आजकल शिक्षकों का जो हाल है वो किसी से छिपा नहीं है। समाज में जो कुछ नहीं बन सकते वे शिक्षक बन जाते हैं। और इसके बाद वे हिन्दी फ़िल्मों में तमाशा बन जाते हैं। अपनी भारत-भूमि में गुरु की बड़ी महिमा गाई गई है। किन्तु आज की तारीख में गुरु के नाम पर आप को धूर्त ही दुकान चलाते मिलेंगे। श्रीमद भागवत में दत्तात्रेय की कहानी पढ़ कर हैरानी होती है, उन्हे २४ गुरु मिल गए थे। उनके २४ गुरु थे;
पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, अग्नि, चन्द्रमा, सूर्य, कबूतर, अजगर, समुद्र, पतंग, भौंरा, हाथी, शहद निकालने वाला, हरिन, मछली, पिंगला वेश्या, कुरर पक्षी, बालक, कुँआरी कन्या, बाण बनाने वाला, सर्प, मकड़ी, और भॄंगी कीट। इन सब से उन्होने कुछ न कुछ सीखा।
उनकी इस कहानी से एक बात तो समझ आती है कि गुरु का चेले से हर पहलू में श्रेष्ठ होना उसके गुरु होने की शर्त नहीं है। कई बारी ये भी हो सकता है कि गुरु निहायत ही गया-गुज़रा हो। जैसे कि दत्तात्रेय का गुरु नम्बर ८- कबूतर जो अपनी कबूतरी और अपने बच्चों से बिछुड़ने के संताप से बौखला कर स्वयं भी बहेलिये के जाल में कूद पड़ा था। अब मान लीजिये.. वह कबूतर आकर दत्तात्रेय से कहे कि चल बेटा पानी भर के ला, मेरे कपड़े धो, रोज़ सुबह उठकर मेरे लिए चन्दन घिस.. तो दत्तात्रेय क्या करेंगे? बलिहारी गुरु आपने हो जाएंगे? अब परोक्ष रूप से तो कबूतर महाराज ने भी गोबिन्द दियो बताय?
माफ़ कीजियेगा मेरा इरादा आप के या किसी के भी गुरु के अपमान का नहीं है। ये तो मैं स्वयं अपनी एक ग्रंथि के खिलाफ़ तर्क बटोर रहा हूँ, जो बीच बीच में पुकार लगाती है कि तेरा कोई गुरु नहीं तेरा बेड़ा पार कैसे होगा। अब इस पुकार में निहितार्थ यही होता है कि तेरा कोई ‘एक’ गुरु नहीं.. जिस पर तू बलिहारी होता रहा.. जो तेरे जीवन की सारी जिम्मेवारी लेकर तुझे मुक्त कर दे। उसके बाद तू बस उनका हुकुम बजाता रहे।
नानक बड़े गुरु थे। मेरी बड़ी श्रद्धा है उनमें। पर उन्होने ने भी भाई लहणा को अपना उत्तराधिकारी घोषित करने के पहले ऐसे तमाम इम्तिहान लिए-- कि जा बेटा.. पूस की रात में मेरे कपड़े धो के ला.. सुबह नहीं अभी धो के ला। ऐसे-ऐसे तमाम अवरोधों को पार कर के ही भाई लहणा गुरु अंगददेव बन सके। जिन्होने गुरु नानक की इस अतार्किक सनकों का मर्म नहीं समझा वे चेले ही रह गए; कभी गुरु नहीं बन पाए।
मैं गुरु नानक की इस कहानी के आध्यात्मिक मर्म को नकारता नहीं, मगर ऐसी कहानियां अभी हमारे समाज में इतनी आम हैं कि हर धूर्त उसे अपने हित में सिद्ध कर लेता है। ऐसे गुरुओं के सम्मुख कबीर साहिब अपने लिखे पर दुबारा विचार करने पर मजबूर हो जाते। उन धूर्तों को गुरु बनाने से बेहतर है कि हम कबूतर टाईप गुरु ही बनाते रहें। मेरी शुभकामनाएं.. गुरु बनाते रहें.. सीखते रहें.. चरैवेति!चरैवेति!!
Emerson has said that consistency is a virtue of an ass. No thinking human being can be tied down to a view once expressed in the name of consistency. More important than consistency is responsibility. A responsible person must learn to unlearn what he has learned. A responsible person must have the courage to rethink and change his thoughts. Of course there must be good and sufficient reason for unlearning what he has learned and for recasting his thoughts. There can be no finality in rethinking.
11 टिप्पणियां:
तेरा कोई गुरु नहीं तेरा बेड़ा पार कैसे होगा... चलिए गुरुओं पर ये जानकारी देकर आपने मेरी भी चिंता दूर कर दी। गुरु भी खुद ही तलाशने हैं और बेड़ा भी खुद भी पार लगाना है।
"ये तो मैं स्वयं अपनी एक ग्रंथि के खिलाफ़ तर्क बटोर रहा हूँ, जो बीच बीच में पुकार लगाती है कि तेरा कोई गुरु नहीं तेरा बेड़ा पार कैसे होगा।"
यह तो बहुत बड़ा शॉकिंगाश्चर्य है. मैं तो सोचता था कि बाबा मार्क्स आपके ऑनली एण्ड ऑनली गुरु हैं!
फिर भी गुरु का विकल्प क्या है। बिना श्रद्दा के सीखा जा सकता है क्या।
इमर्सन की सूक्ति अद्भुत है। गांधी जी इस गुरु-सीख का अनुपालन करते अक्सर दिखते हैं- कभी अपनी वैचारिक जीवंतता को प्रमाणित करते हुए, कभी अपने अवसरवाद को जायज ठहराते हुए। आप अपनी कही हुई बात से अगर कलटी मारते हैं तो इसके पीछे निश्चय ही कोई मजबूत लोकहितकारी तर्क होना चाहिए- हवा के मुताबिक पीठ दे देना लकीर का फकीर होने से बेहतर सिर्फ निजी फायदे के लिए ही हो सकता है।
गुरुओं की नहीं, गुरुघंटालों की डिमांड है जी।
"ये तो मैं स्वयं अपनी एक ग्रंथि के खिलाफ़ तर्क बटोर रहा हूँ, जो बीच बीच में पुकार लगाती है कि तेरा कोई गुरु नहीं तेरा बेड़ा पार कैसे होगा।"
सच में एक बड़ा सवाल जो अक्सर मथ डालता है!!
आत्मा और विवेक गुरु हैं।
Emerson has said something very valid and pretty solid.. चंदू ने गांधी का उदाहरण दिया है.. और भी महापुरूष रहे होंगे जिन्होंने इसे चरितार्थ किया है (सिनेमा में गुरू गोदार थे ही).. और आज के संदर्भ में सही ही है कि कबूतरों को ही गुरू तुल्य समझा जाये.. इससे ज्यादा आकांक्षी होने में मन को ठेस लगने के खतरे हैं.
गहन चिन्तन का विषय है.
अब के जमाने में सब परिभाषायें भी बदलती जा रही हैं.
बकौल कालीचरण, हमारी पिछले बरस की शिक्षक दिवस पोस्ट पर http://udantashtari.blogspot.com/2006/09/blog-post_05.html :
गुरू गोविंद दोउ खड़े काके लागू पाय
नेताजी आऍ रहे, चलो उनका जूता चमकाऍ
--क्या विचित्र स्थिती आ गई है.
मैं ऐसे कई लोगों को निजी तौर पर जानता हूँ जो दारोगा या विक्री कर अधिकारी बनने के बाद अध्यापकी को धक्का देकर चलते बने। लेकिन उन्हें या ऐसे लोंगों को कुछ कहने सेक्या फायदा। आप सही कह रहे हैं कि लोग जीविका के लिए अध्यापक हो रहे हैं। लेकिन अध्यापकों का जीवन कबी भी सुखमय नहीं रहा है। एक पुरानी कहावत से मेरी बात का समर्थन होता है-
मुदर्रिसी करैं दो जन खाए
बच्चे हों तो ननिहाल जाँए।
यानी एक खास दौर में अध्यापक अपने बच्चों का पेट भी नहीं भर सकता था आज भी हालात बहुत बदले नहीं हैं। कलाम और राधाकृष्णन जैसे कितने अध्यापक हैं आज।
ज्ञान के लिए गुरु की सेवा करना एक पुरानी परंपरा रही है। आश्रम के जीवन में तो यह अनिवार्य था।
सरोद के उस्ताद अलाउद्दीन खान ने तो 13 साल सिर्फ अपने गुरु का गुह ही हटाया था। चौदहवें साल से दीक्षा शुरू हुई ।
मित्र मेरा मानना है कि जो ज्ञान दे वही गुरु। वह चींटी हो या चूहा।
हर कोई गुरु नहीं हो सकता है। उपनिषदों में गुरु और शिष्य के लिए अधिकारी होना अनिवार्य अर्हता है। सत्यकाम जैसे अज्ञात पिताएं के पुत्रों को गुरु बहुत मुश्किल से मिलते रहे हैं। गुरु करने के पहले उसके ज्ञान की हैसियत का को जान लेने की बात कही गई है-
गुरु करे जान के
पानी पिए छान के।
लेकिन यह सच है कि बिनु गुरु होई न ज्ञान ।
सहजो बाई का कहना है कि बिना गुरु की कृपा से मुक्ति नहीं है-
गुरु कीन्ह कृपा भव त्रास गई।
तो आप अपनी मुक्ति के बारे में सोचना शुरू कर दें। और किसी को गुरु बना लें। केवल मुक्ति के लिए।
२५वाँ गुरू बच्चों को बनाया जा सकता है । वे हमें जितना सिखाते हैं और कोई नहीं सिखा सकता ।
घुघूती बासूती
एक टिप्पणी भेजें