.. आपको समझना चाहिये कि वो आपका हितैषी नहीं हो सकता.. अगर वो किसी का हित चाहेगा तो अपने देश वासियों का.. क्या आप अमरीकी हैं..? नहीं.. आप भारतीय हैं..एक भारतीय होने के नाते आप को चाहिये जो शक्तियां आपके देश के हित में नहीं है उनके प्रति सावधान रहें.. और दूसरों को भी सावधान करें.. मगर आप क्या कर रहे हैं.. मैं सावधान सावधान की गुहार लगा रहा हूँ .. और आप पीछे से मेरी धोती खींच के हँस रहे हैं.. सोचिये क्या ये ठीक है.. धोती खींचना मुझे भी आता है.. पर वो मेरा न शौक है ना सरोकार..

दूसरी बात .. कि मैंने जो ऊपर बात कही है.. वो ग़लत है.. सच ये है कि मैं अपने देशवासियों के हित में भले सोचूं और आप भी ज़रूर ही सोचते होंगे.. पर ना तो अमेरिकी राज्य और सरकार को अमेरिकी जनता की परवाह है.. और ना भारतीय राज्य और सरकार को भारतीय जनमानस की.. आप कहेंगे कि फिर मैंने अपनी बेसिर-पैर की बकवास शुरु कर दी.. पर माथे पर त्योरियां डाल के ज़रा सोचिये.. कि अगर अमेरिकी सरकार को वाक़ई अपनी जनता का हित साधना होता तो.. वो अपनी जनता के मुँह से निवाला छीन कर भारतीयों के थाली में नहीं परोस देती.. मैं जॉब आउटसोर्सिंग की बात कर रहा हूँ.. जिनका रोज़गार गया है वो नाराज़ हैं.. विरोध कर रहे हैं.. पर सरकार पूँजीपतियों के प्रति प्रतिबद्ध है.. उनका हित जिसमें है सरकार वही नीति अपनायेगी..और ये बात भी अपने दिमाग़ में मत लाइयेगा कि इसके पीछे अमरीकी सरकार की बाज़ार में गैर-हस्तक्षेप की कोई नीति है.. अगर ऐसा होता तो वो चीनी माल से अपने पूँजीपतियों को बचाने के लिये क़ानूनों को तोड़ती मरोड़ती ना रहती.. अपनी ही जनता के प्रति इस उपेक्षा की एक और मिसाल.. कैटरीना हरीकेन के समय न्यू ऑर्लीन्स के ज़्यादातर अश्वेत और बाकी बचे हुये निचले तबके गैर महत्वपूर्ण श्वेत जनता के लिये कोई राहत कार्य शुरु करने में अमेरिकी सरकार को पूरा एक हफ़्ता लग गया.. जो सरकार इराक़ की जनता को एक पागल तानाशाह से छुटकार दिलाने के लिये.. और लोकतंत्र का उपहार देने के लिये आणविक हथियरों का इतना बड़ा हल्ला खड़ा कर के आधी दुनिया पार कर के ऐसा आधुनिक और भयानक युद्ध छेड़ सकती है.. वही सरकार अपनी ही जनता को एक प्राकृतिक आपदा से राहत देने के लिये युद्ध स्तर पर कार्य नहीं कर सकती.. क्यों.. ?

अब आइये भारत पर.. आपकी मनमोहन सरकार जो कॉंग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ के नारे लगा कर सत्ता में आई.. वह रोज़ ब रोज़ आम किसानों के आत्म हत्या करने के बावजूद उनके कर्ज़े माफ़ करने की कोई साधारण सी घोषणा क्यों नहीं करती.. क्या इसलिये कि सरकार बैंको के मामले में दखलंदाज़ी नहीं करना चाहती..?..क्या दस हज़ार से लेकर पचास हज़ार तक की विराट रकम सरकार के कंधों पर इतनी भारी पड़ती है कि तीन चार हज़ार किसानों के आत्महत्या करने के बाद भी उनका पलड़ा हलका रहता है? लेकिन वही सरकार रोज़ ब रोज़ पूँजीपतियों को बुला बुलाकर करोड़ों के कर्ज़ों के लुभावने प्रस्ताव परोसती रहती है.. क्यों? आये दिन तमाम धन्ना सेठ अपने आपको दीवालिया घोषित करके करोड़ो अरबों रुपया डकार जाते हैं.. वो लोग आत्महत्या क्यों नहीं करते? क्या इसलिये कि वो जानते हैं कि सरकार उनकी अपनी है वो उनके पीछे हाथ धो के नहीं पड़ेगी.. जबकि किसान इस सरकार से हर तरह की उम्मीद हारकर अपनी जान दे देता है..

अभी दो रोज़ पहले अनिल रघुराज ने अपने ब्लॉग में बताया कि..."हमारी सरकार हमारे-आपके टैक्स वगैरह से जितनी कमाई करती है, उसमें से जितना वो अपने ऊपर खर्च करती है, उसका 20 फीसदी से भी कम हिस्सा देश की एक अरब आबादी के कल्याण पर खर्च करना चाहती है। जाहिर है कि हमारे माई-बाप 100 रुपए खुद खा रहे हैं और हमारी झोली में फेंक रहे हैं 20 रुपए से भी कम। वाकई सरकार को शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी कल्याणकारी सेवाओं की कितनी फिक्र है!"

सेज़ को तो आप बिलकुल ही मत भूलिये .. जिस बेशर्मी के साथ इस देश के सारे क़ानूनों को ताक़ पर रख कर पूँजीपतियों के आगे सारे संसाधन परोसे जा रहे हैं.. क्या जनता की कोई प्रतिनिधि सरकार ऐसा करेगी? ..नहीं.. ना भारत की ये सरकार भारतीयों के विषय में सोचती है.. और ना अमेरिकी सरकार अमेरिकियों के विषय में सोचती है.. ये वैश्वीकरण का दौर है.. देश और राष्ट्र की सीमायें अर्थहीन हो रही हैं.. वो अमेरिकी जिसकी नौकरी जार्ज बुश ने बंगलौर के एक एन सुरेश को दे दी.. और नांदेद का किसान दोनों का दर्द एक है.. दोनों को उनकी सरकार ने धोखा दे दिया..

सभी देश सभी राष्ट्र समान रूप से एक ही आक़ा की सेवा में तत्पर हैं..और जो ना नुकुर करके अपने पुराने रास्तों पर चलना चाह्ते हैं.. उन्हें या तो डरा धमका कर या फिर मार पीटकर सीधे रास्ते पर लाया जा रहा है.. उदाहरण हैं.. ईरान, इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान.. ये आक़ा हैं वह वर्ग जिन्हे मैं बार बार पूँजीपति के नाम से पुकार रहा हूँ.. जो कि ग़लत नाम है.. वो एक गुज़रे ज़माने की सच्चाई है.. जिस वर्ग के हित के लिये सारा प्रपंच है.. उसका नया आधिकारिक नाम है कॉरपोरेट...

मैं जब भी बाज़ार या अमेरिका को गाली देता हूँ तो मेरा मतलब इस व्यक्ति से है.. जिसे कॉरपोरेट के नाम से जाना जाता है.. और मैने किसी गलती से इसे व्यक्ति के नाम से उल्लिखित नहीं किया है.. सभी कॉरपोरेशन्स को विधि द्वारा एक व्यक्ति के रूप में मान्यता मिली है..


जारी..

अगली कड़ी में चर्चा करेंगे.. इस व्यक्ति के चरित्र और चरित्रहीनता की..

मंगलवार, 27 मार्च 2007

कहाँ रहें राम?

राम बेघर हैं.. काफ़ी सालों से बेघर हैं.. कहाँ रहें राम .. ये बड़ा प्रश्न है.. कुछ लोग मानते हैं कि राम अयोध्या में रहें.. अयोध्या.. राम की जन्म स्थली अयोध्या.. अ-योध्या.. जिसके साथ युद्ध न किया जाय.. या जहाँ युद्ध न किया जाय.. ठीक ठीक क्या अर्थ होगा ये तो कोई निपुण भाषा वैज्ञानिक ही बता सकेगा.. पर इतना तो समझ आता है कि इसका अर्थ युद्ध के नकार से है... अयोध्या का एक दूसरा नाम भी है जिसका अर्थ एकदम स्पष्ट है.. अवध.. अ-वध...जहां वध हो ही ना.. राम का जन्म स्थल अवध.. बड़े लोग कृतसंकल्प हैं.. राम को अवध वापस भेजने के लिये..

मगर राम ने अयोध्या में रहने के लिये कहाँ जन्म लिया था.. जन्म तो लिया था अपने भक्तों को इच्छा पूरी करने के लिये.. बिप्र धेनु सुर साधु हित, लीन्ह मनुज अवतार।.. विप्र, गौ देवता और संतों के हित के लिये ही भगवान ने मनुष्य रूप धारण किया..(विप्र का अर्थ आम तौर पर ब्राह्मण होता है.. मगर मानस मर्मज्ञ रामकिंकर उपाध्याय का मत भी विचारणीय है ..." विप्र समाज का मूर्धन्य है; वह विचार प्रधान है"..वो कहते हैं..."जिस समाज में विचार और विवेक की अवहेलना होती है, वह समाज पतन की दिशा में उन्मुख होता है। किन्तु वह विचार और समाज केवल अपने अहंकार के लिये नहीं, अपितु लोक मंगल के लिये कार्य कर रहा हो , यह आवश्यक है")

तो राम ने जन्म लिया और पहला मौका मिलते ही अयोध्या छोड़ दिया.. क्योंकि उनको तो युद्ध करना था और अयोध्या में युद्ध कैसे होगा.. तो अयोध्या से निकले और उनके सामने भी यही प्रश्न उपस्थित हो गया.. कहाँ रहें? अयोध्या से निर्वासित किये जाने के बाद .. राम भटक रहे हैं.. ऋषि वाल्मीकि के आश्रम में पहुँचते हैं.. बैठ कर सांस लेने के बाद राम ऋषि वाल्मीकि से कहाँ रहें के सवाल पर मशविरा करते हैं.. और देखिये क्या कहते हैं वाल्मीकि..

पूँछेहु मोहि कि रहौं कहँ मैं पूँछत सकुचाउँ।
जहँ न होहु तहँ देहु कहि तुम्हहि देखावौँ ठाउँ॥

आप मुझसे मुझसे पूछ रहे हैं कि कहाँ रहूँ.. और मुझे आपसे ये पूछते हुये संकोच हो रहा है कि आप मुझे वो स्थान बताइये कि आप जहाँ न हो तो मैं आप को वही स्थान बता दूं कि आप वहाँ रहिये..
राम मुस्कुराते हैं वाल्मीकि जी हँसते हैं और फिर मधुर अमिअ रस बोरी बानी से कहते हैं..

सुनहु राम अब कहउँ निकेता। जहाँ बसहु सिय लखन समेता।।
जिन्ह के श्रवन समुद्र समाना। कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना।।
भरहिं निरंतर होहिं न पूरे। तिन्ह के हिय तुम्ह कहुँ गृह रूरे।।
लोचन चातक जिन्ह करि राखे। रहहिं दरस जलधर अभिलाषे।।
निदरहिं सरित सिंधु सर भारी। रूप बिंदु जल होहिं सुखारी।।
तिन्ह के हृदय सदन सुखदायक। बसहु बंधु सिय सह रघुनायक।।
दो0-जसु तुम्हार मानस बिमल हंसिनि जीहा जासु।
मुकुताहल गुन गन चुनइ राम बसहु हियँ तासु।।128।।

प्रभु प्रसाद सुचि सुभग सुबासा। सादर जासु लहइ नित नासा।।
तुम्हहि निबेदित भोजन करहीं। प्रभु प्रसाद पट भूषन धरहीं।।
सीस नवहिं सुर गुरु द्विज देखी। प्रीति सहित करि बिनय बिसेषी।।
कर नित करहिं राम पद पूजा। राम भरोस हृदयँ नहि दूजा।।
चरन राम तीरथ चलि जाहीं। राम बसहु तिन्ह के मन माहीं।।
मंत्रराजु नित जपहिं तुम्हारा। पूजहिं तुम्हहि सहित परिवारा।।
तरपन होम करहिं बिधि नाना। बिप्र जेवाँइ देहिं बहु दाना।।
तुम्ह तें अधिक गुरहि जियँ जानी। सकल भायँ सेवहिं सनमानी।।
दो0-सबु करि मागहिं एक फलु राम चरन रति होउ।
तिन्ह कें मन मंदिर बसहु सिय रघुनंदन दोउ।।129।।

काम कोह मद मान न मोहा। लोभ न छोभ न राग न द्रोहा।।
जिन्ह कें कपट दंभ नहिं माया। तिन्ह कें हृदय बसहु रघुराया।।
सब के प्रिय सब के हितकारी। दुख सुख सरिस प्रसंसा गारी।।
कहहिं सत्य प्रिय बचन बिचारी। जागत सोवत सरन तुम्हारी।।
तुम्हहि छाड़ि गति दूसरि नाहीं। राम बसहु तिन्ह के मन माहीं।।
जननी सम जानहिं परनारी। धनु पराव बिष तें बिष भारी।।
जे हरषहिं पर संपति देखी। दुखित होहिं पर बिपति बिसेषी।।
जिन्हहि राम तुम्ह प्रानपिआरे। तिन्ह के मन सुभ सदन तुम्हारे।।
दो0-स्वामि सखा पितु मातु गुर जिन्ह के सब तुम्ह तात।
मन मंदिर तिन्ह कें बसहु सीय सहित दोउ भ्रात।।130।।

अवगुन तजि सब के गुन गहहीं। बिप्र धेनु हित संकट सहहीं।।
नीति निपुन जिन्ह कइ जग लीका। घर तुम्हार तिन्ह कर मनु नीका।।
गुन तुम्हार समुझइ निज दोसा। जेहि सब भाँति तुम्हार भरोसा।।
राम भगत प्रिय लागहिं जेही। तेहि उर बसहु सहित बैदेही।।
जाति पाँति धनु धरम बड़ाई। प्रिय परिवार सदन सुखदाई।।
सब तजि तुम्हहि रहइ उर लाई। तेहि के हृदयँ रहहु रघुराई।।
सरगु नरकु अपबरगु समाना। जहँ तहँ देख धरें धनु बाना।।
करम बचन मन राउर चेरा। राम करहु तेहि कें उर डेरा।।
दो0-जाहि न चाहिअ कबहुँ कछु तुम्ह सन सहज सनेहु।
बसहु निरंतर तासु मन सो राउर निज गेहु।।131।।


संक्षेप में बात यह है कि राम अपने भक्तों के हृदय में निरन्तर निवास करें ऐसा बाल्मीकि का निवेदन है..

एहि बिधि मुनिबर भवन देखाए। बचन सप्रेम राम मन भाए॥
कह मुनि सुनहु भानुकुलनायक। आश्रम कहउँ समय सुखदायक॥


मुनि ने राम को सब स्थान बता दिये.. राम को बात पसन्द आई फिर मुनि ने कहा कि हे सूर्यवंशी राम अब मैं आपको समय काटने के लिये रहने का स्थान बताता हूँ..

और राम को चित्रकूट का पता देते हैं.. राम वहां रहते हैं .. पंचवटी रहते हैं.. वो जहां जाते हैं.. जहां से गुज़रते हैं.. तीर्थ बनता जाता है.. हमारे पूरे देश में राम के चिह्न अंकित हैं.. राम इस देश के चप्पे चप्पे में बसे हुये हैं..जन जन के मन में बसे हुये हैं.. मगर फिर भी ये प्रश्न बना रहता है राम बेघर हैं और उन्हे अवध वापस भेजना है.. ये बात मेरे गले नहीं उतरती कि पूरे देश में तो मॉल बनें.. और एक अवध में मन्दिर.. बाल्मीकि ने तो कुछ और ही कहा था..


काम कोह मद मान न मोहा।
लोभ न छोभ न राग न द्रोहा।।
जिन्ह कें कपट दंभ नहिं माया।
तिन्ह कें हृदय बसहु रघुराया।।

काम, क्रोध, मद, मान, मोह, लोभ, क्षोभ, राग, द्रोह.. कपट, दंभ, माया .. पूँजीवादी मॉल संस्कृति इन्ही स्तम्भो पर तो खड़ी है..इन सब को जगह है सब के हृदय में.. और मेरे राम के लिये बस एक अवध का गर्भगृह ही बचा है.. ये कहां का इन्साफ़ है कि राम को मन से निकाल कर और पूरे देश से खदेड़ कर एक अवध के गर्भगृह में क़ैद कर दिया जाय.. ?

रविवार, 25 मार्च 2007

दि स्पिरिट ऑफ़ फ़्रीडम

अपने पूरे सिगरेटीय जीवन में मैंने सिगरेट को हमेशा आज़ादी का प्रतीक समझा..हमारे जवानी के दिनों की एक सफल ब्रांड चार्म्स की बाईलाइन ही थी.. चार्म्स--दि स्पिरिट ऑफ़ फ़्रीडम... मध्यमवर्गीय बन्धनों में सीमित नौजवान के लिये ऐसी सस्ती सुलभ आज़ादी.. वो भी डेनिम जीन्स के आकर्षक पैकेट में.. मोक्ष की खोज में जितनी भटकती मुमुक्षायें थी.. सब पान की दुकानों से बीस पैसों में खरीद रही थी मोक्ष.. जो इस स्कीम में आकर नहीं गिरे वो या तो माया के चरित्र को गहरे तक पहचान गये जन्मों जन्मों के सच्चे साधक थे.. या जिनकी मुक्ति की कामना इतनी अशक्त थी कि मध्यमवर्गीय वर्जनाओं को ही ना तोड़ सकी.. भले ही ऐसा ना हो पर हमें यह मुग़ालता पालने में तब भी सुख मिलता था आज भी मिलता है..
मगर जब से सिगरेट पीना छोड़ा है.. बड़ा सूना सूना लगता है ... सब कुछ हो कर भी कुछ कम कम सा लगता है.. जिन बेचैनियों का इलाज हमारी प्यारी धूम्र दन्डिका हुआ करती थी.. वो बेचैनियां भी हमें आज अकेला छोड़ गई हैं .. जियें तो जियें कैसे.. बिन आपके.. तेरे बिना ज़िन्दगी से कोई शिकवा तो नहीं आदि आदि गाने गा कर हम अपना जी बहला सकते हैं.. पर विरह की ऐसी अनूठी रूमानियत के प्रति भी दिल बड़ा निष्ठुर हो चला है.. और उनको दो कौड़ी का चिन्हित कर के पद दलित कर रहा है.. अब हर आधे घन्टे पर किसी को अपनी सांसों मे बसा लेने के लिये ... गरमा लेने के लिये कोई आग नहीं सुलगा रहा हूँ मैं.. किसी को बार बार अपने होठों से नहीं लगा रहा...किसी भी फ़िक्र को धुयें में नहीं उड़ा रहा...
कभी कभी लगने लगता है.. कि कहीं ऐसा तो नहीं कि सिगरेट के साथ मेरे अन्दर का सारा विद्रोह विप्लव सारी क्रांतिकारिता भी छूट गई.. और मेरा चरित्र मध्यमवर्गीय समझौता परस्ती में तो नहीं गिरता जा रहा.. अब कहीं भी जा के राजी हो जाता हूँ.. सिनेमा हाल में जाते ही निकलने की बेचैनी सर मारने नहीं लगती.. ए सी की ठण्डी बुर्जुआ हवाओं में घन्टो तक सेठों के साथ पैसों के नेगोशियेशन्स करते रहने पर भी कहीं आग लगाने का कोई विचार मन में हिलोड़े नहीं मारता.. रेलवे स्टेशन, बस ट्रेन..बाज़ार दुकान मकान अस्पताल शमशान कहीं भी मैं भीड़ का हिस्सा बन जाता हूँ.. मेरे अन्दर भीड से हट कर कुछ कर गुज़रने का जैसे कोई अरमान ही नहीं बचा है.. हे मेरे मालिक ये मुझे क्या हो गया है.. ?

शुक्रवार, 23 मार्च 2007

माँ की एक और कविता

जाऊँ जहाँ वही मिल जाये,
देखूँ जिधर वही दिख जाये,
जो कुछ सुनूँ नाम हो उसका।


कर स्पर्श करे बस उसका,
चहुँ दिशि से मुझ पर छा जाये।


खोज खोज कर हारी हूँ मैं,
मुझे खोजता वह मिल जाये।


चल दूँ तो हो नूतन सर्जन,
बैठूँ तो मंदिर बन जाये।


आशा डोर कभी ना टूटे,
शाश्वत सदा नित्य हो जाये।



विमला तिवारी 'विभोर'

७ नवम्बर २००३

शब्दों में अर्थ नहीं है..

.. या जो अर्थ है उसके लिये है ही नहीं शब्द..?
.. क्या कह देने से चीज़ें सुलझ जाती हैं.. या कहना भ्रमों की शुरुआत है..?
.. लेकिन अभी भी शब्दों पर विश्वास है...
क्या शब्द ज़्यादः महत्वपूर्ण है, या शब्द जिसका सार है...?
...प्यार करना ज़्यादः सच है या ये कहना कि प्यार है..?
... क्या हिंसा वैसे ही दिखाई देती है जैसे पिस्तौल की नली.. या उसका कुछ अलग आकार है...?



लिखा १९९१-९२ में, काल के किसी क्षुब्ध खण्ड में... आज याद आई..

गुरुवार, 22 मार्च 2007

पत्रकार ब्लॉगर और कान्सपिरेसी थ्योरी

अपने ब्लॉग पर बेजी ने पत्रकारों के ब्लॉगर बनने पर हैरानी ज़ाहिर की है और अपने संशयों को ज़बान दी है.. बेजी एक बहुत ही समझदार महिला हैं और मैं उनका बहुत सम्मान करता हूँ.. इसीलिये उनके शंकाओं को पूरी गम्भीरता से लेते हुये मैंने उनके ब्लॉग पर प्रतिक्रिया भी लिखी.. उसी प्रतिक्रिया को थोड़े से फेर बदल के साथ यहाँ चिपका रहा हूँ..


हो सकता है मेरी राय प्रमोद भाई से मेल खाये..क्योंकि वो मेरे दोस्त हैं और कई मसले ऐसे हैं जिस पर हम एक तरह से सोचते हैं और कई मसले ऐसे भी हैं जिस पर हमारी राय मुख्तलिफ़ हैं.. फिर रवीश कुमार से मेरा परिचय तक नहीं .. लेकिन उनके ज़्यादातर विचारों से मैं बराबर सहमत होता हूँ.. अविनाश से एक दफ़ा मिला हूँ.. पर उनसे कई मामलों में असहमतियां हो सकती हैं.. और बहुत सारी सहमति भी...लेकिन इस सहमति में कोई योजना नहीं है.. माफ़ करें बेजी पर आपकी बातों से कॉन्सपिरेसी थ्योरी की बू आ रही है.. मैं कॉन्सपिरेसी थ्योरी के खिलाफ़ नहीं हूँ.. कई जगह ऐसी है जहां पर लगातार कॉन्सपिरेसी होती रहती है हमारे खिलाफ़ पर हम चूँ तक नहीं करते.. राजनीति, व्यापार, बाज़ार, विज्ञापन.. संगठित तौर पर दूसरे लोगों को मूर्ख बना रहे हैं.. सब एक स्तर पर कॉन्सपिरेसी हैं.. कभी हमारा वोट लेने की.. कभी हमारी जेब काटने की.. कभी हमारे मनोजगत पर कब्ज़ा करने की.. ताकि उसे एक खास दिशा में मोड़ा जा सके.. इसलिये नहीं कि वही साध्य है..बल्कि इसलिये कि वो सिर्फ़ साधन है अपना माल बेचने का.. अगर मैं आपसे साम्प्रदायिकता पर बहस करूँगा तो इसलिये कि मैं आपकी राय इसी मसले पर बदलना चाह्ता हूँ.. लेकिन जब एक विज्ञापन में एक मुसलमान इस देश का नमक खाने की बात करता है तो वह इस बात का इस्तेमाल कर रहा है.. नमक बेचने के लिये.. ये कॉन्सपिरेसी है.. अगर मैं आपसे कहूँ कि ९/११ किसी आतंकवादी ने नहीं खुद अमेरिका ने योजना के तहत अंजाम दिया.. तो आप यक़ीन न कर पायेंगी.. जबकि वहाँ आपको हर किस्म की गंदी से गंदी कुचाल की कल्पना के लिये तैयार रहना चाहिये.. दुनिया के सबसे शातिर लोग सबसे ताक़तवर और खतरनाक खेल को खेल रहे हैं और हम उनसे नैतिक और मानवीय मूल्यों की उमीद करते हैं..और दूसरी ओर कुछ सामाजिक सरोकारों वाले लोग जो अखबारी दुनिया में आये तो थे अपने कुछ सरोकारों को ज़बान देने अपनी बात कहने के लिये मगर जिनके मुँह पर पट्टियां बाँध दी गईं हैं ताकि वो अपनी बात न कह सके.. और उन्हे आगे खड़ा कर के पीछे से बाज़ार अपनी बातों का टेप चला रहा है.. ये पत्रकार बाज़ार के द्वारा सताये गये हैं इसी लिये एक मंच मिलने पर ज़ोर ज़ोर से अपनी बात कह रहे हैं.. मैं पत्रकार नहीं हूं... पर मेरा दर्द भी लगभग वैसा ही है.. टेलेविज़न सीरियल्स की दुनिया के नियम कुछ अलग नहीं हैं..

बुधवार, 21 मार्च 2007

मार्क्सवादी आस्थायें और नन्दिग्रामीय निष्ठुरतायें

वाम मोरचा पश्चिम बंगाल में तीस साल से सरकार चला रहा हैं.. जिस भूमि सुधार की नीति को कॉंग्रेस आज़ादी से ले कर अब तक क़ायदे से लागू नहीं कर पाई.. उसे वाम मोर्चा ने अपने पहले शासन काल के दौरान ही लागू कर दिखाया था.. और हमारी भक्त भारतीय जनता वाम मोर्चा के हाथों तब से आज तक बिकी हुई थी ..केन्द्र में, दूसरे प्रदेशों में सरकारें आती जाती रही ..पर पश्चिम बंगाल जैसे कालातीत हो गया था.. अब तक.. मगर नन्दिग्राम की ये घटनायें वाम मोर्चे के लिये संकट की मुनादी भी हो सकती हैं.. क्योंकि ऐसा लग रहा है कि आँख मूंद कर वाम मोर्चा पर ठप्पा मारने वाले किसान वर्ग का ये यक़ीन टूट रहा है कि वाम मोर्चा उसके हित में काम करने वाली सरकार है..

मगर वाम मोर्चा को क्या पागल कुत्ते ने काटा है जो किसानों को नाराज़ करके अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहा है..? या बुद्धदेव समेत सारे वाम नेता पूँजीपतियों के हाथों बिक कर उनके दलाल हो गये हैं.. ? क्यों सेज़ लागू करने के लिये इतना लालायित है? जबकि नितिन देसाई अपने लेख में कहते हैं कि सेज़ की अवधारणा के पीछे की सोच ये है कि सामाजिक न्याय और आर्थिक विकास साथ साथ सम्भव नहीं है.. इसी बात को वाम मोर्चा के परिप्रेक्ष्य में देखने से एक कैसी विरूप तस्वीर उभरती है..

मेरी समझ मे जो बात आती है उसे आपके सामने रखता हूँ.. वाममोर्चा और मुख्यतः माकपा मार्क्स के अनुयायी हैं.. बाबा मार्क्स बहुत पहुँचे हुये विद्वान थे.. उन्होने ज्ञान की सारी शाखाओं और उनमें भी खासकर हेगेल को, जो उलटे खड़े हुये थे.. पलटकर सीधा कर दिया था ताकि दुनिया को वैसे देखा जा सके जैसी कि वो है.. तमाम दूसरी सिद्धान्तों के अलावा बाबा मार्क्स ने इतिहास को देखने की एक भौतिकवादी दृष्टि भी दी जिसे ऐतिहासिक भौतिकवाद कहते हैं.. इस ऐतिहासिक भौतिकवाद में ही सिंगूर और नन्दिग्राम के किसानों के दुख का मूल है.. यही ऐतिहासिक भौतिकवाद है जो मार्क्सवादियों को किसानों से गहरी हमदर्दी होने के बावजूद ऐसा पत्थर दिल बना दे रहा है.. ऐतिहासिक भौतिकवाद हमें बताता है कि मानव विकास की मंज़िलें क्या क्या हैं.. पहले आता है पत्थर युग.. फिर दासप्रथा.. फिर सामन्तवाद यानी कि कृषि आधारित समाज.. और फिर आता है पूँजीवाद का मशीन आधारित समाज जिसमें किसान और कारीगर अपनी ज़मीन, अपने औज़ार सब कुछ खो कर सिर्फ़ और सिर्फ़ एक मजदूर रह जाते हैं.. जब ये समाज अपने विकास के चरम पर पहुँच जाता है तो मजदूर अपने शोषण से आजिज़ आकर संगठित होकर क्रांति कर देता है.. और न्याय और समता पर आधारित साम्यवादी समाज की स्थापना होती है..
ये सारी बातें बाबा मार्क्स विस्तार से अपने सद्ग्रंथों में लिख गये हैं जिसका वाचन-मनन मार्क्सवादी समुदाय के लोग जीवन भर करते रहते हैं.. बाबा ने इतना लिखा है और इतना गूढ़ लिखा है कि बड़े बड़े धुरन्धर भी ये दावा नहीं करते कि उन्होने सब पढ़ा है.. और जिन अपार श्रद्धा वालों ने ये उपलब्धि हासिल की है.. वो भी सब समझने का दावा नहीं करते..
खैर.. सवाल यह है कि क्यों माकपा किसानों के ज़मीन खोने के दर्द के प्रति इतनी निष्ठुर होती जा रही है.. तो जवाब ये है कि उनके विश्वास प्रणाली में किसान जब तक अपना सब कुछ लुटा गंवा के सड़क पर आकर दर दर की ठोकरें नहीं खायेगा असली पूंजीवादी समाज की स्थापना नहीं होगी.. और जब तक असली पूंजीवाद नहीं आता तब तक साम्यवाद नहीं आ सकता.. रूस का प्रयोग असफल हो चुका है.. और चीन की समझ ही सही समझ है.. सेज़ के प्रति मार्क्सवादियों की श्रद्धा भी चीन की देखादेखी बनी है.. बिना इस तथ्य को ध्यान में रखे कि चीन में सरकारी क्षेत्र और कुछ चुने हुये इलाक़ों में उदारीकरण की दोहरी नीतियां का व्यवहार हो रहा है..
मेरे अंदाज़ से ये बिलकुल भी ना समझा जाय कि मुझे बाबा में कोई अश्रद्धा है.. मेरे पूरे हॉस्टल जीवन में बाबा की तस्वीर दीवारों की और किताबें मेज़ की शोभा बढ़ाती रही है.. और बाबा के इस काल विभाजन पर मेरा विश्वास वैसे ही आता जाता रहता है जैसे कि वेदों पुराणों के अपने चतुर्युगी काल विभाजन पर श्रद्धा आती जाती रहती है.. दोनों ही निरे श्रद्धा और आस्था का मसला है.. मार्क्सवादी लोग आम तौर पर अपने आपको बुद्धिवादी कहलाना पसन्द करते हैं पर हक़ीक़त में वो उतने ही धार्मिक होते हैं जितने कि हमारे देश के दूसरे सम्प्रदायों के सदस्य.. जैसा कि पहले कहा गया कौन ये दावा कर सकता है कि उसने मार्क्स के सिद्धान्तों को ठीक ठीक समझ के और दूसरे आर्थिक सिद्धान्तों से तुलना करके ये सुनिश्चित कर लिया है कि यही परम सत्य है.. कोई नहीं.. सब किसी न किसी पर यक़ीन या विश्वास करके एक सिद्धान्त को दूसरे के ऊपर वरीयता देते हैं.. एक बिंदु के बाद हमारे पास दूसरे व्यक्ति पर विश्वास के अलावा कोई चारा नहीं रह जाता .. अन्तर बस ये पड़ता है कि आप किस पर विश्वास करेंगे.. मार्क्सवादी मार्क्स पर विश्वास करते हैं.. मैं तुलसी पर करता हूँ.. फ़रीद मियां मुहम्मद पर करते हैं.. सब अपने अपने तरह से धार्मिक हैं.. दुख बस इतना है कि तुलसी और मुहम्मद नन्दिग्राम के किसानों के हितों के आड़े नहीं आते.. पर बाबा मार्क्स, भगवान उनकी आत्मा को शान्ति दे, आड़े आ रहे हैं.. और यही मार्क्सवादियों की निष्टुरता का कारण है...

मंगलवार, 20 मार्च 2007

दौड़कर पहुँचा चालीस से चौदह में..!

..उसने सिगरेट का एक गहरा कश खींच कर ढेर सारा धुआँ उगल दिया..
..फिर कुछ सोचते हुये धुयें के छल्ले बनाने लगा..
...पुल की तरफ़ एक आखिरी निगाह फेंककर उसने सिगरेट को जूते के नीचे मसला और मुड़कर जगत की साथ चला गया... चलते चलते ही विक्रान्त ने ट्रिपल फ़ाइव के पैक से एक और सिगरेट निकाली और होठों से लगा ली..

ऐसे न जाने कितने रूमानी वाक्यों की स्मृति मेरे दिमागों में बस चुकी थी जब मैंने १७ की उमर में सिगरेट पीना शुरु की...पापा नहीं पीते थे..फिर भी तनाव में रहते थे.. मामाजी पीते थे.. और मस्त रहते थे.. ऐसे मामूली तथ्य की भी शायद कुछ भूमिका रही हो.. पहले भाईसाब ने पीना शुरु किया.. हमारे लिये तो वो मस्ती और आज़ादी का पर्याय थे.. उनको पीते देख कर भी कभी मन नहीं मचला जब तक कि घर नहीं छोड़ा.. हॉस्टल की दुनिया की आज़ादी में आते ही पहले ही हफ़्ते में सिगरेट का आस्वादन कर लिया.. सिगरेट थी विल्स फ़िल्टर और क़ीमत थी शायद तीस पैसे.. अब तीन रुपये की मिलती है.. २३ साल में दस गुना वृद्धि..!

खैर.. पहला अनुभव कड़वा था.. आँखों से पानी आ गया.. साँसों में भारीपन.. और सर चकराया.. लेकिन इस कमज़ोरी को मैंने अपनी कमी समझा होगा.. जो सिगरेट की आज़ादी को सम्हाल नहीं पाई...तो पीता गया और पीता गया.. २३ साल तक पीता रहा..फिर पिछले हफ़्ते डॉक्टर ने धमकाया कि पेट का जटिल रोग कभी ठीक ना होगा अगर आप ऐसे ही असहयोग करते रहेंगे.. ये धमकी मुझे १२ मार्च को मिली.. घबरा कर मैंने धीरे धीरे छोड़ने की बात सोची.. और एक डायरी में हर पी जाने वाली सिगरेट को दर्ज करने लगा.. १३ तारीख को मैंने ग्यारह बार सिगरेट पी..आधी पूरी मिलाकर कुल साढ़े आठ.. १४ तारीख को आठ बार सिगरेट पी और आधी पूरी मिलाकर कुल छै.. १५ तारीख को मैंने तीन बार सिगरेट पी.. आधी पूरी मिलाकर कुल डेढ़...आज २० तारीख है.. मुझे पाँच दिन हो गये सिगरेट पिये हुये.. १५ तारीख को शाम पाँच बजे के बाद मैंने सिगरेट हाथ में भी नहीं ली है.. हाँ.. एक पेंसिल ज़रूर है जो हाथ और होठों पर खेलती रहती है..
डर के ही सही पर बिना किसी बाहरी दबाव के मैंने सिगरेट छोड़ दी है.. मेरे एक मित्र , जिन्हे सिगरेट छोड़े चार साल हो गये हैं, कहते हैं कि निकोटीन शरीर में ७२ घंटे तक रहता है.. और जब तक रहता है वह अपनी आपूर्ति के लिये शरीर को मजबूर करता है.. उसके बाद शरीर मुक्त हो चुका होता है.. मन में स्मृतियां हो सकती हैं सिगरेट की रूमानियत की..जो शहरी जीवन के खालीपन को भरने का एक ज़रिया भी तो बनती है.. कुछ नहीं करते हुये कम से कम आप धुआँ फूंकने का मुग़ाल्ता तो पाले रह सकते हैं.. मैंने ये मुग़ाल्ता छोड़ दिया.. अब जो चाहे उसे पाल सकता है.. अब मेरे अन्दर एक नई ऊर्जा है..मैं घर से कम निकलता हूँ.. कल जब निकला तो मुझे लगा कि मैं सड़क पर चल क्यों रहा हूँ.. मुझे दौड़ना चाहिये.. और मैं दौड़ने लगा.. ये भूल कर कि मैंने कुछ ही देर पहले खाना खाया है.. दौड़ते दौड़ते मुझे लगने लगा कि मेरे अन्दर एक चौदह बरस का बालक घुस गया है..बालकों की आदत होती है.. वो कहीं चल के नहीं जाते.. वो जहाँ जाते हैं दौड़ के जाते हैं.. मैं अपने आप से खुश हूँ.. मगर मेरे सारे वो मित्र जो सिगरेट पीते हैं .. मेरे इस उत्साह को देखकर बहुत खिसिया रहे हैं, खौरिया रहे हैं.. और मुझे कभी एक जगह से दूसरी जगह के बीच दौड़ के आते जाते समय पकड़ के कूटने की योजनाय़ें बना रहे हैं.. पर वे भूल रहे हैं.. कि वो चालीस के पार के हैं..उनके फेफड़ों में दम नहीं और मैं चौदह का हूँ.. उनको देखते ही दौड़ जाऊंगा..

रविवार, 18 मार्च 2007

ऋ से रिशि या ऋ से रुषि?

ऋ का सही उच्चारण आखिर क्या है.. यदि आप मेरी तरह उत्तर भारत से हैं तो आप इस अक्षर को रि की तरह पढ़ने के आदी हैं..और ऋषि को रिशि या रिसि उच्चारित करते हैं... (ष का मूर्धन्य उच्चारण हम आम तौर पर नहीं करते हैं, मेरी अपनी स्मृति में एक वरिष्ठ मित्र चितरंजन सिंह के सिवा मैंने किसी को ष का इतना साफ़ और सही उच्चारण करते नहीं सुना) इसके विपरीत महाराष्ट्र में इस ऋ अक्षर को रु की तरह उच्चारित करने की परिपाटी है.. ऋषि को रुशि..या रुषि...

तो कृति को क्रिति उच्चारित करें या क्रुति ?
ऋतु को रितु या रुतु ?
गृह को ग्रिह या ग्रुह ?

अब एक उत्तर भारतीय होने के नाते मैं अपने उच्चारण के पक्ष में अपभ्रंश या लोक भाषा के इस्तेमाल की दलीलें दे सकता हूँ..कि गृहस्थी लोक भाषा में गिरस्थी बन जाती है.. या मातृ बिगड़कर माई होता है.. भातृ भाई बन जाता है.. लेकिन महाराष्ट्र में मातृ माऊ भले ना हुआ हो पर भातृ भाऊ हो गया है.. इस विषय पर संस्कृत के अनेक ग्रंथों के रचयिता और वेदों के भाष्यकार श्रीपाद दामोदर सातवलेकर जी का मत जानने योग्य है..

स्वर उसको कहते हैं, जो एक ही आवाज़ में बहुत देर तक बोला जा सके- जैसे..

अ..आ.. इ..ई.. उ..ऊ.. ऋ..ॠ.. लॄ..लॄ..
(
आखिरी दो स्वरों की चर्चा यहाँ नहीं कर रहा हूँ)


उत्तर भारत के लोग इनका (ऋ का) उच्चारण "री " करते, यह बहुत ही अशुद्ध है। कभी ऐसा उच्चारण नहीं करना चाहिये। "री" में र ई ऐसे दो वर्ण मूर्धा और तालु स्थान के हैं। "ऋ" यह केवल मूर्धा स्थान का शुद्ध स्वर है। केवल मूर्धा स्थान के शुद्ध स्वर का उच्चारण मूर्धा और तालु स्थान दो वर्ण मिलाकर करना अशुद्ध है और उच्चारण की दृष्टि से बड़ी भारी ग़लती है।

ऋ का उच्चारण - धर्म शब्द बहुत लम्बा बोला जाय और ध और म के बीच का रकार बहुत बार बोला जाय तो उसमें से एक रकार के आधे के बराबर है। इस प्रकार जो ऋ बोला जा सकता है, वह एक जैसा लम्बा बोला जा सकता है। छोटे लड़के आनन्द से अपनी जिह्वा को हिला कर इस प्रकार ऋकार बोलते हैं। (स्कूटर या बाइक चलाने का अभिनय करते हुए..vrooom जैसी कुछ ध्वनि)

जो लोग इसका उच्चारण री करते हैं, उनको ध्यान देना चाहिये कि री लम्बी बोलने पर केवल ई लम्बी रहती है। जो कि तालु स्थान की है। इस प्रकार ऋ का यह री उच्चारण सर्वथैव अशुद्ध है। पूर्व स्थान में कहा गया कि जिनका लम्बा उच्चारण हो सकता है, वे स्वर कहलाते हैं। गवैये लोग स्वरों का ही आलाप कर सकते हैं व्यञ्जनों का नहीं, क्योंकि व्यञ्जनों का लम्बा उच्चारण नहीं होता।

सातवलेकर जी की यह शिक्षा उनकी "संस्कृत स्वयं शिक्षक" नामक पुस्तक से उद्धृत है.. जिसको पढ़ने के बाद मैं वर्षों के अभ्यास के कारण बोलता अभी भी रिशि ही हूँ .. पर हर बार यह स्मरण करते हुये कि मैं ग़लत बोल रहा हूँ।

शनिवार, 17 मार्च 2007

अनामदास के डायनासोर और चेतना की स्वतंत्रता

अपने आगमन के साथ ही बहुत सारे सवाल खड़े कर देने वाले अनामदास..और मैं... लगता है हम एक ही राह के मुसाफ़िर हैं.. आपने जो बाते कहीं हैं.. वो मेरे भी दिमाग़ को चकराती रही हैं.. "लेकिन एक बात जो समझ में नहीं आई कि अगर आत्मा न पैदा होती है न मरती है तो दुनिया की आबादी कैसे बढ़ रही है? क्या भगवान के पास आत्माओं का स्टॉक है जो वह वक़्त ज़रूरत के हिसाब से रिलीज़ करता रहता है, क्या उसने तय किया है चीन और भारत के लिए सबसे अधिक आत्माएँ एलोकेट की जानी चाहिए?"

अनामदास का सवाल सोचने लायक है.. आत्मा होती है तो क्या होती है.. क्या हर शरीर की आत्मा अलग होती है.. जैसे उसके कपड़े.. एक के कपड़ों की तरह उसकी आत्मा भी दूसरा नहीं पहन सकता... या कपड़ों ही की तरह कोई भी पहन सकता है.. बस लिहाज़ में नहीं पहनता... या ये कोई स्कूलनुमा सिस्टम है जहां आप चौरासी लाख योनियों में से गुज़र कर आखिर में महाबोध हासिल करके डॉक्टरेट की उपाधि से नवाजे जाते हैं.. मुझे लगता है अनामदास का सवाल इस पूरे मसले की प्रक्रिया से ज़्यादा इसके दार्शनिक मूल पर है.. कुछ विचार जो मेरे भीतर आते रहे हैं वो लिखता हूँ..
वास्तव में ये सवाल आत्मा के अस्तित्व का सवाल नहीं है.. ये चेतन तत्त्व के अस्तित्व का प्रश्न है..चेतन का अस्तित्व तो है.. तो शंका उसके अस्तित्व पर नहीं है.. जड़ के साथ प्राप्य है.. यानी भौतिक तत्व के एक जटिल संरचना में साथ आजाने पर एक चेतना निर्मित होती है.. हमारे आपके भीतर है.. सवाल उसके जड़ से स्वतंत्र अस्तित्व होने पर है.. क्या शरीर के मरने पर आत्मा भी मर जाती है.. या शरीर से इतर भी किसी चेतना का कोई अस्तित्व है..? इसी सवाल से दो तरह से सामना किया जा सकता है.. एक तो आस्था के रास्ते.. वहां तो शक़ की कोई गुंज़ाईश ही नहीं..बस मान लो.. दूसरे युक्ति बुद्धि और तर्क से.. तर्क वाला रास्ता लेते हैं.. सवाल है कि क्या आत्मा या चेतना का कोई स्वतंत्र अस्तित्व है.. ?

मान लेते हैं नहीं.. अब मैं पूछता हूँ.. क्या अग्नि का कोई स्वतंत्र अस्तित्व है.. ? जल का?.. वायु का ? और काल का ?जल वायु पृथ्वी और आकाश से भिन्न एक अग्नि की कल्पना सम्भव है.. तो चेतना की क्यों नहीं.. ?भौतिक तत्व एक विशेष अवस्था में आग्नेय रूप धारण कर लेता है.. वही तेल ठण्डे तरल रूप में करोड़ो वर्ष पड़े रह सकता है.. और किसी एक अन्य तत्व के संयोग से उसमें एक अकल्पनीय अग्नि की सम्भावना सिद्ध हो जाती है.. अग्नि न मरती है ना जनम लेती है.. वो सदा थी सदा रहेगी.. ये सब कहा जा सकता है.. फ़र्क यहां सिर्फ़ इतना है.. हम बात अग्नि की नहीं आत्मा या चेतना की कर रहे हैं.. चेतना को हम जिस रूप में जानते हैं वो भी तो भौतिक तत्व के एक विशेष संयोग का परिणाम ही तो है.. यदि किसी एक जंगल में किसी एक काल में आग लगी थी.. तो ये कहना कि आग सिर्फ़ जंगल में ही लग सकती है.. और जंगल से स्वतंत्र आग का अस्तित्व संभव नहीं, शायद तर्क संगत नहीं होगा..

बाकी ये बात निश्चित ही सोचनीय है कि पृथ्वी का भार मोटे तौर पर तो नहीं बदलने वाला.. अगर मनुष्य ज़्यादा हैं तो जानवर पेड़ आदि शर्तिया कम हुये होंगे.. और डायनासोर की आत्मा भले ही हमारे भीतर ना हो.. उसकी चेतना ज़रूर है.. हमारे अवचेतन में उसकी स्मृति ज़रूर हैं.. क्यों.. ? .. आपने देखे हैं अपने भीतर के डायनासोर.. मैंने देखे हैं कभी कभी स्वप्नों में.. कुछ विक्षिप्त और अर्धविक्षिप्त लोग उसी में फंस जाते हैं.. वो चिन्ता की अलग राह है..

गुरुवार, 15 मार्च 2007

बुरे समय का ज्योतिष

मेरा और बुरे समय का साथ पुराना है.. लोग बुरे समय में ज्योतिषियों के इर्द गिर्द चक्कर मारने लगते हैं.. मैंने इतना बुरा समय देखा.. या समय में इतना बुरा देखा कि खुद ज्योतिष सीखने बैठ गया.. हर ज्योतिष सीखने वाला पहले अपनी कुण्डली बाँचता है.. मैं भी कोई अपवाद नहीं निकला बावजूद इस खामखयाली के, कि हम दुनिया से ज़रा अलग हैं..

जब बुरा समय आता है तो आस्थाएं विश्वास मूल्य भरभराकर ढहने लगते हैं.. इस मामलें में भी कोई नई परम्परा नहीं बना सका.. पुरानी लीक को ही पीटा .. अपनी भी नज़रों का चश्मा समय के कदमों के नीचे आकर कुचला गया.. ऎसी दृष्टिशून्यता की स्थिति में अच्छी खासी देखी भाली सोची समझी चीज़ें भी अनजान अपरिचित हो गईं.. होनी ही थीं.. आँख के आकलन और हाथ के टटोलन में बड़ा अन्तर पड़ जाता है..

ऎसे में ज्योतिष एक ज्योति बन कर मेरी आँखों में आया.. फिर तो मैं जो देखता ज्योतिष के मानकों से देखता.. मनोज को देखता तो मनोज नहीं उसका चौथे बैठा मंगल दिखाई देता.. सुमन की जगह ग्यारहवें का शनि और उसकी लग्न पर तीसरी दृष्टि.. मैं लोगों के नाम भूल जाता पर उनकी जन्म कुण्डली याद रहती.. अपनी कुण्डली पढ़ने चला था.. उसे समझने के लिये दूसरों की कुण्डलियों का अध्ययन किया.. हर मिलने जुलने वाले, न मिलने जुलने वाले.. मित्र.. मित्रो के मित्र.. भाईयों के मित्र.. राजनेताओं.. साधु संतों.. जिसके जन्म के आँकड़े हाथ लग गये.. उसका नाम लिख गया मेरी कॉपी में.. लोग तो खुशी खुशी नाम लिखवाते थे.. कूद कूद कर.. ऎसे लोग कम ही मिले जो वैज्ञानिक सोच के हक़ में इस अँध विश्वासी खेल में शामिल होने से मुकर गये.. जो मुकरे वो भी अनागत की आशंकाओं से घबराकर.. भविष्य में झांकने के लिये सब का दिल एक सा मचलता है..

और अगर किसी का बुरा समय चल रहा हो तो कहना ही क्या...बुरे समय और ज्योतिष में गाढ़ी छनती है.. हम तो सब ठीक कर रहे हैं.. जैसे पहले करते थे वैसे ही अबहीं कर रहे हैं.. मगर समय ही साथ नहीं दे रहा.. भैया जरा बताओ कब कटेगा ये.. अच्छे समय के लिये कोई राहु मंगल आदि को श्रेय नहीं देता..कोई नहीं कहता कि अजी मैं क्या हूँ.. ये तो राहु में शुक्र का अन्तर है.. बस छै महीने की बात है.. उसके बाद जब सूर्य का अन्तर आयेगा तो देखियेगा मेरा हाल..सब से सर फ़ुटौवल की नौबत आ जायेगी.. पर बुरे समय के लिये सारा इल्जाम बेचारे ग्रहों के सर जाता है.. शनि की ढइया ने हर काम में अड़ंगी मार के रखी है.. तो लोहे की नाल का छ्ल्ला डाले हैं.. केतु की मार पड़े तो लगते हैं कुत्ते को रोटी खिलाने.. आपके और केतु के बीच में बेचारा कुता इस बेमौसम प्रेम को देख बिदकता बिदकता घूमता है.. रोटी सूंघ के ठुकरा देता है.. उसे शक़ रहता है कि जिस आदमी ने आते जाते कभी ग़लती से भी मेरी तरफ़ एक आशनां नज़र ने फेंकी वो आज किस मक़सद से मेरे आगे रोटी फेंक रहा है.. हो न हो ज़रूर साले ने ज़हर मिलाया होगा.. ग्रहों की खुशामद के लिये लोग क्या क्या नहीं करते.. अपने बच्चन जी ही एक ही उँगली में दो दो ठो नीलम धारण किये हुये हैं.. एक मून स्टोन अलग से.. दूसरे हाथ में शायद एक ठो पन्ना भी है कानी उँगली में.. कुछ लोग तो ऎसे देखे हैं जो आठो उँगलियों में कुछ ना कुछ पहने रहते हैं.. कई बार मैंने सोचा है ऎसे लोग घी निकालने या अन्य दूसरे कामों में जिनमें उँगली की आवश्यक्‍ता होती है, बड़ी परेशानी का सामना करते होंगे..

लेकिन यही महापुरुष जो बुरे समय में ज्योतिषी के आगे पीछे घूमते हैं.. वही समय के अनुकूल होते ही उससे किनारः कर जाते हैं.. अब मेरे जैसे सहज विश्वासी मनई के लिये इस प्रकार के बातें बड़ी कष्टप्रद साबित हुईं.. अब मेरा धंधा तो हुआ नहीं यह.. मैंने तो मित्रों की शंका निवारण के लिये किया.. पर उन्होने ने मुझे ज्योतिषी समझ के यह कराया ... अगर मैं सच्चा धंधे वाला ज्योतिषी होता तो उनको पल पल की गणना में ऎसा उलझाता कि वो हर काम करने के पहले मुझसे पूछते कि भैया बताओ.. करी के ना करी.. औ करी त कौन महूरत में करी.. ?

एक और बड़ी समस्या है.. चीज़ों को, लोगों को.. उनकी उपयोगिता के चश्मे से देखने की.. इसी उपयोगितावादी दृष्टिकोण के कारण हम तमाम मनुष्यों से रोज़-ब-रोज़ मिलने के बावजूद उनसे कोई मानवीय सम्बंध नहीं बना पाते.. क्योंकि हमारा उस से सम्बन्ध किसी उपयोगिता से जुड़ा हुआ है.. तो बहुत से मित्र मुझे सिर्फ़ ज्योतिषी के तौर पर ही याद रखते पहचानते और मिलते हैं.. वो मुझसे ज्योतिष के अलावा और कोई बात ही नहीं करते.. या मुझे इस लायक नहीं समझते.. जो भी हो.. उनका मेरे प्रति एक उपयोगितावादी नज़रिया है.. और ज्योतिष के प्रति भी.. कोई ये नहीं सोचता कि अगर आप को ज्योतिष में सचमुच विश्वास है.. तो कुछ भी पूछना व्यर्थ है.. भविष्य कथन सिर्फ़ तभी सम्भव है अगर सब कुछ या लगभग सबकुछ पहले से तय है.. और अगर पहले से तय ही है.. तो आप क्या उपाय करोगे.. सिवाय जिज्ञासा शान्त करने के.. उपाय क्या करोगे.. एक छै कैरट के रत्न से आप शनि को सँभाल लोगे.. और अगर सच में सँभाल लिया तो इसका मतलब पहले से तय नहीं था.. और अगर पहले से तय नहीं था तो आपने पढ़ा कैसे..? अरे भाई जब सब कुछ तय है...तो क्यों परेशान होते हो... निश्चिन्त रहो.. मस्त रहो.. भगवान का भजन करो.. जो होना होगा ..होगा.. पर जब तक आदमी के कंधों पर सर है...और सर में उसका विकसित दिमाग़...वो निश्चिन्त कैसे रह सकता है..

बुधवार, 14 मार्च 2007

निराला का एक निराला गीत

ये एक ऐसा अनोखा गीत है जो सचमुच निराला है.. जीवन के अन्तिम वर्षों में लिखा गया यह ध्वन्य गीत, निराला की मृत्यु के बाद सान्ध्य काकली में संकलित हुआ.. आनन्द लें..



ताक कमसिनवारि,
ताक कम सिनवारि,
ताक कम सिन वारि,
सिनवारि सिनवारि।


ता ककमसि नवारि,
ताक कमसि नवारि,
ताक कमसिन वारि,
कमसिन कमसिनवारि।


इरावनि समक कात्,
इरावनि सम ककात्,
इराव निसम ककात्,
सम ककात् सिनवारि।

मंगलवार, 13 मार्च 2007

बुरे समय के साथी

बुरे समय में अच्छी अच्छी बातें भी बुरी लगनी लगती है.. मुस्कुराते हँसते लोगों को देख मन करता है कि उनका मुँह तोड़ दूँ.. उदास दर्द भरे गानों में जीवन की गहराई के दर्शन होते हैं.. एक मायने नज़र आता है.. ठंडक देते हैं.. और हँसी खुशी के गाने सतही और टुच्चे लगते हैं.. किशोर कुमार के बहुतेरे गाने नज़रों से गिर जाते हैं.. मुकेश और रफ़ी के गायन की बारीक़ियां दिखाई देने लगती हैं.. कोई चिन्तित हो कर पूछ्ता है कि चेहरे का रंग उड़ा उड़ा क्यों है.. आवाज़ को क्या हुआ.. अरे बीमार थे क्या.. वज़न कितना गिर गया है.. तो उसके सवालों में अपमान की एक सोद्देश्यता, एक योजित परिहास दिखने लगता है.. मित्रता के सारे ढकोसलों पर से परदा उठ जाता है.. सत्य के दर्शन होने लगते हैं.. संसार की असारता का अंदाज़ा मिलने लगता है.. मन में एक विचित्र वैराग्य हिलोरें मारने लगता है..

शास्त्रों में कहा है कि सच्चा मित्र वही जो बुरे समय में काम आये.. तुलसी बाबा ने भी कहा है...आपदकाल परखिये चारी, सेवक मित्र धर्म अरु नारी.. कुछ मित्र जो झूठे मित्र होते हैं ..हमारा बुरा समय देखते ही हमसे किनारा कर जाते हैं.. (हो सकता हो वो हमारे प्रति उतना ही प्रेमभाव समेटे रहते हों अपने दिल में.. जितना फोन ना लेने पर वो हमारी शिकायत के जवाब में तर्क से सिद्ध करते हैं.. और वो सिर्फ़ बुरे समय की छूत से बच रहे हों.. लेकिन हम उन्हे किसी भी तौर पर सच्चा मानने को तैयार नहीं होते.. शास्त्र की कसौटी पर ही जो खरा नहीं उतरा वो खोटा.. ) और कुछ मित्र ऎसे भी होते हैं.. जिनसे हम स्वयं किनारा कर लेते हैं.. उनकी सम्पन्नता और जीवन का भरा-पूरापन हमारी आँखों में किरिचियों के तरह गड़ता है.. हमसे उनका आनन्दमय होना बरदाश्त नहीं होता.. उनके जीवन के प्रति विध्वंसक विचारों से मन आक्रांत रहता है.. कभी कभी अपनी बुरे की कामना करने की शक्ति पर शर्म भी आती है.. और शर्माकर हम उनसे मिलना छोड़ देते हैं..

और ऎसे बुरे समय में जब साया भी साथ छोड़ देता है.. नए साथी बनते हैं वे लोग... जिनका खुद का बुरा समय चल रहा हो.. जिसका जितना बुरा समय चल रहा हो वो उतना ही सज्जन लगता है.. उनके साथ बैठकर देश दुनिया की चिन्ता और अच्छे समय वालों के जीवन के उथलेपन की चर्चाओं मे मन निर्मल हो जाता है.. मेरे बुरे समय में मन की निर्मलता को सिद्ध करने में काम आने वाले तमाम मित्र ऎसे निकले जो अपना अच्छा समय आने पर मेरा साथ छोड़ गये.. और वो भूतपूर्व मित्र जिनके मल से हमारा मन निर्मल होता था.. वही उनके सच्चे मित्र बन गये.. लेकिन अब मेरे पास नए मित्र हैं..जो पहले भूत पूर्व थे.. बुरे समय की कमी थोड़ी है.. देर सवेर सब को चाँपता है.. दुख सिर्फ़ इतना है कि हमें कुछ ज़्यादा चाँपता है.. और जिनकी सफलता देख देख हमारा जी जलता है उन्हे चाँप ही नहीं रहा है...



तस्वीर: डाली की पेन्टिंग "पिघलती घड़ियां"

सोमवार, 12 मार्च 2007

बता के नहीं आता बुरा समय


पर जब आता है तो अतिथि की तरह आता है..बिना किसी सूचना के..बिना किसी नियत तिथि के.. अगर नियत होती भी होगी पर मुझे नहीं पता होती.. वो आता है और पसर कर पूरे मानस पर अधिकार कर लेता है और मेरे अस्तित्त्व के लिये कोई स्वतंत्र देश नहीं छोड़ता। यूँ तो अच्छा समय भी कब बता के आता है..और जब भी आता है देर से ही आता है..उसका इन्तज़ार तो हम जाने कब से कर रहे होते हैं.. आ जाने पर भी ठीक से यक़ीन नहीं होता है कि ये अच्छा समय ही है.. कहीं उसके भेस में कोई बहुरुपिया तो नहीं.. अब आये हो तो सब कामनाएं पूरी कर के जाओ.. और जाने की बात तो फ़िगर ऑफ़ स्पीच है.. जाने की तो बात ही मत करो..मेरे जीवन को अपना ही घर समझो.. अब यहीं रहो.. वो कुछ नहीं बोलता मूक रहता है.. मैं इसे उसकी मौन स्वीकृति समझता हूँ.. और ये भी मान लेता हूँ कि ये जाने वाला नहीं.. पर थोड़े ही समय में.. मुझे वो असंतुष्ट करने लगता है.. मैं उसकी कार्यप्रणाली से खुश नहीं रहता.. तो बीच बीच में उसके काम को इग्नोर मारता हूँ, उपेक्षा करता हूँ.. और मैं और अच्छे की कामना में व्यस्त रहता हूँ.. उस अच्छे समय के बीच भी तमाम छोटी मोटी बुरी, दिल को अखरनें वाली बातें होती रहती हैं..पर परिघटना नहीं बनती.. तब तक और अच्छे की कामना जारी रह्ती है.. फिर जैसे ही कोई प्रतिकूल बात एक परिघटना का रूप ले लेती है.. मैं अपने अच्छे समय से इसकी जवाबदेही चाहता हूँ.. मगर बहुत खोजने पर भी वो नदारद रहता है... और एक रोज़ अचानक मुझे अपने जीवन में एक और उपस्थिति का भान होता है.. जो आ तो पहले ही गया था पर मैं देखने से लगातार चूक रहा था.. मेरी अपनी कामनाएं मेरे जगत पर इतनी हावी होती है कि मैं अपने जगत के सच्चाईयों को देखने में चूकता रहता हूँ... और बुरा समय दूर से आने की सूचनाएं दे भी रहा होता है तो भी मैं अपनी कामनाओं के शोर में उसकी आवाज़ सुन नहीं पाता..
तस्वीर: रॉन रॉथ्मैन से साभार

शनिवार, 10 मार्च 2007

घुघूती जी और मेरी माँ

घुघूती जी मुझे हमेशा अपनी माँ की याद दिलाती हैं.. मेरी माँ जीवित हैं और ७० की उमर की हैं.. मैं नहीं जानता कि घुघूती जी की क्या वय है.. निश्चित ही वे मेरी माँ की उमर के आस पास भी न होंगी लेकिन संवेदनात्मक स्तर पर उनमें काफ़ी समानता है..वो भी कविता करती हैं.. लेकिन भारतीय स्त्री संसार की सीमाओं के चलते उन्हे व्यापक मंच ना मिल सका..अगर ब्लॉगिंग के ये वातायन दसेक बरस पहले खुल गये होते.. तो शायद वो भी अपना ब्लॉग चला रही होतीं.. सीखने के लिये वो हमेशा तैयार रहती हैं..पर अब उन्हे कम्प्यूटर देख के घबराहट होती है.. कभी संभव हुआ तो मैं उनकी कविताओं का एक अलग ब्लॉग खोलूँगा.. फ़िलहाल उनकी एक कविता..



जब मै चाहूँ पंख पसारूं
मुझको तुम उड़ने देना
वापस लौट सकूँ जब चाहूँ
द्वार खुला रहने देना

कैनवस खुला हो मन का
मुझे तूलिका तुम देना
कैसे रंग भरूँ उत्सव का
मुझे बताते तुम रहना

छू लेते हो छप जाती हूँ
क्या कहते हो सुन लेती हूँ


विमला तिवारी "विभोर", 9 अक्तूबर 2001



पिछ्ले दिनों घुघूती जी की एक टिप्पणी पर तमाम तरह की प्रतिकियाएं आई, कुछ इतनी तीखी कि घुघूती जी को अपने को ग़लत कहना पड़ा.. ग्लानि जैसे शब्दों के साथ.. मुझे इस बात का बड़ा दुख है.. जिस तरह का पारिवारिक माहौल नारद में है..उस में एक वरिष्ठ महिला को ऎसे भावों से गुज़रना पड़े..ये खेद का विषय है।

गुरुवार, 8 मार्च 2007

चालीस कमीज़ें खरीदने की बेबसी बनाम धर्म

आपके पास कम से कम चालीस कमीज़ें तो होंगी! अगर आप के पास नहीं हैं तो इस बाज़ारू दौर में आपको शर्मसार होना चाहिये! मेरे पास तो हैं..लेकिन मॉल में पैर धरते ही न जाने क्यों मैं स्वयं को इतना अकिंचन क्यों महसूस करने लगता हूँ कि वही सलेटी, सफ़ेद, काही और कत्थई रंगों की वैसी ही कमीज़ें देखकर उन पर पैसे फेंकने को तैयार हो जाता हूँ.. और तो और जितना वो अंग्रेज़ी मे उवाचते हैं.. उतना हम अपने क्रेडिट कार्ड से कटवा कर विजयी भाव से मॉल से घर तक का सफ़र तय करते हैं.. घर आकर सबसे पहले उसे डाँट कर आइने में अपने को निहारते हैं और तब पाते हैं कि हम कितने बड़े ...हैं। अगले दिन से हम वही तीन कमीज़ें वापस पहनना शुरु कर देते हैं.. और अलमारी में हमारी कमीज़ों की संख्या इकतालिस हो जाती है...

हम सभी बाज़ार से जुड़े हैं..एक तरह से बाज़ार हमारा अन्नदाता है..और बाज़ार का प्रतिरोध करना जिस डाल पर बैठे हो उसी को काटने जैसा होगा.. बावजूद इसके कि उस ने हमारे दिलो-दिमाग़ पर कब्ज़ा कर लिया है.. हमारी सोच को अब बाज़ार नियंत्रित कर रहा है.. हम क्या खायेंगे.. क्या पहनेंगे.. क्या करेंगे.. ये हम नहीं बाज़ार तय करता है। फ़ना जैसी दो टके की फ़िल्म भी मैं देख कर आया क्योंकि आमिर खान, काजोल और इतना प्रचार.. सब तरफ़ फ़ना फ़ना फ़ना.. बेबस हो गया लाचार हो गया.. . समाज मे उठूंगा बैठूंगा कैसे.. सब देखेंगे और फिर बात करेंगे.. और मैं क्या चुप बैठे सुनूंगा..नहीं देखूंगा तो गाली कैसे दूंगा .. देखनी ही पड़ी.. और फिर जी भर के कोसा अपने आप को। बाज़ार का सबसे बुरा प्रभाव पड़ा है हमारे बच्चों पर। जो उनके बढ़ते शरीर और बनते चरित्र के लिये सबसे घटिया चीज़ें हैं, बाज़ार वही उनको बेच रहा है और हम अपने बच्चों के प्रेम में वो सब खरीद खरीद के उनको दिला रहे हैं। इस कच्ची उमर में ही उनको बाज़ार के अनैतिक रास्तों के हवाले कर दे रहे हैं।
कल सच्चिनान्द सिन्हा ने अपने ब्लॉग पर उपभोक्तावादी संस्कृति के खिलाफ़ एक सुन्दर लेख लिखा है.. "ऐसे लोग भी जो समाज-परिवर्तन करना चाहते हैं , समाज से गरीबी हटाना चाहते हैं और समता लाना चाहते हैं , खुद कैसे रहते हैं इस बारे में नहीं सोचते। लेकिन हमारा रहन-सहन और उपभोग का स्तर वास्तव में एक नितान्त निजी मामला नहीं है । यह एक विशेष वातावरण की उपज है और स्वयं एक वातावरण बनाता है..
..अब पश्चिम के अधिकांश वैज्ञानिक और चिन्तक भी यह मानने लगे हैं कि इस उत्पादन की एक सीमा है और हम उस सीमा के काफी करीब आ चुके हैं । इस कारण वहाँ छात्रों तथा बुद्धिजीवियों के बीच एक नया वामपंथ पैदा हो रहा है जो प्राकृतिक साधनों की सीमाओं , प्रदूषण आदि की समस्याओं के साथ वामपंथ को जोड़ने का प्रयास कर रहा है । इन लोगों ने भी यह अनुभव किया है कि मानव विकास की कल्पना प्रकृति द्वारा बांधी गयी सीमाओं के भीतर ही की जा सकती है । स्पष्ट है कि कोई भी दीर्घकालीन विकास प्राकृतिक साधनों के अपव्यय को रोक कर ही सम्भव है । हमारा उपभोग कितना और किन वस्तुओं का हो वह इससे सीधा जुड़ा हुआ है । इस तरह उपभोक्तावादी संस्कृति एक तरह से समाज के विकास के लिए सबसे प्रमुख अवरोध बन गयी है ।"
सिन्हा जी ने इस लेख मे दो बातें कही हैं एक तो ये कि समाजवादी और साम्यवादी धाराएं बाहरी तौर पर बाज़ार का विरोध करते हुये भी निजी स्तर पर उसके शिकार हो जाते हैं और दूसरी बात ये कि बाज़ार के प्रतिरोध मे एक नई धारा पैदा हो रही है जो पकृति और विकास की सीमाओं को एक साथ जोड़ कर देख रही है।
मेरा अपना विचार ये है कि वामपंथ वैचारिक रूप से बाज़ार क मुकाबला करने में खोखला है। वामपंथ के विकास के सारे मॉडल प्राकृतिक संसाधनों के शोषण की बुनियाद पर खड़े हैं। खुद मार्क्स भी बाकी सारे अन्तर्विरोधों के विलीन हो जाने के बाद प्रकृति और मनुष्य के अन्तरविरोध की ही प्रमुख तौर पर निशानदेही करते हैं। और वामपंथियों के साम्यवादी समाज की कल्पना पूंजीवादी विकास की अवस्था के बाद ही सम्भव है। तो दुनिया मे इस बीच की स्थिति का मुकाबला करने के लिये साम्यवादियों ने दो तरीके अख्तियार किये हैं; एक तो रूस का रास्ता... कि एक समता मूलक समाज बनाए रखते हुये सीधे साम्यवाद में कूद जाने की कोशिश..जो कि असफल हो चुका है; दूसरा चीन का रास्ता.. बाज़ार को साम्यवादी नज़रिये के अधीन रखकर पूंजीवादी समाज की स्थापना करना...जो कि निश्चित तौर पर उपभोक्तावाद के किसी पहलू को रोकने में किसी तरह से रुचिशील नहीं है। हमारे देशी वामपंथी भी टाटा के लिये एस ई ज़ेड बनाकर उसी मार्ग पर अग्रसर दिखाई दे रहे हैं...
तो क्या जिस नए वामपंथ की ओर इशारा कर रहे हैं सिन्हा जी वह लड़ेगा बाज़ार से... यदि ऎसा वामपंथ तैयार हो सके तो मैं उसका स्वागत करता हूँ.. दुनिया भर में और हमारे अपने देश में भी ऎसे दल छोटे छोटे स्तर पर कार्यरत हैं.. पर न जाने क्यों मुझे उनका भविष्य संदिग्ध लगता है...ये बात मैं इस मनोकामना के साथ कह रह हूँ कि मेरा सन्देह ग़लत साबित हो...

लेकिन एक बात मैं जो हम साफ़ साफ़ देख सकते हैं कि दुनिया भर में अगर बाज़ार से कोई डट के मुकाबला कर रहा है तो वह है इस्लाम... मेरी यह बात पढ़कर बहुत सारे लोग बिदक जायेंगे.. लेकिन मैं ये बात बहुत सोच विचार करने के बाद लिख रहा हूँ...और यह कहते हुये मैं ज़रा भी आतंकवादियों की मासूम लोगों के खिलाफ़ की जाने वाली कार्रवाइयों का अनुमोदन नहीं कर रहा हूँ। इस्लाम अन्य कई धर्मों की अपेक्षा अधिक यथार्थवादी और तापस है। फ़िज़ूलखर्ची और भोग विलास की मुखालफ़त इस्लाम के मूल में है। ये दीग़र बात है कि तमाम भूतकाल के और वर्तमान मुस्लिम शासकों के ऎश्वर्य और विलासिता के ज्वलंत उदाहरण हमारे सामने हैं। और शायद शांति के दौर में वे तमाम मुस्लिम समाज भोगवाद की ओर झुक जायं जिनके भीतर आज कट्टर इस्लाम की प्रवृत्तियां नज़र आती हैं । ये उन समाजों का स्वाभाविक रक्षात्मक मुद्रा है...अमेरिका और बाज़ार के आक्रमण के विरुद्ध... किसी भी समाज में बाहरी प्रभाव का मुकाबला करने के दो रास्ते हो सकते हैं एक तो सम्पूर्ण समर्पण और दूसरा मुखालफ़त... अब मुखालफ़त के लिये जो वैचारिक पुख्ता आधार चाहिये जो इस्लाम प्रदान करता है...और मज़े की बात यह है कि सिर्फ़ इस्लाम ही नहीं सभी धर्म प्रदान करते हैं.. लेकिन बाज़ार बाकी सभी धर्मों को निग़ल गया है.. सिर्फ़ इस्लाम उसे नाकों चने चबवा रहा है..
हमारे यहाँ शैतान की अवधारणा नहीं है.. पर मूसा को मानने वाले धर्मों में है.. और अक्सर उन धर्मों के कुछ लोग बाज़ार और बाज़ार के सबसे बड़े पैरोकार अमेरिका पर शैतान होने का इल्जाम लगाते ही रहते हैं...और क्यों ना लगायें.. अगर आप गौर से देखें तो बाज़ार ने मूसा के दस उपदेशों की धज्जियां उड़ाने में कोई कसर नहीं रखी है...

लेकिन उपभोक्तावादी संस्कृति धर्म पर सीधा प्रहार नहीं करती... पीठ में छूरा घोंपती है.. प्रगट में बाज़ार सभी धर्मों के प्रति निरपेक्ष नज़र आता है.. मगर वह ऎसे किसी भी विचार के खिलाफ़ है जो आदमी को ज़्यादः से ज़्यादः उपभोग करने से रोकता हो.. यदि धर्म कहता हो कि अल्पभोजी दीर्घजीवी.. तो बाज़ार को इससे परेशानी होगी..वह आपको ज़्यादः खाने के लिये तरह तरह के तर्क देगा.. झूठ बोलेगा.. झूठे आँकड़े पेश करेगा..झूठे तथ्य पेश करेगा.. आपको प्रलोभन देगा..आपके ईमान को डिगाने के लिये कोई रास्ता अख्तियार करने से नहीं चूकेगा ..कुछ लोगों को मेरा ऎसा सोचना कॉन्सपिरेसी थ्योरी लगेगा.. मगर क्या हम नहीं जानते कि मार्केटिन्ग की दुनिया किस तरह की महीन चीर फाड़ करने के बाद अपनी रणनीतियां तय करती है...लेकिन सच्चाई से बराबर कन्नी काट जाती हैं..क्योंकि सच से उन्हे कोई मतलब नहीं...

कोलगेट के सफ़ेद कोट पहन कर घूमने वाले डॉक्टर किस शोध के आधार पर कोलगेट को दाँतो के लिये मुफ़ीद बताते हैं.. कभी लौंग..कभी फ़्लोराइड..कभी नमक..हज़ारों करोड़ का धन्धा करने वाले लोग एक बार मे ये तय क्यों नहीं कर लेते कि दाँतो के लिये क्या क्या अच्छी चीज़ें हैं... वो नहीं करेंगे.. क्योंकि उसमें उनकी दिलचस्पी नहीं है.. उनका ध्यान इस बात की तरफ़ नहीं है कि क्या अच्छा है.. बल्कि इस तरफ़ कि हमें क्या अच्छा लग जायेगा.. हमें.. झाग अच्छा लगेगा तो पहली वरीयता झाग पर.. फिर.. मीठा होना चाहिये.. दाँतों में कुछ सनसनाहट होनी चाहिये.. तो सारा शोध इन मसलों पर होता है.. असली फ़ायदा पहुँचाने के तत्वों पर नहीं.. रामदेव की लोकप्रियता के तुरन्त बाद नमक का तत्व हाज़िर हो जाता है.. जैसे उनके शोधकर्ताओं ने बस दो महीने पहले ही खोजा हो.. चालीस साल की तपस्या के बाद....

बाज़ारी ताक़तों के खिलाफ़ कभी यह मुकाबला इस्लाम और हिन्दू धर्म ने मिलकर करने की कोशिश की थी.. मेरा इशारा १८५७ की तरफ़ है.. संयोग से यह साल १८५७ की डेढ़ सौवीं वर्षगांठ का भी है..इन दो धर्मों ने मिलकर यह साझा लड़ाई ईस्ट इंडिया कम्पनी के खिलाफ़ लड़ी थी..यहाँ पर मैं धर्मों का नाम जानबूझ के ले रहा हूँ क्योंकि आज हम अपने ओढ़े हुए धर्म निरपेक्ष भाव से इस लड़ाई में धर्म की भूमिका को नकारने की कोशिश कर सकते हैं, पर ऎसा शायद था नहीं.. जब से मराठों को अपदस्थ करके अंग्रेज़ो ने दिल्ली पर परोक्ष अधिकार कर लिया था, तब से ही उनके खिलाफ़ दारुल हर्ब के फ़तवे ज़ारी होना शुरू हो गये थे..१८०३ से लेकर १८५७ तक मुस्लिम समाज में अपनी संस्कृति की घटती अहमियत को लेकर व्यापक असंतोष घर कर चुका था.. जबकि हिन्दू समाज अपनी सदियों पुरानी रीति रिवाज़ के साथ ऊपर से की जा रही छेड़ छाड़ से वैसे ही आग़ बबूला बैठा था.. इस पूरे मामले में एक लोकप्रिय राय यह है कि कम्पनी और उसके अधिकारी भारतीय समाज के पिछड़ेपन और अंधविश्वासों को दूर करने की नेक नीयत से ऐसा कर रहे थे..पर जो कम्पनी ऊपर से ले कर नीचे तक भयानक भ्रष्टाचार से ग्रस्त थी और चीन को अफ़ीम में सुला देने जैसे संगीन कारनामे अंजाम दे रही थी.. उस से ऎसे सदाचार की उम्मीद करना बचकाना होगा..और हमें नहीं भूलना चाहिये कि कम्पनी एक मुनाफ़ा कमाने और मुनाफ़े के आधार पर ही अपने फ़ैसले करने वाली एक संस्था थी..और हिन्दू धर्म में इस तरह के परिवर्तन करने के पीछे उनका मक़सद सिर्फ़ शासित जनता के नैतिक मनोबल को तोड़ना था...जिसमें वो काफ़ी हद तक कामयाब रहे.. इसीलिये आज हिन्दुस्तान में बाज़ार का कोई प्रतिरोध हिन्दू समाज में नहीं दिखाई देता .. और जो मुस्लिम समाज में दिखाई देता है वह उन देशों मे चले रहे प्रतिरोध की छाया है.. जो कभी साम्राज्यवादी शक्ति द्वारा दलित नहीं हुये मग़र आज अमेरिका द्वारा बाज़ार की सीमाओं को बढ़ाने की प्रक्रिया में घुटने टेकने पर मजबूर किये जा रहे हैं... सवाल यह उठता है कि अमेरिका यह काम इस्लाम के साथ समझौता करके भी तो कर सकता है...मगर नहीं कर सकता.. क्योंकि इस्लाम और उपभोक्तावाद में कोई समझौता मुमकिन नहीं..दोनों प्रकृति से एक दूसरे के विरोधी हैं.. इस्लाम ही नहीं..धर्म और उपभोक्तावाद की प्रकृति एक दूसरे के विपरीत है..दोनों में से एक को पीछे हटना होगा... जैसे हिन्दू धर्म पीछे हटा है.. जैसे क्रिश्चिएनिटी पीछे हटी है...धर्म अगर अपनी जगह अड़ा रहा तो लड़ाई होती रहेगी...

मुसलमानों ने तो तय कर लिया है कि इस लड़ाई में वो किधर हैं.. अब हिन्दुओं को तय करना है..उन्हे बाज़ार में अपना सर्वस्व निछावर करके घरफूंक तमाशा देखना है या लौटना है अपने धर्म की तरफ़..साम्प्रदायिक धर्म की तरफ़ नहीं..सच्चे धर्म की तरफ़... संयम और नैतिक आचार की तरफ़... साम्प्रदायिकता धर्म सापेक्ष होती है.. पर धर्म, सम्प्रदाय निरपेक्ष होता है...सच्चे धर्म को फ़रक नहीं पड़ता कि सामने वाले का क्या धर्म है वह सिर्फ़ अपने धर्म का पालन करता है..

आखिर में मैं मार्क्स के प्रसिद्ध उद्धरण की चर्चा करना चाहूँगा जिसे इस्तेमाल कर कर के बहुत सस्ता बना दिया गया है- धर्म जनता की अफ़ीम है; यह उद्धरण अपने सन्दर्भ सहित नीचे कुछ इस प्रकार है..
Religion is, indeed, the self-consciousness and self-esteem of man who has either not yet won through to himself, or has already lost himself again. But man is no abstract being squatting outside the world. Man is the world of man—state, society. This state and this society produce religion, which is an inverted consciousness of the world, because they are an inverted world. Religion is the general theory of this world, its encyclopedic compendium, its logic in popular form, its spiritual point d'honneur, its enthusiasm, its moral sanction, its solemn complement, and its universal basis of consolation and justification. It is the fantastic realization of the human essence since the human essence has not acquired any true reality. The struggle against religion is, therefore, indirectly the struggle against that world whose spiritual aroma is religion.
Religious suffering is, at one and the same time, the expression of real suffering and a protest against real suffering. Religion is the sigh of the oppressed creature, the heart of a heartless world, and the soul of soulless conditions. It is the opium of the people.
The abolition of religion as the illusory happiness of the people is the demand for their real happiness. To call on them to give up their illusions about their condition is to call on them to give up a condition that requires illusions. The criticism of religion is, therefore, in embryo, the criticism of that vale of tears of which religion is the halo.
( from the introduction of Contribution to Critique of Hegel's Philosophy of Right)

अब मार्क्स के इस कथन के सम्बंध में एक दो बातें कहना चाहूँगा..पहली बात तो यह कि वे कहते हैं कि धर्म एक ऎसे व्यक्ति की आत्म चेतना और आत्म गौरव है जिसने अभी तक स्वयं को जीता ना हो या स्वयं को जीत कर फिर खो दिया हो.. मैं तो नहीं जानता कि दुनिया में धार्मिक विचार के अलावा कोई ऎसा विचार है जो व्यक्ति को स्वयं पर जीतने की शिक्षा देता हो..भौतिकवाद तो हर तरह से स्वयं को ज़रूरतोंऔर इच्छाओं के सम्मुख समर्पण के ही गीत गाता पाया जाता है..
फिर मार्क्स आगे कहते हैं कि धर्म मनुष्य के सत्व की एक नितान्त काल्पनिक उपलब्धि है..क्योंकि मनुष्य के सत्व ने अभी तक कोई वास्तविक स्वरूप ग्रहण नहीं किया है...मेरी अपनी समझ में मनुष्य के सत्व का वास्तविक स्वरूप मनुष्य स्वयं है..जो पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ता जाता है...
फिर मार्क्स कहते हैं कि धार्मिक पीड़ा, वास्तविक पीड़ा की ही एक अभिव्यक्ति है.. और धर्म सताये हुये लोगों की एक कराह है.. हृदय हीन संसार का हृदय, आत्माविहीन परिस्थितियों की आत्मा.. और अन्त में जनता की अफ़ीम...
अब अफ़ीम के सन्दर्भ मे एक खास बात; अचानक इतनी भावुक बातें करते करते मार्क्स अफ़ीम जैसा नशेड़ी शब्द क्यों प्रयोग कर बैठते हैं.. यहाँ पर मैं एक तथ्य की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहूँगा कि १८४३ के यूरोप में अफ़ीम क़ानूनी तौर पर एक पीड़ानाशक के रूप में प्राप्य और लोकप्रिय थी...इसलिये इस सन्दर्भ में अफ़ीम का अर्थ "पीड़ानाशक" ज़्यादः उपयुक्त लगता है..
रही बात मार्क्स की शेष बातों की.. मैं नहीं समझता कि २५ बरस की उमर में एक भौतिकवादी के रूप में ख्याति पा रहे मार्क्स को धर्म के सही स्वरूप की कोई जानकारी थी.. और मैं धर्म पर उनकी राय को एक विशेषज्ञ की राय के बतौर तरजीह नहीं दे सकता।

क़ैद किये जायेंगे बच्चे...सच क्या है?

मुम्बई में अब से बच्चे भीख मांगते हुए नहीं दिखेंगे.. ऐसा दावा कर रहे हैं- आर.आर.पाटिल। जो भीख मांगते हुए पाये जायेंगे वो भेज दिये जायेंगे बाल सुधार गृह..

सालों तक मैं इस मसले पर अपनी कोई राय नहीं बना पाया कि हमे भीख देनी चाहिये कि नहीं.. अक्सर इस सोच से भी प्रभावित हुआ कि हम भीख दे कर भिखारी प्रवृत्ति को बल दे रहे हैं.. और दुत्कार और डांट के द्वारा उनके भीतर के आत्म-सम्मान को जगा कर उन्हे सही रास्ता दिखाने में हम योगदान कर सकते हैं.. लेकिन रहीम के एक दोहा का अर्थ समझ कर मेरी सोच अब काफ़ी दिनों से एक जगह पर टिकी हुई है.. "रहिमन वे नर मर चुके जे कुछ माँगन जायँ, पर उनते पहले वे मुये जिन मुख निकसत नायँ"। अब अगर मुझसे कोई भीख माँगता है तो मैं ज़रूर देता हूँ.. मना नहीं करता.. मैं कौन होता हूँ किसी को जज करने वाला उसे सही रास्ता दिखाने वाला.. वो जो मुझसे माँग रहा है वो तो मैं दे नहीं रहा उलटे दुत्कार रहा हूँ.. जानता क्या हूँ मैं उसके जीवन के बारे में.. उसके हालात के बारे में.. मैं उसके लिये कुछ भी करने को तैयार नहीं.. एक नज़र देखने को भी तैयार नहीं.. दो मिनट बात करने को तैयार नहीं.. करने को तो बहुत कुछ किया जा सकता है उनके लिये.. लेकिन मुझ में उतना बूता नहीं.. जो मैं कम से कम कर सकता हूं वो यह कि वो जो माँग रहा है वो मैं दे दूँ.. और मैं यही करता हूँ।

मगर अब सरकार मुझे और आप को ऐसी किसी भी दुविधा से सुरक्षा प्रदान करने का मन बनाने का ऎलान कर रही है, क्यों? ऐसा करने के पीछे तर्क यह है कि भीख मांगने वाले बच्चों का बचपन नष्ट किया जा रहा है.. उनके ग़ैर ज़िम्मेदार मां-बाप द्वारा, और उनसे ज़बरिया भीख मंगवा कर अपनी जेबें भर रहे भिखारी माफ़िया द्वारा। सरकार की ये चिन्ता बड़ी मासूम और संवेदनशील नज़र आती है, लेकिन जिस प्रकार के गुण्डे, मक्कार और लुटेरे इस सरकार को चला रहे हैं.. उनसे किसी भी संवेदनशीलता की उम्मीद नहीं की जा सकती। सवाल उठता है कि मासूम बच्चो के हित के अलावा इसमें और क्या प्रयोजन छिपा हो सकता है..?

एक छोटी सी सूचना और देना चाहूँगा; पिछले दिनों मुम्बई में एक नया नियम लागू हुआ है.. अगर आपके पास बैंक अकाउन्ट नहीं है तो आपक राशन कार्ड रद्द कर दिया जायेगा। आप बैंक में जाइये तो वो आपसे आई डी प्रूफ़ और एड्ड्रेस प्रूफ़ मांगेगे। अगर नहीं है तो आपका एकाउन्ट नहीं खुलेगा। तो इस कैच २२ सिचुअशन को पैदा करने के पीछे सोच क्या है? क्या सरकार जानती नहीं कि हमारे देश मे कितनी बड़ी संख्या मे लोग दिहाड़ी मजूरी करते हैं... और साल के कई रोज़ फ़ाके भी करते हैं.. और शहर में रहने वाले लोग भी इस तादाद मे शामिल हैं..? कहीं ये सरकार उन तमाम छोटे मोटे धन्धे करने वाले विस्थापितों को हतोत्साहित तो नहीं करना चाहती है.. जो अपने मूल स्थान में रोजी रोटी के साधन टूट जाने के कारण अपना घर-बार छोड़कर भारी मन से बड़े शहरों की ओर रुख करते हैं.. और दूर दराज़ के इलाक़ों में, पुलों के नीचे, या चौराहों के आस पास झोपड़ पट्टी बना के रहते हैं? वे अमानवीय स्थितियों मे रहना कबूल करते हैं.. क्योंकि उनके पास जाने के लिये कोई और जगह नहीं है..। और इन्ही विस्थापित लोगों के बच्चे माँ-बाप की अनुपस्थिति मे भीख मांगना शुरु कर देते हैं.. या भीख माफ़िया द्वारा पकड़ लिये जाते हैं (तस्वीर का ये पहलू एक पूरे स्वतन्त्र शोध की मांग करता है) मगर ये भिखारी नहीं हैं.. ये विस्थापित लोग हैं.. जिनका शायद एक सुसम्पन्न सांसकृतिक इतिहास है.. जिस से हम पूरी तरह अपरिचित हैं.. और वो बच्चे भी रहेंगे जो मुम्बई जैसे शहर की आबोहवा मे पल के बड़े होंगे और "मैं बोला ना.. देता है क्या" जैसी ज़बान सीखेंगे..

आम तौर पर ये लोग कन्स्ट्रक्शन इन्डस्ट्री मे दिहाड़ी के मज़दूरी का काम करते हैं। बिल्डर माफ़िया को इन सस्ते मज़दूरों की उपस्थिति से फ़ायदा होता है। इसीलिये ये अविरत गति से मुम्बई या दूसरे बड़े शहरों मे अभी तक आते रहें हैं, बावजूद इसके कि संभ्रान्त वर्ग हमेशा इनकी उपस्थिति से नाक भौं सिकोड़ता रहा है। मगर उससे सरकार को कोई फ़रक नहीं पड़ा। वो कन्स्ट्रक्शन माफ़िया से मिलने वाली तोहफ़ों का द्वार बन्द नहीं करना चाहती थी। और फिर बिल्डिंगे नहीं बनेंगी तो बाकी व्यापार कैसे फले फूलेगा..? तो इनके आगमन पर रोक लगाना सब के लिये घाटे का सौदा था.. तो लोग आते रहे और झुग्गी झोपड़ियां फलती फूलती रहीं... अगर ये सब कुछ ऐसा ही है जैसा मैं लिख रहा हूं तो आज सरकार को क्या ज़रूरत है कि कन्स्ट्रक्शन इन्डस्ट्री से अपने सम्बंध बिगाड़ ले..? वजह है.. वजह है इस देश को चलाने वले वर्ग का बदलता स्वरूप.. अब परिदृश्य में उनसे भी बड़ी ताक़त है.. वो ताक़त है.. रिलाएन्स जैसे विराट, देशी और विदेशी व्यापारिक समूह.. जिनके हित के लिये इस देश का हर का़नून तोड़ा मरोड़ा जा रहा है.. नहीं तो पुराने को डब्बे में फेंक कर नये का़नून बनाने के सुन्दर तर्क गढ़े जा रहे हैं.. मैं इसके दो मिसाल आपको यहां देना चाहूंगा, जो मेरी नज़र में आयीं..

पहले तो शायद आपने सुना हो कि स्वास्थ्य मन्त्रालय ने एक नये क़ानून के तहत जनता के हित को खयाल मे रखते हुए पके पकाये खाने की साफ़ सफ़ाई सम्बन्धी नियमों में बदलाव किये हैं.. ऊपर से दिखेगा ये तो बड़ा भला और अच्छा कदम है.. मगर मेरा शक़ है कि ये नियम सिर्फ़ बड़े शहरों में खाने पीने के छोटे मोटे स्टाल्स (वड़ा पाव, समोसे, चाट इत्यादि) का दमन करके उनकी जड़ से सफ़ाई के लिये इस्तेमाल किया जायेगा ताकि मैकडोनाल्ड जैसे फ़ूड चेन्स के व्यापक प्रसार के लिये मैदान खाली किया जा सके.. शायद अभी की हालात मे उन्हे इन गरीबों की ज़रूरत नहीं.. सस्ता लेबर अभी अंग्रेज़ी बोलने वाला होना चाहिये.. मॉल में अब इस्त्री किये कपड़ों में सब्ज़ी बेचने वालों से खरीदारी करने का सुख कुछ और ही है..

दूसरे आजकल आप कुछ नेताओं को पानी के वितरण के बारे में चिन्ता व्यक्त करते पा सकते हैं.. नेता कोई बात बिना प्रयोजन नहीं करते। इस का भी कोई राज़ होगा... शायद पानी के मिल्कियत पर बड़े पैसे का प्रवेश। मैने सुना है कि पिछले दिनों दिल्ली में पानी के निजीकरण के लिये कोशिश की गई, जिसकी भनक दिल्ली के जागरूक नागरिकों को पड़ गई और इसके पहले कि सरकार ऐसा कदम उठाती, विरोध प्रदर्शन हुए और सरकार ने अपना इरादा मुल्तवी कर दिया..दिल्ली वाले इस के लिये बधाई के पात्र है.. पर अब ये गाज मुम्बई वालों पर आ गिरी है.. तक़रीबन दसेक रोज़ पहले मैने डीएनए के माई वेस्ट-कोस्ट सेक्शन में पढ़ा कि अन्धेरी के एक वार्ड में पानी के निजीकरण की ये स्कीम प्रयोग के तौर पर लागू की जायेगी.. अगर पानी के वितरण की व्यवस्था इस निजीकरण के बाद सुधरती है तो इसे पूरे मुम्बई शहर में लागू किया जायेगा... मैने सोचा कि शायद कोई हो-हल्ला होगा पर कुछ नहीं हुआ.. मेरी तरह सभी मुँह ढक के सोते रहे.. पानी के संसाधन पर कब्ज़ा करने की कोशिशें दुनिया भर में की जा रहीं हैं.. और जहाँ जहाँ वे सफल हुए हैं.. पानी की कीमतों में चार पाँच गुना तक वृद्धि हुई है.. बोलिविआ के कोचा बाम्बा में तो बारिश के पानी तक पर से आम आदमी के अधिकार को छीन लिया गया.. आखिर में लोग इतना आजिज़ आ गये कि उन्हे सड़क पर उतर के विद्रोह करना पड़ा.. तब जा के उन्हे छुटकारा मिला.. दूसरी जगहों पर लोग चुपचाप सहन कर रहे हैं.. पता नहीं मेरी मुम्बई में क्या होगा..?

तो बच्चो को बाल सुधार गृह भेजने की ये योजना भी उन्हे और उनके मां-बाप को हतोत्साहित करके वापस भेजने की एक गहरी और लम्बी डिज़ाईन का हिस्सा है.. और फिर सरकार को बच्चों की इतनी फ़िकर है तो भिखारी माफ़िया का गला क्यों नहीं पकड़ते.. ? उनके माँ-बाप के विस्थापन को रोकने के विषय मे कोई ठोस कदम क्यों नहीं उठाते.. ? मासूम बच्चों को बाल सुधार गृह की जैल में क्यों क़ैद कर रहे हैं, जहाँ की दीवारों को लगातार इसलिये ऊँचा किया जाता है ताकि भागने वाले बच्चों को अन्दर बनाये रखा जाय..? आप बच्चों को सुधार रहे हैं.. या उन्हे सज़ा दे रहे हैं.. ? अगर आप बच्चों का वाकई हित चाहते हैं तो ऐसा बाल सुधार गृह क्यों नहीं बनाते.. जहाँ बच्चे सड़कों से भाग कर आयें.. भाग कर सड़कों पर जाय ऐसा क्यों.. ?कहीं ऐसा तो नहीं कि सड़कें उनसे बेहतर हैं.. ? कम से कम कोई रहम की दृष्टि से देखता तो है.. गिरते पड़ते बच्चा जीवन के अनुभव बटोरते हुये कुछ सीखता तो है.. और आज़ाद होता है.. बहुत सारे गन्द मे गिरने के लिये.. लेकिन सुधार गृह मे उस से ज़्यादा गन्द पाया जाता है.. सड़क की दुनिया में उसके पास चुनने की सापेक्षिक आज़ादी होती है.. अन्दर वो नहीं होती। अन्दर होता है एक ऐसा संरक्षक जो बच्चो के प्रति प्रेम के कारण नहीं, किन्ही और ही मजबूरियों के चलते उनका संरक्षण कर रहा होता है.. और वो अपने पद और बल का दुरुपयोग कर के बच्चों का भक्षण नहीं करेगा, इस बात की सम्भावना कम लगती है, अपने देश के आम चरित्र को जानते हुए..

भीख माँगने वाले उन बच्चों के भविष्य के प्रति अब मैं पहले से ज़्यादा चिन्तित हूँ... अफ़सोस ये है कि हम और आप भी नहीं बचेंगे.. आज उनका नम्बर आया है, कल को मेरा आयेगा, परसों शायद आपका आयेगा.. लेकिन एक बात की गारन्टी है.. सबका नम्बर आयेगा.. आप चाहें तो कभी भी सरकार से सवाल कर सकते हैं - "मेरा नम्बर कब आएगा...?"

पाँच सवाल का जवाब है!

घुघूती बासूती जी ने मुझे टैग किया.. और प्रश्नोत्तरी के इस खेल में मुझे भी शामिल कर लिया है.. इसके लिये मैं उनका शुक्रिया करता हूँ.. और ये रहे मेरे जवाब...

प्रश्न१: एक अच्छी पुस्तक और एक अच्छे टी वी कार्यक्रम में से आप क्या चुनेंगे ?

मूड पर डिपेन्ड करेगा..

अगर पैर फैला कर अलसाने का मूड है.. तो शायद टी वी देखने लग पडूंगा.. अक्सर ऐसा होता है कि कोई नयी किताब पढ़े महीने गुज़र गये.. फिर कोई जिज्ञासा सर उठाती है... और उस जिज्ञासा के शमन के लिये किताबें जुटाता हूँ.. दोस्तों से माँगता हूँ.. खरीदता हूँ.. और तब पढ़ता हूँ.. उपन्यास पढ़ने मे मेरी अब कोई दिलचस्पी नहीं बची है.. धर्म, दर्शन, भाषा और इतिहास में दिमाग़ फँसा रहता है... ज़्यादातर वक़्त मैं किताबों को सन्दर्भ ग्रन्थ की तरह इस्तेमाल करता हूँ.. पढ़ता हूँ.. भूलता हूँ और फिर पढ़ता हूँ ... सच पूछिये तो ब्लॉग खोलने के बाद साथी ब्लॉगियों को पढ़ते हुये ही मैं संस्मरण, व्यंग्य और परिहास के जगत में वापस लौटा हूँ... और अच्छा लग रहा है..

अगर मूड जिज्ञासु हुआ हो.. तो फिर मैं सब कुछ छोड़ कर किताब ही पढ़ूंगा..

और यदि उसी विषय पर टी वी कार्यक्रम है जिस पर कि पुस्तक तो सम्भवतः टी वी देख लूंगा.. क्योंकि उद्देश्य जिज्ञासा को शांत करना है और टी वी देखने में श्रम कम है..

प्रश्न२: यदि एक सप्ताह तक आपको कमप्यूटर से दूर रहना पड़े तो आपको कैसा लगेगा ?

पता नहीं.. आम तौर पर तो मैं घर में ही रहता हूँ.. कई दफ़े अपने फ़्लैट से निकले भी हफ़्ता निकल जाता है.. और फिर यदि शहर से बाहर गया तो जहां जाता हूँ.. अपना लैपटॉप साथ लिये जाता हूँ। अगर मान लूं कि ऐसे हालात आते हैं तो पहले कुछ दिन तो अच्छा नहीं ही लगेगा... फिर हालात के साथ समझौता कर के अपने लिये कोई और शग़ल खोज लूंगा...


प्रश्न३: यदि आपकी सलाह से भगवान काम करने लगे तो आप उसे पहली सलाह क्या और क्यों देंगे ?

ऐसा भला क्योंकर होने लगा.. भगवान नाम की हस्ती के साथ तो पहले गुत्थियां कम थीं क्या .. आप ने एक और इजाफ़ा कर दिया.. खैर..

शायद इसी प्रश्न को दूसरी तौर पर ऐसे भी पूछा जा सकता था कि क्या हो जाने से दुनिया की( मेरी समेत) आफ़तें कम हो जायेंगी.. मेरा फ़िलहाल कुछ दिनों से ये खयाल पुख्ता हो रहा है.. कि आस्था के मजबूत होने से अधिकतर मुसीबतें हल हो सकती हैं.. कुछ तो मुसीबतें होती हैं, जो वास्तविक होती हैं.. और कुछ हमारे दिमाग़ मे उनका हौवा होता है..वो मुसीबत से भी बड़ी मुसीबत होती है। कम से कम मेरे दिमाग़ मे तो होती है.. जो पूरी तरह कल्पित और हालात पर थोपा हुआ होती है.. अगर हमें भविष्य को लेकर तमाम तरह की बेहूदी तस्वीरों से अपने मन को सुरक्षित रखें तो वर्तमान की ढेर सरी असुरक्षाओं से बच जायेंगे.. ऐसा मेरा खयाल है.. मैं खुद ऐसी अवस्था प्राप्त करने में निहायत असमर्थ हूँ...

मानवता का हित चाहने वाले जितने भी सच्चे महापुरुष हुये हैं.. सबने एक दो बातों पर विशेष बल दिया... यक़ीन रखो.. आस्था रखो.. और आज मे जियो.. कृष्ण ने कहा कि फल की चिन्ता मत करो.. बुद्ध ने कहा अपरिग्रह... संचय मत करो... एपिकुरिअन ने कहा खाओ पियो और मौज करो( हालांकि उसकी इस सादा जीवन उच्च विचार के दर्शन को अक्सर लोगों ने भोगवाद समझने की ग़लती की).. ईसा ने तो कहा ही है कि सुई के छेद से ऊँट गुज़र सकता है पर अमीर आदमी का स्वर्ग में प्रवेश मुश्किल है.. और बगैर कल के लिये संचय किये कोई अमीर कैसे होगा... मोहम्मद साहब ने कहा कि ज़रूरत भर का रखो बाकी ज़रूरतमंदो में बांट दो.. उनके निजी जीवन के बारे मे एक बात शायद कम लोगों को पता होगी कि उनकी मृत्यु के समय उनकी ढाल अनाज के व्यापारी के पास गिरवी पड़ी थी.. बावजूद इसके कि वो खुद एक सफ़ल व्यापारी रह चुके थे.. वो दिन भर जो कुछ कमाते वो शाम तलक गरीबों में बांट देते। हमारे हाल के संत साईं बाबा जो आजकल काफ़ी लोकप्रिय हैं.. और नये बनाये जाने वाले मन्दिरों में उनकी संख्या सबसे ज़्यादा होगी-.. उनका दो शब्दों का संदेश आप कहीं भी पढ़ सकते हैं- श्रद्धा और सबुरी...

तो इतना सब कहने के बाद मैं आखिर में यही कहूंगा.. कि इतने बड़े बड़े लोगों ने कहा है तो ज़रूर तत्त्व की बात होगी और मुझे तो तर्क संगत भी लगती है..लेकिन मुश्किल भी है इसीलिये यदि भगवान इसे सब के लिये सुलभ कर दे तो बड़ा अच्छा हो..


प्रश्न४: यदि आपको किसी पत्रिका का सम्पादक बना दिया जाए तो आप किन चिट्ठाकारों की रचनाएँ अपनी पत्रिका में छापेगें ?

इसके लिये मुझे तो सर्व प्रथम सभी चिठ्ठाकारों के रचना कौशल से परिचित होना पड़ेगा.. जो कि मैं अभी नहीं हूँ.. क्योंकि मैंने जब चिठ्ठा जगत में प्रवेश किया तो मेरे आने के साथ ही यहां इरफ़ान प्रकरण को लेकर एक गरमा गरमी का माहौल बन गया.. इसका मेरे प्रवेश से ज़ाहिरन कोई लेना देना नहीं.. इस माहौल में मैं अभी कुछ लोगों को ही पढ़ पाया हूँ.. उनमें से जो मुझे अच्छे लगे ये ज़रूर बता सकता हूँ.. जैसे बेजी की सारा के नाम वो चिठ्ठी बहुत ही सन्तुलित और गरिमापूर्ण थी.. फ़ुरसतिया जी का इसी प्रकरण पर एक लम्बा लेख.. इसके अलावा रवीश कुमार आजकल अपने अंदर के गुस्से को जिस व्यंग्य के साथ उगल रहे हैं वो काबिले तारीफ़ है.. मेरे मित्र प्रमोद सिंह का क्रेडिट कार्ड से खरीदारी मेरी तबियत का लेखन है.. और मैने आज ही शुएब की क़लमकारी को खोजा.. उसकी खुदा सीरीज़ बहुत मज़ेदार है... खुद घुघूती जी का घुघूती बासूती क्या है लेख बड़ा मार्मिक था.. और भी ना जाने कितनी प्रतिभायें है जिनकी कौशल से मैं अभी अपरिचित हूँ..

प्रश्न५: यदि आपको जीवन का कोई एक दिन फिर से जीने को मिले तो वह कौन सा होगा और क्यों ?

मुझे भूलने की बड़ी घटिया बीमारी है.. मैं देखी हुई फ़िल्में भूल जाता हूँ.. पढ़ी हुई किताबें भूल जाता हूँ.. अपना ही जिया हुआ कल भी भूल जाता हूँ.. बड़े शर्म की बात है लेकिन सच है कि मैने अपने छात्रावासीय जीवन के तमाम सहपाठियों को भूल चुका हूँ.. अगर वो इसे पढ़ेंगे तो मुझे पकड़ के पीटेंगे..
चूंकि मैं अपने स्मृति दोष के चलते ऐसा कोई दिन नहीं याद कर सकता जिसे मैं फिर से जीना चाहूँ इसलिये मैं इस प्रश्न के जवाब मे कहूंगा कि वो दिन अभी आया ही नहीं..

ये सोचकर कि इस प्रश्नावली का मूल मक़सद एक दूसरे के बारे मे जानना है तो ये सोच कर मैंने थोड़े विस्तार से उत्तर दिये... लेकिन तमाम बातें रह गईं.. जैसे कि एक मित्र ने मेरे कानपुर का होने पर खुशी ज़ाहिर करते हुये पूछा था कि भैये कहां के हो.. तो मैं इस मंच का सही इस्तेमाल करते हुये बताना चाहूंगा कि मैने अपने बचपन के शुरुआती सात साल आज़ाद नगर मे गुज़ारे.. फिर कुछ साल बुन्देलखण्ड मे रहने के बाद वापस लौटे तो साकेत नगर में रहे जिस दौरान ग्रन्थम प्रेस के वाल्मीकि त्रिपाठी जी का बड़ा बेटा मनीष मेरा अच्छा मित्र बना, जिसका हाल में असमय निधन हो गया..

फिर कुछ वर्ष आनन्दपुरी में रहे और फिर १९८४ में बी एन एस डी से ग्यारहवीं पास करके कानपुर छूट गया। सम्प्रति कानपुर से नाता ये है कि मेरे पिता ने १९७१ मे एक प्लॉट खरीदा था और सन २००० में मैंने खड़े हो कर उस प्लॉट पर मकान बनवाया। दीनदयाल उपाध्याय विद्यालय के सामने स्थित उस घर में मेरी मां और मेरे बड़े भाई रहते हैं।

आशा है कि अब आप मुझे बेहतर प्लेस कर सकेंगे.. और अपनी खबर भी देंगे..

इस सिलसिले को बनाये रखने के लिये मैंने जो पांच नाम चुने हैं वो इस प्रकार हैं..
१. प्रमोद सिंह
२. रवीश कुमार
३. अविनाश
४. प्रियंकर
५. अनिल रघुराज

इन बन्धुओं से मेरे प्रश्न इस प्रकार हैं:

१. आप आस्तिक हैं या नास्तिक और क्यों?
२. सुख की आपकी क्या परिभाषा है.. क्या करने से आप सुखी हो जाते हैं य अगर नहीं हो पा रहे हैं तो क्या हो जाने से आप सुखी हो जायेंगे.. ?
३. क्या आप अपने बचपन मे वापस लौटना चाहेंगे और क्यों या क्यों नहीं..?
४. बतायें कि औरतों के बारे में आपकी क्या राय है.. क्या वे पुरुषों से अलग होतीं हैं .. अगर हां तो किन मायनों में?
५. क्या इस देश के भविष्य के प्रति आप आस्थावान हैं?

मैं चाहूँगा कि ये मित्र इन्हीं प्रश्नों के उत्तर दें अगर इनसे कोई असुविधा होती है तो इन्हे अपने प्रश्न बनाने की आज़ादी है.. अलबत्ता उन प्रश्नों के उत्तर इनके व्यक्तित्त्व का खुलासा करते हों।

और अंत में आप सब को होली की ढेर सारी शुभकामनाएं!

शनिवार, 3 मार्च 2007

बैरिन सचाइ गोरी मोहि सकुचाइगो

होली की रंग और जीवन के रंग जिस हिसाब से अपने हिस्से आते हैं, उसे रसखान साहब अपनी रसीली क़लम से भी बयान कर चुके हैं, सन्दर्भ है होली में कोरी खड़ी नायिका का दुख जिससे नन्दलाला अच्छा बैर निकाल रहे हैं;



गोकुल को ग्वाल काल्हि चौमुँह की ग्वालिन सौं
चाँचर रचाइ एक धूमहिं मचाइगो।

हियो हुलसाय रसखानि तान गाइ बाँकी
सहज सुभाइ सब गाँव ललचाइगो।

पिचका चलाइ और जुबती भिजाइ नेह
लोचन नचाइ मेरे अंगहि बचाइगो।

सासहि नचाइ भोरी नन्दहि नचाइ खोरी
बैरिन सचाइ गोरी मोहि सकुचाइगो॥


कामना करता हूँ कि आप लोग नन्दलाला के इस भेद-भाव से बचे रहेंगे। होली मुबारक हो।
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...