नक्सलवादी अब नासिक, जलगाँव, अमरावती, थाने और मुम्बई जैसे शहरों पर हमला बोलने की योजना बना रहे हैं, ऐसा एटीएस के 'गुप्त सूत्रों' से पता चला है। इसके पहले अगस्त १९ व २० को मुम्बई पुलिस ने शहर से श्रीधर श्रीनिवासन और वरनॉन गॉन्सॉल्वेज़ नाम के दो नक्सलियों को गिरफ़्तार करके हिरासत में ले लिया है। आरोप है कि उनके पास आपत्तिजनक साहित्य के अलावा हथियार और बारूद भी बरामद हुआ, जिसे पुलिस ने अदालत की इजाज़त से गैर-क़ानूनी होने के नाते नष्ट कर दिया। अदालत को पुलिस की 'सचबयानी' पर पूरा भरोसा है, और अब मुकद्दमा इस नष्ट किए गए हथियार के बिना पर जारी है। मानवाधिकार का हल्ला मचाने वाले विधि-विशेषज्ञों ने इस मामले पर फिर से टिल्ल-बिल्ल करना शुरु किया है; पर हमेशा की तरह उनकी आवाज़ को सुनने वाले उनके जैसे कुछ खलिहर लोगों के सिवा कोई अन्य नहीं है। नक्सली हमारे समाज का कोढ़ हैं और पुलिस-प्रशासन हमारे हितों के सजग रक्षक।
इसके काफ़ी पहले नागपुर में ८ मई को अरुन फ़ैरेरा नाम के एक और नक्सली को उसके दो साथियों के साथ गिरफ़्तार कर लिया। वैसे तो पुलिस १५ दिन तक किसी आरोपी को अपनी कस्टडी में रख सकती है, मगर इन ‘विश्वस्त’ अपराधियों को पुलिस ने सत्य-वमन के उद्देश्य से ४० दिन तक अपनी हिरासत में बनाये रखने के बाद ही उन्हे न्यायिक हिरासत में भेजा। नक्सलवाद के समर्थकों का कहना है कि ये गैर क़ानूनी है, और पुलिस इन लोगों पर गुदा द्वार से एक पेग पेट्रोल प्रवेश कराने जैसे अत्याचार कर रही है। पुलिस ने ऐसे किसी भी आरोप का खण्डन किया है, और देश के न्याय और नियम का पूरी तरह से पालन करने का अपना संकल्प दोहराया है।
ये तीनों नक्सली मुम्बई के ही रहने वाले हैं। और इनके कॉलेज के दोस्त बता रहे हैं कि ये लोग ईमानदार और न्यायप्रिय किस्म के लोग हैं, और देशद्रोही या व्यवस्थाद्रोही आदि नहीं है; साथ-साथ अपील भी कर रहे हैं कि पुलिस और प्रशासन इनके मानवाधिकारों की रक्षा करे। ज़ाहिर है पुलिस, प्रशासन और हमारी व्यवस्था के चलाने वालों के पास इनको सुनने-पढ़ने से ज़्यादा ज़रूरी अनेको काम हैं।
पता ये भी चला है कि इनमें से दो व्यक्ति जो ईसाई धर्म से ताल्लुक रखते हैं। १९६० के दशक में दक्षिण अमेरिका में जन्मी लिबरेशन थियॉलजी नाम की नई विचारधारा में विश्वास रखते हैं। यह विचारधारा मानती है कि ईसा का वह कथन भूलना नहीं चाहिये कि सुई के छेद से ऊँट का प्रवेश सम्भव है, किन्तु स्वर्ग के द्वार से अमीरों का प्रवेश नामुमकिन है। इसके मानने वालों ने मार्क्स के साम्यवादी विचारधारा को ईसा के विचार की ही एक बढ़त स्वीकार किया। इन्हे कहीं ज़्यादा सफलता नहीं मिली, दक्षिणी अमरीका में ये मारे गए, यहाँ भी मारे जा रहे हैं। और पोप बेनेडिक्ट ने भी इनकी विचारधारा को नकार की लात मार दी है। पोप की इस बात से अब शंका की कोई गुंजाइश नहीं रही कि ईसा भी नक्सलियों के साथ नहीं है !
11 टिप्पणियां:
आपकी और मेरी विचारधारा में भले ही अलग हो, हम सयुंक्तरूप से इतना तो मानते ही है की किसी के भी साथ अमानविय व्यवहार नहीं होना चाहिए. फिर चाहे वे नकस्ली हो, पुलिस वाले हो या आम आदमी.
बाकि हथियारों से किसी भी को भी सुखी नहीं किया जा सकता.
सुधीर श्रीनिवासन और वर्नॉन गोंजाल्वेज समेत देश के सभी राजनीतिक बंदियों के मानवाधिकारों की रक्षा के लिए ब्लॉगर बिरादरी को एकजुट होना चाहिए। किसी विचार से यदि आपका विरोध है तो आप इस उम्मीद में उससे बहस कर सकते हैं कि कभी न कभी आप उसका और वह आपका पक्ष समझ लेगा। लेकिन अगर भिन्न मत वाले व्यक्ति का गला ही घोंट दिया जाता है- भले ही यह काम कानून-व्यवस्था या राष्ट्रहित के ही नाम पर क्यों न किया जा रहा हो- तो इससे एक ऐसे पराए विचार को बल मिलता है, जिसका बहस में कोई यकीन नहीं होता। इस प्रवृत्ति का विरोध अगर खुलकर नहीं किया गया तो कानून-व्यवस्था के कथित रखवाले मौका मिलते ही आपका गला घोंटने में भी कोई कोताही नहीं बरतेंगे।
चंदू की राय से पूरा इत्तेफाक रखता हूं। नक्सलवाद एक राजनीतिक आंदोलन है और किसी भी राजनीतिक कार्यकर्ता से इस तरह का व्यवहार बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए।
ब्लॉग बिरादरी बहुत छोटी है, भाई.. जो लोग प्रैस के सीधे सम्पर्क में हैं, कृपया वे इस मसले को जिलाये रखें. पुलिस का ज्यादतियों का प्रत्यक्ष अनुभव तो वही कर रहे होंगे, जिनपर सीधे गुजर रही है, मगर कम से कम बाहर से लोग इसका हल्ला तो किये रखें..
चंद्रभूषण,अनिल रघुराज और प्रमोद से पूरा-पूरा इत्तिफ़ाक है .
लातिनी अमेरिका में कुछ विप्लवी लिबरेशन थियॉलॉजी में यक़ीन रख़ते हैं , पोप की शायद उन्हें परवाह नहीं ।
बिना सबूत के मुकदमा कैसे चल सकता है। जो सबूत मिटा दिया गया वह क्या था। मीडिया को यह सवील उठाना ही चाहिए। दुख की बात है कि मीडिया इस दिसा में तब अधिक सोचेगा जब खबर मसालेदार हो जाए।
ईसा कहीं भी दुखी लोगों के साथ नहीं है।
पुलिसिया बर्बरता का विरोध होना ही चाहिए चाहे वह किसी के साथ भी हो!!
वैसे भैया हिंसात्मक आंदोलन का साथ तो प्रभु का कोई भी रुप नही दे सकता ना।
आगे की लाईन्स के लिए आपसे अग्रिम क्षमायाचना पर अनिल रघुराज जी की टिप्पणी पढ़कर उनसे यह पूछने की इच्छा हो गई और यहीं पूछने की गुस्ताखी कर रहा हूं।
अनिल जी मेरी अल्पबुद्धि यह नही समझ पाती कि किस "राजनैतिक आंदोलन" में आम इंसान-आम आदिवासियों के खून बहाने की शिक्षा दी जाती है वह भी तब जबकि इस "राजनैतिक आंदोलन" का मूल ही जल-जंगल-जमीन और इसके असली मालिक वाली बात है
bahut bhaut umeed jagi ki aap log hindi bhasha me in saari baaton par soch samajh rahe hain. abhi tak to ye saari baatein englsh aur anya bhartiya bhasahaon me to aati hi lekin hindi me dilli ko chhodkar nahi.
man khud ke apne anubhavonn ko baantana chahunga ki aga raap police source ke alawa ke fact findings reports dekhenge to aapko pata chalega ki sthitiyan humare sochane samajhne se bhi kai guna bhayavah aur badtar hain.
chhatisgarh me salwa judum ke naam par 60000 se jyada aadivbasiyon ko maovadion ke dar ke naam se visthapit kiya ja chuka hai, hazaroon logon ko maar diya gaya hai,saikadoon bastiyan foonk di gayi hain, kai mahilaaon ka balatkaar kar maar dya gaya hai aur inke khilaaf bolne waale ko bhi jail me daal diya gaya hain. iske detail ke liye www.pucl.org par kai jaankariyan mil sakti hain.
sthitiyan dino din bigad rahi hain, shahari naagrikon ke democratic movement nahi hain jo sarkaar ke kuprachhaaron ka jawab de sakein.
hum logon ko is par vyapak baatcheet karna chahiye.
mujhe maaf kariyega ki main hindi me type nahi kar sakta.
चंद्रभूषण, अनिल और अनु भाई से पूरी तरह सहमत. हमें कुछ करना चाहिए.
एक तो बात यह हो सकती है कि इस पर जो ब्लागर सहमत हों, सब मिलकर एक दिन (जल्दी ही) एक साझा पोस्ट इन ज्यादतियों के खिलाफ़ अपने-अपने ब्लागों पर पोस्ट करें. जितना अधिक हो सके, ऐसे पुलिसिया ज़ुल्मों के बारे में लिखा जाये.
...और आप लोग बताइए कि क्या किया जा सकता है.
एकता मे बहुत शक्ती होती है ।Seetamni. blogspot. in
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