चार पाँच दिन से कुछ नहीं चढ़ाया.. तो आज विमल भाई का एक सन्देसा आया कि क्या भाई, आपने बताया नही कि कितने दिन का मौन रखा है ? मौन टूट्ने का इन्तज़ार है...
तो लगा कि सचमुच ये तो उलटा हो गया कहाँ हम मौन के विरोध में बोल रहे थे.. और बोलते बोलते खुद ही मौन हो गये. आज प्रमोद भाई ने जो चढ़ाया.. उसमें लिखा है कि झोले में कुछ किताबें ढो के लाये हैं और जैज़ सुनने के मूड में हैं.. असल में प्रमोद भाई के साथ मैं भी एक झोला भर किताबें ढो के लाया हूँ.. जो अभी अलट पलट के देख रहा हूँ.. पिछले दिनों भुवनेश ने काशी का अस्सी के बारे लिखा था जिसे पढ़ के मुझे भी प्रेरणा हुई कि किताबों के बारें में सूचनाओं का आदान प्रदान किया जाय.. तो आज लाई गई किताबों में हैं..
मौलाना अबुल कलाम आज़ाद की ग़ुबारे ख़ातिर
भगवान सिंह की भारतीय सभ्यता की निर्मिति
राम मनोहर लोहिया की हिन्दू बनाम हिन्दू
भगवत शरण उपाध्याय की खून के छींटे इतिहास के पन्नो पर
जियालाल आर्य की जोतीपुंज महात्मा फुले
सुन्दरलाल बहुगुणा की धरती की पुकार
राजकिशोर की जाति कौन तोड़ेगा
सच्चिदानन्द सिन्हा की भूमण्डलीकरण की चुनौतियां
और रामविलास शर्मा की भारतीय इतिहास और ऐतिहासिक भौतिकवाद
ये सब किताबें बिस्तर के हेडबोर्ड पर सजाके देखने में जो सुख है वो इन्हे पढ़ने के सुख से ज़रा ही कम है.. ये सोच के ही मेरे भीतर ज्ञान के अभिमान का सागर हिलोरें मारने लगता है कि मैं इन सारी किताबों का मालिक हूँ..दूसरे ही पल सच्चाई का तमाचा भी पड़ता है.. काश सिर्फ़ पुस्तकें खरीद लेने भर से ही आप उनके ज्ञान के भी अधिकारी हो जाते .. इस सब ज्ञान को अपने भीतर उडे़लने और पचाने में ना जाने कितनी रातों का मध्यरात्रि तेल खरचना पड़ेगा.. (अंग्रेज़ी कहावत का जस का तस अनुवादित प्रयोग).. कितनी ही किताबें तो सिर्फ़ उलट पलट कर इधर उधर धर दीं जायेंगी जैसे कि हिन्दी के मशहूर कवि वीरेन डंगवाल ने कहा है कि अमरूद का सौभाग्य है खा लिया जाना तो उनकी इस बात पर हिन्दी के दूसरे मशहूर कवि और उनके पहाड़ी साथी मंगलेश डबराल कहते हैं कि किताब को पढ़ लिया जाना उसका सौभाग्य है.. जैसे हर दिल की किस्मत मे नहीं होता कि उसे प्यार मिले वैसे हर किताब की प्रति के भाग्य में भी नहीं होता कि उसे उसका पाठक मिल जाय.. और विशेषकर हिन्दी किताबों की.. जैसे आज लाईं गई ऊपर दी गई किताबों की सूची में से कई को हलके हलके सहलाते हुये मैं सोचूंगा कि क्या ही अच्छा होता कि मैं अंगुलियों के अन्त पर के शिराग्रों से किताबों में क़ैद सारे ज्ञान को अपने अन्दर खींच लेता.. देर तक पन्ने दर पन्ने पर आँख घुमाने की कसरत तो ना करनी पड़ती.. खैर क्या धरा है इस खामखयाली में .. सच यही है कि आप खरीदी हुई सारी किताबें नहीं पढ़ सकते.. कुछ किताबें अपनी किस्मत को बिसूरती रहेंगी..
तो ये तो हुई किताबों के बारे में सूचना.. मगर एक बात जो दिल में खटकती रहती है वो आपसे कहना चाहता हूँ.. मुम्बई में आप यूं ही चलते फ़िरते हिन्दी किताबें नहीं खरीद सकते.. सारे देश की तरह यहां भी हिन्दी की किताबों की दुकानें आपको खोजनी पड़ेंगी..और जो होती हैं वो प्रकाशक के दफ़्तर में होती हैं.. और दुकानदार का मुख्य ग्राहक हम और आप जैसे आम पाठक नहीं सरकारी संस्थान होते हैं.. मुंबई में हिन्दी किताबों की गिनी चुनी दुकानें हैं ..
एक तो शरद मिश्र का जोगेश्वरी स्थित घर से संचालित पुस्तक बिक्री केंद्र.. कुछ माह पहले तक पृथ्वी थियेटर के एक कोने में एक छोटी सी दुकान के संचालक थे.. अब वो बंद हो गई है और उसकी जगह एक अंग्रेज़ी पुस्तक केंद्र ने ले ली है.. शरद के पास अपने जीवन और हिन्दी के जीवन को लेकर अब क्या योजना है मुझे जानकारी नहीं है..
दूसरा उनके पिता श्री सत्य नारायण मिश्र जी द्वारा संचालित जीवन प्रभात प्रकाशन जो कि इर्ला के कृपा नगर सोसायटी के उनके निवास स्थान में है.. मिश्रा जी वृद्ध आदमी है. . दुबले पतले लम्बे लहराते खिचड़ी बाल .. जब आप उनके दुकान में पहुँचिये तो ऐसे स्वागत होता है जैसे आप किसी के घर पर आ गये हों.. क्यों कि असल में आप उनके घर पर ही आये होते हैं जिसके हॉल में उन्होने चारों तरफ़ अलमारियां लगाकर किताबें सजा दी हैं..सुबह शाम की बात अलग है.. बच्चे या घर के अन्य सदस्य जागते होते हैं खेलते होते हैं.. मगर अगर आप दोपहर में गये तो आपने आगमन से सबके आराम में खलल पड़ जाता है ..आप भले ही सकुचा जायं लेकिन वो आपका स्वागत उतने ही उत्साह से करते हैं जितना कि वो अपने भतीजे या मौसा के आने पर करते.. मिश्रा जी से आपको १०% डिस्कांउट मिल जायेगा...इस दुकान को खोजने के बाद मैं कम से कम अपने पंद्रह मित्रों के साथ अलग अलग समय पर उनके यहाँ जा चुका हूँ.. मेरे सारे टेलेविज़न के मित्रों को तो वो पहली दफ़ा से ही पहचान जाते हैं .. मगर अब मुझे भी पहचानने लगे हैं..
तीसरा स्थल है श्री जीतेंद्र भाटिया द्वारा संचालित पवई के हीरानंदानी स्थित वसुंधरा .. जहाँ से ये सारी किताबों की खरीदारी की गई..ये काफ़ी सुव्यवस्थित दुकान है.. भाटियाजी. सुना है कि आइ आई टी के पुराने पास आउट हैं अब रिटायर हो चुके हैं .. खुद भी लेखक हैं.. पहल से जुड़े रहे हैं.. और इस दुकान से उनको कितना व्यावसायिक लाभ होता होगा कहना मुश्किल है.. वैसे भाटिया जी के दोनों बेटियां शादी करके विदेश में सुखी हैं और भाटियाजी किसी भी प्रकार की ज़िम्मेदारी से मुक्त हैं.. साहित्य सेवा करने के लिये..
और चौथा और सबसे पुराना सी पी टैंक स्थित हिन्दी ग्रंथ कार्यालय १९१२ से जो अस्तित्व में है.. उस काल से जब मुम्बई का संस्कृत टाइप प्रसिद्ध था.. खेमराज श्रीकृष्णदास और व्यकेंटेश्वर प्रेस के स्वर्णिम काल से.. दो दिन पहले ही हम यहाँ भी हो के आये हैं.. उस दिन दुकान के कर्ता धर्ता मनीष मोदी कहीं जाने की जल्दी में थे सो हमें अपने पिता के हवाले करके चले गये.. मोदी सीनियर ने काफ़ी अफ़्सोस के साथ हमारी चुनी हुई किताबों पर किसी भी प्रकार का डिस्काउंट देने से मना कर दिया.. वो काफ़ी दुखी और हताश थे.. पहले उनका अपना प्रकाशन भी था. मगर अब बुरे दिन हैं.. अगल बगल जो हिन्दी किताबों की चार और दुकाने थी वो धीरे धीरे कर के सब बंद हो गईं.. उन्होने दूसरा धंधा.. जैसे कपड़े की गाँठो का गोदाम ..शुरु कर दिया.. वो शहर के बीस लाख हिन्दी भाषियों से खासे खफ़ा दिखे.. जो हिन्दी प्रदेश से सब पढ़ लिख कर आते हैं और उसके बाद उन्हे जीवन भर कुछ और पढ़्ने की ज़रूरत नहीं पड़ती.. मैंने और प्रमोद भाई ने उनसे डिसकाउंट के लिये कोई ज़िद नहीं की.. उनकी निराशा और हताशा में हमें अपनी भाषा के भविष्य की प्रति हमारे डर की झाँकी दिख रही थी..
इसके अलावा मेरी जानकारी में हिन्दी की किताबें प्राप्त करने की कुछ और दुकाने है.. जो मेरे मित्र बोधिसत्व ने गिनवाई हैं..
रमन मिश्र की मरीन लाइन्स स्थित परिदृश्य
महालक्ष्मी स्थित पैरामाउंट बुक एजेंसी..
कोई कह रहा था कि मीरा रोड पर भी कोई दुकान खुली है.. देखने का सौभाग्य अभी नहीं मिला है..
इसके अलावा साहित्य आकादमी और नेशनल बुक ट्रस्ट ने मुम्बई में शाखाएं खोल रखी हैं..
गीता प्रेस की भी मरीन लाइन्स और चर्नी रोड पर दो दुकाने हैं..
प्रकाशन विभाग जो पहले बलार्ड पिअर पर होता था अब बेलापुर चला गया है..
सी एस टी और मुम्बई सेन्ट्रल पर व्हीलर और सर्वोदय बुक स्टॉल्स..
एअरपोर्ट पर आपको क्रॉसवर्ड मिल जायेगा वहाँ अनेकों अंग्रेज़ी किताबें मिल जायेंगी.. हो सकता है फ़्रेंच और जर्मन भी मिल जायं पर हिन्दी की पुस्तक नहीं मिलेगी.. बात साफ़ है हिन्दी किस की भाषा है..
इसके पहले कि मैं कुछ और हताश स्वर पकड़ूँ.. बात यहीं खत्म करता हूँ.. किसी खास किताब के बारें में बात नहीं कर पाया इसलिये माफ़ी चाहता हूँ.. वो अगली पोस्ट में करूँगा.. ज़रूर.. किताब का नाम है हिन्दी शब्दानुशासन और लेखक हैं किशोरीदास बाजपेयी.. खरीदी गई हिन्दी ग्रंथ कार्यालय से बिना डिस्काउंट के..
17 टिप्पणियां:
चलिये, अभय, भलमनसी का एक नेक़ काम आपने कर डाला। मुम्बई में हिन्दी किताबों की विपन्न दुनिया की एक ठीक-ठाक सी झलक मिलती है। हालांकि, साथ ही, मुझे यह भी लगता है कि दूसरे शहरों में हिन्दी की इससे बहुत जुदा तस्वीर नहीं ही होगी। यह सौभाग्य कम ही शहरों के पास होगा कि अचानक आप रघुवीर सहाय या कृष्ण कुमार की खोज में निकलें और उनकी किताब आपके हाथ भी लग जाय। अच्छा होता कुछ बंधुगण इसी बहाने उत्साहित होकर अपने शहर में हिन्दी पुस्तकों की दुनिया पर प्रकाश डालते कुछ छोटे संस्मरण लिख मारते। क्यों, अनामदास जी, चौपटस्वामी- क्या कहते हैं?
अभय भाई साहब, आपको इतना अच्छे लेख लिखने के लिये साधुवाद.
टेलिविजन हमारे पढ़ने, लिखने और मिलने जुलने के समय का अधिकांश भाग निगल गया है. फ़िर भी आशा रखिये, कुछ न कुछ रास्ता निकलेगा.
प्रिय भाई आपने हिंदी पुस्तकों के ठिकानों की बात तो की । अब एक और बात जोड़
दूं । इन ठिकानों से निकल कर जब आप सार्वजनिक परिवहन, बस या ट्रेन पकड़ते हैं और बेक़रारी से इन किताबों को पलटने का प्रयास करते हैं, भीड़ से जूझते हुए, सिकुड़ते बटुरते हुए, तो कोई ना कोई ऐसे महाशय ऐसे होते हैं, जो किताबों के इस ढेर को देखकर आपसे कहेंगे-- एक मि0 के लिए देख लूं । और फिर बिना तस्वीरों वाली इन किताबों और पत्रिकाओं को देखकर उन्हें बड़ी निराशा होती है । बेचारे चुपचाप वापस कर देते हैं ।
बाक़ी अहिंदीभाषी मन ही मन सोचते हैं, इन ‘भैया लोगों’ ने ही मुंबई का सत्यानाश कर दिया है । मशक्कत और मलामत का ये मिला जुला अहसास हम सबको करना ही पड़ता है । पर शुक्र है कि किताबों के ये अड्डे बचे हैं । और इनमें स्नेह भी बचा है ज़रा ज़रा ।
मुम्बई सेन्ट्रल के सर्वोदय बुक स्टॉल और ग्रान्ट रोड पर मुम्बई सर्वोदय मण्डल के शान्ताश्रम स्थित दुकान में भी हिन्दी साहित्य होगा ।
क्षमा करें अफ़लातून भाई..सी एस टी और मुम्बई सेन्ट्रल पर सस्तासाहित्य मण्डल.. से मेरा आशय सर्वोदय बुक स्टॉल ही था.. पता नहीं किसी झोंक में ग़लत लिख गया..
एक सच को इतने सीधे-सरल तरीके से उजागर करने के लिए साधुवाद। सच है कि हम सड़क चलते हुए चाट-पकौड़ी और जूते-चप्पलों की तरह भी किताबें नहीं खरीद सकते। तीन साल पहले यहां इंदौर में चिमनबाग के पास किताबों की एक दुकान हुआ करती थी। मेरे दिमाग में उस दुकान की अच्छा स्मृति थी, लेकिन यहां आने के बाद मैंने पाया कि वो दुकान बंद हो चुकी है। यहां किताबों की दुकान ढूंढे से भी नहीं मिलती, मॉल बहुत मिल जाते हैं, हर दस कदम पर एक।
मनीषा
मैं ने भी अपने कमरे में कतार से कुछ नई किताबें लाई हैं । पढूँगी ,धीरे धीरे पर अभी देखने का ,छूने का सुख ले रही हूँ ।ये आश्वस्ति है कि तिलिस्म छुपा है इनमें , खुलेगा देर सबेर ।
एक अच्छे लेख के लिये धन्यवाद।
हिन्दी साहित्य प्राप्त करने के एक स्थान तो मुझे रेलवे स्टेशनों पर ए.एच. व्हीलर के स्टाल दिखाई देते हैं..हर स्टेशन पर कुछ समय यहां जरूर बिताता हूँ....बाकी तो फुटपाथों की खाक छानिया, पुरानी/रद्दी वालों की दुकानें टटोलिये..कभी कभार काफी कुछ हाथ लग जाता है...
अभय के संस्मरण में सिर्फ़ कुछ नामवाचक शब्द/संज्ञाएं बदल कर मैं उसे कोलकाता का संस्मरण बता/बना सकता हूं . कई बड़े पुस्तक केन्द्रों को बंद होते या स्वरूप बदलते देखा है.कई जो किसी व्यक्ति के ज़ुनून से चल रहे थे उन्हें उनके चले जाने के बाद बंद होते देखा है.
एक बार एक बड़ी प्रसिद्ध संस्था के कर्ता-धर्ता को हिंदी पुस्तकों के भविष्य के प्रति चिन्तित होते देखकर उनके ही पुस्तक केन्द्र का डिस्प्ले बोर्ड/विन्डो दिखाने के लिए नीचे उतार लाया था जिसमें हिंदी पुस्तकें हटा कर अंग्रेज़ी पुस्तकें सजा दी गई थीं.वे तात्कालिक रूप से शर्मिंदा दिखे.अब तो खैर वह केन्द्र एक प्रकाशक ने ले लिया है.बस खुश इतना ही हो सकते हैं कि वह हिंदी का प्रकाशक है.
वैसे भी हिन्दी में अब पुस्तकें छप रहीं हैं 'बल्क' सरकारी खरीद में ठेलने के लिए . प्रकाशकों को पाठकों से क्या लेना-देना . वह तो बचा हुआ बेशर्म पाठक ही है जो उस इनफ़्लेटेड कीमत पर भी खोज-खाज कर किताब खरीद ही लेता है और दस-बीस प्रतिशत डिस्काउंट पाकर भी ऐसे खुश होता है मानो लाटरी लग गई हो.
और एक हम हैं जो ३०-४०-५० रुपये में शानदार प्रकाशन करते हैं और कोई नेटवर्क न होने के कारण भेज नहीं पाते हैं . ३० से ५० रुपये का ३००+ या ४००+ पृष्ठों का पुस्तकनुमा विशेषांक कूरियर या रजिस्टर्ड बुक पोस्ट से भेजने के लिए ३० रुपए लगते हैं क्या किया जाए . भैंस से ज्यादा महंगी सांकल. सामान्य डाक से भेजने पर अंक भी गायब हो जाता है और १०-१५ रुपए भी लग जाते हैं . बस यही सब दुख-दर्द हैं.आपने दुखती रग पर हाथ धर दिया .
अरे! बलार्ड ऐस्टेट वाला प्रकाशन विभाग का शोरूम बेलापुर चला गया . उससे बहुत सी किताबें खरीदने की स्मृति है . विशेषकर पन्ना लाल पटेल के उपन्यास 'मानविनी भवाई' का हिंदी अनुवाद 'जीवन एक नाटक' जिसकी मैंने कई बार कई अवसरों पर प्रतियां खरीद कर मित्रों को दीं.२०-२५ रुपए की शानदार किताब थी .
अभय भाई, अच्छा मुद्दा उठाया है, लेकिन और अच्छा होता कि आप इन पुस्तक केन्द्रो के पते और फ़ोन नम्बर भी देते, आप ने जगा दिया है तो मै भी किताबों की तलाश में अक्सर पेश आने वाली कुछ बातें चिपकाने की कोशिश करुँगा ।
-बोधिसत्व
बहुत प्यारी पोस्ट लिखी।
तिवारी जी मुंबईया लोगों के लिए उपयोगी जानकारी प्रकाशित की आपने साधुवाद
पर जो भी किताबपढ़ें, समीक्षा प्रकाशित करना न भूलें. कुछ नहीं तो ब्लाग के माध्यम से ही साहित्य का प्रचार हो.
sateesh pancham ji ke blog se yahan aaya aur is post ko bookmark kar liya.. 2007 mein likhi gayi lekin 2010 mein bhi bahut kaam ki post.. pata nahi kitni dukanen badli hongi.. kitni jagahein aur kam hui hongi..
अभय जी मैं भी सतीश जी की पोस्ट से आप की इस पोस्ट का लिंक पा कर यहां आयी हूँ। जैसा पंकज ने कहा 2007 की पोस्ट है पर अब भी उतनी ही सार्थक है जितनी तब थी, क्या इस बीच कोई और दुकानों के बारे में पता चला? खास कर नवी मुंबई में? अगर हां तो प्लीज बताने का कष्ट कीजिएगा। धन्यवाद
mumbai me naya naya aya hun..aur hindi kitaabon ke liye pareshan hun...aapki post padhi ummeed hai kafi madad milegi...
saadar
मुंबई में हिंदी किताबें तो क्या पत्रिकाएं भी नहीं मिलतीं...टिप्पणियाँ पढ़ कर पता चला..इतनी पुरानी पोस्ट है...आशा है..आपने जिन स्थानों का जिक्र किया है..वहाँ अब भी पुस्तकें मिलती होंगी...मेरे लिए तो बहुत ही उपयोगी जानकारी
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