अजीब है आदमी के शरीर की बनावट..पेट में आग लगी पड़ी है.. आँते छिल चुकी है.. लेकिन ज़बान लाल मिर्चों के लिये लटपटाती है..ज़बान और पेट के बीच में कोई संवाद ही नहीं है.. ये आदमी के शरीर की रचना में एक मूलभूत दोष है.. और आदमी ने अपने भगवान को ही नहीं अपने संसार अपने समाज को भी अपनी ही शक्ल में ढाला है.. जैसे नाड़ियों और शिराओं का जाल शरीर के अन्दर फैला है वैसा ही बाहर की दुनिया में भी आदमी ने निर्मित किया है (और उसे विज्ञान की अनुपम खोजों का नाम दिया है इस तथ्य को पूरा अनदेखा करते हुए कि शरीर के अन्दर अभी भी कहीं ज़्यादा जटिल संरचनाएं मौजूद है)..और सामाजिक संरचनाओं में भी शरीर से एक साम्य है.. शरीर के विभिन्न अंगो के बीच इस संवादहीनता का मूलभूत दोष उसकी सामाजिक संरचना में भी अभिव्यक्त होता है.. विभिन्न समुदायों के बीच आपसी तालमेल तो नहीं ही है संवाद भी नहीं है.. अपने निजी हित के लिये एक सामाजिक अंग दूसरे सामाजिक अंग का इस्तेमाल करना चाहता है.. कोई नई बात नहीं सदियों से होता आया है.. और इसी विषमता के कारण जैसे शरीर में रोग उत्पन्न होते हैं वैसे ही समाज को भी अपने असंतुलन का खामियाजा सामूहिक तौर पर भुगतना पड़ता है.. रोग किसी भी अंग में हो कष्ट किसी एक भाग में ही क्यों न केन्द्रित हो .. प्रभावित तो पूरा शरीर ही होता है.. और रोग बढ़ जाने पर शरीर के मृत्यु भी होती है.. समाज और सभ्यताएं भी विनष्ट होती हैं..
हमारे समाज में भी तमाम रोग लगे हुए हैं.. एक रोग का प्रगटीकरण कल देखा गया.. रिचर्ड गेयर ने शिल्पा शेट्टी को चूमा एक एड्स अभियान के प्रचार के एक हथकंडे के बतौर.. सोच ये थी कि इस घटना की वजह से इस अभियान की चर्चा होगी..और आज तक और स्टारन्यूज़ जैसे चैनेल्स ने इसे जानबूझकर गेयर के यौन अतिक्रमण की तरह पेश किया.. टी आर पी पाने के लिये पूरे मामले को और सनसनीखेज बनाया गया.. जनता के एक खास तबक़े ने इस घनघोर अनैतिकता का प्रदर्शन माना.. और इस पर अपनी भयंकर नाराज़गी ज़ाहिर की.. शिल्पा के खिलाफ़ प्रदर्शन करके.. शिल्पा अपने निजी और सामाजिक जीवन में कैसा व्यवहार करें यह वे लोग तय करना चाहते हैं.. दूसरा मामला.. एक १६ वर्षीय लड़की एक विधर्मी पुरुष के साथ भाग कर मुम्बई आती है.. स्टार न्यूज़ उन दोनों को अपने चैनल पर शरण देता है.. उन पर कार्यक्रम कर के सनसनी परोसता है अपने दर्शकों को आगे.. ये भूल कर कि ये ..एक नाबालिग़ लड़की को भगाने का आपराधिक मामला है.. चैनल एक व्यापारिक संगठन है उसे सिर्फ़ अपने मुनाफ़े से मतलब है.. और इसी लिये वो किसी भी सामाजिक ज़िम्मेदारी से बिदकता रहता है.. हाँ उसका नाटक ज़रूर करता है.. जैसे इस पूरे घटनाक्रम के बाद वो कह रहा है कि हम आपकी आवाज़ को दबने नहीं देगे.. हम आपको हमेशा रखेंगे आगे.. वगैरह वगैरह.. स्टार न्यूज़ के खिलाफ़ पोलिस केस दर्ज़ हो चुका है.. मगर एक दर्शक वर्ग को इतना बुरा लगा कि वे अपनी नाराज़गी ज़ाहिर करने के लिये चैनल के दफ़्तर में तोड़ फोड़ करते हैं.. उनके अनुसार उन्हे पता है कि सही रास्ता क्या है.. और स्टार न्यूज़ जो भटक कर ग़लत रास्ते पर चला गया है, उसे सही रास्ते पर वापस लाने के लिये वो हिंसा का सहारा लेते हैं..
यहाँ पर दो वर्ग हमें साफ़ साफ़ दिख रहे हैं.. एक वर्ग जो कि अपने मुनाफ़े के लिये किसी भी हद तक गिरने को तैयार है.. और वो इस मुनाफ़े को कमाने के लिये एक समाज की वकालत करता है जहाँ सम्पूर्ण आज़ादी हो कोई रोक टोक ना हो.. किसी प्रकार की नैतिक बन्दिश भी ना हो.. ये उसके हित के लिये आदर्श वातावरण होगा.. ऐसा उस वर्ग का मानना है.. और दूसरा वर्ग है जो किसी प्रकार के मुनाफ़ा कमाने के व्यवसाय में नहीं है.. जो सामाजिकता और नैतिकता का प्रहरी है.. और सामाजिक आज़ादी की उसकी अपनी एक परिभाषा है.. और अपनी परिभाषा को मनवाने के लिये वो हिंसा का रास्ता अख्तियार करने में हिचकिचाता नहीं.. ये दोनों संघर्ष कर रहे हैं.. सरकार फ़िलहाल पहले वर्ग- मुनाफ़ाखोरों के साथ है.. पर लोकतंत्र में ये तस्वीर बदल भी सकती है..
मज़े की बात ये है कि ये दोनों प्रवृत्तियां आज़ादी की लड़ाई के समय भी थी.. तब इनमें मेल था.. या यूं कहें कि एक दूसरे के अधीन थी.. मुनाफ़ाखोर तो मुनाफ़ाखोर ही थे.. पर इतने बेशरम ना थे.. नैतिकता और सामाजिकता के चोले में रहकर धंधा करते थे.. गाँधी जी को अपना नेता मानते थे.. गाँधी जी का भी उनपर खास स्नेह था.. वे जहाँतक हो सके बिड़ला के ही अतिथि होते.. और दूसरी प्रवृत्ति के प्रतिनिधि स्वयं गाँधी जी थे.. देश के हित में अपने सही फ़ैसलों को पर्याप्त सहयोग अनुमोदन आदि ना मिलने पर वो आमरण अनशन पर बैठ जाते.. अगर तुम लोगों ने मेरी बात ना मानी तो मैं जान दे दूंगा.. हिंसा ये भी है.. मारने की नहीं तो मरने की बात है.. चाकू की नोंक दूसरे की तरफ नहीं अपनी तरफ कर ली गई है.. बस इतना फ़रक है.. अम्बेदकर और सुभाष बोस भी, बापू की इस हिंसा का निशाना बने थे.. अंग्रेज़ तो बने ही बने.. उस वक्त ये तरीका बीमारी नहीं था .. जो हो रहा था देश के हित में हो रहा था.. मगर अब यही प्रवृत्ति बढ़ कर एक फ़ासीवादी रूप ले चुकी है.. और अभी भी इस के इलाज के प्रति हम ठीक से सचेत नहीं है.. सरकार तो नहीं ही है.. ऐसी असहिष्णुता कभी कभी हमें अपने ब्लॉग जगत में भी दिखती है.. क्या हम भूलते जा रहे हैं इन शब्दों का अर्थ- आज़ादी.. नैतिकता.. सहिष्णुता.. या जानते ही नहीं हैं..?
7 टिप्पणियां:
शब्दों को वाक्यों की माला में पिरोना तो कोई आप से सीखे. बिल्कुल मेरे ही विचार लिख दिये आपने. इसमें जितनी जिम्मेवारी हथोड़ा चलाने वालों की है उतनी ही हथोड़ाग्रस्त मीडिया की भी. अब देखिये इस हथोड़े को भी भुनाया जा रहा है "सच के ऊपर प्रहार' की शक्ल में. सारा
मामला प्रसिद्ध होने का है . "बदनाम होंगे तो क्या नाम ना होगा"
काकेश
sahi hai...
आपने बहुत सुन्दर लिखा है। लेकिन निम्नलिखित कथन के संदर्भ में शायद आपको कुछ क़ानूनी पहलुओं को जानने की जरूरत है:
एक १६ वर्षीय लड़की एक विधर्मी पुरुष के साथ भाग कर मुम्बई आती है.. स्टार न्यूज़ उन दोनों को अपने चैनल पर शरण देता है.. उन पर कार्यक्रम कर के सनसनी परोसता है अपने दर्शकों को आगे.. ये भूल कर कि ये ..एक नाबालिग़ लड़की को भगाने का आपराधिक मामला है..
कृपया इस तरह के मामलों से संबंधित अदालत के फैसलों पर आधारित यह लेख देखें। यदि कोई नाबालिग लड़की अपनी स्वेच्छा से या खुद पहल करके किसी लड़के से, चाहे वह विधर्मी ही क्यों न हो, शादी करती है तो वह शादी क़ानून की नज़र में अवैध नहीं है। इसलिए उपर्युक्त प्रसंग को आपराधिक मामला नहीं माना जा सकता। यह जरूर है कि ऐसे मामलों में लड़की के परिवार वालों की शिकायत पर पुलिस अक्सर आपराधिक मुकदमा दर्ज करती है, लेकिन अदालत ऐसे मामलों में इस आधार पर फैसला करती है कि उसमें लड़की की मर्जी क्या रही है।
इस विषय पर मुझे ज़्यादा ज्ञान नहीं है.. आपके बताये लेख को पढ़कर ज्ञानवर्धन हुआ..वैसे इस मामले में लड़की १६ से कम की वय की भी हो सकती है..
ठीक लिखा आपने। दोनों प्रवृत्तियों के संशय से जूझता मीडिया कुछ मामलों में साफ होता है। जैसा कि आपने ही लिखा है, वो मामला है टीआरपी। अगर कुछ ग़लत दिखा कर और अपना दफ्तर तुड़वा कर भी टीआरपी मिले, तो समेट लो। जहां तक सृजनशिल्पी के दिये कानून के संदर्भ की बात है, तो एक सवाल ये भी है कि अगर नौ साल की बच्ची 25 साल के पुरुष के साथ अपनी मर्जी से भाग जाए, और अदालत में भी वह अपनी मर्जी को साबित कर दे, तो अदालत का फ़ैसला क्या होगा?
अगर तुम लोगों ने मेरी बात ना मानी तो मैं जान दे दूंगा.
अंग्रेज थे मान जाते थे, आजकल के नेता होते तो शायद भारी पड़ता।
लेकिन मीडिया टी आर पी के चक्कर में दीवाना हुआ बैठा है, यही कह सकते हैं। मीडिया को समझना चाहिये कि सांड को लाल कपड़ा दिखायेंगे तो सांड मारने ही दौड़ेगा, अब दोष किसको दिया जाय सांड को या उसे जिसने पहले लाल कपड़ा दिखाया। ये जग विदित है लाल कपड़ा देख सांड भड़क उठता है। यह सिर्फ उदाहरण के लिये कहा गया है शायद इसी से किसी को कुछ समझ आ जाये।
आपने बहुत संयत शब्दों में बात कही है।
बहुत बढि़या अभय। बहुत सही और संतुलित लिखा है आपने।
मनीषा
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