ये प्रविष्टि समर्पित है.. आदरणीय बड़े भाई ज्ञान दत्त पाण्डेय जी और तमाम दूसरे भाई बहन को.. जिन्हे सच में ऐसा लगता है कि मैं और मेरे जैसे दूसरे सरफिरे अमेरिका को गरियाने का कोई नैतिक अधिकार नहीं रखते.. क्यों?.. क्योंकि अमेरिका निर्दोष है.. और हमारे दिमाग़ में कुत्सित विचार हैं..?
ये सच नहीं है.. उलटे मुझे ऐसा लगता है कि आप सोचते हैं अमेरिका एक बेचारा निरीह बच्चा है जिसे हमारे जैसे अराजक तत्त्व आते जाते कभी भी कान उमेंठ कर निकल जाते हैं.. तमाम किस्म के आपराधिक कुकृत्य हमारे करकमलों से होता है और फिर हम नाम लगाते हैं लुटे पिटे अमेरिका का.. तभी तो हमारी इसी हरमजदगी से तंग आकर बड़े भाई ज्ञानदत्त जी ने हमारे ज़ुल्म और अन्याय के राज के खिलाफ़ ऐलान करने का बीड़ा उठाया और मासूम अमेरिका को अपनी शरण में ले लिया.. अगर ज्ञानदत्त जी ना होते तो अमेरिका हमारे पापाचार के तले यूँ ही पिसता रहता.. अब हमें अमेरिका को चिकोटी काटने के लिये भी पहले बड़े भाई ज्ञानदत्त जी का सामना करना होगा.. फिर जा के हमे अमेरिका के नाज़ुक और मासूम गालों को मसलने का मौका मिलेगा.. मगर हम भी तो दुष्ट नम्बर वन हैं.. हमने तो कसम खाई है कि अमेरिका को टीप मारते रहेंगे.. हमें सैडेस्टिक प्लेज़र मिलता है.. और इसी क्रम में आपको धोखा देने और भरमाने के लिये हम विस्तार से अपनी बात नीचे कह रहे हैं.. .
हमारे अमेरिका को गरियाने के हजार कारण हो सकते हैं.. मगर आप उसका बचाव क्यों कर रहे हैं.. आपको समझना चाहिये कि वो आपका हितैषी नहीं हो सकता.. अगर वो किसी का हित चाहेगा तो अपने देश वासियों का.. क्या आप अमरीकी हैं..? नहीं.. आप भारतीय हैं..एक भारतीय होने के नाते आप को चाहिये जो शक्तियां आपके देश के हित में नहीं है उनके प्रति सावधान रहें.. और दूसरों को भी सावधान करें.. मगर आप क्या कर रहे हैं.. मैं सावधान सावधान की गुहार लगा रहा हूँ .. और आप पीछे से मेरी धोती खींच के हँस रहे हैं.. सोचिये क्या ये ठीक है.. धोती खींचना मुझे भी आता है.. पर वो मेरा न शौक है ना सरोकार..
दूसरी बात .. कि मैंने जो ऊपर बात कही है.. वो ग़लत है.. सच ये है कि मैं अपने देशवासियों के हित में भले सोचूं और आप भी ज़रूर ही सोचते होंगे.. पर ना तो अमेरिकी राज्य और सरकार को अमेरिकी जनता की परवाह है.. और ना भारतीय राज्य और सरकार को भारतीय जनमानस की.. आप कहेंगे कि फिर मैंने अपनी बेसिर-पैर की बकवास शुरु कर दी.. पर माथे पर त्योरियां डाल के ज़रा सोचिये.. कि अगर अमेरिकी सरकार को वाक़ई अपनी जनता का हित साधना होता तो.. वो अपनी जनता के मुँह से निवाला छीन कर भारतीयों के थाली में नहीं परोस देती.. मैं जॉब आउटसोर्सिंग की बात कर रहा हूँ.. जिनका रोज़गार गया है वो नाराज़ हैं.. विरोध कर रहे हैं.. पर सरकार पूँजीपतियों के प्रति प्रतिबद्ध है.. उनका हित जिसमें है सरकार वही नीति अपनायेगी..और ये बात भी अपने दिमाग़ में मत लाइयेगा कि इसके पीछे अमरीकी सरकार की बाज़ार में गैर-हस्तक्षेप की कोई नीति है.. अगर ऐसा होता तो वो चीनी माल से अपने पूँजीपतियों को बचाने के लिये क़ानूनों को तोड़ती मरोड़ती ना रहती.. अपनी ही जनता के प्रति इस उपेक्षा की एक और मिसाल.. कैटरीना हरीकेन के समय न्यू ऑर्लीन्स के ज़्यादातर अश्वेत और बाकी बचे हुये निचले तबके गैर महत्वपूर्ण श्वेत जनता के लिये कोई राहत कार्य शुरु करने में अमेरिकी सरकार को पूरा एक हफ़्ता लग गया.. जो सरकार इराक़ की जनता को एक पागल तानाशाह से छुटकार दिलाने के लिये.. और लोकतंत्र का उपहार देने के लिये आणविक हथियरों का इतना बड़ा हल्ला खड़ा कर के आधी दुनिया पार कर के ऐसा आधुनिक और भयानक युद्ध छेड़ सकती है.. वही सरकार अपनी ही जनता को एक प्राकृतिक आपदा से राहत देने के लिये युद्ध स्तर पर कार्य नहीं कर सकती.. क्यों.. ?
अब आइये भारत पर.. आपकी मनमोहन सरकार जो कॉंग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ के नारे लगा कर सत्ता में आई.. वह रोज़ ब रोज़ आम किसानों के आत्म हत्या करने के बावजूद उनके कर्ज़े माफ़ करने की कोई साधारण सी घोषणा क्यों नहीं करती.. क्या इसलिये कि सरकार बैंको के मामले में दखलंदाज़ी नहीं करना चाहती..?..क्या दस हज़ार से लेकर पचास हज़ार तक की विराट रकम सरकार के कंधों पर इतनी भारी पड़ती है कि तीन चार हज़ार किसानों के आत्महत्या करने के बाद भी उनका पलड़ा हलका रहता है? लेकिन वही सरकार रोज़ ब रोज़ पूँजीपतियों को बुला बुलाकर करोड़ों के कर्ज़ों के लुभावने प्रस्ताव परोसती रहती है.. क्यों? आये दिन तमाम धन्ना सेठ अपने आपको दीवालिया घोषित करके करोड़ो अरबों रुपया डकार जाते हैं.. वो लोग आत्महत्या क्यों नहीं करते? क्या इसलिये कि वो जानते हैं कि सरकार उनकी अपनी है वो उनके पीछे हाथ धो के नहीं पड़ेगी.. जबकि किसान इस सरकार से हर तरह की उम्मीद हारकर अपनी जान दे देता है..
अभी दो रोज़ पहले अनिल रघुराज ने अपने ब्लॉग में बताया कि..."हमारी सरकार हमारे-आपके टैक्स वगैरह से जितनी कमाई करती है, उसमें से जितना वो अपने ऊपर खर्च करती है, उसका 20 फीसदी से भी कम हिस्सा देश की एक अरब आबादी के कल्याण पर खर्च करना चाहती है। जाहिर है कि हमारे माई-बाप 100 रुपए खुद खा रहे हैं और हमारी झोली में फेंक रहे हैं 20 रुपए से भी कम। वाकई सरकार को शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी कल्याणकारी सेवाओं की कितनी फिक्र है!"
सेज़ को तो आप बिलकुल ही मत भूलिये .. जिस बेशर्मी के साथ इस देश के सारे क़ानूनों को ताक़ पर रख कर पूँजीपतियों के आगे सारे संसाधन परोसे जा रहे हैं.. क्या जनता की कोई प्रतिनिधि सरकार ऐसा करेगी? ..नहीं.. ना भारत की ये सरकार भारतीयों के विषय में सोचती है.. और ना अमेरिकी सरकार अमेरिकियों के विषय में सोचती है.. ये वैश्वीकरण का दौर है.. देश और राष्ट्र की सीमायें अर्थहीन हो रही हैं.. वो अमेरिकी जिसकी नौकरी जार्ज बुश ने बंगलौर के एक एन सुरेश को दे दी.. और नांदेद का किसान दोनों का दर्द एक है.. दोनों को उनकी सरकार ने धोखा दे दिया..
सभी देश सभी राष्ट्र समान रूप से एक ही आक़ा की सेवा में तत्पर हैं..और जो ना नुकुर करके अपने पुराने रास्तों पर चलना चाह्ते हैं.. उन्हें या तो डरा धमका कर या फिर मार पीटकर सीधे रास्ते पर लाया जा रहा है.. उदाहरण हैं.. ईरान, इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान.. ये आक़ा हैं वह वर्ग जिन्हे मैं बार बार पूँजीपति के नाम से पुकार रहा हूँ.. जो कि ग़लत नाम है.. वो एक गुज़रे ज़माने की सच्चाई है.. जिस वर्ग के हित के लिये सारा प्रपंच है.. उसका नया आधिकारिक नाम है कॉरपोरेट...
मैं जब भी बाज़ार या अमेरिका को गाली देता हूँ तो मेरा मतलब इस व्यक्ति से है.. जिसे कॉरपोरेट के नाम से जाना जाता है.. और मैने किसी गलती से इसे व्यक्ति के नाम से उल्लिखित नहीं किया है.. सभी कॉरपोरेशन्स को विधि द्वारा एक व्यक्ति के रूप में मान्यता मिली है..
जारी..
अगली कड़ी में चर्चा करेंगे.. इस व्यक्ति के चरित्र और चरित्रहीनता की..
17 टिप्पणियां:
बहुत बढ़िया, अभय जी। इस मुद्दे पर जमकर लिखिए और जोरदार बहस होने दीजिए। कम से कम चिट्ठा जगत से जुड़े लोगों के बीच तो जागरूकता आएगी इससे। अमेरिकी सरकार और भारत सरकार को तो इससे कोई फर्क पड़ने वाला है नहीं। बात किसी पार्टी विशेष की सरकार की नहीं है, वह कोई भी हो...उसकी नीति बदस्तूर जारी रहने वाली है।
आप जिस कॉरपोरेट की बात कर रहे हैं उसका एक अहम हिस्सा मीडिया भी है, इसलिए मीडिया संस्थान की नौकरी बजाने वाले पत्रकार तो यह बहस कर नहीं सकेंगे खुलकर और यदि चिट्ठा जगत में सक्रिय कुछ पत्रकार अपने चिट्ठों पर ऐसी बहस चलाना भी चाहें तो वह भटककर कब आपसी तू-तू मैं-मैं में तब्दील हो जाएगी, पिछले अनुभवों को देखते हुए यह कहना मुश्किल है।
आपसे यह उम्मीद जरूर है कि इस मुद्दे को स्तरीय बहस से भटकने नहीं देंगे। इस विषय पर अफ़लातून और मेरे अलावा कई अन्य साथी भी लगातार लिखते रहे हैं।
अमेरिकी विदेश और व्यापारिक नीति के तहत विश्व के अविकसित और विकासशील देशों पर कई तरह के आपराधिक कृत्य किए जा रहे हैं .विश्व के पर्यावरण-बिगाड़कों में भी वह अग्रणी है . यह कॉरपोरेट-फ़ॉरपोरेट की भंकस भी भूमंडलीकरण, उदारीकरण और निज़ीकरण की नीति के परवान चढने के बाद ही ज्यादा सुनाई देने लगी है.
और ये जो 'सेज़' है न, यह कांटों की नहीं बल्कि जंग लगी कीलों की सेज है . इस देश की पूरी 'बॉडी पॉलिटिक' में टिटेनस का जहर फ़ैल रहा है. शरीर नीला पड़ता जा रहा है .
अभय, बहुत अच्छा लिख रहे हैं आप. धारावाहिक है तो यह लेखन आगे भी देखने को मिलेगा. मुझे आशंका थी कि दंगल के नाम पर कहीं देसी झोंटा-नोच कजिया न चालू कर दें आप. पर आप मेरी अपेक्षा से कहीं अधिक भद्र निकले.
जारी है में अगर ऐसा ही देखने को मिला तो मैं "आप" से "तुम" पर आ जाऊंगा. और तब आप मुझे अत्यन्त आत्मीय हो जायेंगे.
जारी रखें. अमेरिका मेरा सगा नहीं. आप सगे हैं.
(But do not take it that I agree with what all you say. Agreeing is not a big thing when some passionate/beautiful writing is produced!)
भैया अभय,
अमरीकी कुनीति और भारतीय धोखाधड़ी पर हम भी नज़र खुली रखते हैं. तो आपने खुलासे का यह जो महत्वाकांक्षी कारज हाथ में लिया है, अच्छा है, कुछ ज्ञान-चक्षु हमारे और खुलेंगे. आनेवाले दिनों में यही तो विषय है जिस पर हमीं नहीं दुनिया भर में नुक्ताचीनी होगी, सड़कों पर प्रदर्शन और पुलिस से हाथापाई होगी. अच्छे से, और खूब महीन में जाकर लिखें. धन्यवाद.
अमरीका के अपराधों की सूची बहुत लंबी है,इस पर बहस की कोई गुंजाइश नहीं है कि अमरीका ने महाशक्ति की हैसियत का दुरूपयोग किया है या नहीं. वह दुनिया की किसी संधि को नहीं मानता, अंतरराष्ट्रीय न्यायाधिकरण को नहीं मानता. अमरीका को न गरियाना अमरीका के पापों में भागीदार होना है. वैसे भी जो सबसे अधिक ताक़तवर है और सबसे अधिक दंभी है उसे तो यूँ भी गरियाना बनता है, अमरीका तो हर तरह से गालियाँ खाना डिज़र्व करता है.
धारावाहिक अमरीका निंदा अभियान को मेरा पूर्ण समर्थन है, लगे रहो अभय भाई.
अनामदास
बहुत सही। मै आपके अधिकांश विचारों से सहमत हूँ। और कार्परेट को गरियाने का जहाँ तक सवाल है, इस पर और लिखिये। इसलिए क्योंकि आजकल सब लोग इतने रिज़ल्ट-ओरिएन्टेड हो गए हैं कि जो भी धनी दिखता है उसी को आदर्श बना लेते हैं - खासतौर पर entrepreneurs और CEOs को। ऐसे मे तार्किक गरियाने की अत्यधिक आवश्यकता है।
कम से कम अर्थशास्त्र की कसौटी पर एकदम सच्ची बात कही आपने। बहुत अच्छा लेख। बधाई स्वीकारें।
अपने मुल्क में जो वर्ग अमेरिका के सपने देखता है,बच्चों को वहाँ भेजने की जुगत में रहता है - उसे असहमति व्यक्त करने के लिए अंग्रेजी वाक्य का प्रयोग करना पड़ता है । बिना अंग्रेजी उनकी बात और हल्की हो जाती ।
गरियाने वाले स्थिति में कैसे आया अमेरिका - एक कड़ी इस पर भी ।
आभार ।
आउटसोर्सिंग और (काफ़ी हद तक) कैटरीना वाले आपके उदाहरण अति-सरलीकरण के शिकार हैं. हो सकता है कि ये सही बात सिद्ध करते हों पर मिसाल के तौर पर मेरी राय में ग़लत हैं.
अमेरिका में आउटसोर्सिंग उसी बाज़ार व्यवस्था का नतीजा है जो उन्होंने होश-ओ-हवास में स्वीकार की है. अमेरिका पूँजीवादी है उसी तरह जैसे रूस साम्यवादी था/है. खुले-आम है. एक विचारधारा है जो उन्होंने अपने लिए चुनी है. ग़लत-सही अलग बात है. जिनका रोजगार गया है वो नाराज़ हैं. पर वो रोज़गार उन्हें मिला भी इसी व्यवस्था की वजह से था. आउटसोर्सिंग एकतरफ़ा नहीं है (भले ही असमान हो). भारत भी तो अपने कम्प्यूटर और प्रोग्राम अमेरिका या दूसरे देशों से आउटसोर्स कर रहा है. क्या जब मैं भारत में बैठा विंडोज़ ख़रीदता हूँ तो अमेरिका में किसी को रोज़गार नहीं दे रहा. यह इसी व्यवस्था का हिस्सा है. इसलिए उस बेरोज़गार का रोना नाजायज़ है. व्यवस्था ग़लत है या सही, सबने मिलकर चुनी है. अब ये तो नहीं हो सकता कि जब तक अमेरिका को इसका फ़ायदा हो रहा था तब तक उस बेरोज़गार के लिए यही व्यवस्था ठीक थी, और अब जब कुछ दूसरे देश इसका फ़ायदा उठाने लगे हैं तो अमेरिका व्यवस्था को ग़लत मानकर बंद कर दे.
इतना कहने के बाद यह भी अर्ज़ करना चाहूँगा कि मैं आपसे मोटे तौर पर सहमत हूँ.
इसमें कोई शक नहीं कि कॉर्पोरेट जगत की पकड़ अमेरिकी प्रशासन पर बहुत गहरी है. और चुनाव से लेकर नीति-निर्धारण तक में उसका दखल रहता है (खुला नहीं तो गुपचुप). पर इसके मूल में जो समस्या है वह है एक कॉर्पोरेशन का चरित्र, जो कि अमेरिकी कानून ने निर्धारित किया है.
कॉर्पोरेशन यानी पैसे कमाने की मशीन. ऐसी मशीन जिसका निर्माण एक और सिर्फ़ एक उद्देश्य से हुआ है - अपने लिए अधिक से अधिक (सीमारहित) पैसा कमाना. मुसीबात ये है कि मशीन जैसे ढाँचे, असहिष्णुता, और असंवेदनशीलता के बावजूद अमेरिकी कानून में इसे वही अधिकार प्राप्त हैं जो एक व्यक्ति को हैं. हालिया वृत्तचित्र द कॉर्पोरेशन, जिसे शायद आपने भी देखा हो, इसी विडम्बना की कहानी कहता है.
जहाँ तक बात है अमेरिकी प्रशासन की तो इसके दोगले चरित्र को जानने के लिए न आरसी देखने की ज़रूरत है न फ़ारसी जानने की. ओसामा से लेकर सद्दाम तक कई ऐसे रहे हैं जिसको इसने पाला भी और फिर मारा/दुत्कारा भी. मुशर्रफ़ इसी कड़ी में अगले हों तो अचरज नहीं. लोकतंत्र की दुहाई और अलोकतांत्रिक तरीकों को समर्थन, ऐसा खुला दुमुँहापन देखने के बाद क्या सिद्ध करना रह जाता है.
लेकिन. यही अमेरिका नहीं है. अमेरिका न केवल अमेरिकी सरकार है न अमेरिकी कॉर्पोरेट जगत. और अक्सर जब हम अमेरिका को गरियाते हैं तो लपेटे में सभी को ले लेते हैं. सामान्यीकरण का एक दूसरा नुकसान यह है कि हमें बुरे बनाए आदमी में अच्छी बातें दिखनी ही बंद हो जाती हैं. आपने अच्छा किया यह स्पष्ट करके कि आप जिसे गरियाते हैं वह अमेरिकी कॉर्पोरेशन से है. आगे के लेखों का इंतज़ार रहेगा. ऑब्जेक्टिविटी बनाए रखिएगा.
अमेरिका को गरियाये जाने की हज़ार वजहें हैं. पर अपने ख़राब हाजमे के लिए अमेरिका को गरियाना तो बेवकूफ़ी होगी. हाँ अगर आपने 'मैकडॉनल्ड' में खाया हो तो अलग बात है :).
सवाल बेरोज़गार के रोने का नहीं है.. सवाल उस पर सरकार के रेस्पॉन्स का है..उसी ने चुनी है सरकार ..मगर एक बार ग़लती करके जीवनभर भुगतने के सजा तो भगवान भी नहीं देता..और बुश के चुनाव तो एक अलग ही इतिहास है..और फिर इस पूरे चुनाव में मीडिया किस प्रकार की भूमिका निभाता है किस से छिपा है..और हो सकता है कि सब कुछ के बावजूद वो फिर उसी को चुने.. हमारे यहाँ भी इतनी नंगई के बाद कॉन्ग्रेस फिर नहीं आएगी इसकी क्या गारन्टी है.. और कौन आयेगा दूसरा..विकल्प ही क्या हैं हमारे पास.. सब तो यही करने वाले हैं..
द कॉर्पोरेशन यहाँ ऑनलाइन पूरी देखें http://video.google.com/videosearch?q=the+corporation दो भाग में ।
On the same point, you must watch a couple of moveis "The Corporation" and "Why We Fight." You will get to know some more startling truths about USA (Corporate World). Also there is movie about how the food AID from rich countries make the poor countries poorer. Would like to know more of your thoughts about these movies.
लिखते रहिये। हम पढ़ रहे हैं!
बहुत उम्दा लेख। सार्थक बहसों का हमेशा स्वागत है।
"आपको समझना चाहिये कि वो आपका हितैषी नहीं हो सकता.. अगर वो किसी का हित चाहेगा तो अपने देश वासियों का.. क्या आप अमरीकी हैं..? नहीं.. आप भारतीय हैं..एक भारतीय होने के नाते आप को चाहिये जो शक्तियां आपके देश के हित में नहीं है उनके प्रति सावधान रहें.. और दूसरों को भी सावधान करें.."
बहुत ही सही बात कही है। अमेरिका को दुनिया में किसी से मोह नहीं। जिससे उसका काम निकलता हो वह उसी का इस्तेमाल करता है, काम निकलने के बाद उसका भी मित्र नहीं।
बिलकुल सही जगह क़लम चलाया है आपने - भाई ये अंदर की बातें पब्लिक सब जानती है। ख़ुद अमेरिका मे रहने वाले बाहर निकलने की ताक मे हैं।
बहुत अच्छा लिखा है। आपकी बहुत सी बातों से सहमत हूँ, किन्तु सभी की तरह अमरीका में भी गुण व दोष दोनों हैं। आवश्यकता है उसके गुणों को अपनाने की व दोषों पर आप जमकर वार करें। किन्तु क्या यह अच्छा न होगा कि इस सबसे पहले हम अपने समाज, राष्ट्र और उससे भी पहले अपने दोषों पर गौर करें?
मैं एक बार फ़िर आपसे व अन्य सभी से निवेदन करूँगी कि विवाद मुद्दों व विचार धाराओं पर ही हों न कि किसी व्यक्ति विशेष पर।
धन्यवाद।
घुघूती बासूती
मैंने आपकी माताजी की कविता पर भी आज टिप्पणी की है। कविता बहुत सुन्दर है।
घुघूती बासूती
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