शुक्रवार, 27 अप्रैल 2007

'हिन्दी शब्दानुशासन'.. जैसा कि वचन दिया था..

जैसा कि वचन दिया था.. लिख रहा हूँ हिन्दी शब्दानुशासन के बारे में..पहले कुछ मूल सूचनाएं.. प्रकाशक हैं नागरी प्रचारिणी सभा, काशी.. पहला संस्करण निकला १९५८ में.. मेरे पास जो पाँचवां संस्करण है वो १९९८ का है.. ग्रंथ का विषय है भाषा विज्ञान से संवलित हिन्दी का व्याकरण.. जैसा कि लेखक किशोरी दास वाजपेयी ने उप शीर्षक के बतौर रखा है.. कुल पृष्ठों की संख्या ६०८ है..
पूर्व पीठिका १-७५
(हिन्दी की उत्पत्ति और परिष्कार पर)
पूर्वार्ध ७७-३८३
(स्वर, वर्ण, संज्ञा, आदि पर ७ अध्याय)
उत्तरार्ध ३८५- ५१६
(विभिन्न प्रकार की क्रियाओं पर ५ अध्याय)
परिशिष्ट ५१७-६०८
( हिन्दी की बोलियों पर ३ परिच्छेद)
प्रकाशकीय और विभिन्न संस्करणो की भूमिका इस अनुक्रमणिका के पूर्व ५०-५५ पृष्ठों में संकलित है..

इसके पहले कि मैं किताब के कुछ नमूने आप के सामने पेश करूँ मेरी इच्छा है कि आप लेखक के विषय में थोड़ा सा जान लें.. किशोरीदास जी(१८९८-१९८१) के बारे में राहुल जी ने अपने लेख (पुस्तक में उपलब्ध) में जो लिखा है वह पढ़ने योग्य है..

आज की दुनिया में कितना अंधेर है, विशेष कर हमारे देश का सांस्कृतिक तल कितना नीचा है, इस का सबसे ज्वलंत उदाहरण हमें पंडित किशोरी दास वाजपेयी के साथ हुए और हो रहे बर्ताव से मालूम होता है। प्रतिभाएं सभी क्षेत्रों में एवरेस्ट शिखर नहीं होती; परन्तु जब किसी क्षेत्र में किसी पुरुष का उत्कर्ष साबित हो गया, तो उसकी कदर करना और उस से काम लेना समाज का कर्तव्य है । आज बहुत थोड़े लोग हैं जो किशोरी दास जी को समझते हैं। उनमें से बहुतेरे उनके अक्खड़ स्वभाव या अपनी ईर्ष्या से नहीं चाहते कि लोग इस अनमोल हीरे को समझें, इसकी कदर करें । इसका परिणाम ये हो रहा है कि हिन्दी उनकी सर्वोच्च देनों द्वरा परिपूर्ण होने से वंचित हो रही है और उन्हे लिखना पड़ रहा है- " मैं क्या गर्व करूँ ! गर्व पकट करने योग्य चीज़ें तो अभी तक दे ही नहीं पाया हूँ !" वाजपेयी जी पाँच बड़ी-बड़ी जिल्दों में हिन्दी को निर्वचनात्मक ( निरुक्तीय) कोश दे सकते हैं; पर उसकी जगह वे 'हिन्दी निरुक्त' के रूप में उसकी भूमिका भर ही लिख सके हैं ! वे हमें हिन्दी का महाव्याकरण दे सकते हैं..

...दो विषयों में उनके समकक्ष इस समय हिन्दी में कोई नहीं है, वे हैं व्याकरण और निरुक्त । उनका यह कहना बिलकुल बजा है कि " कोई मुझे गाली न दे कि वह इस विषय पर लिख सकता था, पर कमबख्त साथ ही सब लेकर मर गया !" वाजपेयी जी को लोग गाली नहीं देंगे; बल्कि आज के हिन्दी वालों को देंगे..
..व्याकरण और निरुक्त बड़े ही नीरस विषय हैं, पर वाजपेयी जी के हाथों में पहुँच कर कितने रोचक हो जाते हैं, इसे उनके ग्रंथों को पढ़ने वाले भली भंति जानते हैं..



हरेक असाधारण प्रतिभाशाली पुरुष में कुछ ऐसी विलक्षणता या विशिष्टता भी होती है, जिसे सभ्य गुणग्राही समाज को बर्दाश्त करने के लिये तैयार रहना पड़ता है । यह कोई मँहगा सौदा नहीं है; क्योंकि थोड़ी नाज़बर्दारी करके आप उनसे बहुमूल्य वस्तु प्राप्त कर सकते हैं । प्रतिभायें 'सात खून माफ़' वाली श्रेणी में होती हैं..

क्या यह दुनिया एक क्षण के लिये भी बर्दाश्त करने लायक है कि जिसमें अनमोल प्रतिभाओं को काम करने का अवसर न मिले और ऐरैगैरे-नत्थूखैरे गुलछर्रे उड़ाते राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय मंचों पर अपना नाच दिखलायें..

राहुल जी के ये उदगार और दु:खद इसलिये भी हैं कि यह १९५४ में व्यक्त हुए और हिन्दी का निरुक्त अभी भी हमारे पास नहीं है.. किशोरीदास जी सचमुच बहुत कुछ साथ लेकर मर गये..

और ये तिथि भी उल्लेखनीय है क्योंकि १९५४ में राहुल जी ने यह लेख लिखा और हिन्दी शब्दानुशासन का पहला संस्करण १९५८ में आया.. अपनी भूमिका में किशोरीदास जी कहते हैं.. ." ..राहुल जी का वह महत्वपूर्ण लेख निकला जो अभूतपूर्व था । एक ही लेख ने पर्दा हटा दिया । हिन्दी शब्दानुशासन बनाने बनवाने की भूमिका तैयार की राहुल जी ने और फिर उसे ऊँचे उठने बढ़ने में मदद की डा० राम विलास शर्मा ने । (नागरी प्रचारिणी) सभा तो पोषणकर्त्री (धात्री) है ही.. "

यानी कि अगर राहुल जी ये गरियउल ना करते तो इस पुस्तक का भी अस्तित्व ना होता.. धन्य है हमारा समाज..

किशोरीदास जी की पुस्तक एक दिन में पढ़ कर खत्म कर देने वाली पुस्तक नहीं है.. ये तो धीरे धीरे पगुराने वाली चीज़ है.. पूर्वपीठिका में हूँ अभी.. उसी से एक अंश आपके आनन्द के लिये प्रस्तुत करता हूँ..

कुरुजनपद (उत्तर प्रदेश के मेरठ डिवीज़न) की बोली को 'खड़ी बोली' नाम भाषाशास्त्रियों ने नहीं, साधारण साहित्यिकों ने दिया । परन्तु इसकी व्युत्पत्ति के बारे में लोग भटकते रहे । प्रारम्भ में तो 'खड़ी बोली' नाम इसलिये पड़ा कि इसमें कवियों को मधुरता ना जान पड़ी। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने भी इसमें खड़खड़ाहट पाई । जब दाल पकती नहीं, कच्ची रह जाती है तो लोग कहते हैं --'दाल खड़ी रह गई है'। इसी सादृश्य से लोग इसे 'खड़ी बोली' कहने लगे होंगे । परन्तु इस चीज़ को न समझ कर कई विद्वानो ने लिख दिया कि 'खरी बोली' का रूपान्तर 'खड़ी बोली' है ।

यह तो हुई कवि जनों की बात । आगे चलकर कवियों ने ही इसे लोचदार और मधुर-कोमल बना लिया । इधर के काव्य देखिये न !

परन्तु 'खड़ी बोली' नाम भाषा विज्ञान की दृष्टि से भी खरा उतरता है । 'मीठा', 'जाता,' 'खाता' आदि में जो खड़ी पाई आप (अन्त में) देखते है, वह हिन्दी के अतिरिक्त इसकी किसी भी दूसरी बोली में न मिलेगी। ब्रज में 'मीठो' और अवधी में 'मीठ' चलता है-- 'मीठो जल', 'मीठ पानी' । इसी तरह 'जात है, 'खात है' आदि रूप होते हैं । परन्तु कुरुजनपद में ही नहीं यह खड़ी पाई आगे पंजाब तक चली गई है-- 'मिट्ठा पाणी लावँदा है'' ।

सो, इस खड़ी पाई के कारण इसका नाम 'खड़ी बोली' बहुत सार्थक है ।

आप जानते हैं, यह खड़ी पाई मूलत: क्या चीज़ है ? यह संस्कृत के विसर्गो का विकास है । 'उषः' को 'उषा' होते आपने देखा ही है । विसर्गों का उच्चारण 'ह' के समान होता है; इसी लिये विदेशी 'ज्यादह', 'तमन्न्ह' आदि शब्द हिन्दी में 'ज़्यादा', 'तमन्ना' बन जाते हैं । कुछ दिन पहले तक लोग 'ज़्यादः, 'तमन्नः', 'तर्जुमः', यों विसर्ग इन विदेशी शब्दों में भी दिया करते थे। इसके विरुद्ध बहुत कुछ लिखा-किया गया, तब अब प्रवाह बदला है । लोग 'ह' लिखने लगे हैं यद्यपि 'छः' अभी तक लिखे जा रहे हैं । 'छ्ह' शुद्ध है 'छः' ग़लत है ।

कहा जा रहा था कि खड़ी बोली की यह खड़ी पाई विसर्गों का विकास है । 'अ' का भी कंठ स्थान है और 'ह' का भी, तथा विसर्गों का भी । इस लिये 'ह' तथा विसर्गों की जगह कभी कभी 'अ' ले लेता है । फिर 'सवर्ण-दीर्घ' हो कर आ बन जाता है । 'उष:' से 'उषा' और 'तर्जुमः' से 'तर्जुमा' इसी विधि से बन गये ।

पुस्तक में ऐसे तमाम रहस्य और राज़ पर से परदे खुलते उठते चलते हैं पग पग पर.. मैं तो जानूंगा और आनन्दित होऊंगा.. पर आप.. आप को कौन बताएगा..माफ़ कीजिये मेरी अँगुलियों में इतना दम नहीं है कि पूरी किताब छाप दूँ.. फिर कॉपीराइट का भी तो मामला होगा.. बहुत इच्छा है तो खरीदिये और पढ़िये.. मूल्य कुल १५० रुपये.. प्रकाशक नागरी प्रचारिणी सभा..

17 टिप्‍पणियां:

काकेश ने कहा…

किताब तो अच्छी लगती है ..दिल्ली में कहाँ मिलेगी कुछ बता सकते हैं क्या ? वैसे इतवार को दरियागंज जाने का विचार है देखें मिल पाती है कि नहीं.

azdak ने कहा…

अहाहाहाआ, क्‍या बात है, बंधु.. साधुवाद, साधुवाद!.. अब लगता है इसी बहाने हमारी तरह उल्‍टा-सीधा लिखनेवाला भी थोड़ा व्‍याकरण पढ़ लेगा.. दो पंक्ति ठीक से लिखना सीख लेगा.. किशोरीदास जी का तो हिंदी समाज ने जो करना था किया.. आपको इस सेवाकार्य के लिए हिंदी ब्‍लॉग पुरुष पुकारते हैं! रवीश से भी अपील है आपको आगे इसी विशेष्‍ण के साथ संबोधित करें।

बेनामी ने कहा…

आभार , एक जरूरी किताब से तार्रुफ़ कराने का ।

बेनामी ने कहा…

बहुत-बहुत शुक्रिया। बहुत अच्‍छी जानकारी दी आपने। ये किताब मैंने देखी है, ताऊजी के पास थी, लेकिन पढ़ी नहीं। बहुत पुरानी बात है। लेकिन अब लग रहा है कि पढ़नी चाहिए।
मनीषा

बेनामी ने कहा…

मैंने इस पुस्तक का नाम ही सुना था। आपने विस्तार से पुस्तक और लेखक परिचय दिया है। अनुग्रह स्वीकारें। मैं इसे खरीद कर अवश्य पगुराऊँगा।

बेनामी ने कहा…

आपने राधा-कृष्ण के चित्र के नीचे लिखा है 'दोनों चित्र वैन गॉफ़ द्वारा'। क्या दो चित्र हेडर और राधा-कृष्ण के हैं? क्या विंसेट वॉन गॉग को ही वैन गॉफ़ कहा गया है? एक और प्रश्न, यदि वॉन गॉग ही वैन गॉफ़ है तो उनके द्वारा बनाए राधा-कृष्ण के चित्र के बारे में कुछ बताएँगे?

अभय तिवारी ने कहा…

चित्र और उसके नीचे के लेख को बदलने के बीच आप ने उसे देखा.. पहले राधा कृष्ण के चित्र की जगह वैन गाग या वैन गॉफ़ का सनफ़्लॉवर था.. अब लेख सही कर के चिपका दिया है.. राधा कृष्ण का चित्र pieter Weltevrede का बनाया हुआ है.. उनके और चित्र आप उनकी साईट www.sanatanasociety.com देख सकते हैं.. इस चित्र की विशेषता है कि राधा और कृष्ण ने रूप की अदला बदली की है.. जिसका ज़िक्र रीति कालीन साहित्य में जम कर हुआ है.. बड़े ग़ुलाम अली खाँ साहब ने एक ठुमरी भी गाई है .. अब तुम राधा बनो श्याम..

सायमा रहमान ने कहा…

Shri Abhay, aapne Kishoridas ji kee kitaab ka parichy diya aur blog samaj lahalot hone laga.Ant mein sab log ise apne takiye ke neeche laga kar so jaayenge.Kahiye ki kya bhasha ke prati sawadhan bartav aaj koi achanak aa gayi awashyakata hai?Agar hai to kripaya blog samaj se meri or se ek prashn poochhein----Khilafat maane kya? 'Khulaasa kiya' ka upyog kya baat ko khol kar batana ya udghatit karna nahin bataya jaa raha hai?
Poochiye to abhi aapko bhasha ke prati shradhavanat log cheekhne lagenge aur aapko bhasha ke pahredaar batane lagenge.
Uprokt donon shabdon ke mool arth batayein aur tv walon ke paas ek circular bhejein tabhi aapki bhasha sajagta ko pramanikta milegi.

बेनामी ने कहा…

वाह! ऐसा भी हो सकता है। दोनों ही चित्र बहुत सुंदर हैं। पहले उतावली में राधा और कृष्ण के बदले रूप की बात पूछना भूल ही गया था, पर आपने वो भी बता दी।
वैसे www.sanatanasociety.com पर जाने पर देखा वहाँ तो खरीदने-बेचने का बाज़ार लगा है। ट्रेवल, ई-कॉमर्स, लाइफ़स्टाइल, रीयल ईस्टेटल, इंस्योरेंस.......

अभय तिवारी ने कहा…

प्रिय साइमा.. मुझे किसी के प्रमाण पत्र की ज़रूरत नहीं.. मैं अपनी मौज के लिये, निर्मल आनन्द के लिये ये सब लिखता पढ़ता हूँ..पर आपने जिन शब्दों का ज़िक्र किया है उस से लगता है कि खुद आपको इन मामलों में रुचि है..
खिलाफ़त शब्द के मायने तो प्रतिनिधित्व होता है और आम तौर पर इसका मतलब मुहम्म्द साहब के बाद उनकी जानशीनी यानी खलीफ़ा की गद्दी से है..लेकिन आम तौर पर उसे मुखालफ़त की धोखे में इस्तेमाल किया जाता है...
खुलासः शब्द मेरा ख्याल है कि खालिस का चचेरा बन्धु है.. और इसका सही अर्थ होगा सारांश..इसके मूल की सही जानकारी करने के लिये आपको किसी अरबी के विद्वान से सलाह करनी चाहिये.. मैंने तो हिन्दी भी स्रिर्फ़ १२वीं तक ही पढ़ी है..
रही बात टी वी वालों को सर्कुलर भेजने की.. वे इतना ऊल-जलूल बकते रहते हैं कि किस किस बात के लिये उन से सरमारी करूँगा..अगर आप कर सकती हों तो ज़रूर करें..

चलते चलते आपको बता दूं.. मैंने इसी बहाने आपके नाम का अर्थ भी जान लिया..वह स्त्री जिसने रोज़ा रखा हो.. मेरे शब्दकोश में यही मायने है.. अगर कुछ और अर्थ है तो बतायें..

अतुल जी.. वो कुछ लोगों की बदमाशी होगी.. आप इस लिंक से जाने की कोशिश कीजिये..
http://www.sanatansociety.com/artists_authors/aa_pieter_weltevrede.htm

बेनामी ने कहा…

हाँ अब पहुँच गया सही जगह। दोनों पतों में सनातन लिखने में केवल एक वर्ण a का अंतर है। इसलिए यह सब हुआ।
आपको धन्यवाद, आपने एक बहुत ही अच्छी साइट का पता बताया।

ghughutibasuti ने कहा…

जानकारी के लिए धन्यवाद । कुछ शब्द जैसे निरुक्त शब्दकोष में देखने पड़े । सब कुछ फिर भी समझ में न आया । एक बार फिर आपका लेख पढ़ूँगी ।
घुघूती बासूती

सायमा रहमान ने कहा…

Haan mahoday ab aapne theek kar diya.Ab lagta hai comment pahunch jayehga.Khulasa aur Khilafat ko kripaya apne mukhprishth par laayein gyan ka ujala phailayein.Bodhiji ko bhi batayein ki khulasa nahin rahasyodghatan ya kuchh aur---khilafat nahin virodh.Keejiye kuchh bhasha aapki kritagya hogi.Main bhi houngi.

v9y ने कहा…

ज़्यादा न सही, थोड़ा थोड़ा और आने दीजिए. इसी बारे में कुछ और मैंने आज अपने ब्लॉग पर चेपा है.

बेनामी ने कहा…

आप क लेख पड़ा मैने
भाहूत भड़िया हे
क्या आप ए सब चाप ने के लिए उपयोग किया

Unknown ने कहा…

"हिंदी शब्दानुशासन"श्रीकिशोरी बाजपेयी की यह पुस्तक दिल्ली में कहाँ मिलेगी ? कोई तो बताये ..

वेद प्रकाश ने कहा…

एक गज़ब पुस्तक,इसके बारे में सबसे पहले रामविलास शर्माा ने लेख लिखा था जो उनके निबंध संग्रह परंपरा का मूल्यांकन,राजकमल प्रकाशन में संकलित है। इससे प्रभावित हो मैंने यह पुस्तक हिंदी बुक सैंटर ,आसफ अली रोड से खरीदी , आज से करीब 25 साल पहले। किताब ने मुझे हिंदी की संरचना को देखने का नया नजरिया दिया़
इसी तरह की एक किता ब और है आचार्य राम चंद्र वर्मा की अच्छी हिंदी,लोकभारती प्रकाशन

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