गुरुवार, 15 मार्च 2007

बुरे समय का ज्योतिष

मेरा और बुरे समय का साथ पुराना है.. लोग बुरे समय में ज्योतिषियों के इर्द गिर्द चक्कर मारने लगते हैं.. मैंने इतना बुरा समय देखा.. या समय में इतना बुरा देखा कि खुद ज्योतिष सीखने बैठ गया.. हर ज्योतिष सीखने वाला पहले अपनी कुण्डली बाँचता है.. मैं भी कोई अपवाद नहीं निकला बावजूद इस खामखयाली के, कि हम दुनिया से ज़रा अलग हैं..

जब बुरा समय आता है तो आस्थाएं विश्वास मूल्य भरभराकर ढहने लगते हैं.. इस मामलें में भी कोई नई परम्परा नहीं बना सका.. पुरानी लीक को ही पीटा .. अपनी भी नज़रों का चश्मा समय के कदमों के नीचे आकर कुचला गया.. ऎसी दृष्टिशून्यता की स्थिति में अच्छी खासी देखी भाली सोची समझी चीज़ें भी अनजान अपरिचित हो गईं.. होनी ही थीं.. आँख के आकलन और हाथ के टटोलन में बड़ा अन्तर पड़ जाता है..

ऎसे में ज्योतिष एक ज्योति बन कर मेरी आँखों में आया.. फिर तो मैं जो देखता ज्योतिष के मानकों से देखता.. मनोज को देखता तो मनोज नहीं उसका चौथे बैठा मंगल दिखाई देता.. सुमन की जगह ग्यारहवें का शनि और उसकी लग्न पर तीसरी दृष्टि.. मैं लोगों के नाम भूल जाता पर उनकी जन्म कुण्डली याद रहती.. अपनी कुण्डली पढ़ने चला था.. उसे समझने के लिये दूसरों की कुण्डलियों का अध्ययन किया.. हर मिलने जुलने वाले, न मिलने जुलने वाले.. मित्र.. मित्रो के मित्र.. भाईयों के मित्र.. राजनेताओं.. साधु संतों.. जिसके जन्म के आँकड़े हाथ लग गये.. उसका नाम लिख गया मेरी कॉपी में.. लोग तो खुशी खुशी नाम लिखवाते थे.. कूद कूद कर.. ऎसे लोग कम ही मिले जो वैज्ञानिक सोच के हक़ में इस अँध विश्वासी खेल में शामिल होने से मुकर गये.. जो मुकरे वो भी अनागत की आशंकाओं से घबराकर.. भविष्य में झांकने के लिये सब का दिल एक सा मचलता है..

और अगर किसी का बुरा समय चल रहा हो तो कहना ही क्या...बुरे समय और ज्योतिष में गाढ़ी छनती है.. हम तो सब ठीक कर रहे हैं.. जैसे पहले करते थे वैसे ही अबहीं कर रहे हैं.. मगर समय ही साथ नहीं दे रहा.. भैया जरा बताओ कब कटेगा ये.. अच्छे समय के लिये कोई राहु मंगल आदि को श्रेय नहीं देता..कोई नहीं कहता कि अजी मैं क्या हूँ.. ये तो राहु में शुक्र का अन्तर है.. बस छै महीने की बात है.. उसके बाद जब सूर्य का अन्तर आयेगा तो देखियेगा मेरा हाल..सब से सर फ़ुटौवल की नौबत आ जायेगी.. पर बुरे समय के लिये सारा इल्जाम बेचारे ग्रहों के सर जाता है.. शनि की ढइया ने हर काम में अड़ंगी मार के रखी है.. तो लोहे की नाल का छ्ल्ला डाले हैं.. केतु की मार पड़े तो लगते हैं कुत्ते को रोटी खिलाने.. आपके और केतु के बीच में बेचारा कुता इस बेमौसम प्रेम को देख बिदकता बिदकता घूमता है.. रोटी सूंघ के ठुकरा देता है.. उसे शक़ रहता है कि जिस आदमी ने आते जाते कभी ग़लती से भी मेरी तरफ़ एक आशनां नज़र ने फेंकी वो आज किस मक़सद से मेरे आगे रोटी फेंक रहा है.. हो न हो ज़रूर साले ने ज़हर मिलाया होगा.. ग्रहों की खुशामद के लिये लोग क्या क्या नहीं करते.. अपने बच्चन जी ही एक ही उँगली में दो दो ठो नीलम धारण किये हुये हैं.. एक मून स्टोन अलग से.. दूसरे हाथ में शायद एक ठो पन्ना भी है कानी उँगली में.. कुछ लोग तो ऎसे देखे हैं जो आठो उँगलियों में कुछ ना कुछ पहने रहते हैं.. कई बार मैंने सोचा है ऎसे लोग घी निकालने या अन्य दूसरे कामों में जिनमें उँगली की आवश्यक्‍ता होती है, बड़ी परेशानी का सामना करते होंगे..

लेकिन यही महापुरुष जो बुरे समय में ज्योतिषी के आगे पीछे घूमते हैं.. वही समय के अनुकूल होते ही उससे किनारः कर जाते हैं.. अब मेरे जैसे सहज विश्वासी मनई के लिये इस प्रकार के बातें बड़ी कष्टप्रद साबित हुईं.. अब मेरा धंधा तो हुआ नहीं यह.. मैंने तो मित्रों की शंका निवारण के लिये किया.. पर उन्होने ने मुझे ज्योतिषी समझ के यह कराया ... अगर मैं सच्चा धंधे वाला ज्योतिषी होता तो उनको पल पल की गणना में ऎसा उलझाता कि वो हर काम करने के पहले मुझसे पूछते कि भैया बताओ.. करी के ना करी.. औ करी त कौन महूरत में करी.. ?

एक और बड़ी समस्या है.. चीज़ों को, लोगों को.. उनकी उपयोगिता के चश्मे से देखने की.. इसी उपयोगितावादी दृष्टिकोण के कारण हम तमाम मनुष्यों से रोज़-ब-रोज़ मिलने के बावजूद उनसे कोई मानवीय सम्बंध नहीं बना पाते.. क्योंकि हमारा उस से सम्बन्ध किसी उपयोगिता से जुड़ा हुआ है.. तो बहुत से मित्र मुझे सिर्फ़ ज्योतिषी के तौर पर ही याद रखते पहचानते और मिलते हैं.. वो मुझसे ज्योतिष के अलावा और कोई बात ही नहीं करते.. या मुझे इस लायक नहीं समझते.. जो भी हो.. उनका मेरे प्रति एक उपयोगितावादी नज़रिया है.. और ज्योतिष के प्रति भी.. कोई ये नहीं सोचता कि अगर आप को ज्योतिष में सचमुच विश्वास है.. तो कुछ भी पूछना व्यर्थ है.. भविष्य कथन सिर्फ़ तभी सम्भव है अगर सब कुछ या लगभग सबकुछ पहले से तय है.. और अगर पहले से तय ही है.. तो आप क्या उपाय करोगे.. सिवाय जिज्ञासा शान्त करने के.. उपाय क्या करोगे.. एक छै कैरट के रत्न से आप शनि को सँभाल लोगे.. और अगर सच में सँभाल लिया तो इसका मतलब पहले से तय नहीं था.. और अगर पहले से तय नहीं था तो आपने पढ़ा कैसे..? अरे भाई जब सब कुछ तय है...तो क्यों परेशान होते हो... निश्चिन्त रहो.. मस्त रहो.. भगवान का भजन करो.. जो होना होगा ..होगा.. पर जब तक आदमी के कंधों पर सर है...और सर में उसका विकसित दिमाग़...वो निश्चिन्त कैसे रह सकता है..

5 टिप्‍पणियां:

Bhupen ने कहा…

आपकी बातें पढ़कर एक पुराने दोस्त की लंबी कविता की दो पंक्तियां याद हो आईं-
कहीं नहीं होगा ईश्वर
दीमागों में भी नहीं.
काम की लगें तो कुछ सोचिए वरना इग्नोर कर दीजिए.

बेनामी ने कहा…

मज़ा आया. वाक़ई, जब मैंने हस्तरेखा की कुछ किताबें छुट्टियों में पढ़ लीं तो मैं आदमी का चेहरा नहीं, हाथ देखता रहता था, आज भी आदत नहीं गई है.अच्छा है... लिखते रहिए...ताज़गी और मौलिकता का रस है आपके लिखे में...आनंद मिलता है.
अनामदास

अभय तिवारी ने कहा…

भूपेन के पुराने दोस्त की कविता की आधी बात से तो मैं भी सहमत हूँ.. दिमाग़ों मे तो नहीं ही होगा ईश्वर..

ravish kumar ने कहा…

ज्योतिष का बुरे समय से रिश्ता । ईश्वर का भी बुरे समय से रिश्ता । ग्रह न खराब हो ईश्वरों को घंटा न पूछे कोई । ईश्वर फल देने वाला बैंक है । जो देता नहीं । मांगते रहने पर थोड़ा बहुत देकर बाकी बाद में देने के झांसे में फंसा देता है । पर यह विश्लेषण बढ़िया है । मज़ा आया पढ़ कर । रवीश कुमार कस्बा वाले

रामेन्द्र सिंह भदौरिया ने कहा…

जब जब होइ धर्म की हानी/बाढहि असुर महाभिमानी//तब तब प्रभु धरि बिबिध शरीरा/हरहि किरपानिधि सज्जन पीरा//जब सन्सार मै अधर्म शुरू होता है और जो धीर पुरुष होते है उनकी पीडा को हटाने के लिये भगवान किसी न किसी रूप मै सन्सार मै अवतार लेते है.और पीडितो की पीडा को हटाते है,ज्योतिष वेद का ही अन्ग है,समय की परिभाषा को देने बाला ग्रन्थ है,और एक करोड से अधिक शाखाये सन्सार मै चल रही है.पूरे सन्सार मै दो अरब से अधिक लोग ज्योतिष को मान्यता आज भी देते है,मेरी बेब साइट को सब्से अधिक लोग जो क्लिक करते है वह पश्चिमी देशो के लोग ही होते है,वेदान्त की समीक्षा करने मै उन्को बहुत ही लगाव है.अभय तिवारी का लेख पढा काफ़ी अक्षा लिखा है,मगर अपने को इतना बुद्धिमान नही मान लेना चाहिये कि शताब्दिओ से चली आ रही धारा को ही उडा दिया जावे,विक्रमी सम्मत का पन्चान्ग बने हुए २०६४ साल हो गये है और तब से लेकर करोडो लोगो ने अपनी अपनी मान्यताये बताई होगी और जब कोई चारा अलावा धरम वालो को नही मिला तब जाकर लोगो ने मान्यता दी है और आज भी लोग मानते आ रहे है.जब आज का सन्साज एक सर्कार जो बेकार होती है पान्च साल नही चला पाते है तो पूरे ३५०० सालो से चलती प्रथा को बन्द कसे कर सकते है.अभय तिवारी ने अपने को एयर टेल की तरह लाइफ़ टाइम फ़्री बना डाला है कमनुकेशन मे बहुत ग्यान करने के बाद उस बात को भूलते जा रहे है जो कानपुर मै उनके साथ आज से पान्च साल पहले बीत रही थी.

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