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मगर वाम मोर्चा को क्या पागल कुत्ते ने काटा है जो किसानों को नाराज़ करके अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहा है..? या बुद्धदेव समेत सारे वाम नेता पूँजीपतियों के हाथों बिक कर उनके दलाल हो गये हैं.. ? क्यों सेज़ लागू करने के लिये इतना लालायित है? जबकि नितिन देसाई अपने लेख में कहते हैं कि सेज़ की अवधारणा के पीछे की सोच ये है कि सामाजिक न्याय और आर्थिक विकास साथ साथ सम्भव नहीं है.. इसी बात को वाम मोर्चा के परिप्रेक्ष्य में देखने से एक कैसी विरूप तस्वीर उभरती है..
मेरी समझ मे जो बात आती है उसे आपके सामने रखता हूँ.. वाममोर्चा और मुख्यतः माकपा मार्क्स के अनुयायी हैं.. बाबा मार्क्स बहुत पहुँचे हुये विद्वान थे.. उन्होने ज्ञान की सारी शाखाओं और उनमें भी खासकर हेगेल को, जो उलटे खड़े हुये थे.. पलटकर सीधा कर दिया था ताकि दुनिया को वैसे देखा जा सके जैसी कि वो है.. तमाम दूसरी सिद्धान्तों के अलावा बाबा मार्क्स ने इतिहास को देखने की एक भौतिकवादी दृष्टि भी दी जिसे ऐतिहासिक भौतिकवाद कहते हैं.. इस ऐतिहासिक भौतिकवाद में ही सिंगूर और नन्दिग्राम के किसानों के दुख का मूल है.. यही ऐतिहासिक भौतिकवाद है जो मार्क्सवादियों को किसानों से गहरी हमदर्दी होने के बावजूद ऐसा पत्थर दिल बना दे रहा है.. ऐतिहासिक भौतिकवाद हमें बताता है कि मानव विकास की मंज़िलें क्या क्या हैं.. पहले आता है पत्थर युग.. फिर दासप्रथा.. फिर सामन्तवाद यानी कि कृषि आधारित समाज.. और फिर आता है पूँजीवाद का मशीन आधारित समाज जिसमें किसान और कारीगर अपनी ज़मीन, अपने औज़ार सब कुछ खो कर सिर्फ़ और सिर्फ़ एक मजदूर रह जाते हैं.. जब ये समाज अपने विकास के चरम पर पहुँच जाता है तो मजदूर अपने शोषण से आजिज़ आकर संगठित होकर क्रांति कर देता है.. और न्याय और समता पर आधारित साम्यवादी समाज की स्थापना होती है..
ये सारी बातें बाबा मार्क्स विस्तार से अपने सद्ग्रंथों में लिख गये हैं जिसका वाचन-मनन मार्क्सवादी समुदाय के लोग जीवन भर करते रहते हैं.. बाबा ने इतना लिखा है और इतना गूढ़ लिखा है कि बड़े बड़े धुरन्धर भी ये दावा नहीं करते कि उन्होने सब पढ़ा है.. और जिन अपार श्रद्धा वालों ने ये उपलब्धि हासिल की है.. वो भी सब समझने का दावा नहीं करते..
खैर.. सवाल यह है कि क्यों माकपा किसानों के ज़मीन खोने के दर्द के प्रति इतनी निष्ठुर होती जा रही है.. तो जवाब ये है कि उनके विश्वास प्रणाली में किसान जब तक अपना सब कुछ लुटा गंवा के सड़क पर आकर दर दर की ठोकरें नहीं खायेगा असली पूंजीवादी समाज की स्थापना नहीं होगी.. और जब तक असली पूंजीवाद नहीं आता तब तक साम्यवाद नहीं आ सकता.. रूस का प्रयोग असफल हो चुका है.. और चीन की समझ ही सही समझ है.. सेज़ के प्रति मार्क्सवादियों की श्रद्धा भी चीन की देखादेखी बनी है.. बिना इस तथ्य को ध्यान में रखे कि चीन में सरकारी क्षेत्र और कुछ चुने हुये इलाक़ों में उदारीकरण की दोहरी नीतियां का व्यवहार हो रहा है..
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2 टिप्पणियां:
इतनी लंबी सोच नहीं हो सकती कि पहले गरीब बनाऒ फिर उनको संगठित करो। सच तो यह है कि यह बाजार के आगे समर्पण है।
सच तो यह है की यह भूतकाल में की गई बेवकुफी को ठीक करने की गलत कोशिश है.
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