१९११ में जन्मे.. शिक्षा इलाहाबाद और कानपुर से.. पेशे से वकील.. शुरु में इलाहाबाद और फिर ज़्यादातर जीवन जन्मस्थली बाँदा में ही बीता.. १९ पुस्तकें प्रकाशित .. १९८६ में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित.. २००० में मृत्यु...
केदारनाथ अग्रवाल की कुछ कविताएं मेरी पसन्द से..
मैंने उसको
मैंने उसको
जब जब देखा
लोहा देखा
लोहा जैसा--
तपते देखा,
गलते देखा,
ढलते देखा,
मैंने उसको
गोली जैसा
चलते देखा !
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पक्षी दिन
बड़ा दिन
नीम पर
बैठा रहा,
मारने पर भी
बड़ा ढेला
उड़ा पक्षी नहीं;
नीम ने भी तो
नहीं नीचे ढकेला
आह !---
यह कितना अकेला,
निलज,
नीघस,
आज का दिन !
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रात
दिन हिरन सा चौकड़ी भरता चला,
धूप की चादर सिमट के खो गई,
खेत, घर, वन, गाँव का
दर्पण किसी ने तोड़ डाला,
शाम की सोना-चिरैया
नीड़ में जा सो गयी,
पेड़ पौधे बुझ गये जैसे दिये
केन ने भी जाँघ अपनी ढाँक ली,
रात है यह रात, अंधी रात,
और कोई कुछ नहीं बात।
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छह छोटी कविताएँ
[१]
चली गयी है कोई श्यामा
आँख बचाकर, नदी नहाकर
काँप रहा है अब तक व्याकुल
विकल नील जल।
[२]
इकला चाँद
असंख्यों तारे,
नील गगन के
खुले किवाड़े.
कोई हमको
कहीं पुकारे
हम आयेंगे
बाँह पसारे।
[३]
न इश्क
न हुस्न
गये हैं दोनों बाहर
अवमूल्यन में
कर्ज़ चुकाने
[४]
छूट गयी 'बस'
रह गया मैं
पाँव पर खड़ा,
चाकू-सा
खुला दिन
मेरी देह में गड़ा।
[५]
हे मेरी तुम !
पेड़
न फूले--
नहीं हँसे
खड़े हुए हैं मौन डसे ।
[६]
हे मेरी तुम !
कुछ न हुआ, अब
बूढ़ा हुआ सुआ ।
पखने हुए भुआ ।
देखो,
काल ढुका ;
मन सहमा;
तन काँपा, और झुका ।
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हे मेरी तुम
हे मेरी तुम !
हम दोनों अब भोग रहे हैं
दीन देह को,
प्यार प्यार से बाँधे;
ढले ढले
दिल से ढकेलते
दिन का ठेला;
और रात को
काट रहे हैं
भीतर की लौ साधे
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विकट है यह सघन अंधकार का झुरमुट
विकट है यह सघन अंधकार का झुरमुट
कि मैं चला आऊँगा फिर भी
तुम्हारी पुकार के पथ के बने पथ से
तुमसे मिलने
नदी से कहकर:
कि वह बहे जहाँ बहती है
दिये से कहकर
कि वह जले जहाँ जलता है
फूल से कह कर
कि वह खिले जहाँ खिलता है
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9 टिप्पणियां:
अभय भाई
कैदारनाथ जी पहली बार पढ़ा, बहुत अच्छा लगा. आपका बहुत आभार इसे उपलब्ध कराने के लिये.
भविष्य में भी जारी रखें.
श्रेष्ठ कवि केदारनाथ अग्रवाल की रचनाएँ पेश कीं , आभार । पहली कविता का चित्र-पोस्टर हमारी प्रदर्शनी का हिस्सा होता था ।
कविता कुछ पढ़ीं थी फिर पढ़ ली ..कुछ नहीं पढ़ी थी वो भी पढ़ लीं . धन्यवाद . पढ़ते रहें पढ़ाते रहें .
और भी पढायें
सुंदरतम ।
चुन-चुनकर लाएँ और ऐसे मोती ।
इतनी अच्छी कविताएँ पढ़वाने के लिए धन्यवाद ।
घुघूती बासूती
आप सबके प्रोत्साहन के लिये बहुत धन्यवाद.. कोशिश करूँगा कि आगे भी स्तरीय कविताएं आपके बीच लाता रहूँ..
बेहद महत्वपूर्ण प्रस्तुति . अपने समकालीन बड़े कवियों की उपस्थिति में वे पृष्ठभूमि में चले गए ऐसा कहना ठीक नहीं होगा . वे हमेशा अगली पांत के बड़े कवि माने गये . चूंकि वे आते-जाते कम थे और उस तरह युवतर कवियों के दल ने उन्हें प्रतिष्ठित करने का ऐसा कोई बीड़ा नही उठाया था तो हो सकता है ऐसा आभास होता हो.पर वे बड़े कवि थे . बहुत बड़े कवि .
मुझे एक दिन बांदा उनके घर पर उनके साथ रहने का सौभाग्य मिला था . बेहद भले और निश्छल इंसान लगे . अपना एक काव्य संकलन उस सत्तर पार की उमर में कंपकंपाते हाथों से लिखकर मुझे भेंट किया . ढेर सारी बातें की साहित्य की और घर-परिवार की .
'जमुन जल तुम' संकलन तो,जिससे आपने कुछ कविताएं उद्धृत की हैं, दाम्पत्य प्रेम की कविताओं का अपूर्व और असाधारण संकलन है. भारतीय साह्त्य में तो वह अद्वितीय है ही,विश्व साहित्य में भी अपनी पत्नी पर लिखी गई कविताओं का ऐसा कोई उत्कृष्ट संकलन अभी तक मेरी नज़र से नहीं गुज़रा है.
विजयबहादुर जी तो अभी कुछ दिन पहले कलकत्ता आए थे . मिलने-बतियाने का मौका मिला .हमारे एक मित्र उनसे बहुत शिकायत करते रहते हैं कि उन्होंने 'जन कवि' में भवानी भाई को क्यों नहीं रखा .
बहुत सुन्दर! बहुत सुन्दर!!
कम शब्दों में अपनी बात कह पाना,
और वो भी इतनी खूबसूरती से कह पाना,
अति सुन्दर है!
धन्यवाद!
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