हम में से कम ही लोग हैं जो खुले आसमान के नीचे बैठ कर लिखते हैं.. अधिकतर कमरों में बैठ कर लिखते हैं.. अधिक उचित होगा कहना- कमरों के कोनों में बैठ कर.. दो-ढाई कमरों के मकान में एक लिखने का भी कमरा चाहना, औक़ात से बढ़कर बात करना है क्या..? शायद हाँ.. मगर उसके सपने देखना कोई जुर्म तो नहीं.. कम से कम सपनों में तो कंगाली नहीं होनी चाहिये.. आइये देखिये इन तस्वीरों को और सजोइये सपने अपनी निजी स्टडी/ लेखन-अध्ययन कक्ष के..
चाहे तो भर ले अपने कमरे को किताबों से.. दुनिया भर के विचारों के बीच रहकर रचा जाय अपना एक संसार.. या रखें सिर्फ़ काम की चीज़ें..ताकि कर सकें सन्नाटे में सृजन.. या फिर इतनी भी न भरें किताबें कि उन के शोर में सुन भी न सकें आप अपनी बात.. और इतना भी खाली न कर दें कि विचार ही आना बन्द हों जाय..
ये सारे कमरे बड़े-बड़े लेखकों के हैं और मैं कईयों के नाम भी नहीं जानता.. पर उनके कमरे देखने में क्या जाता है.. इन लेखन-कक्षों के बारे में विस्तार से पढ़ने के लिए गार्डियन के वेब पन्ने पर जायं..
10 टिप्पणियां:
गार्डियन के पन्ने पर जाने की जरूरत नहीं । हमने आंखें बंद कर ली हैं और सपने देख रहे हैं ।
प्लीज डोन्ट डिस्टर्ब । आयम बिज़ी ।
सभी कमरों की थीम कुछ एक्सट्रा क्राउडेड नहीं लग रही, अभय भाई आपको. ओवर लोडेड टाईप. मुझे थोड़ा स्पेशियस रुम ज्यादा पसंद आते हैं, वो भी इस तरह तितर बितर नहीं. थोड़ा कयदे से सलीके से जमा हुआ. :)
काश... बस काश... बड़ी हसरत से बार बार निगाहें फोटों में ही सही, दरो दीवार पर डाल रहा हूं और...
और जिनके पास किराये का एक छोटा कमरा है, एक कंप्यूटर है- वो आपके बताये कमरों को देख कर कैसी हसरत पालेंगे।
किस समय और समाज के लेखकों के लिए है यह ख्वाब। यहाँ तो लेखक के लिए यह शेर अर्ज किया है-
चंद तस्वीरे बुतां, चंद हसीनों के खतूत
बाद मरने के मेरे घर से ए सामां निकला।
हो तो कोई बुरा नहीं है । मैं तो कहीं बी बैठ कर लिख लेता हूँ । बस लिखते समय कोई ताक-झाक न हो । यानी बिना किताबों के जी ही नहीं सकता। लिख सकता हूँ।
काहे दिल जलवा रहे हैं अभयजी।
और बोधिजी लकी हैं, कि उनके घर से चंद हसीनों को खतूत निकलेंगे, ससुरे व्यंग्यकार को हसीन भी सीरियसली नहीं ना लेते।
बढ़िया गुरु..अच्छा आइडिया दिया है आपने एक नई श्रेणी के सपनों को देखने का !
आपके अन्तिम शब्दों पर गौर कर के देखा, सचमुच बड़े-बड़े लेखकों के ही स्टडी रूम ऐसे बिखरे और सुथरे होते हैं . छोटे लेखकों को कहॉ ये सारी सुविधाएं मिल पाती हैं. वे तो अपने मेहनताने के लिए ही मारे - मारे फिरते हैं. यहाँ तो भाई एक अदद घर ही मिल जाये तो गनीमत समझो , स्टडी रूम तो बाद की बात है . किताबें तो किसी तरह जुगाड़ भी लें मगर रखे कहॉ ये बड़ा सवाल होता है . वैसे इन कमरों का इंटीरियर डिजाइनर कौन है?
यार अभय! दुखी कर दिया .
आकाश-पाताल एक करके एक छोटा-सा फ़्लैट लिया है को-ऑपरेटिव में . जिसमें शिफ़्ट इसलिए नहीं कर पा रहे हैं कि मियां-बीबी, दो बच्चों और उनके सामान के लिए जगह ढूंढने जाते हैं और आपस में लड़कर लौट आते हैं . ऊपर से जले पर नमक छिड़कने के लिए ऐसे सजे-सजाए 'स्टडी' दिखाते हो . 'जे अच्छी बात नइएं'.
भाई हम तो अपने वाले में ही खुश हैं कभी लेखकों के कमरे की प्रदर्शनी आयोजित होगी तो इन्हें भी मौका दिया जायेगा..
एक टिप्पणी भेजें