रविवार, 4 अप्रैल 2010
एक पागल का प्रलाप
मेरे दोस्त फ़रीद ख़ान ने दो नई कविताएं लिखी हैं, उर्दू में लिखते तो कहा जाता कि कही हैं, लेकिन हिन्दी में हैं इसलिए लिेखी ही हैं।
हिन्दी में कविता मुख्य विधा है फिर भी ऐसी कविताएं विरल हैं।
मुलाहिज़ा फ़र्माएं:
एक पागल का प्रलाप
कम्बल ओढ़ कर वह और भी पगला गया,
कहने लगा मेरा ईश्वर लंगड़ा है.... काना है, लूला है, गूंगा है।
'निराकार' बड़ा निराकार होता है, नीरस, बेरंग, बेस्वाद होता है।
कट्टर और निरंकुश होता है।
वह कहता है, हर आदमी का अपना ख़ुदा होता है।
जैसे उसका अपना जूता होता है, कपड़ा होता है।
घर में या फ़ुटपाथ पर उसकी जगह होती है। उसी तरह उसका अपना ख़ुदा होता है।
जितने तरह के आदमी,
जितने तरह के पेड़, पौधे, पहाड़, और जानवर, उतने तरह के ईश्वर तो होने ही चाहिए।
इतना तो अपना हक़ बनता है।
जो ईश्वर को दुरदुराते रहते हैं, उनका भी ईश्वर होता है,
नंगे पांव, नंगे बदन, गरियाते, गपियाते।
पागल को सभी ढेला मारते हैं।
ईश्वर कभी लंगड़ा होता है क्या ?
काना होता है क्या ?
लूला होता है क्या ?
गूंगा होता है क्या ?
वह अचरज में इतना ही पूछ पाता है
कि हम लंगड़े, काने, लूले, गूंगे हो सकते हैं तो ईश्वर के लिए मुश्किल है क्या ?
मेरा ईश्वर
मेरा और मेरे ईश्वर का जन्म एक साथ हुआ था।
हम घरौन्दे बनाते थे,
रेत में हम सुरंग बनाते थे।
वह मुझे धर्म बताता है,
उसकी बात मानता हूँ,
कभी कभी नहीं मानता हूँ।
भीड़ भरे इलाक़े में वह मेरी तावीज़ में सो जाता है,
पर अकेले में मुझे सम्भाल कर घर ले आता है।
मैं सोता हूँ,
रात भर वह जगता है।
उसके भरोसे ही मैं अब तक टिका हूँ, जीवन में तन कर खड़ा हूँ।
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
13 टिप्पणियां:
दूसरी कविता बहुत पसंद आयी। संभालकर रखने लायक है। यदि ईश्वर है तो सचमुच वह हमारे इतना ही करीब है।
सुन्दर कविता, लिखे रहें ।
achi kavita he
man bh gai
dusri kavita me dam laga kher upper wali bhi kisi se kam nahi he
http://kavyawani.blogspot.com/
shekhar kumawat
फ़रीद ख़ान की कवितायें जबरदस्त हैं । उन तक बधाई पहुंचायें। आशा है लोग-बाग ’पानी’ भी पढ़ रहे होंगे।
दोनो ही कविताये बहुत अच्छी है.. बाकी शब्दो के लिहाज से मै कमजोर हू.. इन कविताओ मे अपना ही कुछ खोया हुआ सा पाया है..
वह कहता है, हर आदमी का अपना ख़ुदा होता है।
जैसे उसका अपना जूता होता है, कपड़ा होता है।
घर में या फ़ुटपाथ पर उसकी जगह होती है। उसी तरह उसका अपना ख़ुदा होता है।..
वाह.
वाह, गजब की कविताएँ हैं। मन प्रसन्न है।
वैसे मेरा निजी भगवान जितनी चाहे लम्बी छुट्टी पर जा सकता है, मैं जी लूँगी उसके बिना।
घुघूती बासूती
saari baati sach lagti hai...aisi hi kuchh soch is dimag ke kone se bhi uthti he par na jane kyu dusra kona use daba deta hai...kya galat hai???
pasand aai dono hi.
pahli kavita to Goodh-arth samete hue hai lekin dusri kavita ek aam pathak ko apne jyada kareeb lagegi hi...
पहली कविता में बड़ा सुन्दर सवाल है !
बहुत ही शानदार कविताएं हैं।
दूसरी कविता तो लाजवाब है ! बेहतरीन प्रस्तुति !
नेट पर भटकते-भटकते ऐसा तो बहुत कम होता है कि किसी बहुत अच्छी जगह पहुँच जाऊं , लेकिन आज आपके ब्लॉग पर पहुँच कर लगा कि यात्रा अचानक बहुत सार्थक हो गई है.
बहुत ही बेहतरीन कवितायें हैं ...फरीद खान साहिब को कोटिश: बधाइयाँ ...!!!!!!!और आपको धन्यवाद
कि आपने उसे हमसे साझा किया ...
एक टिप्पणी भेजें