सालों तक मैं इस मसले पर अपनी कोई राय नहीं बना पाया कि हमे भीख देनी चाहिये कि नहीं.. अक्सर इस सोच से भी प्रभावित हुआ कि हम भीख दे कर भिखारी प्रवृत्ति को बल दे रहे हैं.. और दुत्कार और डांट के द्वारा उनके भीतर के आत्म-सम्मान को जगा कर उन्हे सही रास्ता दिखाने में हम योगदान कर सकते हैं.. लेकिन रहीम के एक दोहा का अर्थ समझ कर मेरी सोच अब काफ़ी दिनों से एक जगह पर टिकी हुई है.. "रहिमन वे नर मर चुके जे कुछ माँगन जायँ, पर उनते पहले वे मुये जिन मुख निकसत नायँ"। अब अगर मुझसे कोई भीख माँगता है तो मैं ज़रूर देता हूँ.. मना नहीं करता.. मैं कौन होता हूँ किसी को जज करने वाला उसे सही रास्ता दिखाने वाला.. वो जो मुझसे माँग रहा है वो तो मैं दे नहीं रहा उलटे दुत्कार रहा हूँ.. जानता क्या हूँ मैं उसके जीवन के बारे में.. उसके हालात के बारे में.. मैं उसके लिये कुछ भी करने को तैयार नहीं.. एक नज़र देखने को भी तैयार नहीं.. दो मिनट बात करने को तैयार नहीं.. करने को तो बहुत कुछ किया जा सकता है उनके लिये.. लेकिन मुझ में उतना बूता नहीं.. जो मैं कम से कम कर सकता हूं वो यह कि वो जो माँग रहा है वो मैं दे दूँ.. और मैं यही करता हूँ।
मगर अब सरकार मुझे और आप को ऐसी किसी भी दुविधा से सुरक्षा प्रदान करने का मन बनाने का ऎलान कर रही है, क्यों? ऐसा करने के पीछे तर्क यह है कि भीख मांगने वाले बच्चों का बचपन नष्ट किया जा रहा है.. उनके ग़ैर ज़िम्मेदार मां-बाप द्वारा, और उनसे ज़बरिया भीख मंगवा कर अपनी जेबें भर रहे भिखारी माफ़िया द्वारा। सरकार की ये चिन्ता बड़ी मासूम और संवेदनशील नज़र आती है, लेकिन जिस प्रकार के गुण्डे, मक्कार और लुटेरे इस सरकार को चला रहे हैं.. उनसे किसी भी संवेदनशीलता की उम्मीद नहीं की जा सकती। सवाल उठता है कि मासूम बच्चो के हित के अलावा इसमें और क्या प्रयोजन छिपा हो सकता है..?
एक छोटी सी सूचना और देना चाहूँगा; पिछले दिनों मुम्बई में एक नया नियम लागू हुआ है.. अगर आपके पास बैंक अकाउन्ट नहीं है तो आपक राशन कार्ड रद्द कर दिया जायेगा। आप बैंक में जाइये तो वो आपसे आई डी प्रूफ़ और एड्ड्रेस प्रूफ़ मांगेगे। अगर नहीं है तो आपका एकाउन्ट नहीं खुलेगा। तो इस कैच २२ सिचुअशन को पैदा करने के पीछे सोच क्या है? क्या सरकार जानती नहीं कि हमारे देश मे कितनी बड़ी संख्या मे लोग दिहाड़ी मजूरी करते हैं... और साल के कई रोज़ फ़ाके भी करते हैं.. और शहर में रहने वाले लोग भी इस तादाद मे शामिल हैं..? कहीं ये सरकार उन तमाम छोटे मोटे धन्धे करने वाले विस्थापितों को हतोत्साहित तो नहीं करना चाहती है.. जो अपने मूल स्थान में रोजी रोटी के साधन टूट जाने के कारण अपना घर-बार छोड़कर भारी मन से बड़े शहरों की ओर रुख करते हैं.. और दूर दराज़ के इलाक़ों में, पुलों के नीचे, या चौराहों के आस पास झोपड़ पट्टी बना के रहते हैं? वे अमानवीय स्थितियों मे रहना कबूल करते हैं.. क्योंकि उनके पास जाने के लिये कोई और जगह नहीं है..। और इन्ही विस्थापित लोगों के बच्चे माँ-बाप की अनुपस्थिति मे भीख मांगना शुरु कर देते हैं.. या भीख माफ़िया द्वारा पकड़ लिये जाते हैं (तस्वीर का ये पहलू एक पूरे स्वतन्त्र शोध की मांग करता है) मगर ये भिखारी नहीं हैं.. ये विस्थापित लोग हैं.. जिनका शायद एक सुसम्पन्न सांसकृतिक इतिहास है.. जिस से हम पूरी तरह अपरिचित हैं.. और वो बच्चे भी रहेंगे जो मुम्बई जैसे शहर की आबोहवा मे पल के बड़े होंगे और "मैं बोला ना.. देता है क्या" जैसी ज़बान सीखेंगे..
आम तौर पर ये लोग कन्स्ट्रक्शन इन्डस्ट्री मे दिहाड़ी के मज़दूरी का काम करते हैं। बिल्डर माफ़िया को इन सस्ते मज़दूरों की उपस्थिति से फ़ायदा होता है। इसीलिये ये अविरत गति से मुम्बई या दूसरे बड़े शहरों मे अभी तक आते रहें हैं, बावजूद इसके कि संभ्रान्त वर्ग हमेशा इनकी उपस्थिति से नाक भौं सिकोड़ता रहा है। मगर उससे सरकार को कोई फ़रक नहीं पड़ा। वो कन्स्ट्रक्शन माफ़िया से मिलने वाली तोहफ़ों का द्वार बन्द नहीं करना चाहती थी। और फिर बिल्डिंगे नहीं बनेंगी तो बाकी व्यापार कैसे फले फूलेगा..? तो इनके आगमन पर रोक लगाना सब के लिये घाटे का सौदा था.. तो लोग आते रहे और झुग्गी झोपड़ियां फलती फूलती रहीं... अगर ये सब कुछ ऐसा ही है जैसा मैं लिख रहा हूं तो आज सरकार को क्या ज़रूरत है कि कन्स्ट्रक्शन इन्डस्ट्री से अपने सम्बंध बिगाड़ ले..? वजह है.. वजह है इस देश को चलाने वले वर्ग का बदलता स्वरूप.. अब परिदृश्य में उनसे भी बड़ी ताक़त है.. वो ताक़त है.. रिलाएन्स जैसे विराट, देशी और विदेशी व्यापारिक समूह.. जिनके हित के लिये इस देश का हर का़नून तोड़ा मरोड़ा जा रहा है.. नहीं तो पुराने को डब्बे में फेंक कर नये का़नून बनाने के सुन्दर तर्क गढ़े जा रहे हैं.. मैं इसके दो मिसाल आपको यहां देना चाहूंगा, जो मेरी नज़र में आयीं..
पहले तो शायद आपने सुना हो कि स्वास्थ्य मन्त्रालय ने एक नये क़ानून के तहत जनता के हित को खयाल मे रखते हुए पके पकाये खाने की साफ़ सफ़ाई सम्बन्धी नियमों में बदलाव किये हैं.. ऊपर से दिखेगा ये तो बड़ा भला और अच्छा कदम है.. मगर मेरा शक़ है कि ये नियम सिर्फ़ बड़े शहरों में खाने पीने के छोटे मोटे स्टाल्स (वड़ा पाव, समोसे, चाट इत्यादि) का दमन करके उनकी जड़ से सफ़ाई के लिये इस्तेमाल किया जायेगा ताकि मैकडोनाल्ड जैसे फ़ूड चेन्स के व्यापक प्रसार के लिये मैदान खाली किया जा सके.. शायद अभी की हालात मे उन्हे इन गरीबों की ज़रूरत नहीं.. सस्ता लेबर अभी अंग्रेज़ी बोलने वाला होना चाहिये.. मॉल में अब इस्त्री किये कपड़ों में सब्ज़ी बेचने वालों से खरीदारी करने का सुख कुछ और ही है..
दूसरे आजकल आप कुछ नेताओं को पानी के वितरण के बारे में चिन्ता व्यक्त करते पा सकते हैं.. नेता कोई बात बिना प्रयोजन नहीं करते। इस का भी कोई राज़ होगा... शायद पानी के मिल्कियत पर बड़े पैसे का प्रवेश। मैने सुना है कि पिछले दिनों दिल्ली में पानी के निजीकरण के लिये कोशिश की गई, जिसकी भनक दिल्ली के जागरूक नागरिकों को पड़ गई और इसके पहले कि सरकार ऐसा कदम उठाती, विरोध प्रदर्शन हुए और सरकार ने अपना इरादा मुल्तवी कर दिया..दिल्ली वाले इस के लिये बधाई के पात्र है.. पर अब ये गाज मुम्बई वालों पर आ गिरी है.. तक़रीबन दसेक रोज़ पहले मैने डीएनए के माई वेस्ट-कोस्ट सेक्शन में पढ़ा कि अन्धेरी के एक वार्ड में पानी के निजीकरण की ये स्कीम प्रयोग के तौर पर लागू की जायेगी.. अगर पानी के वितरण की व्यवस्था इस निजीकरण के बाद सुधरती है तो इसे पूरे मुम्बई शहर में लागू किया जायेगा... मैने सोचा कि शायद कोई हो-हल्ला होगा पर कुछ नहीं हुआ.. मेरी तरह सभी मुँह ढक के सोते रहे.. पानी के संसाधन पर कब्ज़ा करने की कोशिशें दुनिया भर में की जा रहीं हैं.. और जहाँ जहाँ वे सफल हुए हैं.. पानी की कीमतों में चार पाँच गुना तक वृद्धि हुई है.. बोलिविआ के कोचा बाम्बा में तो बारिश के पानी तक पर से आम आदमी के अधिकार को छीन लिया गया.. आखिर में लोग इतना आजिज़ आ गये कि उन्हे सड़क पर उतर के विद्रोह करना पड़ा.. तब जा के उन्हे छुटकारा मिला.. दूसरी जगहों पर लोग चुपचाप सहन कर रहे हैं.. पता नहीं मेरी मुम्बई में क्या होगा..?
तो बच्चो को बाल सुधार गृह भेजने की ये योजना भी उन्हे और उनके मां-बाप को हतोत्साहित करके वापस भेजने की एक गहरी और लम्बी डिज़ाईन का हिस्सा है.. और फिर सरकार को बच्चों की इतनी फ़िकर है तो भिखारी माफ़िया का गला क्यों नहीं पकड़ते.. ? उनके माँ-बाप के विस्थापन को रोकने के विषय मे कोई ठोस कदम क्यों नहीं उठाते.. ? मासूम बच्चों को बाल सुधार गृह की जैल में क्यों क़ैद कर रहे हैं, जहाँ की दीवारों को लगातार इसलिये ऊँचा किया जाता है ताकि भागने वाले बच्चों को अन्दर बनाये रखा जाय..? आप बच्चों को सुधार रहे हैं.. या उन्हे सज़ा दे रहे हैं.. ? अगर आप बच्चों का वाकई हित चाहते हैं तो ऐसा बाल सुधार गृह क्यों नहीं बनाते.. जहाँ बच्चे सड़कों से भाग कर आयें.. भाग कर सड़कों पर जाय ऐसा क्यों.. ?कहीं ऐसा तो नहीं कि सड़कें उनसे बेहतर हैं.. ? कम से कम कोई रहम की दृष्टि से देखता तो है.. गिरते पड़ते बच्चा जीवन के अनुभव बटोरते हुये कुछ सीखता तो है.. और आज़ाद होता है.. बहुत सारे गन्द मे गिरने के लिये.. लेकिन सुधार गृह मे उस से ज़्यादा गन्द पाया जाता है.. सड़क की दुनिया में उसके पास चुनने की सापेक्षिक आज़ादी होती है.. अन्दर वो नहीं होती। अन्दर होता है एक ऐसा संरक्षक जो बच्चो के प्रति प्रेम के कारण नहीं, किन्ही और ही मजबूरियों के चलते उनका संरक्षण कर रहा होता है.. और वो अपने पद और बल का दुरुपयोग कर के बच्चों का भक्षण नहीं करेगा, इस बात की सम्भावना कम लगती है, अपने देश के आम चरित्र को जानते हुए..
भीख माँगने वाले उन बच्चों के भविष्य के प्रति अब मैं पहले से ज़्यादा चिन्तित हूँ... अफ़सोस ये है कि हम और आप भी नहीं बचेंगे.. आज उनका नम्बर आया है, कल को मेरा आयेगा, परसों शायद आपका आयेगा.. लेकिन एक बात की गारन्टी है.. सबका नम्बर आयेगा.. आप चाहें तो कभी भी सरकार से सवाल कर सकते हैं - "मेरा नम्बर कब आएगा...?"
एक छोटी सी सूचना और देना चाहूँगा; पिछले दिनों मुम्बई में एक नया नियम लागू हुआ है.. अगर आपके पास बैंक अकाउन्ट नहीं है तो आपक राशन कार्ड रद्द कर दिया जायेगा। आप बैंक में जाइये तो वो आपसे आई डी प्रूफ़ और एड्ड्रेस प्रूफ़ मांगेगे। अगर नहीं है तो आपका एकाउन्ट नहीं खुलेगा। तो इस कैच २२ सिचुअशन को पैदा करने के पीछे सोच क्या है? क्या सरकार जानती नहीं कि हमारे देश मे कितनी बड़ी संख्या मे लोग दिहाड़ी मजूरी करते हैं... और साल के कई रोज़ फ़ाके भी करते हैं.. और शहर में रहने वाले लोग भी इस तादाद मे शामिल हैं..? कहीं ये सरकार उन तमाम छोटे मोटे धन्धे करने वाले विस्थापितों को हतोत्साहित तो नहीं करना चाहती है.. जो अपने मूल स्थान में रोजी रोटी के साधन टूट जाने के कारण अपना घर-बार छोड़कर भारी मन से बड़े शहरों की ओर रुख करते हैं.. और दूर दराज़ के इलाक़ों में, पुलों के नीचे, या चौराहों के आस पास झोपड़ पट्टी बना के रहते हैं? वे अमानवीय स्थितियों मे रहना कबूल करते हैं.. क्योंकि उनके पास जाने के लिये कोई और जगह नहीं है..। और इन्ही विस्थापित लोगों के बच्चे माँ-बाप की अनुपस्थिति मे भीख मांगना शुरु कर देते हैं.. या भीख माफ़िया द्वारा पकड़ लिये जाते हैं (तस्वीर का ये पहलू एक पूरे स्वतन्त्र शोध की मांग करता है) मगर ये भिखारी नहीं हैं.. ये विस्थापित लोग हैं.. जिनका शायद एक सुसम्पन्न सांसकृतिक इतिहास है.. जिस से हम पूरी तरह अपरिचित हैं.. और वो बच्चे भी रहेंगे जो मुम्बई जैसे शहर की आबोहवा मे पल के बड़े होंगे और "मैं बोला ना.. देता है क्या" जैसी ज़बान सीखेंगे..
आम तौर पर ये लोग कन्स्ट्रक्शन इन्डस्ट्री मे दिहाड़ी के मज़दूरी का काम करते हैं। बिल्डर माफ़िया को इन सस्ते मज़दूरों की उपस्थिति से फ़ायदा होता है। इसीलिये ये अविरत गति से मुम्बई या दूसरे बड़े शहरों मे अभी तक आते रहें हैं, बावजूद इसके कि संभ्रान्त वर्ग हमेशा इनकी उपस्थिति से नाक भौं सिकोड़ता रहा है। मगर उससे सरकार को कोई फ़रक नहीं पड़ा। वो कन्स्ट्रक्शन माफ़िया से मिलने वाली तोहफ़ों का द्वार बन्द नहीं करना चाहती थी। और फिर बिल्डिंगे नहीं बनेंगी तो बाकी व्यापार कैसे फले फूलेगा..? तो इनके आगमन पर रोक लगाना सब के लिये घाटे का सौदा था.. तो लोग आते रहे और झुग्गी झोपड़ियां फलती फूलती रहीं... अगर ये सब कुछ ऐसा ही है जैसा मैं लिख रहा हूं तो आज सरकार को क्या ज़रूरत है कि कन्स्ट्रक्शन इन्डस्ट्री से अपने सम्बंध बिगाड़ ले..? वजह है.. वजह है इस देश को चलाने वले वर्ग का बदलता स्वरूप.. अब परिदृश्य में उनसे भी बड़ी ताक़त है.. वो ताक़त है.. रिलाएन्स जैसे विराट, देशी और विदेशी व्यापारिक समूह.. जिनके हित के लिये इस देश का हर का़नून तोड़ा मरोड़ा जा रहा है.. नहीं तो पुराने को डब्बे में फेंक कर नये का़नून बनाने के सुन्दर तर्क गढ़े जा रहे हैं.. मैं इसके दो मिसाल आपको यहां देना चाहूंगा, जो मेरी नज़र में आयीं..
पहले तो शायद आपने सुना हो कि स्वास्थ्य मन्त्रालय ने एक नये क़ानून के तहत जनता के हित को खयाल मे रखते हुए पके पकाये खाने की साफ़ सफ़ाई सम्बन्धी नियमों में बदलाव किये हैं.. ऊपर से दिखेगा ये तो बड़ा भला और अच्छा कदम है.. मगर मेरा शक़ है कि ये नियम सिर्फ़ बड़े शहरों में खाने पीने के छोटे मोटे स्टाल्स (वड़ा पाव, समोसे, चाट इत्यादि) का दमन करके उनकी जड़ से सफ़ाई के लिये इस्तेमाल किया जायेगा ताकि मैकडोनाल्ड जैसे फ़ूड चेन्स के व्यापक प्रसार के लिये मैदान खाली किया जा सके.. शायद अभी की हालात मे उन्हे इन गरीबों की ज़रूरत नहीं.. सस्ता लेबर अभी अंग्रेज़ी बोलने वाला होना चाहिये.. मॉल में अब इस्त्री किये कपड़ों में सब्ज़ी बेचने वालों से खरीदारी करने का सुख कुछ और ही है..
दूसरे आजकल आप कुछ नेताओं को पानी के वितरण के बारे में चिन्ता व्यक्त करते पा सकते हैं.. नेता कोई बात बिना प्रयोजन नहीं करते। इस का भी कोई राज़ होगा... शायद पानी के मिल्कियत पर बड़े पैसे का प्रवेश। मैने सुना है कि पिछले दिनों दिल्ली में पानी के निजीकरण के लिये कोशिश की गई, जिसकी भनक दिल्ली के जागरूक नागरिकों को पड़ गई और इसके पहले कि सरकार ऐसा कदम उठाती, विरोध प्रदर्शन हुए और सरकार ने अपना इरादा मुल्तवी कर दिया..दिल्ली वाले इस के लिये बधाई के पात्र है.. पर अब ये गाज मुम्बई वालों पर आ गिरी है.. तक़रीबन दसेक रोज़ पहले मैने डीएनए के माई वेस्ट-कोस्ट सेक्शन में पढ़ा कि अन्धेरी के एक वार्ड में पानी के निजीकरण की ये स्कीम प्रयोग के तौर पर लागू की जायेगी.. अगर पानी के वितरण की व्यवस्था इस निजीकरण के बाद सुधरती है तो इसे पूरे मुम्बई शहर में लागू किया जायेगा... मैने सोचा कि शायद कोई हो-हल्ला होगा पर कुछ नहीं हुआ.. मेरी तरह सभी मुँह ढक के सोते रहे.. पानी के संसाधन पर कब्ज़ा करने की कोशिशें दुनिया भर में की जा रहीं हैं.. और जहाँ जहाँ वे सफल हुए हैं.. पानी की कीमतों में चार पाँच गुना तक वृद्धि हुई है.. बोलिविआ के कोचा बाम्बा में तो बारिश के पानी तक पर से आम आदमी के अधिकार को छीन लिया गया.. आखिर में लोग इतना आजिज़ आ गये कि उन्हे सड़क पर उतर के विद्रोह करना पड़ा.. तब जा के उन्हे छुटकारा मिला.. दूसरी जगहों पर लोग चुपचाप सहन कर रहे हैं.. पता नहीं मेरी मुम्बई में क्या होगा..?
तो बच्चो को बाल सुधार गृह भेजने की ये योजना भी उन्हे और उनके मां-बाप को हतोत्साहित करके वापस भेजने की एक गहरी और लम्बी डिज़ाईन का हिस्सा है.. और फिर सरकार को बच्चों की इतनी फ़िकर है तो भिखारी माफ़िया का गला क्यों नहीं पकड़ते.. ? उनके माँ-बाप के विस्थापन को रोकने के विषय मे कोई ठोस कदम क्यों नहीं उठाते.. ? मासूम बच्चों को बाल सुधार गृह की जैल में क्यों क़ैद कर रहे हैं, जहाँ की दीवारों को लगातार इसलिये ऊँचा किया जाता है ताकि भागने वाले बच्चों को अन्दर बनाये रखा जाय..? आप बच्चों को सुधार रहे हैं.. या उन्हे सज़ा दे रहे हैं.. ? अगर आप बच्चों का वाकई हित चाहते हैं तो ऐसा बाल सुधार गृह क्यों नहीं बनाते.. जहाँ बच्चे सड़कों से भाग कर आयें.. भाग कर सड़कों पर जाय ऐसा क्यों.. ?कहीं ऐसा तो नहीं कि सड़कें उनसे बेहतर हैं.. ? कम से कम कोई रहम की दृष्टि से देखता तो है.. गिरते पड़ते बच्चा जीवन के अनुभव बटोरते हुये कुछ सीखता तो है.. और आज़ाद होता है.. बहुत सारे गन्द मे गिरने के लिये.. लेकिन सुधार गृह मे उस से ज़्यादा गन्द पाया जाता है.. सड़क की दुनिया में उसके पास चुनने की सापेक्षिक आज़ादी होती है.. अन्दर वो नहीं होती। अन्दर होता है एक ऐसा संरक्षक जो बच्चो के प्रति प्रेम के कारण नहीं, किन्ही और ही मजबूरियों के चलते उनका संरक्षण कर रहा होता है.. और वो अपने पद और बल का दुरुपयोग कर के बच्चों का भक्षण नहीं करेगा, इस बात की सम्भावना कम लगती है, अपने देश के आम चरित्र को जानते हुए..
भीख माँगने वाले उन बच्चों के भविष्य के प्रति अब मैं पहले से ज़्यादा चिन्तित हूँ... अफ़सोस ये है कि हम और आप भी नहीं बचेंगे.. आज उनका नम्बर आया है, कल को मेरा आयेगा, परसों शायद आपका आयेगा.. लेकिन एक बात की गारन्टी है.. सबका नम्बर आयेगा.. आप चाहें तो कभी भी सरकार से सवाल कर सकते हैं - "मेरा नम्बर कब आएगा...?"
8 टिप्पणियां:
हृदय स्पर्शी लेख लिखा, बच्चों को जीन और उनके सपनों को पूरा करने के लिए कुछ किया जा रहा है तो परिवर्तन होगा किंतु प्रयास भी सच में किया जाए…
बहुत सुंदर लिखा है!!बधाई!
अभय, आपने बहुत अच्छा लिखा है और बिल्कुल सटीक, दो-टूक। सचमुच ऐसा ही होगा। दूसरों का घर जलता देख जो मुंह ढके सोते रहे, जब उनके घर जलेंगे तो कोई पुछवइया भी नहीं हो्गा। जो माने बैठे हैं कि वो लोग कोई और होंगे, जो इन साजिशों का शिकार होंगे, तो वे बहुत बड़े मुगालते में हैं। हम सब होंगे अगले शिकार, ग्लोबलाइजेशन के, साम्राज्यवाद के, अमरीका और अंबानी के।
निर्मल आनंद की कामना की यह पगडंडी बडी प्यारी है. इसके स्वास्थ्य व मजबूती का विशेष ध्यान रखना होगा.
'माली आवत देख कर कलियन करी पुकार'
पर यह कोई कबीर दास का समय तो है नहीं, अब तो माली फूले-फूले को छोड़ता जाता है और सबसे पहले कमज़ोर कली पर ही टूटता है. फूले-फूले(नए अर्थों में)में तो माल-मत्ते की गुंजाइश है.
फ़ुटपाथ पर रहने वाले या भीख मांगने वाले बच्चों का उद्धार अगर सरकार की प्राथमिकता में हो तो और भी तरीके हो सकते हैं. और बेहतर और मानवीय तरीके . पर नियमों के पीछे की 'इंटेंशन'ज्यादा महत्वपूर्ण है.
आपने बहुत अच्छे ढंग से ध्यानाकर्षण किया है.
ye poonjivaad ka naya chehraa hai.
pahle hamein bhikhaari banaaya jaayegaa,phir shahar ki sundarta ke liye hamare bachchon ko ya shayed usasey pahale hamein hi,kisi sudhaar grih (jail) mein daal diyaa jaayega.
ghareebi hamaara jurm hoga aur saza hogi sudhaar grih (jail) ki yaatra.
farid khan.
It's pretty tough to say what should be done, but one thing is certain,unless we or the Govt can give the kids a better life (and if the life were really better then as u said the kids might form a queue to join it ) we have no business to remove them from the roads.
A Fine Balance by Rohinton Mistry deals with this topic in a very touching manner.
Ghughuti Basuti
Very well written and informative article. You have covered so many news in one seemless go.
isko dekhein: http://www.desipundit.com/2007/03/01/gariib-hataao/
ye bhi: http://in.ourcity.yahoo.com/delhi/hindi#nogo
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