बुधवार, 25 फ़रवरी 2009

एक गुस्ताख सवाल के बहाने


अभयजी,


एक मुश्किल में हूँ. जहाँ तक मुझे याद है आपने अपनी विनोद अग्रवाल वाली पोस्ट में कुछ ऐसा लिखा था कि आप नही जानते अगर अमिताभ अपने हर वाक्य के साथ श्री राम कहना शुरू कर दें, जैसे कि शाहरुख हर वाक्य में अल्लाह ले आते हैं, तो सेकुलरिस्टों की क्या प्रतिक्रिया होगी. अभी मैं यह या इससे मिलता-जुलता वाक्य उस लेख में नही पा रही हूँ. क्या आपने यह वाक्य एडिट कर दिया है? अगर किया है तो, और अगर आप उचित समझें तो कृपया बताएं की ऐसा आपने क्यो किया?

धन्यवाद

सोनाली

सोनाली जोशी अमरीका के एक संस्थान से मीडिया का अध्ययन कर रही हैं। वे मेरे ब्लॉग की नियमित पाठक हैं, और पिछले हफ़्ते उनका यह पत्र मुझे प्राप्त हुआ।

मेरा जवाब था:

सोनाली,

मैंने ऐसा तो कुछ नहीं लिखा था। हाँ, मैंने यह ज़रूर लिखा था:

“मैं ने पाया है कि सेक्यूलर एथॉस के भद्रलोक ‘अली मौला’ और ‘अल्ला हू’ पर झूमने में तो ज़रा नहीं झिझकते मगर ‘कृष्ण गोविन्द गोविन्द’ की धुन पर संशय में पड़ कर उसमें साम्प्रदायिकता की बू तलाशने लगते हैं। हो सकता है मेरी इस बात से हाफ़पैंटिया लोग उछलने लगें और सेक्यूलर बंधु नाराज़ हो जायं। मगर जो सच है वो सच है।"

और हाँ.. मैं अपनी पोस्टों को लगातार एडिट और रिएडिट करता हूँ। मैं नहीं समझता कि कि आदमी को सब से पहले जो दिमाग़ में आए लिख देना चाहिए। क्रूरता और हिंसा मनुष्य के स्वभावगत गुण है, जबकि मनुष्यता एक संस्कारजन्य अर्जित गुण है। मेरे अन्दर कई तरह के पतित, पतनशील और नकारात्मक विचार और मत वास करते हैं- जातिवादी और साम्प्रदायिक भी- और मैं उनसे लगातार लड़ता हूँ।

मुझे खुशी है तुम में ऐसा गुस्ताख सवाल करने का साहस है।

क्या तुम मुझे इसे एक पोस्ट बनाने की इजाज़त दोगी?

सादर

अभय

जवाब में सोनाली ने ये इजाज़त मुझे बख्श दी।

पिछले दिनों हमारे ब्लॉग जगत के बहुचर्चित अविनाश दास एक नए विवाद में घिर गए। इस विवाद की मूलवस्तु यही मनुष्यता का ही सवाल था हालांकि उसे इस दृष्टि से देखा नहीं गया। बात ये होती रही कि अविनाश ने ऐसा अपराध किया कि नहीं किया..? वो ऐसा कर सकते हैं कि नहीं कर सकते हैं। किया नहीं किया के प्रश्न के सम्बन्ध में लोग महज़ क़यास ही लगा सकते हैं। सच्चाई या तो वो लड़की जानती है, या फिर स्वयं अविनाश। ब्लॉग की दुनिया में लड़की का पक्ष कोई नहीं जानता; पर अविनाश के अनुसार वह लड़की पारम्परिक शब्दावली में चरित्रहीन है। और 'कर सकने' वाले सवाल पर मेरा मानना है कि हाँ वे ऐसा कर सकते हैं।

यहाँ मैं साफ़ कर दूँ कि न तो अविनाश के ऊपर पारिभाषिक अर्थों में किसी बलात्कार का कोई आरोप है और न ही मैं उन्हे बलात्कारी कह रहा हूँ। जहाँ तक मुझे मालूम है उनके ऊपर एक प्रकार की ज़बरदस्ती प्रेम (मॉलेस्टेशन) करने का आरोप है.. और जैसे अविनाश के तमाम नामी और अनाम मित्र कह रहे हैं कि अविनाश ऐसा कर ही नहीं सकते.. मैं मानता हूँ कि अविनाश ऐसा कर सकते हैं। और अविनाश ही क्यों.. हमारे बीच तमाम सारे लोग ऐसा कर सकते हैं.. किन्ही हालात में शायद मै स्वयं ऐसा कर सकता हूँ।

वैसे लोगों के साथ एक तरह की ज़बरदस्ती करना अविनाश का व्यवहार रहा है। ब्लॉग जगत में लोग उनकी उदण्डता से दुखी रहे हैं। उनके 'मोहल्ले' पर लोगों को अनाम चोले पहनकर नामधारी बन्धु गलियाते रहे हैं। गाली खाने वाले लोग विनती करते रहे हैं कि भई ये अनाम गालियों से मुक्ति दिला दो, पर अविनाश ने किसी के निवेदन पर कभी कान नहीं दिया और अपनी नैतिकता पर क़ायम बने रहे हैं।

मनीषा पाण्डे के साथ उनकी चैट को उन्होने जिस तरह से अपने ब्लॉग पर छापा और तमाम मिन्नतों और क्रोध प्रदर्शनों के बावजूद नहीं हटाया, वो एक तरह की ज़बरदस्ती ही थी। फिर एक अन्य प्रकरण में उन्होने हिन्दी के एक सम्मानित कवि असद ज़ैदी के साथ भी अपनी तरह की एक ज़बरदस्ती का नमूना पेश किया।

ब्लॉग जगत में मनीषा के प्रति उनके व्यवहार से सभी स्तब्ध थे, पर अविनाश की नज़र में ऐसी ज़बरदस्ती, उनकी पत्रकारिता की नैतिकता थी। मगर अभी हाल में अविनाश अपनी छात्रा पर प्रेम की ज़बरदस्ती के जिन आरोपों में उलझे हैं, उस के सिलसिले में उन्होने किसी भी नैतिकता का हवाला नहीं दिया बल्कि सीधे-सीधे अपनी छात्रा के चरित्र पर सवाल उठाया है।

अविनाश कोई एक अकेले व्यक्ति नहीं है जिसके ऊपर आरोप लगा है कि उसने एक लड़की के साथ ज़बरदस्ती की है। महिलाएं जानती हैं कि बहुत सारे सम्बन्धी, मित्र और सहकर्मी इस प्रकार की ज़बरदस्ती करते रहते हैं। अधिकतर आरोप तो मन में घुमड़कर ही दफ़्न हो जाते हैं। यदि महिलाएं लगाने पर आएं तो प्रेमी और पतियों पर भी ऐसे अनेको आरोप सामने आ जाएंगे।

मेरा आशय यहाँ पर अविनाश को किसी कटघरे में खड़ा करना है भी नहीं। मेरा आशय पुरुष के उस पाशविक वृत्ति की ओर इशारा करना है जो स्त्री के प्रेम को बाहुबल से हासिल कर लेना चाहता है। इसके पीछे पुरुष का स्वभाव है, सामाजिक संस्कार है, ऐतिहासिक परिस्थितियाँ है.. ये सब बहस का विषय है।

सविता भाभी जैसे साइट्स पर भी प्रगतिशीलता की बहस चलाने वाले अविनाश से मैं उम्मीद करता था कि वे प्रेम को लेकर स्त्री और पुरुष के अलग–अलग रवैये पर एक बहस छेड़ेंगे। मगर वे आत्म-ग्लानि और आत्म दया में लिप्त हो कर दुखी हो गए और अपने नारीवादी होने की बात दोहरा कर रह गए।

अविनाश भले ही मेरे मित्र न हों मगर मैं उनको सलाह देना चाहूँगा कि इस आपराधिक आरोप को बहुत निजी तौर पर ना देंखे बल्कि एक सामजिक वृत्ति के रूप में देंखे.. हम में से कोई भी ये अपराध कर सकता था.. किसी पर भी ये आरोप लग सकता था। क्योंकि हम सब मौलिक रूप से पशु हैं ये सिर्फ़ संस्कार ही हैं जो हमें मनुष्य बनाते हैं। अगर हम निरन्तर अपने आप को सुधारने की प्रक्रिया जारी न रखें तो हम कभी भी अपनी पाशविकता में उतर सकते हैं। दंगो में भी देखा जाता है कि अच्छे भले लोग दरिन्दों में बदल जाते हैं।

अब पिछले दिनों पिंक अन्डीज़ को लेकर ब्लॉग पर जो बहस चलीं उसमें सारथी के संचालक शास्त्री फिलिप- जो ईसा के चरण सेवक हैं और ब्लॉग जगत में बेहद सम्मानित हैं- एक बेहद शर्मनाक कमेंट कर बैंठे।

यह कमेन्ट उन्होने कुछ महिलाओं द्वारा प्रमोद मुतालिक नाम के राक्षस -सही अर्थों में राक्षस; उसके अनुसार महिलाओं पर किया गया हमला, भारतीय संस्कृति की रक्षा में था- को पिंक अन्डीज़ भेजकर की जाने वाली अभद्रता का विरोध करते हुए किया। अनैतिकता और अभद्रता के विरोध का ऐसा जज़्बा कि स्वयं अभद्र हो गए!

मैं ऐसे किसी भी कमेंट से बचने के लिए कुछ भी लिखने के पहले सोचता हूँ.. लिखने के बाद सोचता हूँ.. छापने के बाद भी सोचता हूँ.. और अगले दिन तक भी जो बात अखरती है तो उसे सुधारता रहता हूँ। फिर भी कभी-कभी ग़लती हो जाती है।

मेरा खयाल है कि मनुष्य पैदा तो पशु होता है; निरन्तर संस्कार से ही उसके भीतर से मनुष्यता पैदा होती है।

20 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

हम सभी गलतियां करते हैं.
उन्हें सुधारना और गलती के लिये माफी मांग लेना अच्छी बात है.

आपके कथन "मेरा खयाल है कि मनुष्य पैदा तो पशु होता है; निरन्तर संस्कार से ही उसके भीतर से मनुष्यता पैदा होती है" से मेरी संपूर्ण सहमति

बेनामी ने कहा…

अविनाश पर जो आरोप हैं वह सामान्य सामाजिक भूल नहीं एक संगीन अपराध है। मैथिली जी संगीन अपराध को भूल कहने की भूल न करें । इस मामले में अविनाश के पास नकार और लड़की को चरीत्रहीन कहने के अलावा कोई और राह नहीं है। गलती मानने या भूल सुधार की भूल अविनाश को जेल भेंज देगी।

इष्ट देव सांकृत्यायन ने कहा…

अविनाश वाले विवाद का सच क्या है, यह तय करना अब अदालत का काम है, लेकिन स्क्यूलरिज़्म पर आपने जो कुछ कहा, वह प्रशंसनीय है. जिस दिन तथाकथित सेक्यूलरिस्टों की यह प्रवृत्ति सुधर जाएगी, देश से साम्प्रदायिकता विदा हो जाएगी. क्योंकि हाफ पैंटियों के ट्यूब में जो हवा होती है वह ऐसे सेक्यूलरिस्टो के दोगलेपन के पम्प से ही निकलती है.
बधाई स्वीकारें और अगर शाहरुख-अमिताभ वाली बात भी आपने लिखी है तो कुछ ग़लत नहीं किया है. अपने लिखे को एडिट करना मैं सिर्फ़ निजी अधिकार का मामला ही नहीं, बल्कि किसी हद तक ज़रूरी भी मानता हूँ. इसलिए भे क्योंकि यह लेखक आत्ममुग्धता के रोग से बचाता है.

बोधिसत्व ने कहा…

किसी पर हाथ उठाना और किसी की हत्या करना एक जैसे नहीं हो सकते। किसी को मारने की बात करना और मारना दोनों अलग-अलग बातें हैं...आपने एक मानसिक या संस्कार संचालित स्वभाव को रेखांकित किया है....

उस क्षण यदि जैसा आरोप लड़की ने लगाया है वैसा कुछ हुआ होगा तो या निर्लज्ज आरोपी क्यों न हो, स्वकृत्य को स्वीकार करने की हैसियत नहीं रखता है। यदि ऐसा कुछ हुआ है तो यह कुकृत्य है। हर सामाजिक आदमी के जीवन में ऐसे क्षण आते हैं जब वह आराम से बलात्कार का आरोपी तो बन ही सकता है...लेकिन वह संस्कार, सामाजिकता और दायित्व का बंधन ही है जो किसी को भी ऐसा करने से रोकता है। बाल हत्या, स्त्री अपमान हमारे समाज के सबसे सहज अपराध हैं। क्योंकि ऐसे मामले में अबोध बच्चा कुछ प्रतिरोध नहीं कर पाता और स्त्रियाँ या लड़कियाँ चुप कर जाती हैं । क्यों कि लड़की के मुह खोलते ही सामने वाला पलट कर कहता है चुप छिनाल....तू तो ऐसी ही है....किसी के बहकावे में मेरे उज्वल चरित्र को कलंकित कर रही है।

यहाँ मैं बेनामी से भी सहमत हूँ। आरोपी के पास एक ही मार्ग है....आरोपी अपने को सुच्चा और लड़की को लुच्ची कहे। जब आपने अपनी एक पोस्ट में मेरा समर्थन किया था तो भी इसी बलात्कार के आरोपी ने मेरे एक कमेंट को कुकृत्य की संज्ञा दी थी....।
मुझे नहीं लगता कि आरोपी के पास अभी कोई उपाय है ......केवल लड़की का गुम या चुप हो जाना ही राह है

मैं आपसे भी सहमत नहीं हूँ कि ऐसे मामले में सुधार हो सकता है। बलात्कार के प्रयास में क्या परिमार्जन क्या सुधार...वह सफल बलात्कारी हो सकते हैं या असफल आरोपी...जैसा कि अभी ब्लॉगर आरोपी बना है।

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

गलतियों को स्वीकार कर सुधारने का प्रयत्न करना पशुत्व का त्याग है।

डॉ .अनुराग ने कहा…

जब तक ब्लॉग जगत में नहीं आया था यदा कदा उन दिनों मोहल्ला खोल कर देखता था .तब शायद कभी कभार सार्थक बहस .कुछ सरोकार से जुड़े मुद्दे दिख जाते थे .पर सच जानिए पिछले एक साल से ..धीरे धीरे भरम सा टूटता ..नजर आया .मेरा ऐसा मानना है की जब आप किसी ऐसी स्थिति या ओहदे पर होते है जहाँ से चार लोग आपकी बात सुनते पढ़ते है आप पर अनजाने ही एक अलिखित जिम्मेदारी आ जाती है ..कुछ सरोकारों से जुड़ने की ..शायद इस माध्यम से उस संवाद की प्रक्रिया को शुरू किया जा सकता था जो किसी नौकरी में बंधे दिमाग को करने नहीं देती ...पर अफ़सोस यहाँ भी शायद टी आर पी का खेल ओर सनसनी फैलाना बाकी चीजो से ज्यादा महतवपूर्ण हो गया ....मुआफ कीजिये मै उनसे खासा प्रभावित नहीं हुआ ...
कहते है प्रशंसा से आप किसी को भी जीत सकते है ओर आलोचना से किसी को भी हार ....बड़े बड़े बुद्दिजीवी ओर लेखक भी असहमतियों को पचा नहीं पाते है ...फिर ब्लॉग जगत भी समाज के ही आम लोगो का प्रतिनिधित्व ही करता है ...जाहिर है यहाँ भी असहमतिया पचती नहीं है ओर बहस अनर्गल ओर निजी हो जाती है...ओर कभी कभी इतने छिछले स्तर पर पहुँच जाती है की लगता है क्या ये वही ब्लॉग जगत है ..जिस के भागीदार होने का दंभ हम भरते है......

आखिर में आज आपने इमानदारी से कई सारी बाते लिखी ...उम्मीद है कल वे एडिट होकर ओर ईमानदार ही होगी .कमतर नहीं.

Arvind Mishra ने कहा…

उपसंहार !

बेनामी ने कहा…

"मेरा खयाल है कि मनुष्य पैदा तो पशु होता है; निरन्तर संस्कार से ही उसके भीतर से मनुष्यता पैदा होती है"

सच मनुष्य बडी खतरनाक आईटम होता है! मनुष्यता को पशुता से उपर रखने की रवायत रही है अभय, लेकिन मेरा आवलोकन तो ये है कि क्षुधा मिटाने के लिये हिंसक तो हाँ, लेकिन मैंने बलात्कारी पशु नहीं देखे! मनुष्य में वो शैतानी अंश है जिसे निरंतर संस्कार दबा देते हैं मगर मिटा नहीं पाते - मौका मिलने की देर है - ये सब पर लागू है. बिल्कुल सहमत हूं!

अनूप शुक्ल ने कहा…

सामयिक लेख। बहुत अच्छा लिखा! यह बड़ी अच्छी बात है कि अविनाश के तमाम शुभचिंतक यह मानते हैं कि उन्होंने ऐसा नहीं किया /वे ऐसा कर ही नहीं सकते। अविनाश के बारे में मैं कुछ न कहते हुये यही कहना चाहता हूं कि अपने समाज में स्त्रियों/बालिकाओं/बच्चों से छेड़खानी/विश्वासघात/जबरदस्ती करने वाले ज्यादातर वे ही नजदीकी लोग होते हैं जिनके बारे में पीड़ित ऐसा सोच भी नहीं सकता कि वे उनके साथ ऐसा भी कुछ कर सकते हैं।

हर एक का अपना डिफ़ेन्स मेकेन्जिम होता है। अविनाश का भी होगा! उसी के तहत वे मोहल्ले पर अपने से जुड़ने का प्रयास कर रहे हैं।

अजित वडनेरकर ने कहा…

बहुत बढ़िया आलेख। यह आलेख ऐसा नहीं है कि इस पर सहमति या असहमति वाली टिप्पणी दर्ज की जाए। महत्वपूर्ण यह है कि हममें से कितने लोग हैं जो लगातार स्वयं के परिष्कार में यकीन रखते हुए मनुष्य होने को सिद्ध करते रहना चाहते हैं। पाठ्य-संपादन के बहाने से अभयभाई ने बहुत अच्छा सामाजिक विश्लेषण किया है। मैं स्वयं इस प्रक्रिया से रोज़ गुजरता हूं। दनभर में खुद के लिखे से लेकर खुद के कहे तक पर गहरी आलोचनात्मक दृष्टि के साथ। कहे को तो एडिट नहीं कर सकता-मगर उसके बारे में कठोरता से खुद को धिक्कारता हूं और ऐसे बोल फिर न निकलें यह प्रतिज्ञा करता हूं। लिखे का संपादन लगातार जारी रहता है। परिष्करण में ही सुख और निवृत्ति है। हम सभी निवृत्त हो जाना चाहते हैं। पवित्र भाव से निवृत्ति हो जाए तो बेहतर है, अपराधबोध की निवृत्ति से मृत्यु को श्रेयस्कर मानता हूं।

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

विचारोत्तेजक!

बेनामी ने कहा…

इसलिये तो मैं लिखता ही नहीं हूं :)

बेनामी ने कहा…

आप सब घटिया लोग हैं।एक मान्य पत्रकार को अपमानित कर रहे हैं।कहीं भोपाल वाली घटना में आप सब का हाथ तो नहीं। आप सब कौन दूध के धुले हैं। सब का हिसाब लोग जानते हैं और पवित्र बनने की होड़ छोड़ दें। भला होगा। आमीन।

Shastri JC Philip ने कहा…

प्रिय अभय मेरी टिप्पणी के बारे में यहां जो परामर्श आया है उसके बारे में एक बात -- मेरा अनुमान है कि आप ने मेरे आलेखों को पढे बिना यहां मेरे बारे में लिखा है.

आप ने लिखा "उसके अनुसार महिलाओं पर किया गया हमला, भारतीय संस्कृति की रक्षा में था"

इस वाक्य से मैं ने अनुमान लगाया कि आप ने मेरे लिखे को नहीं पढा.

मैं ने मुतालिक का भी विरोध किया चड्डी-कांड का भी विरोध किया, न कि किसी एक का समर्थन किया.

आप जैसे प्रबुद्ध चिट्ठाकार किसी अन्य चिट्ठाकार के कथन का विश्लेषण करें तो कम से कम पृष्ठभूमि देख कर करें तो पाठकगण गलतफहमी से बच जायेंगे.

आप मेरे जिस टिप्प्णी की बात कर रहे हैं, वह मुख्य आलेख का हिस्सा नहीं बल्कि कुछ अनावश्यक टिप्पणी-प्रतिटिप्पणी जो चल रही थी उसका हिस्सा है एवं उस प्रष्ठभूमि में ही उसे समझा जा सकता है. जिन लोगों ने उसे पूरी तरह पढा है उन्होंने उसका अनुमोदन ही किया है.

सस्नेह -- शास्त्री

बेनामी ने कहा…

सभी व्लागिए देख रहे हैं। वह दिन दूर नहीं जब तुम पर भी रेप का मुकदमा चले। किसी को बेज्जत कर के निरमल आनन्द ले रहा है। कैसा लेखक है यह।कैसा सामाजिक है यह तिवारी। खुद बेनामी बन कर चेप रहा है कमेंट। धिक्कार है।

अभय तिवारी ने कहा…

प्रिय शास्त्री,
मैं ने आप के आलेख पढ़े थे। आप ने ग़लत समझा.. मैं ने राक्षस मुतालिक को कहा, आप को नहीं.. और "उसके अनुसार महिलाओं पर किया गया हमला, भारतीय संस्कृति की रक्षा में था", यह वाक्यांश उसी के सन्दर्भ में हैं। मैं जानता हूँ आप ने मुतालिक का विरोध किया था और पिंक अण्डीज़ का भी..

किस ने आप की टिप्पणी का अनुमोदन किया, इस से मुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।

सस्नेह

अभय

अनाम जी,
मुझे जो कहना था, मैं ने अपने आलेख में कह दिया। कुछ और कहने के लिए मुझे आप की तरह अपने ग़ुमनामी की शर्म में छिपने की ज़रूरत नहीं। आप अपने नाम से आखिर क्यों इतना शर्मसार हैं.? ..या फिर अपने विचार से?

Shastri JC Philip ने कहा…

प्रिय अभय, प्रतिटिप्पणी के लिए आभार!! आपसी चर्चा से बहुत सारी बाते स्पष्ट हो जाती हैं.

किसी भी बात में शत प्रतिशत सहमति कठिन है, लेकिन जब तक मैआप इस तरह खुले दिल से आपसी वार्तालाप के लिये तय्यार हैं तो फल अच्छा होगा -- हम सब को आपस में सीखने का मौका मिलेगा. मुझे कुछ और अधिक सोच कर लिखने की प्रेरणा मिलेगी.

मुख्य आलेख एवं प्रतिटिप्पणी द्वारा अपनी बात व्यक्त करने के लिये आभार!!

सस्नेह -- शास्त्री

मसिजीवी ने कहा…

निबंध 'नाखून क्‍यों बढ़ते हैं' याद आता है मनुष्‍य में पशुत्‍व है उसे काटना मनुष्‍य बने रहनस जिम्‍मेदारी है। यशवंत के इसी किस्‍म के मामले में जब अविनाश फुदक फुदक रहे थे तभी अविनाश (ओर खुद को) आगाह करते हुए कहा था जस का तस छाप रहा हूँ-
पर सिर्फ इतने से किसी और की कुछ कम लुच्‍चई क्षम्‍य नहीं हो जाती। आप स्त्रियों के लिए किस भाषा का इस्तेमाल करते हैं इससे यही पता चलता है कि आपके अंदर कितने पैमाने पर यशवंत बैठा...बाकि तो केवल मौका मिलने की बात है...यशवंत को अपनी पशुता अभिव्‍यक्‍त करने का मोका मिला और वह बाहर आ गई... अविनाश केवल सनसनीगर्ल आदि आदि कहकर ही रह गया।

दर्ज किया जाना जरूरी था इसलिए ताकि श्रेयसी और श्रावणी (क्रमश: मेरी और अविनाश की बेटी) ये न कह सकें कि अन्‍य यशवंतों को चीन्‍हते समय हम अपने भीतर के यशवंतों को पहचानना भूल गए।


किंतु यहॉं यह दर्ज करना भी जरूरी है कि पशुत्‍व को तरने की जिम्‍मेदारी साझा जिम्‍मेदारी है। यह इतना अहम काम है कि अमुक अपने भीतर के पशु को पहचान नहीं पाया, चलो एक छोटी सी भूल हुई कहकर मटियाया नहीं जा सकता।

Unknown ने कहा…

As always, very thought provoking...But I would like to know what role does "perception" play in forming one's opinions or also in the process of editing.

सुजाता ने कहा…

बेहद संतुलित विचारोत्तेजक लेख।पूर्ण सहमति है।

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