सोमवार, 12 मार्च 2007

बता के नहीं आता बुरा समय


पर जब आता है तो अतिथि की तरह आता है..बिना किसी सूचना के..बिना किसी नियत तिथि के.. अगर नियत होती भी होगी पर मुझे नहीं पता होती.. वो आता है और पसर कर पूरे मानस पर अधिकार कर लेता है और मेरे अस्तित्त्व के लिये कोई स्वतंत्र देश नहीं छोड़ता। यूँ तो अच्छा समय भी कब बता के आता है..और जब भी आता है देर से ही आता है..उसका इन्तज़ार तो हम जाने कब से कर रहे होते हैं.. आ जाने पर भी ठीक से यक़ीन नहीं होता है कि ये अच्छा समय ही है.. कहीं उसके भेस में कोई बहुरुपिया तो नहीं.. अब आये हो तो सब कामनाएं पूरी कर के जाओ.. और जाने की बात तो फ़िगर ऑफ़ स्पीच है.. जाने की तो बात ही मत करो..मेरे जीवन को अपना ही घर समझो.. अब यहीं रहो.. वो कुछ नहीं बोलता मूक रहता है.. मैं इसे उसकी मौन स्वीकृति समझता हूँ.. और ये भी मान लेता हूँ कि ये जाने वाला नहीं.. पर थोड़े ही समय में.. मुझे वो असंतुष्ट करने लगता है.. मैं उसकी कार्यप्रणाली से खुश नहीं रहता.. तो बीच बीच में उसके काम को इग्नोर मारता हूँ, उपेक्षा करता हूँ.. और मैं और अच्छे की कामना में व्यस्त रहता हूँ.. उस अच्छे समय के बीच भी तमाम छोटी मोटी बुरी, दिल को अखरनें वाली बातें होती रहती हैं..पर परिघटना नहीं बनती.. तब तक और अच्छे की कामना जारी रह्ती है.. फिर जैसे ही कोई प्रतिकूल बात एक परिघटना का रूप ले लेती है.. मैं अपने अच्छे समय से इसकी जवाबदेही चाहता हूँ.. मगर बहुत खोजने पर भी वो नदारद रहता है... और एक रोज़ अचानक मुझे अपने जीवन में एक और उपस्थिति का भान होता है.. जो आ तो पहले ही गया था पर मैं देखने से लगातार चूक रहा था.. मेरी अपनी कामनाएं मेरे जगत पर इतनी हावी होती है कि मैं अपने जगत के सच्चाईयों को देखने में चूकता रहता हूँ... और बुरा समय दूर से आने की सूचनाएं दे भी रहा होता है तो भी मैं अपनी कामनाओं के शोर में उसकी आवाज़ सुन नहीं पाता..
तस्वीर: रॉन रॉथ्मैन से साभार

5 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

अच्छा हुआ आपका पन्ना देख लिया नहीं तो चोरी करने का आरोप लग जाता, यही सोच रहा था कि ब्लॉग शुरू करूँगा तो सुधिजनों से जीवन-मृत्यु,सुख-शांति, आनंद-पीड़ा के मायने-मतलब पूछूँगा...अकेले कितना ढूँढेगे, कितना पाएँगे...बहरहाल, जवाब मैं अपने पन्ने पर तसल्ली से लिखूँगा लेकिन सवाल बहुत दिलचस्प हैं...आपसे मिलकर खुशी हुई.
अनामदास

बेनामी ने कहा…

रूमी वाला पन्ना तो देखा ही नहीं था भाई,बहुत सबाब का काम कर रहे हैं...भाई अगर आप ज़बाने अमोज़िश यानी फ़ारसी भी जानते हैं तो क्या कहने...हमारा दम तो उर्दू सीखने में ही फूल गया...पिछले पोस्ट में मेरी मुराद आपके पाँच सवालों से थी जो आपने पाँच मानिंद लोगों से पूछी है...पता नहीं उन्होंने कुछ लिखा कि नहीं लेकिन इन सवालों के बारे लिखने से ज़्यादा ज़रूरी सोचना है लेकिन सोचने से भी क्या होगा...ऐसा क्या सोचेंगे...भाई यह रूमी वाला सिलसिला आगे बढ़ाइए और हो सके तो शेख़ सादी या दूसरे सूफ़ी महापुरूषों के काम से वाकिफ़ कराइए...एहसान मानूंगा.
अनामदास

azdak ने कहा…

अगली दफा आये (बुरा नहीं अच्‍छा) तो ज़रा चांप के दाबे रखना, कुछ ढंग से तोडाई करते हैं. हमारे यहां आने में ससुर बहुत समय से नौटंकी खेल रहा है. बुरे का मत बताओ, उसे तुम अपनी ही धोती और हरमोनियम पर सहेजकर रखो. इतना यहां और वहां, बर्तन में भंडुकी में लुकाये बैठा है कि उसकी सोच कर ही सांस फूलने लगती है.

Pramendra Pratap Singh ने कहा…

अापने हर वयक्ति के मन की बात कह दी बधाई

ghughutibasuti ने कहा…

अभय जी, बात बहुत सही कही आपने । यह वर्तमान के सुख से और अधिक सुख पाने की कामना जो सुख है उसे भी नहीं भोगने देती । बहुत अच्छा लिखा है ।
घुघूती बासूत

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