राम बेघर हैं.. काफ़ी सालों से बेघर हैं.. कहाँ रहें राम .. ये बड़ा प्रश्न है.. कुछ लोग मानते हैं कि राम अयोध्या में रहें.. अयोध्या.. राम की जन्म स्थली अयोध्या.. अ-योध्या.. जिसके साथ युद्ध न किया जाय.. या जहाँ युद्ध न किया जाय.. ठीक ठीक क्या अर्थ होगा ये तो कोई निपुण भाषा वैज्ञानिक ही बता सकेगा.. पर इतना तो समझ आता है कि इसका अर्थ युद्ध के नकार से है... अयोध्या का एक दूसरा नाम भी है जिसका अर्थ एकदम स्पष्ट है.. अवध.. अ-वध...जहां वध हो ही ना.. राम का जन्म स्थल अवध.. बड़े लोग कृतसंकल्प हैं.. राम को अवध वापस भेजने के लिये..
मगर राम ने अयोध्या में रहने के लिये कहाँ जन्म लिया था.. जन्म तो लिया था अपने भक्तों को इच्छा पूरी करने के लिये.. बिप्र धेनु सुर साधु हित, लीन्ह मनुज अवतार।.. विप्र, गौ देवता और संतों के हित के लिये ही भगवान ने मनुष्य रूप धारण किया..(विप्र का अर्थ आम तौर पर ब्राह्मण होता है.. मगर मानस मर्मज्ञ रामकिंकर उपाध्याय का मत भी विचारणीय है ..." विप्र समाज का मूर्धन्य है; वह विचार प्रधान है"..वो कहते हैं..."जिस समाज में विचार और विवेक की अवहेलना होती है, वह समाज पतन की दिशा में उन्मुख होता है। किन्तु वह विचार और समाज केवल अपने अहंकार के लिये नहीं, अपितु लोक मंगल के लिये कार्य कर रहा हो , यह आवश्यक है")
तो राम ने जन्म लिया और पहला मौका मिलते ही अयोध्या छोड़ दिया.. क्योंकि उनको तो युद्ध करना था और अयोध्या में युद्ध कैसे होगा.. तो अयोध्या से निकले और उनके सामने भी यही प्रश्न उपस्थित हो गया.. कहाँ रहें? अयोध्या से निर्वासित किये जाने के बाद .. राम भटक रहे हैं.. ऋषि वाल्मीकि के आश्रम में पहुँचते हैं.. बैठ कर सांस लेने के बाद राम ऋषि वाल्मीकि से कहाँ रहें के सवाल पर मशविरा करते हैं.. और देखिये क्या कहते हैं वाल्मीकि..
पूँछेहु मोहि कि रहौं कहँ मैं पूँछत सकुचाउँ।
जहँ न होहु तहँ देहु कहि तुम्हहि देखावौँ ठाउँ॥
आप मुझसे मुझसे पूछ रहे हैं कि कहाँ रहूँ.. और मुझे आपसे ये पूछते हुये संकोच हो रहा है कि आप मुझे वो स्थान बताइये कि आप जहाँ न हो तो मैं आप को वही स्थान बता दूं कि आप वहाँ रहिये..
राम मुस्कुराते हैं वाल्मीकि जी हँसते हैं और फिर मधुर अमिअ रस बोरी बानी से कहते हैं..
सुनहु राम अब कहउँ निकेता। जहाँ बसहु सिय लखन समेता।।
जिन्ह के श्रवन समुद्र समाना। कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना।।
भरहिं निरंतर होहिं न पूरे। तिन्ह के हिय तुम्ह कहुँ गृह रूरे।।
लोचन चातक जिन्ह करि राखे। रहहिं दरस जलधर अभिलाषे।।
निदरहिं सरित सिंधु सर भारी। रूप बिंदु जल होहिं सुखारी।।
तिन्ह के हृदय सदन सुखदायक। बसहु बंधु सिय सह रघुनायक।।
दो0-जसु तुम्हार मानस बिमल हंसिनि जीहा जासु।
मुकुताहल गुन गन चुनइ राम बसहु हियँ तासु।।128।।
प्रभु प्रसाद सुचि सुभग सुबासा। सादर जासु लहइ नित नासा।।
तुम्हहि निबेदित भोजन करहीं। प्रभु प्रसाद पट भूषन धरहीं।।
सीस नवहिं सुर गुरु द्विज देखी। प्रीति सहित करि बिनय बिसेषी।।
कर नित करहिं राम पद पूजा। राम भरोस हृदयँ नहि दूजा।।
चरन राम तीरथ चलि जाहीं। राम बसहु तिन्ह के मन माहीं।।
मंत्रराजु नित जपहिं तुम्हारा। पूजहिं तुम्हहि सहित परिवारा।।
तरपन होम करहिं बिधि नाना। बिप्र जेवाँइ देहिं बहु दाना।।
तुम्ह तें अधिक गुरहि जियँ जानी। सकल भायँ सेवहिं सनमानी।।
दो0-सबु करि मागहिं एक फलु राम चरन रति होउ।
तिन्ह कें मन मंदिर बसहु सिय रघुनंदन दोउ।।129।।
काम कोह मद मान न मोहा। लोभ न छोभ न राग न द्रोहा।।
जिन्ह कें कपट दंभ नहिं माया। तिन्ह कें हृदय बसहु रघुराया।।
सब के प्रिय सब के हितकारी। दुख सुख सरिस प्रसंसा गारी।।
कहहिं सत्य प्रिय बचन बिचारी। जागत सोवत सरन तुम्हारी।।
तुम्हहि छाड़ि गति दूसरि नाहीं। राम बसहु तिन्ह के मन माहीं।।
जननी सम जानहिं परनारी। धनु पराव बिष तें बिष भारी।।
जे हरषहिं पर संपति देखी। दुखित होहिं पर बिपति बिसेषी।।
जिन्हहि राम तुम्ह प्रानपिआरे। तिन्ह के मन सुभ सदन तुम्हारे।।
दो0-स्वामि सखा पितु मातु गुर जिन्ह के सब तुम्ह तात।
मन मंदिर तिन्ह कें बसहु सीय सहित दोउ भ्रात।।130।।
अवगुन तजि सब के गुन गहहीं। बिप्र धेनु हित संकट सहहीं।।
नीति निपुन जिन्ह कइ जग लीका। घर तुम्हार तिन्ह कर मनु नीका।।
गुन तुम्हार समुझइ निज दोसा। जेहि सब भाँति तुम्हार भरोसा।।
राम भगत प्रिय लागहिं जेही। तेहि उर बसहु सहित बैदेही।।
जाति पाँति धनु धरम बड़ाई। प्रिय परिवार सदन सुखदाई।।
सब तजि तुम्हहि रहइ उर लाई। तेहि के हृदयँ रहहु रघुराई।।
सरगु नरकु अपबरगु समाना। जहँ तहँ देख धरें धनु बाना।।
करम बचन मन राउर चेरा। राम करहु तेहि कें उर डेरा।।
दो0-जाहि न चाहिअ कबहुँ कछु तुम्ह सन सहज सनेहु।
बसहु निरंतर तासु मन सो राउर निज गेहु।।131।।
संक्षेप में बात यह है कि राम अपने भक्तों के हृदय में निरन्तर निवास करें ऐसा बाल्मीकि का निवेदन है..
एहि बिधि मुनिबर भवन देखाए। बचन सप्रेम राम मन भाए॥
कह मुनि सुनहु भानुकुलनायक। आश्रम कहउँ समय सुखदायक॥
मुनि ने राम को सब स्थान बता दिये.. राम को बात पसन्द आई फिर मुनि ने कहा कि हे सूर्यवंशी राम अब मैं आपको समय काटने के लिये रहने का स्थान बताता हूँ..
और राम को चित्रकूट का पता देते हैं.. राम वहां रहते हैं .. पंचवटी रहते हैं.. वो जहां जाते हैं.. जहां से गुज़रते हैं.. तीर्थ बनता जाता है.. हमारे पूरे देश में राम के चिह्न अंकित हैं.. राम इस देश के चप्पे चप्पे में बसे हुये हैं..जन जन के मन में बसे हुये हैं.. मगर फिर भी ये प्रश्न बना रहता है राम बेघर हैं और उन्हे अवध वापस भेजना है.. ये बात मेरे गले नहीं उतरती कि पूरे देश में तो मॉल बनें.. और एक अवध में मन्दिर.. बाल्मीकि ने तो कुछ और ही कहा था..
काम कोह मद मान न मोहा।
लोभ न छोभ न राग न द्रोहा।।
जिन्ह कें कपट दंभ नहिं माया।
तिन्ह कें हृदय बसहु रघुराया।।
काम, क्रोध, मद, मान, मोह, लोभ, क्षोभ, राग, द्रोह.. कपट, दंभ, माया .. पूँजीवादी मॉल संस्कृति इन्ही स्तम्भो पर तो खड़ी है..इन सब को जगह है सब के हृदय में.. और मेरे राम के लिये बस एक अवध का गर्भगृह ही बचा है.. ये कहां का इन्साफ़ है कि राम को मन से निकाल कर और पूरे देश से खदेड़ कर एक अवध के गर्भगृह में क़ैद कर दिया जाय.. ?
24 टिप्पणियां:
वाह क्या बात है । कैलेंडरों के अलावा और अकबर के पहले के मन्दिर , शिल्प अथवा चित्र में राम कहाँ-कहाँ हैं ?
रामनवमी के अवसर पर इतनी सुन्दर भेंट के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद।
उपर्युक्त प्रसंग महर्षि भारद्वाज के साथ श्रीराम के संवाद का है, न कि महर्षि बाल्मिकी के साथ। महर्षि भारद्वाज ने ही श्रीराम को चित्रकूट में निवास करने की सलाह दी थी। महर्षि बाल्मिकी तो सीता के परित्याग के समय कथा में आते हैं।
प्रिय अभय जी
अति सुंदर. मन प्रसन्न कर दिया आपने सुबह-सुबह, दिन बना दिया. ज़ोरे कलम हो और ज़ियादा...क्या बात है. इसे कहते हैं निर्मल आनंद.
अनामदास
बाल्मीकि ही हैं..
देखत बन सर सैल सुहाए। बालमीकि आश्रम प्रभु आए।।
राम दीख मुनि बासु सुहावन। सुंदर गिरि काननु जलु पावन।।
सरनि सरोज बिटप बन फूले। गुंजत मंजु मधुप रस भूले।।
खग मृग बिपुल कोलाहल करहीं। बिरहित बैर मुदित मन चरहीं।।
दो0-सुचि सुंदर आश्रमु निरखि हरषे राजिवनेन।
सुनि रघुबर आगमनु मुनि आगें आयउ लेन।।124।।
भरद्वाज तो कथा सुन रहे हैं.. याज्ञवल्क्य से..
अभय जी
मैं शिल्पी जी सहमत हूं यह सम्वाद महर्षि भारद्वाज व श्री राम जी के मध्य है...
सुन्दर वर्णन के लिये अभिनन्दन स्वीकारें
ज़रूर होइये सहमत..हक़ बनता है आपका.. मगर एक बार आप पोस्ट में उद्धरित अंश देखिये.. १२८ से १३१ तक.. फिर १२४ वें दोहे के पहले बाल्मीकि आश्रम में पहुंचने का ज़िक्र मैंने ऊपर किया है.. फिर भी आप को लगता है मैं कुछ ग़लती कर रहा हूँ .. तो तुलसी दास से भी एक बार पूछ लीजिये.. और घर जाकर मानस उठा के देख लीजिये..
बंधुवर,
कहीं ऐसा तो नहीं कि आप दोनों ही तरफ के लोग गलत सोर्स उद्धृत कर रहे हों? बाल्मिकी व भरद्वाज की जगह संवाद दरअसल अरुण गोविल और रामानंद सागर के बीच हुआ हो? एक डाऊट व्यक्त कर रहा हूं, अन्यथा न लिया जाए.
@ अभय जी,
मानस का जो उद्धरण आपने दिया है वह बिल्कुल सही है। गोस्वामी तुलसीदास उक्त प्रसंग में श्रीराम को वाल्मिकी आश्रम में दिखाते हैं। उस बारे में आपकी सुदृढ़ धारणा सर्वथा जायज है। किन्तु मैंने जो कहा, वह भी निराधार नहीं है।
वाल्मिकी रामायण में ऐन उसी प्रसंग में भारद्वाज ऋषि के साथ संवाद होने का वर्णन है। अब गोस्वामी जी से चूक होने की बात तो सोची भी नहीं जा सकती। आप ही बताइए, जब वाल्मिकी और तुलसीदास की राम-कथाओं में तथ्य संबंधी यह अंतर दिखाई दे तो आप किस पर भरोसा करेंगे। आप चाहें तो यह लिंक देख सकते हैं या मूल वाल्मिकी रामायण पलट सकते हैं।
ऐसा भ्रम हो जाना स्वाभाविक है..हरि अनंत हरि कथा अनंता..
और तुलसी ने एक जगह और भी कहा है..
कलपभेद हरि चरित सुहाये। भाँति अनेक मुनीसन्ह गाये॥
मेरा कहना सिर्फ़ इतना था कि मैं जिस स्रोत से उद्धरित कर रहा हूँ.. वहाँ संवाद वाल्मीकि से ही है.. और वाल्मीकि रामायण में भरद्वाज सिर्फ़ चित्रकूट जाने की सलाह देते हैं.. इस प्रकार से भक्तों के हृदय में रहने की कोई बात होती ही नहीं..
कई लोग ऐसा मानते हैं कि आदि कवि होने की बदौलत वाल्मीकि ही रामकथा के मूल रचियता हैं..जो कि सही नहीं है.. तथ्य ये है कि वाल्मीकि ने अपनी रामायण में शुरुआत ही नारद से प्रश्न पूछ कर की है..
कोन्वस्मिन साम्प्रतं लोके गुणवान कश्च वीर्यवान।
धर्मज्ञश्च कृतज्ञश्च सत्यवाक्यो दृढ़व्रतः॥
और जवाब में नारद उन्हें राम की कहानी सुनाते हैं..सबब यह है कि वाल्मीकि से पहले भी ये कथा श्रुति में प्रचलित थी.. तो कौन है इसका रचियता.. इसका जवाब हमें तुलसी की राम चरित मानस में मिलता है..
संभु कीन्ह य्ह चरित सुहावा। बहुरि कृपा करि उमहिं सुनावा॥
सोई सिव कागभुसुंडिहि दीन्हा। रामभगत अधिकारी चीन्हा॥
तेहि सन जागबलिक पुनि पावा। तिन्ह पुनि भरद्वाज प्रति गावा॥
आगे कहते हैं..
रचि महेस निज मानस राखा। पाइ सुसमउ सिवा सन भाषा॥
तातें रामचरितमानस बर।धरेउ नाम हिय हेरि हरषि हर॥
मूल रचियता शंकर है..इसपर राम किकंर जी की एक सुन्दर और विस्तृत व्याख्या है पढ़े उनकी पुस्तक मानस मुक्तावली में..
राम कथा के मूल रचयिता महादेव शंकर हैं, यह सभी मानते हैं और मूल कथा पार्वती-महादेव संवाद के रूप में है। राम कथा का असली मर्म तो महादेव ही सच्चे जिज्ञासुओं को समझाते हैं। सबके अपने-अपने राम हो सकते हैं और वे सभी एक साथ सही हो सकते हैं।
लेकिन जब कथा के तथ्य की बात आएगी तो वाल्मिकी रामायण ही मुख्य आधार है, क्योंकि पहली बार उन्हीं के माध्यम से राम कथा जनसुलभ हुई। हालांकि हनुमान जी ने उनसे पहले राम कथा लिख ली थी और उनकी रामायण उससे अधिक श्रेष्ठ और सुन्दर थी, किन्तु वाल्मिकी जी को श्रेय देने के लिए उन्होंने अपनी रामायण को जल-प्रवाहित कर दिया।
चाहें तो हम लोग और महीन चर्चा भी कर सकते हैं पर आप को नहीं लगता कि मेरे लेख का विषय कहाँ रहें राम..हमारे इस चर्चा से भिन्न था.. मेरा मूल आशय राम के निवास के प्रति है..वह कहाँ हो?
उक्त विषय पर मेरे लेख कबीर के राम को भी आप देख सकते हैं, जो तुलसी की राम-विषयक अवधारणा से भिन्न भाव-बोध पर आधारित है।
मैं अवश्य पढ़ूंगा आपका लेख.. और आपको इस विषय पर और विस्तार से लिखना चाहिये..आपके पास तमाम ऐसी सूचनायें और विश्लेषण होंगे जिनसे मैं अनजान हूँ..
सबसे अच्छा रहा अभय तिवारी-सृजन शिल्पी संवाद। पढ़ कर मज़ा आ गया। किसी तथ्य को खोजने के बजाय आप लोग ऐसे ही संवादरत रहें। लोकगाथाओं के उत्स के तथ्य को लेकर शंकर और हनुमान के स्रोत का उल्लेख मुझे नासमझी लगती है। क्योंकि शंकर कौन थे, इस पर संशय है... और हनुमान ने अपनी जिस रामायण को जलप्रवाहित किया, वो सचमुच कुछ लिखा हुआ था, या यूं ही सादे तालपत्र- इसको सृजनशिल्पी कैसे सिद्ध करेंगे। बेहतर हो किसी लोकगाथा के बारे में चर्चा पूरी ऐतिहासिकता के साथ करें। हमारी भाषाओं के महान साहित्य को वायवीय संदर्भों में समझने की कोशिश न करें।
@ अविनाश,
मूल में ही प्रमाद कर गए मित्र। श्रद्धा - विश्वास रूपी भवानी -शंकर के बारे में संदेह व्यक्त करके राम कथा पर संवाद कर सकने की अपनी अपात्रता /कुपात्रता जाहिर कर चुके हो। तुम्हारी समझ स्वयं दया की पात्र लगती है। दूसरों की समझ की चिंता छोड़ अपनी चिंता कर लो। ईश्वर तुम्हें सदबुद्धि दे!
इतिहास और तथ्य का रास्ता श्रद्धा और विश्वास से अलग है। मुझे इसी रास्ते पर रहने दें। आप पूजा पाठ में लगे रहें। एक सलाह- रामकथा पर लौकिक संवाद करें, अलौकिक-अमूर्त संवाद नहीं।
राम कथा को अपने दायरे में समेट सके, यह हैसियत 'तथाकथित तथ्यवादी' इतिहास और पत्रकारिता की न तो है और न हो सकती है। रही बात राम कथा के संदर्भ में लौकिक संवाद करने की तो इसके लिए पहले आप मेरे उस लेख को पढ़ लें जिसका जिक्र ऊपर मैंने किया है।
इत्मीनान रखिए, आप-जैसे हजार अविनाश यदि राम के संदर्भ में लौकिक संवाद करने के लिए सम्मुख हों तब भी मैं किसी को निराश नहीं करुंगा। लेकिन यहाँ नहीं, निर्मल-आनंद से भरे अभय तिवारी जैसे चिट्ठाकार को दु:खी करने का मेरा कोई इरादा नहीं। आप मेरे उक्त लेख को पढ़ने के बाद जो संवाद करना चाहते हों, वहीं करें। आइए, मैं इंतजार कर रहा हूँ।
अभय, यही दिक्कत है - आप कलम वाले लोग कलम से खेलते है. अपने नये घर में हम सबसे सुन्दर स्थान पर पूजा गृह बनाते हैं. राम को वहां बिठाते हैं - इसका मतलब राम को वहां कैद करते हैं?
अयोध्या में टैन्ट में राम लला को देख टीस होती है. मथुरा में कोने में कगरियाये कृष्ण जन्म स्थान को देख खिन्नता होती है.
और मुझपर वी.एच.पी. का लेबल चिपकाने का यत्न न कीजियेगा.
आप राम लला का मन्दिर बनायें.. ज़रूर बनायें.. लेकिन हिंसा और नफ़रत का तांडव करके बनायेंगे तो राम जी पहले ही निकल जायेंगे..भगवान हीन मंदिर का क्या करेंगे.. मंदिर वह फिर भी होगा..पर राक्षसी..लंका में हनुमान राक्षसों के जिन भवनों में सीता मैया को खोज रहे हैं..उन्हे भी तुलसी ने मंदिर ही लिखा है.. मंदिर मायने सिर्फ़ भवन ..राम तो पूरे समाज के एकीकरण का कार्य करते..सबको गले लगाते चलते हैं..और उनके भक्त ऐसे काम करें कि मन ईश्वर से हटकर हिंसा में लिप्त हो जाय.. क्या वह ठीक है?..ना वहाँ मंदिर बन जाने से राम मिल जायेंगे.. और ना वहाँ नहीं बनने से नहीं मिलेंगे.. लेकिन यदि मन में नहीं हैं राम तो क्या मिलेंगे भगवान..? और एक बार मन में बैठ गये तो फिर ये दुनिया ऐसी ही दिखेगी जैसे अभी दिख रही है..इसमें शक़ है..ये है मेरी बात..आशा है कह पाया हूँ..
एक अच्छा और विचारणीय मुद्दा उठाया है अभयजी ने। कदाचित कुछ समझदार बंधुगण इतिहास के पन्नों में खोकर आपकी इस प्रविष्टि में छूपी वर्तमान के लिए व्यथा को समझने में असमर्थ रहें।
कहाँ रहे राम?, इस सवाल के पिछे आपकी वर्तमान राजनीती को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश में सपष्ट देख पा रहा हूँ। सचमुच यह विडम्बंना की ही बात है कि अयोध्या मुद्दे पर सभी योद्धा बनने का प्रयास कर रहें है और राम के नाम पर संग्राम किया जा रहा है, समाधान नहीं।
राम-मंदिर बनें, अवश्य बने, मगर क्या जो यह करने का वादा कर रहें है उनकी मंशा सचमुच मंदिर निर्माण की हैं या फिर.... विचार हमें ही करना होगा अन्यथा कहा रहें राम? प्रश्न, प्रश्न ही बना रहेगा।
बहुत ही अच्छा लिखा है आपने अभयजी, शुक्रिया।
मै खुद को कृतार्थ महसूस कर रहा हू कि इन ज्ञानियो की संगत मुझे प्राप्त है
गुरुदेव आप तो मानस मर्मज्ञों और हिंदी के तमाम अध्यापकों की तोंद पर पदाघात करने की तैयारी में दिख रहे हैं । यह बात औरों को भी भयातुर कर सकती है, जिनका धंधा चौपट करने पर आमादा हैं आप उनको भी यह सब पढ़वाना चाहिए। जय हो ।
गनीमत है ईसू क्रीस्त तारीखवार , ईहास में दर्ज तो हो गये और मुहम्मद भी
हमारे राम और कृष्ण , हमारे आराध्य , बने और समस्त भारतीय मानस को
एकसूत्र में पिरोयें , क्या ये महज दिवा - स्वप्न ही रहेगा अभय भाई ?
और प्रमोद भाई को
आपने उत्तर नहीं दिया ?
;-)
स - स्नेह,
- लावण्या
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