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बुधवार, 25 फ़रवरी 2009
एक गुस्ताख सवाल के बहाने
अभयजी,
एक मुश्किल में हूँ. जहाँ तक मुझे याद है आपने अपनी विनोद अग्रवाल वाली पोस्ट में कुछ ऐसा लिखा था कि आप नही जानते अगर अमिताभ अपने हर वाक्य के साथ श्री राम कहना शुरू कर दें, जैसे कि शाहरुख हर वाक्य में अल्लाह ले आते हैं, तो सेकुलरिस्टों की क्या प्रतिक्रिया होगी. अभी मैं यह या इससे मिलता-जुलता वाक्य उस लेख में नही पा रही हूँ. क्या आपने यह वाक्य एडिट कर दिया है? अगर किया है तो, और अगर आप उचित समझें तो कृपया बताएं की ऐसा आपने क्यो किया?
धन्यवाद
सोनाली
सोनाली जोशी अमरीका के एक संस्थान से मीडिया का अध्ययन कर रही हैं। वे मेरे ब्लॉग की नियमित पाठक हैं, और पिछले हफ़्ते उनका यह पत्र मुझे प्राप्त हुआ।
मेरा जवाब था:
सोनाली,
मैंने ऐसा तो कुछ नहीं लिखा था। हाँ, मैंने यह ज़रूर लिखा था:
“मैं ने पाया है कि सेक्यूलर एथॉस के भद्रलोक ‘अली मौला’ और ‘अल्ला हू’ पर झूमने में तो ज़रा नहीं झिझकते मगर ‘कृष्ण गोविन्द गोविन्द’ की धुन पर संशय में पड़ कर उसमें साम्प्रदायिकता की बू तलाशने लगते हैं। हो सकता है मेरी इस बात से हाफ़पैंटिया लोग उछलने लगें और सेक्यूलर बंधु नाराज़ हो जायं। मगर जो सच है वो सच है।"
और हाँ.. मैं अपनी पोस्टों को लगातार एडिट और रिएडिट करता हूँ। मैं नहीं समझता कि कि आदमी को सब से पहले जो दिमाग़ में आए लिख देना चाहिए। क्रूरता और हिंसा मनुष्य के स्वभावगत गुण है, जबकि मनुष्यता एक संस्कारजन्य अर्जित गुण है। मेरे अन्दर कई तरह के पतित, पतनशील और नकारात्मक विचार और मत वास करते हैं- जातिवादी और साम्प्रदायिक भी- और मैं उनसे लगातार लड़ता हूँ।
मुझे खुशी है तुम में ऐसा गुस्ताख सवाल करने का साहस है।
क्या तुम मुझे इसे एक पोस्ट बनाने की इजाज़त दोगी?
सादर
अभय
जवाब में सोनाली ने ये इजाज़त मुझे बख्श दी।
पिछले दिनों हमारे ब्लॉग जगत के बहुचर्चित अविनाश दास एक नए विवाद में घिर गए। इस विवाद की मूलवस्तु यही मनुष्यता का ही सवाल था हालांकि उसे इस दृष्टि से देखा नहीं गया। बात ये होती रही कि अविनाश ने ऐसा अपराध किया कि नहीं किया..? वो ऐसा कर सकते हैं कि नहीं कर सकते हैं। किया नहीं किया के प्रश्न के सम्बन्ध में लोग महज़ क़यास ही लगा सकते हैं। सच्चाई या तो वो लड़की जानती है, या फिर स्वयं अविनाश। ब्लॉग की दुनिया में लड़की का पक्ष कोई नहीं जानता; पर अविनाश के अनुसार वह लड़की पारम्परिक शब्दावली में चरित्रहीन है। और 'कर सकने' वाले सवाल पर मेरा मानना है कि हाँ वे ऐसा कर सकते हैं।
यहाँ मैं साफ़ कर दूँ कि न तो अविनाश के ऊपर पारिभाषिक अर्थों में किसी बलात्कार का कोई आरोप है और न ही मैं उन्हे बलात्कारी कह रहा हूँ। जहाँ तक मुझे मालूम है उनके ऊपर एक प्रकार की ज़बरदस्ती प्रेम (मॉलेस्टेशन) करने का आरोप है.. और जैसे अविनाश के तमाम नामी और अनाम मित्र कह रहे हैं कि अविनाश ऐसा कर ही नहीं सकते.. मैं मानता हूँ कि अविनाश ऐसा कर सकते हैं। और अविनाश ही क्यों.. हमारे बीच तमाम सारे लोग ऐसा कर सकते हैं.. किन्ही हालात में शायद मै स्वयं ऐसा कर सकता हूँ।
वैसे लोगों के साथ एक तरह की ज़बरदस्ती करना अविनाश का व्यवहार रहा है। ब्लॉग जगत में लोग उनकी उदण्डता से दुखी रहे हैं। उनके 'मोहल्ले' पर लोगों को अनाम चोले पहनकर नामधारी बन्धु गलियाते रहे हैं। गाली खाने वाले लोग विनती करते रहे हैं कि भई ये अनाम गालियों से मुक्ति दिला दो, पर अविनाश ने किसी के निवेदन पर कभी कान नहीं दिया और अपनी नैतिकता पर क़ायम बने रहे हैं।
मनीषा पाण्डे के साथ उनकी चैट को उन्होने जिस तरह से अपने ब्लॉग पर छापा और तमाम मिन्नतों और क्रोध प्रदर्शनों के बावजूद नहीं हटाया, वो एक तरह की ज़बरदस्ती ही थी। फिर एक अन्य प्रकरण में उन्होने हिन्दी के एक सम्मानित कवि असद ज़ैदी के साथ भी अपनी तरह की एक ज़बरदस्ती का नमूना पेश किया।
ब्लॉग जगत में मनीषा के प्रति उनके व्यवहार से सभी स्तब्ध थे, पर अविनाश की नज़र में ऐसी ज़बरदस्ती, उनकी पत्रकारिता की नैतिकता थी। मगर अभी हाल में अविनाश अपनी छात्रा पर प्रेम की ज़बरदस्ती के जिन आरोपों में उलझे हैं, उस के सिलसिले में उन्होने किसी भी नैतिकता का हवाला नहीं दिया बल्कि सीधे-सीधे अपनी छात्रा के चरित्र पर सवाल उठाया है।
अविनाश कोई एक अकेले व्यक्ति नहीं है जिसके ऊपर आरोप लगा है कि उसने एक लड़की के साथ ज़बरदस्ती की है। महिलाएं जानती हैं कि बहुत सारे सम्बन्धी, मित्र और सहकर्मी इस प्रकार की ज़बरदस्ती करते रहते हैं। अधिकतर आरोप तो मन में घुमड़कर ही दफ़्न हो जाते हैं। यदि महिलाएं लगाने पर आएं तो प्रेमी और पतियों पर भी ऐसे अनेको आरोप सामने आ जाएंगे।
मेरा आशय यहाँ पर अविनाश को किसी कटघरे में खड़ा करना है भी नहीं। मेरा आशय पुरुष के उस पाशविक वृत्ति की ओर इशारा करना है जो स्त्री के प्रेम को बाहुबल से हासिल कर लेना चाहता है। इसके पीछे पुरुष का स्वभाव है, सामाजिक संस्कार है, ऐतिहासिक परिस्थितियाँ है.. ये सब बहस का विषय है।
सविता भाभी जैसे साइट्स पर भी प्रगतिशीलता की बहस चलाने वाले अविनाश से मैं उम्मीद करता था कि वे प्रेम को लेकर स्त्री और पुरुष के अलग–अलग रवैये पर एक बहस छेड़ेंगे। मगर वे आत्म-ग्लानि और आत्म दया में लिप्त हो कर दुखी हो गए और अपने नारीवादी होने की बात दोहरा कर रह गए।
अविनाश भले ही मेरे मित्र न हों मगर मैं उनको सलाह देना चाहूँगा कि इस आपराधिक आरोप को बहुत निजी तौर पर ना देंखे बल्कि एक सामजिक वृत्ति के रूप में देंखे.. हम में से कोई भी ये अपराध कर सकता था.. किसी पर भी ये आरोप लग सकता था। क्योंकि हम सब मौलिक रूप से पशु हैं ये सिर्फ़ संस्कार ही हैं जो हमें मनुष्य बनाते हैं। अगर हम निरन्तर अपने आप को सुधारने की प्रक्रिया जारी न रखें तो हम कभी भी अपनी पाशविकता में उतर सकते हैं। दंगो में भी देखा जाता है कि अच्छे भले लोग दरिन्दों में बदल जाते हैं।
अब पिछले दिनों पिंक अन्डीज़ को लेकर ब्लॉग पर जो बहस चलीं उसमें सारथी के संचालक शास्त्री फिलिप- जो ईसा के चरण सेवक हैं और ब्लॉग जगत में बेहद सम्मानित हैं- एक बेहद शर्मनाक कमेंट कर बैंठे।
यह कमेन्ट उन्होने कुछ महिलाओं द्वारा प्रमोद मुतालिक नाम के राक्षस -सही अर्थों में राक्षस; उसके अनुसार महिलाओं पर किया गया हमला, भारतीय संस्कृति की रक्षा में था- को पिंक अन्डीज़ भेजकर की जाने वाली अभद्रता का विरोध करते हुए किया। अनैतिकता और अभद्रता के विरोध का ऐसा जज़्बा कि स्वयं अभद्र हो गए!
मैं ऐसे किसी भी कमेंट से बचने के लिए कुछ भी लिखने के पहले सोचता हूँ.. लिखने के बाद सोचता हूँ.. छापने के बाद भी सोचता हूँ.. और अगले दिन तक भी जो बात अखरती है तो उसे सुधारता रहता हूँ। फिर भी कभी-कभी ग़लती हो जाती है।
मेरा खयाल है कि मनुष्य पैदा तो पशु होता है; निरन्तर संस्कार से ही उसके भीतर से मनुष्यता पैदा होती है।
शुक्रवार, 23 मई 2008
मेरे मित्र बोधिसत्त्व
बोधि को कोई ब्लॉगर कह रहा है कोई साहित्यकार। मैं बोधि को तब से जानता हूँ जब वे साहित्यकार नहीं थे और ब्लॉगर तो नहीं ही थे.. वे थे सिर्फ़ एक छात्र.. मेरी तरह। हम दोनों इलाहाबाद में पढ़ते थे.. और कुछ-कुछ सामाजिक सरोकार भी रखते थे। मैं पी एस ओ का सदस्य था और वे एस एफ़ आई के। ये दोनों संगठन बहुधा मुद्दों पर एक साथ खड़े होते थे और चुनाव में एक दूसरे के विरूद्ध प्रत्याशी खड़ा करते थे और लड़ते थे.. मगर मेरे और बोधि के बीच में कोई संघर्ष नहीं था.. हाँ बहसें होती थीं.. और जैसी कि मेरी आदत थी मैं सामने वाले को ध्वस्त करने की कोशिश में रहता भले ही वो मित्र बोधि ही क्यों न हों। पर मेरी इस मरकही फ़ित्रत के बावजूद बोधि और मेरे बीच कभी कोई कड़वी घटना नहीं घटी। हम मित्र ही बने रहे..
बरसों बाद हम मुम्बई में मिले और मित्रता वहीं से शुरु हो गई। संयोग से आज हम दोनों एक ही पेशे में हैं; दोनों ही शब्द बेच कर पैसे कमाते हैं। आजकल बोधि भाई एकता कपूर के लिए महाभारत सीरियल के लेखन की ज़िम्मेवारी संभाले हुए हैं। ऐसा मौका मुझे मिलता तो मैं भी लोक लेता.. पर ये सौभाग्य बोधि भाई को मिला है। वैसे ये महज़ भाग्य की ही बात नहीं है.. उनकी व्यवहार-कुशलता का भी योगदान है। मैं व्यवहार-कुशल नहीं हूँ.. कई दूसरे लोग भी नहीं है.. पर इससे क्या बोधि की व्यवहार-कुशलता एक दुर्गुण में बदल जाती है?
मगर ये काम उन्हे मिलने के पीछे सब से महत्वपूर्ण कारण यह है कि वह इस काम के लिए सबसे योग्य उम्मीदवार हैं। बिना किताब का सहारा लिए वे घंटो महाभारत पर व्याख्यान कर सकते हैं.. रामचरित मानस की सैकड़ों चौपाइयाँ उन्हे मुँहज़बानी याद हैं। उनकी जैसी स्मृति का स्वामी मैंने दूसरा नहीं देखा। बोधि में अनेकों गुण हैं पर वो मर्यादा पुरुषोत्तम नहीं हैं.. हम-आप सब की तरह मनुष्य हैं। जहाँ गुण हैं तो कुछ कमियाँ भी हैं। ज़रूर हैं—सबकी होती हैं।
मेरे मित्र हैं .. गुणों को सोहराता हूँ और अवगुणों को हतोत्साहित करता हूँ। और ऐसा भी नहीं कि मेरे उनके बीच कोई वैचारिक मतभेद नहीं.. दो अलग मस्तक हैं मतभेद तो स्वाभाविक है। पर मित्रता मस्तक का नहीं हृदय का विभाग है। ज्योतिष जानने वाले बन्धु जानते होंगे कि कुण्डली में मित्र का स्थान चौथा घर है.. हृदय का स्थान। वैसे ग्यारहवां घर भी मित्रों का बताया जाता है पर वो लाभ का स्थान है.. और उस स्थान से संचालित मित्रता भी नफ़ा-नुक़सान वाली होती है। असली मित्रता तो चौथे स्थान की ही है।
इसीलिए मेरे कई मित्र ऐसे भी हैं जो भारतीय विद्यार्थी परिषद के प्रदेश अध्यक्ष हैं। कुछ शिव सेना के जिलाध्यक्ष रह चुके हैं। यानी कि जिनसे वैचारिक रूप से छत्तीस का आँकड़ा है। पर मित्रता तो व्यक्ति से होती है उसके विचारों से नहीं.. विचार तो व्यक्ति की संरचना का बहुत छोटा हिस्सा है। विचार बदलने में देर नहीं लगती .. तर्क की बात है .. एक पल में विचार इधर के उधर हो जाते हैं। और अगर तर्क से नहीं हुए तो मतलब साफ़ है कि विचार की जड़ में कोई आवेग कुण्डली मार के पड़ा है.. विचार की प्रधानता की बात ही खत्म हो गई।
फिर भी अगर किसी को लगता है कि मित्रता विचार के आधार पर होती है तो बचपन के मित्रों का क्या करेंगे? वो तो मित्र कहलाने के क़ाबिल ही नहीं रहेंगे! जबकि सच्चाई ये है कि जब कॉलेज से निकल कर नौजवान कुछ विचार करने लायक होता है तो मित्र बनाने की कला न जाने कहाँ हेरा आता है?
लुब्बे-लुबाब ये है कि बोधि भाई साहित्यकार हैं, ब्लॉगर हैं, और भी बहुत कुछ हैं.. पर वे उस वजह से तो मेरे मित्र नहीं हैं? मित्र तो सिर्फ़ एक मनुष्य, एक व्यक्ति होने के नाते हैं और रहेंगे।
भाई बोधि को कुछ लोग देख कर पुलिसवाला और पहलवान भी समझ लेते हैं पर अपने डील-डौल के बावजूद वे इतने विनम्र हैं कि मेरी ज़रूरत की चार किलो की पुस्तक को खरीद कर बलार्ड पिअर से ढो के मेरे घर तक छोड़ जाते हैं, अपनी एकता कपूर के साथ अपनी मसरूफ़ियत के बीच। फिर खुद पेचिश से कमज़ोर हो जाने के बावजूद अपने घर के मेहमानों के आग्रह पर उन को टाँड़ से किताबें निकाल-निकाल कर भी दिखाते हैं.. भले ही वो मेहमान उनके मित्र हों चाहे न हों!
प्रमोद भाई, अब तो ज़ाहिर हो गया, बोधि को अपना मित्र नहीं मानते.. और वे जो कुछ कहें- वो उनका मामला है- वो कह सकते हैं। वे भी मेरे मित्र है.. और मैं उनकी इज़्ज़त करता हूँ। बोधि के बचाव की मुद्रा में मैं उन पर पलटवार नहीं कर सकता.. पर बोधि अकेले खड़े पिटते रहें ये भी मैं नहीं देख सकता। ग़लतियाँ सबसे होती हैं.. बोधि से भी हो सकता है हुई हो.. पर वे खलनायक हैं ऐसा मानना मेरे लिए अस्वीकार्य है।
बरसों बाद हम मुम्बई में मिले और मित्रता वहीं से शुरु हो गई। संयोग से आज हम दोनों एक ही पेशे में हैं; दोनों ही शब्द बेच कर पैसे कमाते हैं। आजकल बोधि भाई एकता कपूर के लिए महाभारत सीरियल के लेखन की ज़िम्मेवारी संभाले हुए हैं। ऐसा मौका मुझे मिलता तो मैं भी लोक लेता.. पर ये सौभाग्य बोधि भाई को मिला है। वैसे ये महज़ भाग्य की ही बात नहीं है.. उनकी व्यवहार-कुशलता का भी योगदान है। मैं व्यवहार-कुशल नहीं हूँ.. कई दूसरे लोग भी नहीं है.. पर इससे क्या बोधि की व्यवहार-कुशलता एक दुर्गुण में बदल जाती है?
मगर ये काम उन्हे मिलने के पीछे सब से महत्वपूर्ण कारण यह है कि वह इस काम के लिए सबसे योग्य उम्मीदवार हैं। बिना किताब का सहारा लिए वे घंटो महाभारत पर व्याख्यान कर सकते हैं.. रामचरित मानस की सैकड़ों चौपाइयाँ उन्हे मुँहज़बानी याद हैं। उनकी जैसी स्मृति का स्वामी मैंने दूसरा नहीं देखा। बोधि में अनेकों गुण हैं पर वो मर्यादा पुरुषोत्तम नहीं हैं.. हम-आप सब की तरह मनुष्य हैं। जहाँ गुण हैं तो कुछ कमियाँ भी हैं। ज़रूर हैं—सबकी होती हैं।
मेरे मित्र हैं .. गुणों को सोहराता हूँ और अवगुणों को हतोत्साहित करता हूँ। और ऐसा भी नहीं कि मेरे उनके बीच कोई वैचारिक मतभेद नहीं.. दो अलग मस्तक हैं मतभेद तो स्वाभाविक है। पर मित्रता मस्तक का नहीं हृदय का विभाग है। ज्योतिष जानने वाले बन्धु जानते होंगे कि कुण्डली में मित्र का स्थान चौथा घर है.. हृदय का स्थान। वैसे ग्यारहवां घर भी मित्रों का बताया जाता है पर वो लाभ का स्थान है.. और उस स्थान से संचालित मित्रता भी नफ़ा-नुक़सान वाली होती है। असली मित्रता तो चौथे स्थान की ही है।
इसीलिए मेरे कई मित्र ऐसे भी हैं जो भारतीय विद्यार्थी परिषद के प्रदेश अध्यक्ष हैं। कुछ शिव सेना के जिलाध्यक्ष रह चुके हैं। यानी कि जिनसे वैचारिक रूप से छत्तीस का आँकड़ा है। पर मित्रता तो व्यक्ति से होती है उसके विचारों से नहीं.. विचार तो व्यक्ति की संरचना का बहुत छोटा हिस्सा है। विचार बदलने में देर नहीं लगती .. तर्क की बात है .. एक पल में विचार इधर के उधर हो जाते हैं। और अगर तर्क से नहीं हुए तो मतलब साफ़ है कि विचार की जड़ में कोई आवेग कुण्डली मार के पड़ा है.. विचार की प्रधानता की बात ही खत्म हो गई।
फिर भी अगर किसी को लगता है कि मित्रता विचार के आधार पर होती है तो बचपन के मित्रों का क्या करेंगे? वो तो मित्र कहलाने के क़ाबिल ही नहीं रहेंगे! जबकि सच्चाई ये है कि जब कॉलेज से निकल कर नौजवान कुछ विचार करने लायक होता है तो मित्र बनाने की कला न जाने कहाँ हेरा आता है?
लुब्बे-लुबाब ये है कि बोधि भाई साहित्यकार हैं, ब्लॉगर हैं, और भी बहुत कुछ हैं.. पर वे उस वजह से तो मेरे मित्र नहीं हैं? मित्र तो सिर्फ़ एक मनुष्य, एक व्यक्ति होने के नाते हैं और रहेंगे।
भाई बोधि को कुछ लोग देख कर पुलिसवाला और पहलवान भी समझ लेते हैं पर अपने डील-डौल के बावजूद वे इतने विनम्र हैं कि मेरी ज़रूरत की चार किलो की पुस्तक को खरीद कर बलार्ड पिअर से ढो के मेरे घर तक छोड़ जाते हैं, अपनी एकता कपूर के साथ अपनी मसरूफ़ियत के बीच। फिर खुद पेचिश से कमज़ोर हो जाने के बावजूद अपने घर के मेहमानों के आग्रह पर उन को टाँड़ से किताबें निकाल-निकाल कर भी दिखाते हैं.. भले ही वो मेहमान उनके मित्र हों चाहे न हों!
प्रमोद भाई, अब तो ज़ाहिर हो गया, बोधि को अपना मित्र नहीं मानते.. और वे जो कुछ कहें- वो उनका मामला है- वो कह सकते हैं। वे भी मेरे मित्र है.. और मैं उनकी इज़्ज़त करता हूँ। बोधि के बचाव की मुद्रा में मैं उन पर पलटवार नहीं कर सकता.. पर बोधि अकेले खड़े पिटते रहें ये भी मैं नहीं देख सकता। ग़लतियाँ सबसे होती हैं.. बोधि से भी हो सकता है हुई हो.. पर वे खलनायक हैं ऐसा मानना मेरे लिए अस्वीकार्य है।
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