शुक्रवार, 30 मार्च 2007

रसोई और रिश्तों का रस

नोटपैड वाली सुजाता जी (ग़लती से पहले प्रत्यक्षा लिख गया).. रसोई से दुखी हैं.. वो मानती हैं कि "एक रसोई रिश्तो की असमानता की आधारभूमि है".. लिहाज़ा रसोई को घर से बाहर ही कर दिया जाय... ना रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी.. मैं ऐसा नहीं मानता.. मैं इस पूरे मामले को अलग बिन्दु से देखता हूँ.. जिसे मैंने उनके लेख पर अपनी प्रतिक्रिया में दर्ज किया.. वही बात थोड़े फ़ेर बदल के साथ यहाँ भी दे रहा हूँ..

रसोई है क्या.. रस का जहाँ निर्माण हो वह जगह है रसोई.. रसोई को आप घर से निकाल देंगी तो घर से जीवन से रस भी जायेगा..रसोई तो घर का केन्द्र है.. कभी आपने कुवाँरे लड़कों का घर देखा है.. प्लेटफ़ार्म और उनके घर में कोई ज़्यादा फ़र्क नहीं होता.. एक दृष्टिकोण ये है कि घर में किसी स्त्री के न होने से ऐसा भाव उपजता है.. दूसरा नज़रिया ये है कि चूँकि अधिकतर लड़कों को जीवन में रस और रसोई के महत्व के बारे में कोई अता पता नहीं होता इसलिये उनके घर की वो दशा होती है.. लेकिन कुछ लड़के ऐसे भी मिलते हैं जो खाना भी पकाते हैं और जीवन में रस की समझ भी रखते हैं..उनके घर से भूतों के डेरे वाला भाव नहीं पैदा होता..

दूसरी बात रसोई से निकलकर व्यक्ति कितने रचनात्मक कार्य कर सकता है इस पर शक़ है.. स्त्री तो अपने स्वभाव से प्रकृति से ही रचनात्मक है..वो तो एक मौलिक मनुष्य की रचना करती है और फिर रसोई में भी सुबह शाम की रसों की रचना करती है.. शास्त्रों में ब्रह्म के बारे में कहा ही गया है.. रसोवैसः.. पुरुष उसकी इस रचनात्मकता से हमेशा आतंकित रहता है.. स्त्री की इसी लगभग जादुई रचनात्मकता से अभिभूत हो कर मनुष्य ने सर्वप्रथम स्त्री को ही दैवीय भाव से सुसज्जित किया.. अभी तक पाई जाने वाले प्राचीनतम शिल्प कलाकृतियों में मातृशक्ति की याद दिलाने वाली मूर्तियां ही मिलती हैं जैसी एक बायें तरफ़ की तस्वीर में आप देख सकते है..

और कुदरत की डिज़ाइन में अपनी कोई विशेष उपयोगिता ना पाकर जीवन में उद्देश्य की खोज में भटकता फिरता है..आम तौर पर उद्देश्य का ये संकट आदमी के ही जीवन में आता है.. मैं तो आज तक किसी स्त्री से नहीं मिला जो जीवन के उद्द्देश्य को लेकर अपना माथा यहाँ वहाँ फोड़ रही हो.. स्त्री को पता होता है जीवन क्या है.. और इसे विषय में बात करके वह अपना समय नष्ट नहीं करती.. वह जीवन जीती है.. आदमी जीवन के बारे में ऊँट पटाँग विश्लेषण करता है.. बावजूद इसके कि एक आम आदमी की संवाद निपुणता एक स्त्री से कहीं कम होती है.. और शब्द भण्डार भी कम होता है.. बच्चा भाषा ज्ञान भी माँ से ही प्राप्त करता है .. पिता से नहीं.. फिर भी आदमी साहित्य का रचियता होने का गुमान लिये यहाँ से वहाँ टहलता रहता है.. स्त्री को अपने आपको महान और श्रेष्ठ सिद्ध करने की कोई आवश्यकता नहीं.. वो पुरुष से श्रेष्ठ है.. और ये वह जानती है..पुरुष तभी श्रेष्ठ कहलाता है जब उसमें आम तौर पर स्त्रैण कहने वाले गुण.. दया सहानुभूति, करुणा, प्रेम आदि प्रबल हो.. और यदि इनके अभाव में यदि उसमें बुद्धि, शौर्य, धैर्य, बल आदि ही गुण हों .. फिर तो वो पाशविक ही माना जाता है..


ऊपर की रंगीन तस्वीर: एवरिन साहिन के फ़्लिकर डॉट कॉम के संग्रह से

13 टिप्‍पणियां:

mkt ने कहा…

आम तौर पर उद्देश्य का ये संकट आदमी के ही जीवन में आता है.. मैं तो आज तक किसी स्त्री से नहीं मिला जो जीवन के उद्द्देश्य को लेकर अपना माथा यहाँ वहाँ फोड़ रही हो..

- मेरा अनुभव भी ऐसा ही रहा है

उन्मुक्त ने कहा…

'प्रत्यक्षा जी रसोई से दुखी हैं..' मैं तो नीलिमा जी समझता था। या फिर और कोई ???

मसिजीवी ने कहा…

कोई फर्क नहीं पढ़ता उन्‍मुक्‍त प्रत्‍यक्षा लिखा कि नीलिमा या फिर नोटपैड.....

रसोई हर महिला की जीवन की त्रासदी है और शायद इसीलिए हम सदैव चाहते हैं उसका इतना महिमामंडन किया जाता रहे कि वे बेचारी नए कैमरे से तस्‍वीरें खींचें तो भोजन की, बाहर के संस्‍मरण सुनाएं तो लिट्टी चोखे के और अगर कहीं इसमें छिपे शोषण को देख लें तो हम टूट पड़ें रचनात्‍मकता की दुहाई देने के लिए।

बेनामी ने कहा…
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Pratyaksha ने कहा…

सबसे पहले , जो महिला खाना पका रही है , वो दुखी ,बेचारी जीव है , ऐसा आपने कैसे मान लिया । अब आपकी भाषा से सूडो मेल शोविनिज़्म की बू आती है ।
रसोई कोई त्रासदी नहीं , कैसे हो सकती है ? कोई भी रचनात्मक कार्य त्रासदी कैसे हो सकती है ? आप भी खाना पकायें , घर में बीवी बच्चों को खिलायें । देखेंगे कितना सुख मिलता है ।

मैं नौकरी करती हूँ , खाना भी पकाती हूँ , मेरे पति भी यही सब करते हैं । हम दोनों अपने को दुखी ,बेचारे नहीं समझते । आप खुद को ऐसा समझते हैं क्या ?

सुजाता ने कहा…

मौलिक मनुष्य का निर्माण क्या होता है अभय जी???
बाकी हमारी बहस को आपने यहा पर ही शिफ़्ट नही किया बलकि मुद्दे को भी बखूबी शिफ़्ट कर दिया है।
हमारे विचार हमारी पोस्ट पर टिप्पणी के रूप मे पढ लें।

सुजाता ने कहा…

प्रत्यक्षा जी
आपके और मेरे अलावा ऐसी बहुत सी स्त्रिया है जो किसी की रसोई मे ’रस’ भरने के चक्कर मे नीरस हुई जा रही है ।जो नही जानती ब्लाग क्या है ,नारद पर क्या चल रहा है।
आपके जीवन मे पति के सथ यह तालमेल अनुकरणीय है।सराहनीय है। पर यह कितनो को मिल पाता है। जब मेरी तरह कोई इस मुद्दे पर बोलता है तो अभय जी जैसे कुछ लोग स्त्रीत्व के गान गाने लगते है।अभय जी की बात से लगता है वो किचन मे स्त्री मात्र के निरंतर खटते रहने को justify कर रहे है।भाषा जितनी सुहानी है उतनी षडयन्त्रकारी।

अभय तिवारी ने कहा…

मौलिक मनुष्य..हर एक बच्चा अपनी माँ की एक मौलिक रचना है..शायद मैं अपनी बात ठीक से कह नहीं पाया..
मेरा मक़सद क़तई भी आपके या किसी स्त्री के शोषण को जस्टीफ़ाई करना नहीं था..आप बेशक़ अपने घर से रसोई को बाहर करें.. एक दार्शनिक विचार और एक व्यक्तिगत अनुभव दोनों में बड़ा अन्तर होता है..दुनिया का कोई भी दर्शन इतना बड़ा कभी नहीं हो सकता कि किसी के व्यक्तिगत अनुभव को खारिज़ कर सके.. अगर आप को ऐसा लगता है कि मैंने ऐसा किया है तो मैं आपका अपराधी हूँ.. क्षमा माँगता हूँ.. रही बात मेरे निजी जीवन की.. मेरी पत्नी अभी काम से वापस आई है.. और मैं उसे खाना गरम करके देने के बाद आपको ये जवाब लिख रहा हूँ..

ePandit ने कहा…

भईया हम इस बहस में नहीं पढ़ना चाहते। मेरे विचार से तो अभय और सुजाता दोनों अपनी जगह सही हैं। मैं तो बस वो पंक्तियाँ बताता हूँ जो मुझे पसंद आईं।

"स्त्री को अपने आपको महान और श्रेष्ठ सिद्ध करने की कोई आवश्यकता नहीं.. वो पुरुष से श्रेष्ठ है.. और ये वह जानती है..पुरुष तभी श्रेष्ठ कहलाता है जब उसमें आम तौर पर स्त्रैण कहने वाले गुण.. दया सहानुभूति, करुणा, प्रेम आदि प्रबल हो.. और यदि इनके अभाव में यदि उसमें बुद्धि, शौर्य, धैर्य, बल आदि ही गुण हों .. फिर तो वो पाशविक ही माना जाता है.."

वैसे मजेदार रहा इस बहस को पढ़ना। ऐसी सार्थक बहसें होती रहनी चाहिए।

अनूप शुक्ल ने कहा…
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अनूप शुक्ल ने कहा…
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Srijan Shilpi ने कहा…
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Unknown ने कहा…

आपके लेख से मैं कतई सहमत नहीं हूँ, समाज में पुरुषों ने ही हमेशा श्रेष्ठ होने का प्रमाण दिया है आप जैसे ही कुछ गलत स्त्रियों को भी महान बताते हो जब आपको गलत और सही का ही ज्ञान नहीं है तो श्रेष्ठ क्या है आपको खाक पता है

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