मंगलवार, 29 मई 2007

न निर्मल न आनन्द

पिछले दिनो न मन निर्मल रहा और न उसमें कोई आनन्द.. ये मुगा़ल्ता कभी नहीं रहा कि मैं सच्चे निर्मल आनन्द को प्राप्त हो गया हूँ.. उसकी कामना ज़रूर है हृदय में.. कि मैं खुद एक ऐसी शांति और आनन्द को प्राप्त हो जाऊँ.. जहाँ सांसारिक प्रलाप मुझे व्यर्थ विचलित न कर सकें.. और मेरी कामना यहीं नहीं रुकती वो मोक्ष भी चाहती है..

यहां पर मैं यह भी साफ़ करना चाहूँगा कि ऐसी शांति मानव कल्याण की विरोधी नहीं होती वरन मानव कल्याण का उद्देश्य ही उस शांतिमय करूणा के मूल में स्थित होता है.. ऐसा पढ़ा है महापुरुषों की वाणियों में.. ऐसी शांति को प्राप्त हो कर ही बुद्ध, मुह़म्मद और कबीर मानवीय शोषण के विरुद्ध एक विराट मोर्चा खोल सके.. शैतान से लड़ने के लिये आपका खुद शैतान होना न सिर्फ़ गै़रज़रूरी है.. बल्कि ग़लत भी है.. अन्याय और अशांति से लड़ने के लिये खुद अशांत हो जाना भी कोई बुद्धिमानी नहीं मूर्खता है..

पर पिछले दिनों मैं इस मूर्खता से ग्रस्त रहा.. ये मूर्खताएं मेरी पुरानी साथी हैं.. लोगों से उम्मीदें रखना.. और उनकी चारित्रिक सीमाओं को जानते-बूझते हुए भी भावुक किस्म की बेडि़यों को ढोने लगना.. ये सब इस मूर्खता का बाहरी संस्कार है.. पर मूल विषय वस्तु इसकी मेरे भीतर ही विराजती रही है.. और समय समय पर अलग अलग लोग इसका निमित्त बनते रहे हैं.. जिसके चलते मैं इस बार भी एक आम प्रकार की नकारात्मक ऊर्जा से ग्रस्त रहा.. और एक विशेष प्रकार की हिंसा का संचार भी अनुभव करता रहा अपने भीतर.. और शरीर के अलग अलग अंगों में इसका असर भी महसूस करता रहा..

यदि दुनिया आभासी नहीं होती तो शायद इस हिंसा का असर सामने वाले पर होता.. हिंसा मानसिक धरातल से निकल कर भौतिक धरातल पर आती.. कुछ चोट उसे आती थोड़ी मुझे आती.. पर आभासी दुनिया में वह मुझे मारे.. या मैं उसे.. हिंसा मेरे ही मानसिक संसार में होती है.. दोनों वार मेरे ही मन पर होते हैं.. जिस प्रकार की विचित्र बीमारियों का शिकार हम शहरी लोग होते हैं.. वह इसी प्रकार की हिंसा और क्लेशों का परिणाम नहीं है, कौन ठीक ठीक कह सकता है..

मैं स्वार्थी आदमी हूँ.. लम्बा जीवन जीना चाहता हूँ.. और रोग मुक्त रहना चाहता हूँ.. इसीलिये शांति तलाशता हूँ.. अपने लिये.. फिर दूसरों के लिये भी.. जिन मित्रों के प्रति मैं नकारात्मकता और हिंसा पालता रहा वे माफ़ करें मुझे.. मैं उन्हे माफ़ करता हूँ.. वे न भी माफ़ करें तो वे स्वतंत्र है मुझे और गालियां देने के लिये.. मुझ पर सीधे और छिपे.. और हमले करने के लिये.. मैं उन्हे सह कर शांत रहने का प्रयत्न करूँगा..

मैं इस दुष्चक्र से बाहर आना चाहता हूँ.. निर्मल आनन्द को प्राप्त होना चाहता हूँ.. लेकिन.. बहुत कठिन है डगर पनघट की..

शनिवार, 26 मई 2007

आइये करें 'अच्छी-अच्छी बातें'

"पंडिज्जी, आपको क्या हो रहा है, बिल्लू और गोलाइयों से दाल-भात में घुस जाते हैं। फिर घी का छौंक लगाकर कुछ बापू आसाराम की प्रवचनाईयों में घुस जाते हैं। प्लीज कुछ इंटरेस्टिंग सी घटिया बातें करें , अच्छी-अच्छी बातें तो हम श्रद्धा, आस्था चैनल पर सुन ही रहे हैं ना।"

'बस करुणा' पर आई बेनाम की इस टिप्पणी से मुझे लगा कि शायद मुझे अपनी बात को और सफ़ाई से कहने की ज़रूरत है.. और जवाब इतना लम्बा भी हो गया कि उसे अलग से एक प्रविष्टि के तौर पर छाप रहा हूँ..

मित्र बेनाम आप चाहते हैं कि मैं अच्छी-अच्छी बातों को ऐसे बहरुपियों के हवाले कर के छोड़ दूँ.. जो तरह तरह के भेस बना कर अपने भक्तों को महापुरुषों की झांकी दिखाते हैं.. और जिसके फलस्वरुप हमारे देश की आशु-आहत जनता कई रोज़ तक एक प्रदेश को हिलाये रखती है.. ऐसे ही लोग आश्रमों के नाम पर ज़मीन हड़पते हैं और फिर ऐसे घोटालों का समाचार भी दबवा देते हैं.. भक्ति योग के प्रवचन देते हैं, जगतगुरु कहलाते हैं और बलात्कार के आरोप में त्रिनिदाद में पकड़े जाते हैं.. ऐसी महापुरुषों के श्री मुख से अच्छी-अच्छी बातों को सुनने से अच्छा है.. हम आप ही उसकी आपस में चर्चा करें.. हमें पता है कि न आप महापुरुष है न मैं.. तो हम बात को उसके तत्व से तौलेंगे.. बोलने वाले के क़द से नहीं..

मेरा सुझाव है कि आप भी कुछ गोलाइयों जैसी घटिया बातों के साथ साथ कुछ अच्छी अच्छी बाते भी करें.. देश तो दलालों के हाथ जा ही चुका है.. संसद(सत्ता) में प्रवेश करने का रास्ता बन्दूक की नली से हो के जाता है.. चेयरमैन माओ की इस बात को आजकल सभी लोग मानते हैं.. धर्म का ठेका मवालियों के हाथ में है.. नैतिकता पाखण्डियों की रखैल है.. कलाकार सनसनी बेचकर बिक जाने वालों का दूसरा नाम है.. और आम आदमी आम खाने लायक भी नहीं रह गया है.. आप मुझसे क्या उम्मीद करते हैं.. मैं हमेशा अपना संतुलन बनाये रखूँ और एक ही सुर में बात करूँ? ..मैं आपको बरदाश्त करने की करुणा अपने भीतर जगाना चाहता हूँ.. आप मुझे सहने की करूणा उगाइये..

शायद 'बस करूणा' में मेरी बात साफ़ तौर पर आप तक पहुँची नहीं.. मौलाना रूमी कृत मसनवी में मौजूद एक क़िस्से को वारसी बन्धुओं ने अपनी 'अल्ला हू' नामक क़व्वाली के भीतर जगह दी है.. ये अनुवाद किस शायर ने अंजाम दिया है यह जानकारी मेरे पास नहीं है..आप क़िस्से का लुत्फ़ उठाइये..

एक चरवाहा किसी जंगल में था
या महेकामिल कोई बादल में था( पूरा चाँद)


यादे मौला में हमेशा मस्त था
आस्मां उसकी ज़मीं पर बस्त था ( बसता था)


याद करते करते थक जाता था जब
काँप उठता दर्द से बाज़याफ़्ता तब(फिर से याद कर)

सर उठा कर अपना सू ए आस्मां
अर्ज़ की मालिक खुदा ए दो जहां

तू मेरी कुटिया में क्यों आता नहीं
क्या मेरा जंगल तुझे भाता नहीं

आ उतर आ अर्श से घर में मेरे(आसमां से)
पाँव धो धो कर पियूँगा मैं तेरे

रात दिन झूला झुलाउँगा तेरा
सुबह उठ कर मुँह धुलाउँगा तेरा

भीख दर दर माँग कर मैं लाउँगा
मैं तुझे पहले खिला कर खाउँगा

तो कर रहा था वो यूँ ही शोरोफ़ुगां(दुहाई)
हज़रते मूसा भी आ निकले वहाँ

डाँट कर बोले अरे बकता है क्या
नूरे मतलफ़ को मुक़य्यद कर दिया( असीम ईश्वरीय सत्ता को शर्तों में क़ैद कर दिया)

किस क़दर कमबख्त तू नादान है
क्या खुदा तेरी तरह इंसान है

तू ज़ुरूर इस कुफ़्र का फल पायेगा
गै़रत ए हक़ से अभी जल जायेगा

कर चुके मूसा जब उसको दिलहज़ीन
वहीं आई हज़रते हक़ से वहई( आकाशवाणी)

क्या किया मूसा तूने ये क्या किया
कर दिया बंदे को मौला से जुदा

तुझको भेजा जोड़ने के वास्ते
तू नहीं था तोड़ने के वास्ते

अरे होश वालों का तरीक़ा और है
दिलजलों का और ही कुछ तौर है


करुणा का अभाव मूसा जैसे ईश्वरीय संदेश के वाहक को भी बहका सकता है.. हम आप तो क्या है..

कुछ लोग का करुण भाव अपने तक ही सीमित होता है..उनके बारे में क्या कहूँ.. कुछ की करुणा सिर्फ़ सधर्मियों यानी जिनसे उनकी वैचारिक एकता है.. उनके प्रति रहती है.. शेष का वो गला काट लेना चाहते हैं.. पर वो करुणा नहीं साम्प्रदायिकता है.. विधर्मियों के प्रति, जिनसे आपका वैचारिक वैषम्य है.. उनके प्रति करुणा ही सच्ची करुणा है.. उनके साथ एकता के सूत्र जोड़ पाना ही सच्चा धर्म..

शुक्रवार, 25 मई 2007

बस करुणा

कुछ मायने नहीं रखता कि आप ने कितनी किताबे पढ़ी हैं.. आप कितने प्रगतिशील/ रूढि़वादी/ क्रांतिकारी/ धर्म निरपेक्ष/ साम्प्रदायिक हिन्दू/ मुसलमान/ मनुवादी/ ब्राहमणवादी/ सहजवृत्तिवादी/ विवादी जो भी हैं.. अगर आप के हदय में करुणा नहीं है.. तो सब वृथा है..

अच्छे से अच्छा सिस्टम दमनकारी हो जाता है.. दुनिया का सबसे समता मूलक सबसे जनतांत्रिक विचार भी जनविरोधी बन जाता है..मनुष्य द्वारा मनुष्य के ही दमन का हथियार बन जाता है.. बना है और बनता रहेगा यदि मनुष्य मात्र के प्रति करूणा व्यक्ति के हृदय में ना हो.. और एक अकेली करूणा भर के होने से सबसे दमनकारी तंत्र भी हितकारी बन सकता है.. और अंगुलिमाल भी अरहंत बन सकता है..

सुन्दर भावों के बिना सुन्दर विचार कूड़ा है.. चाहे वो जिस किसी का भी हो.. इसीलिये मुझे बार बार यही लगता है कि आज ज़रूरत धर्म को उखाड़ फेंकने की नहीं सच्चे धर्म को जानने, सच्चे धर्म में वापस लौटने की है.. धर्म में.. सम्प्रदाय में नहीं.. एक ऐसा धर्म जो आप के भीतर करुणा का दीप जला सके..

मंगलवार, 22 मई 2007

बिल्लू का बचपन ४

बिल्लू ने देखा सड़क के किनारे की ज़मीन सड़क से काफ़ी नीचे थी जैसे कोई बड़ा सा गढ्ढा हो.. और उस गढ्ढे में उनसे थोड़ी दूर पर एक औरत बैठी हुई थी.. उनकी तरफ़ पीठ करके.. बिल्लू को उसका चेहरा नहीं दिख रहा था.. पर उसके साँवले शरीर की कमर के नीचे का हिस्सा बिना कपड़ो का नंगा दिख रहा था.. बिल्लू ने ऐसा दृश्य पहले कभी नहीं देखा था..

वह एक टक उधर देखता ही रह गया..वो दो साँवली गोलाइयाँ थीं.. अगर वो लाल होतीं और उनके किनारे हरे रंग के.. तो बिल्लू समझ जाता कि वो एक बड़े तरबूज़ की कटी हुई दो फाँकें हैं जो अगल बगल रख कर आपस में किसी तरह जोड़ दी गई हैं..अगर वो उजली होती तो बिल्लू सोचता कि शायद वो कोई भूला भटका पूरा चाँद है जो भरी दोपहर में निकल आने की अपनी गलती जानकर एक औरत के लहँगे में घुसने की कोशिश में फट कर दो हो गया है.. मगर ये ना चाँद था ना तरबूज़ ये तो कुछ और था गोल चिकना मगर साँवला.. बिल्लू ने सामान्य कूल्हे खूब देखे थे.. कपड़ों से ढके छिपे..एक पूरे शरीर का हिस्सा.. उन्होने कभी बिल्लू को इस तरह मोहित नहीं किया.. इन कूल्हो में कुछ विशेष था.. ये उसे किसी शरीर का हिस्सा नहीं बल्कि अपने आप में वो एक विराट हसीन हस्ती बन कर उसके दिलोदिमाग़ पर छाते जा रहे थे.. उन गोलाइयों से बिल्लू की नज़रें हट ही नहीं रही थी.. मानों वे उम्र भर उन्ही गोलाइयों को खोज रही थीं और अपनी मंज़िल पा जाने पर अब कहीं और भटकने से उन्हे साफ़ इन्कार हो..

बिल्लू न जाने कब तक ऐसी ही खड़ा रहा.. इसी बीच उन साँवली गोलाइयों की स्वामिनी उस औरत ने अचानक मुड़कर उनकी दिशा में देखा.. और झटके से अपनी गोलाइयों को ढक दिया.. बिल्लू इस व्यवहार के लिये तैयार नहीं था.. फिर उसने सुना कि गोलाइयों को छिपा लेने वाली औरत एक ऐसी भाषा में कुछ बड़बड़ा रही है.. जो उसने पहले नहीं सुनी थी.. सुन्दर गोलाइयो वाली औरत क्रुद्ध दिख रही थी.. कुछ बात हुई थी जो उसके मन के विरुद्ध थी.. वो बिल्लू की ओर भी देख रही थी पर राजू की ओर अधिक अपना क्रोध फेंक रही थी.. बिल्लू ने देखा कि राजू हँस रहा था.. फिर अचानक मोहक गोलाइयों को छिपा लेने वाली औरत ने एक नुकीला पत्थर उठाकर राजू की तरफ़ फेंका.. बिल्लू और राजू दोनों छिटक थोड़ा दूर हट गये.. दूसरा पत्थर भी उनकी दिशा में उड़ता चला आ रहा था.. बिल्लू अपना बस्ता सँभालते हुए भागने लगा.. राजू भी भाग रहा था पर वो बस्ता नहीं अपनी पैंट की म्यानी सँभाल रहा था.. बिल्लू ने देखा कि उसने भागते भागते ही म्यानी की चेन को बंद किया.. बिल्लू को कुछ समझ नहीं आया वे भागते भागते काफ़ी दूर निकल आने के बाद ही थमे.. जब उनकी साँस फूलने लगी..राजू अभी भी हँस रहा था.. बिल्लू को समझ में नहीं आया कि हँसने की क्या बात थी.. क्या राजू उन गोलाइयों के ढक जाने से खुश था.. या उन की स्वामिनी से पत्थर खाकर उसे आनन्द आया था.. या कोई और ही वजह थी जिसे बिल्लू समझ नहीं सका..

इस घटना के बहुत दिनों बाद तक भी बिल्लू उन गोलाइयों को भुला नहीं सका.. उसे पत्थर फेंकने वाली औरत का चेहरा याद नहीं था मगर गोलाइयां किसी अनोखे आधे चाँद की तरह उसके मन के आकाश पर सर्वदा आरूढ़ रहतीं.. उसके आँखे बंद करते ही न जाने कहाँ से वो तैरती सी आ जातीं.. और ऐसे उसके मानसिक पटल पर लहराती रहती जैसे यही उनके अस्तित्व का उद्देश्य हो..

सपनों में तो और भी विकट स्थिति थी.. बिल्लू पतंग उड़ा रहा होता और उसकी पतंग का आकार उन गोलाइयों जैसा होता.. बिल्लू पतंग की डोर छोड़ने के बजाय लपेटने लगता.. जब वो नज़दीक आती तो बिल्लू को पता चलता कि वे पतंग की तरह हलकी नहीं .. उनसे भी ज़्यादा हलकी होतीं.. इतनी ज़्यादा कि उन्हे छूते ही बिल्लू सतह से उठने लगता और उठता ही जाता ऊपर.. और ऊपर.. या फिर बिल्लू इम्तिहान का परचा लिख रहा होता..और कॉपी पर शब्दों की जगह गोलाइयां आकार ले रहीं होतीं.. बिल्लू उसे रबर से मिटाने की कोशिश करता.. और रबर के बदले उसके हाथ में वो गोलाइयां आती.. उनके स्पर्श से बिल्लू एक अजीब सनसनी से ग्रस्त हो जाता.. और धीरे धीरे उनका आकार बढ़कर इतना हो जाता कि वह बिल्लू के बाज़ुओं से बाहर निकल जातीं..और बिल्लू घबरा कर उन्हे सँभालने की कोशिशें करता हुआ कक्षा के बाहर भागता..

जागृति के हादसे भी कम नहीं थे.. स्त्रियों के कूल्हे देखते ही बिल्लू के मन में बसी हुई गोलाइयां.. उन कूल्हों के ऊपर छा जातीं.. ये स्त्रियां जो बिल्लू की पड़ोस की कोई दीदी या आंटी होती.. जो एक खास सामाजिक माहौल में बिल्लू को दिखतीं मिलतीं.. बिल्लू का उनके साथ एक आदर सम्मान का रिश्ता होता.. उनके ढके छिपे कूल्हों पर बिल्लू की उन मनभावन गोलाइयों के छा जाने से बिल्लू के मानसिक जगत में बड़ा गड्ड-मड्ड होने लगता.. और न जाने क्यों इस गड्ड-मड्ड के होने के बाद मन में कहीं से एक तरल ग्लानि आ कर सब ओर फैल जाती और उन गोलाइयों के आनन्द को डुबा देती.. उनके डूब जाने से या किसी अन्य वजह से बिल्लू देर तक अपराधी महसूस करता रहता..

घी खाओ सेहत बनाओ

१२ जून के नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण में सेहत सम्बन्धी एक खबर छपी थी.. "स्टॉकहोम स्थित कैरोलिंस्का इंस्टीट्यूट के रिसर्च ग्रूप की मुखिया रिसर्चर डॉ. मैग्देलिना रॉसेल के मुताबिक वेट कन्ट्रोल करने में डेयरी प्रॉड्क्ट्स की अहम भूमिका है। इस स्टडी के अनुसार दूध और दूध से बने उत्पाद शरीर में चरबी को रेगुलेट करने में मददगार साबित होते हैं.. "

आप को यहाँ कुछ विसंगति नहीं दिख रही है..? पूरी मेडिकल साइंस.. और उसका प्रचार तंत्र.. सालों से ये बात हमें ठेल ठेल कर समझा रहा है.. कि घी दूध मक्खन खाने से कोल्स्ट्रॉल बढ़ता है.. जो दिल का दौरा पड़ने में मुख्य खलनायक की भूमिका निभाता है.. तो सभी समझदार भाई बंधुओ ने अपने पूर्वजों को गरियाते हुए.. उन्हे निरे मूढ, ढोर और गँवार के समकक्ष रखते हुए पश्चिम के इस आँखें खोल देने वाले ज्ञान को खुद भी आत्मसात किया और अपने नवजातों को भी पैदा होते ही बाँटना चालू कर दिया.. चार साल की बेटी को आम मध्यमवर्गीय परिवार में घी दूध से परहेज़ करते देख किसी को आश्चर्य नहीं होता.. सब उसकी समझदारी से खुद सीख लेने के लिए प्रेरित हो जाते हैं..

तो भाई साहब हमारी घी खा के सेहत बनाने की पुरानी बुद्धि किसी तरह से अभी इस ज्ञान को नन्हे मुन्नो को देने में सफल हुई ही थी कि हो गया एक नया धमाका..

(खबर पढ़ने के लिये चित्र पर क्लिक करें)

मैं दुखी हो गया हूँ.. इस एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति से.. ये कोई अपवाद नहीं है.. रोज़ यही होता है.. रोज़ सत्य की एक नई परिभाषा जन्म लेती है.. बच्चे के लिए माँ के दूध के बारे में भी यही गोलमाल हुआ था.. नमक में आयोडीन के बारे में सच क्या है.. इस पर बहुत कुछ कहा जाना शेष है.. एन्टी बायोटिक्स का विषैला प्रभाव कितना गहरा और दूरगामी होता है.. इसके बारे में कितने लोग जानते हैं.. स्टेरॉयड क्या क्या साइड इफ़ेक्ट्स करने की छिपी शक्ति भी रखते हैं.. क्यों नहीं बताया जाता.. क्या इन 'सत्यों' और इनसे जुड़ी दवाइयों तथा अन्य उत्पादों को बाज़ार में उतार देने के पहले वे सचमुच उनके बारे में ठीक ठीक जानते होते हैं..? या जैसे जैसे समस्या होती है.. वे सीखते जाते हैं..?

जब इनके पास कोई निष्कर्ष हैं ही नहीं.. तो ये किस बिना पर पूरी दुनिया पर प्रयोग पर प्रयोग किए चले जा रहे हैं..और अपने अधकचरे ज्ञान को अन्तिम सत्य की तरह हमारे गले में ठेल रहे हैं.. उनकी बात तो एक बारगी फिर भी समझी जा सकती है.. वो व्यापारी है.. उन्हे अपनी दवाएं बेचनी है.. सफ़ोला जैसे दूसरे माल बेचने हैं.. पर हमें आपको किस कुत्ते ने काटा है जो इन नीम हकीमों के हवाले अपनी जान कर देते हैं.. क्या अब यह पूछा जाना ज़रूरी नहीं हो गया कि एलोपैथी किस आधार पर अपने को अन्य चिकित्सा पद्धतियों से श्रेष्ठ सिद्ध कर रही है.. ? और क्यों लोग उसके इस प्रचार पर भरोसा कर रहे हैं.. ?

रविवार, 20 मई 2007

फ़रीद खान की कविता



फ़रीद पटना के रहने वाले हैं.. उर्दू में एम ए और लखनऊ से भारतेन्दु नाट्य अकादमी से नाट्य कला में डिप्लोमा करने के बाद पिछले पाँच साल से मुम्बई में हैं.. मेरी ही तरह टेलेवीज़न के लिए लिख कर अपनी रोज़ी कमाते हैं.. कविताएं लिखते रहे हैं.. पर कभी छ्पाई नहीं.. पानी जैसे मूलभूत तत्व के प्रति श्रद्धांजलि के तौर पर फ़रीद खान की क़लम से एक कविता फूटी है.. आप सब की नज़र है..


पानी

खबर आई है कि कुएँ बंद किए जा रहे हैं,
जहाँ से गुज़रने वाला कोई भी राहगीर,
किसी से भी पानी माँग लिया करता था।

वैज्ञानिकों के दल ने बताया है,
कि इसमें आयरन की कमी है,
मिनिरलस का अभाव है,
बुखार होने का खतरा है।

अब इस कुएँ के पानी से,
सूर्य को अर्घ्य नहीं दिया जा सकेगा,
उठा देनी पड़ेगी रस्म गुड़ और पानी की।

सील कर दिये कुएँ,
रोक दी गई सिचाई।

सूखी धरती पर,
चिलचिलाती धूप में बैठी,
आँखें मिचमिचाते हुए अम्मा ने बताया,
चेहरे से उतर गया पानी,
नालियों में बह गया पानी,
आँखों का सूख गया पानी,
प्लास्टिक में बिक गया पानी।

गुरुवार, 17 मई 2007

मुझे दाल भात खाने दीजिये..

मोहल्ले के अविनाश जी मेरे सामाजिक दायित्वबोध से खुश नहीं हैं.. मैं उनसे कहना चाहता हूँ कि निर्मल-आनन्द कोई बहस का मंच नहीं है.. मेरी तरंग मेरी मौज है.. मुझे जो मन आयेगा, लिखूँगा.. मैंने किसी बहस की शुरुआत नहीं की न किसी बहस का समापन.. एक घटना हुई मन में कुछ विचार आये, लिखे, छापे.. चन्द्रप्रकाश महोदय को बेल मिल गई.. अब क्या चाहते हैं आप.. हम गुजरात और हिन्दुत्व के खिलाफ़ रोज़ कुछ न कुछ न लिखें.. नारा लगायें.. धरना करें.. क्या करें कि आप खुश हो के हमें गरियाना बंद कर देंगे..

पहले तो ये समझिये कि चन्द्रप्रकाश ने कोई महान कलाकृति नहीं बनाई है.. जो बनाया है वह पतनशील ही है.. कुछ लोग उसे कुत्सित मानसिकता कह रहे हैं.. और ऐसा कहने के लिये मैं उनका विरोध नहीं कर सकता.. हमारे यहाँ वस्त्रहीनता और सम्भोग आदि विषयों के चित्रण के प्रति एक उदार सोच रही है.. जिसके पीछे एक निश्चित दार्शनिक-आध्यात्मिक आधार भी होता था..मगर उसकी नीयत किसी विद्रूप या उपहास की नहीं होती थी.. श्री चन्द्रमोहन ने देवताओ की तस्वीर उनकी आराधना हेतु नहीं बनाई.. जो कुछ भी मैं पढ़ रहा हूँ उसके बारे में वो कोई गुएरनिका तो नहीं प्रतीत हो रही .. उन्होने गुजरात के दंगों की विभीषिका पर नहीं बनाया है ये चित्र.. किसानों की आत्महत्याओं पर भी नहीं.. ग्लोबल वार्मिंग और आगामी पानी के संकट पर भी नहीं..

और फिर वे गुजरात में हैं.. जहां मोदी साब का उग्र हिन्दुत्व सत्तारूढ़ है.. उस माहौल में आप ऐसी तस्वीर बना के जान बूझकर विवाद को आमंत्रित कर रहे हैं.. और एक बात और समझिये अब चन्द्रमोहन कोई बेचारे-टेचारे नहीं रहे.. वो लाखों करोड़ों में खेलने काबिल हो गये हैं.. अच्छा नाम मिला हैं उन्हे इस विवाद से.. चित्रकला जैसे अवरुद्ध कला माध्यम में जो आम जनजीवन से अपना सम्पर्क खो चुकी है.. अब उसे बाज़ार में बिकाऊ बनाने के लिये सिर्फ़ विवाद ही काम आता है.. इसी तरह हुसेन भी कोई महान कलाकार नहीं हैं.. वो सिर्फ़ सनसनी बेचते हैं.. मैं उन पर हुए मुक़दमों और हिंसक विरोध का विरोध करता हूँ.. क्योंकि मैं कट्टरता और असहिष्णुता का विरोध करता हूँ.. और अपने समाज और धर्म को ज़्यादा स्वस्थ ज़्यादा उन्मुक्त देखने की कामना रखता हूँ.. इसका मतलब ये नहीं कि मैं उनकी कला का समर्थन करता हूँ..

अच्छा होता कि चन्द्रमोहन की पेंटिग के विचार का विरोध वैचारिक तौर पर ही किया जाता.. ब्लॉग की दुनिया में उनके खिलाफ़ विचार आये हैं.. और मेरा उनसे कोई विरोध नहीं है.. मेरा विरोध गुंडागर्दी से है.. हिंसा से है.. किसी समुदाय के प्रति या व्यक्ति विशेष के प्रति लोगों के मन में बसे पूर्वाग्रह से है.. जैसे आप संजय बेंगाणी के बारे में पूर्वाग्रह से ग्रस्त होंगे.. मैं नहीं हूँ.. मैं उनकी बात को उनकी बात के आधार पर तौलूँगा ना कि इस आधार पर कि ये कौन कह रहा है.. और अगर मुझे उनकी कोई बात उचित लगती है.. तो आप को मेरी इस बात में केसरिया रंग दिखने लगेगा .. दिखे.. मैं परवाह नहीं करता.. मेरे अन्दर सब रंग है.. मैं अपने अन्दर के रंगो को प्रतिबंधित नहीं करता और ना उन पर बिल्ले लगाता हूँ..

अविनाश समेत आप सब लोगों से निवेदन है कि भाई लोग बिल्लो को फेंक दें.. पूर्वाग्रहों को छोड़ें.. और आदमी को उसकी सम्पूर्णता में स्वीकार करने की कोशिश करें.. किसी ब्लॉगिये से टूटी हुई मूर्तियों का हिसाब सिर्फ़ इसलिये ना माँगने लगिये क्योंकि वह मुसलमान है.. किसी अन्य को सिर्फ़ इस आधार पर दंगाई मत समझ लीजिये कि वह अपने देवी देवताओं को अपमानित करने का समर्थन नहीं करता.. और मुझे भी बख्शिये.. मैं कुछ मुद्दों पर अपने विचार लिखता हूं इसका अर्थ यह मत लगाइये कि मैं किसी से पंगा लेने आया हूँ.. मैं किसी तरफ़ नहीं मैं अपनी तरफ़ हूँ.. मैं शांतिप्रिय आदमी हूँ.. मुझे अपनी शांति में रहने दीजिये.. और दाल भात खाने दीजिये..

मंगलवार, 15 मई 2007

बिल्लू का बचपन ३


बिल्लू के पापा जी सिगरेट नहीं पीते थे.. वो पान खाते थे.. सिगरेट फ़िल्मों में विलेन पीते थे और हीरो भी जब वो दुनिया से नाराज़ होते थे.. राजू ने विलेन जैसी कोई बात नहीं की थी.. उसने तो "कहीं नहीं" जैसा ईमानदार जवाब देकर अपने मन की सच्चाई का परिचय दिया था.. वो हीरो हो सकता है.. वो जिस बेपरवाह नज़रों से नहर और उसके पार की कॉलोनी की ओर देख रहा था.. शायद वह किसी तरह की छिपी हुई नाराज़गी थी.. ऐसा बिल्लू ने सोचा..
राजू क्यों नाराज़ होगा दुनिया से.. क्या उसके पापा शराब पीकर उसकी माँ को पीटते थे.. या उसके पापा नहीं थे सिर्फ़ माँ थी जो उसको पढ़ाने के लिये दूसरों के घरों में महरी का काम कर रही थी.. या माँ भी नहीं थी.. बहुत बचपन में ही मर गई थी, टी बी की दवा वक्त पर ना पहुँच पाने के कारण.. क्योंकि दवा की दुकान वाले ने पैसे पूरे ना होने के कारणं सारी दवाओं का पैकेट उसके हाथ से छीन कर उसे सड़क की ओर धकेल दिया था.. या फिर किसी ने उसके हाथ पर लिख दिया था कि उसका बाप चोर है..
ये आखिरी बात सोच कर बिल्लू ने धीरे से राजू की हाथ की ओर देखा.. राजू ने एक हाथ मोड़कर सर के नीचे रखा हुआ था और दूसरे हाथ से सिगरेट पी रहा था..राजू ने अपनी कमीज़ की आस्तीनें मोड़कर ऊपर तक चढा़ई हुई थीं.. बिल्लू ने देखा कि सिगरेट वाले हाथ में कुछ भी नहीं लिखा था.. सर के नीचे वाले हाथ को ठीक से ना देख पाने के लिए बिल्लू और आगे की ओर झुक गया.. मगर फिर भी ना देख पाने के कारण.. उसने राजू के बराबर लेटने की मुद्रा में आने का फ़ैसला किया.. बिल्लू के लेटते ही राजू ने सर के नीचे का हाथ निकाला और उसी का सहारा लेकर उठ खड़ा हुआ.. इस अन्तराल में बिल्लू को राजू के उस हाथ की एक झलक भर ही मिल सकी.. वहाँ नीले रंग से कुछ लिखा हुआ था..बिल्लू ठीक से पढ़ नहीं सका कि क्या.. बिल्लू ने देखा राजू ने सिगरेट को उंगलियों से ठोकर मार कर नहर की तरफ़ उछाल दिया.. सिगरेट उड़ती हुई नहर के पानी पर गिरी.. और नहर के पानी की सतह पर हलके हलके हिलने लगी..

यह देखते देखते बिल्लू थोड़ा भ्रमित हो गया उसे समझ नहीं आया कि नहर के हलके हलके हिलते पानी के साथ सिगरेट हिल रही थी.. या सिगरेट जिस गति से उड़ती हुई आई थी उस गति के प्रभाव से अब नहर का पानी हिल रहा था..इस परिघटना को ठीक से समझने के लिये बिल्लू ने नहर किनारे की मिट्टी का एक बेढंगा ढेला नहर के पानी पर लगभग सिगरेट के आस पास ही फेंका.. ढेला जल्दी से पानी में डूब गया.. जैसे बिल्लू के इस प्रयोग में उसका सहयोग सिर्फ़ किनारे से उड़कर पानी की सतह तक जाने तक ही था.. ढेले के इस असहयोग का दोष बिल्लू ने ढेले को नहीं दिया और सोचा कि शायद यह पानी का अपना फ़ैसला था कि किसे वो तैरने देगा और किसे डुबो देगा..बिल्लू को तैरना नहीं आता था.. यह सोच कर वो नदी के स्वभाव के प्रति थोड़ा सशंकित हो गया..उसने देखा कि सिगरेट पानी की सतह पर अभी भी हलके हलके हिल रही थी.. सूरज की किरणें पानी पर गिर कर बिल्लू की आँखों को चौंधियाँ रही थीं.. और हैलीकॉप्टर की शक्ल के कीड़े भी पानी की सतह का निरीक्षण कर रहे थे.. फिर उस ने सोचा कि ऐसा भी तो हो सकता है कि उसके ढेले फेंकने और राजू के सिगरेट फेंकने के कौशल में अन्तर हो.. आखिर दोनों के उम्र और कद में भी तो अन्तर था.. और फिर राजू दुनिया से नाराज़ भी था..
राजू का ख्याल आते ही बिल्लू ने मुड़कर राजू की तरफ़ देखा.. उसके हाथ में अभी भी कुछ नीली स्याही से लिखा हुआ था .. जिसे बिल्लू पढ़ नहीं सका था..उसे पढ़ने के लिये बिल्लू दिन भर राजू के साथ साथ घूमता रहा.. और जब बिल्लू को उसे पास से पढ़ने का अवसर मिला तो उसने पाया कि वहाँ डॉटपेन से लिखा था.. राजू लव टू पिंकी.. बिल्लू थोड़ा निराश हुआ.. कहानी कुछ और थी.. राजू का किसी से प्रेम था और यह वाक्य उसी का बयान था.. इतना समझदार था बिल्लू.. मगर यह पढ़कर बिल्लू के मन में राजू की जो छवि बनी थी उसकी विराटता में थोड़ा अन्तर आ गया इसलिये नहीं कि राजू का बाप चोर नहीं था और वह किसी पिंकी नाम की लड़की के प्यार में था.. बल्कि इसलिये कि राजू की अंग्रेज़ी ठीक नहीं थी.. बिल्लू ने पूरे आत्मविश्वास से अपने नए दोस्त की गलती सुधारनी चाही..
'राजू लव टू पिंकी नहीं होता'..
'क्या ?'.. राजू ने त्यौरियाँ चढ़ाकर पूछा..
'ये गलत सेनटेन्स है.. राजू लव्स पिंकी सही सेनटेन्स है'..
राजू को बिल्लू की बात अच्छी नहीं लगी थी..
'इसको फिर से लिखो'.. बिल्लू ने मित्रवत सलाह दी...
'पागल है क्या'.. राजू ने बिल्लू को लगभग हिकारत से देखते हुए कहा..
राजू की हिकारत बिल्लू को समझ में आ गई.. वह चुप हो गया.. दोनों चलते रहे.. इस बीच दोनों चलते चलते नहर पार कर के कॉलोनी के अन्दर चले आये थे..अधिकतर सड़कें खालीं थीं.. कहीं कहीं दोनों तरफ़ मकान बन के तैयार खड़े थे.. कहीं एक तरफ़.. और कहीं एकदम सन्नाटा था.. वे अभी एक सन्नाटी सड़क पर थे.. अचानक चलते चलते राजू रुक गया और एक तरफ़ देखकर बोला.. 'वो देख'.. बिल्लू ने देखा सड़क के किनारे की ज़मीन सड़क से काफ़ी नीचे थी जैसे कोई बड़ा सा गढ्ढा हो.. और उस गढ्ढे में उनसे थोड़ी दूर पर एक औरत बैठी हुई थी.. उनकी तरफ़ पीठ करके.. बिल्लू को उसका चेहरा नहीं दिख रहा था.. पर उसके साँवले शरीर की कमर के नीचे का हिस्सा बिना कपड़ो का नंगा दिख रहा था.. बिल्लू ने ऐसा दृश्य पहले कभी नहीं देखा था..
(आगे फिर.. )

सोमवार, 14 मई 2007

बिल्लू का बचपन २

उस दिन भी बिल्लू के साथ ऐसा ही हुआ था कि जब वह स्कूल पहुँचा तो स्कूल अपने गेट के उस तरफ़ और बिल्लू गेट के इस तरफ़ बंद हो गये थे.. तभी स्कूल के अंदर बंद एक बच्चे को बिल्लू ने दीवार पर से स्कूल के बाहर की पथरीली ज़मीन पर फाँदते हुए देखा.. वह बच्चा जिसका नाम राजू था बिल्लू का दोस्त नहीं था.. राजू के इस दुस्साहस में उसे एक विचित्र आकर्षण अनुभव हुआ..जो उसे राजू की दोस्ताना नज़दीकी पाने के लिए प्रेरित करने लगा..

राजू बरमा से आया था .. और उसकी ही कक्षा में पढ़ता था.. पर वह कक्षा के अन्य विद्यार्थियों से उम्र में बड़ा और क़द में ऊँचा था..बिल्लू ने राजू से पहले किसी बरमा के निवासी को नहीं देखा था पर नक्शे में बरमा की स्थिति को देखा था... बरमा भारत वर्ष के पूर्वी किनारे पर होता है.. और उसका एक बड़ा भाग दक्षिण में बंगाल की खाड़ी में लटका होता है.. कई सारे नक्शो में जो पोस्टरो और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में बनाये जाते हैं.. बरमा वाला वह ज़मीनी हिस्सा भारत के नक्शे के भीतर ही दिखाया जाता है.. यह भी बिल्लू ने देखा था.. और इसी वज़ह से वह बरमा और भारत के एक नज़दीकी सम्बंध की एक कल्पित छाप भी मन में रखता था..

बिल्लू के मन में बरमा के निवासी की जो छवि थी उसमें उनकी नाक चपटी, आँखे छोटी और भिंची हुई होती थी लेकिन उसे समझ नहीं आता था कि राजू जो कि बरमा से आया है उसकी नाम आम हिन्दुस्तानियों से भी ज़्यादा ऊँची कैसे है.. सच में राजू की नाक उसके चेहरे का सबसे अनोखा पहलू थी जो माथे से निकलते ही अचानक उठ गई थी और फिर लगभग ९०अंश के कोण पर सीधे होठों की तरफ़ गिरती थी.. बड़ी सुडौल नुकीली और गठी हुई राजू की वह नाक बिल्लू को बहुत हैरान करती वह जब भे राजू को देखता तो उसकी नाक के विषय में सोचने लगता.. मगर उस दिन बिल्लू ने राजू की नाक के विषय में नहीं सोचा था.. क्योंकि उस दिन उसे राजू में कुछ और दिखा था जो उसकी नाक से भी ज़्यादा आकर्षक था..

राजू कूदते समय अपना संतुलन खो बैठा था और उसको अपने आपको पूरी तरह गिरने से बचाने के लिए हाथों का सहारा लेना पड़ा था.. सड़क के किनारे का एक नुकीला पत्थर उसकी हथेली में धँस गया था और हाथ के उस हिस्से में एक लाल रक्त की रेखा बन गई थी.. बिल्लू उसे मंत्रमुग्ध देख रहा था.. राजू ने रक्त की कोई परवाह ना की, अपने हाथों को झाड़ा, फिर हाथों से अपनी पैंट को झाड़ा और सबसे आखिर में अपने बस्ते को झाड़ा और चल पड़ा.. बिल्लू स्कूल की दुनिया की चिंताओं से बंधा वहीं खड़ा रहा.. मगर बिल्लू का मन उसको छोड़ राजू के साथ जाने लगा.. तो बिल्लू ने मुड़कर स्कूल के गेट की तरफ़ एक और बार देखा, स्कूल की चिंताओ की धूल को राजू की तरह अपने दिमाग के बस्ते से झाड़ा और वह भी चल पड़ा..

राजू धीरे धीरे बड़ी बेफ़िक्री से कदम रखता हुआ चल रहा था.. और बिल्लू उस तक पहुँचने की हड़बड़ाहट में जल्दी जल्दी.. दो चार कदम में ही बिल्लू राजू तक पहुँच गया.. राजू ने बिल्लू की ओर नहीं देखा जब बिल्लू ने राजू के ओर देखा.. वह दूर आकाश में देख रहा था.. 'कहाँ जा रहे हो?', बिल्लू ने पूछा.. 'कहीं नहीं' राजू ने लापरवाही के साथ कुछ समय के बाद बोला.. उतने समय बिल्लू उस अन्तराल के सन्नाटे को सहता रहा.. जवाब मिल जाने पर बिल्लू को ऐसी खुशी हुई जैसे कोई खोई हुई किताब मिल गई हो.. बिल्लू ने सोचा कि राजू तुमसे मतलब कहके उसे अपनी दुनिया से बाहर भी कर सकता था पर उसने सच्चा जवाब देकर दोस्ती का हाथ बढ़ाया है.. इसी बात को उसने खोई हुई किताब के बराबर मूल्यवान पाया.. और उसका सारा बदन हलका हो कर एक ऐसी लापरवाही से भर गया जो उसकी अपनी ना थी .. किसी को देख कर उसने जल्दी से सीख ली थी..

राजू जाकर नहर के किनारे पसर गया था और बिल्लू भी बस्ता कंधों से उतार कर उसकी बगल में बैठ गया था.. ये नहर स्कूल से सौ एक कदम की दूरी पर थी.. और धूप में चमकते पानी से लबालब भरी थी.. नहर के पार जाने के लिए सड़क पर एक पुल बना था जिस पर इक्का दुक्का सायकिल और स्कूटर आती जाती रहती थी.. नहर के पार एक विशाल कॉलोनी थी जो अभी पूरी तरह बनकर तैयार नहीं हुई थी.. कुछ मकान बन कर पूरी तरह तैयार थे पर उसमें लोग रहने के लिए अभी नहीं आये थे.. और कुछ बन रहे थे जबकि लोग उसमें आकर बस चुके थे.. बिल्लू कभी भी नहर के उस पार नहीं गया था लेकिन कई बार स्कूल जाने के पहले और कई बात स्कूल छूटने के बाद इसी नहर के किनारे खड़े होकर उसने नहर के पार की उस विशाल कॉलोनी को देर तक ताका था और उसके भीतर होने के अनुभव की कल्पना की थी..

राजू ने लेटे लेटे ही अपनी जेब में हाथ डालकर एक सिगरेट का पैकेट निकाला और फिर दुबारा उसी जेब में हाथ डाल कर एक माचिस की डिबिया.. बिल्लू ने आँख फाड़ कर उसे देखा.. 'पियोगे'. राजू ने उसकी तरफ़ मुड़कर पूछा.. बिल्लू कुछ न कह पाया उसने बस तेजी से अपनी गरदन को ना में हिलाया.. शायद राजू को इसी जवाब की उम्मीद थी.. उसने बिना कोई हैरानी जतलाये सिगरेट सुलगाई और धुआँ उगलने लगा..

(आगे फिर.. )

रविवार, 13 मई 2007

बिल्लू का बचपन

बिल्लू ने गद्दी से उतरकर पैडलों पर ज़ोर मारते हुए चढ़ाई पार कर ली.. अब सायकिल हलकी हो गई थी.. दो चार पैडल मारकर वह गद्दी पर सुस्ताने लगा.. सायकिल में गति आ गई थी वह चलती रही..पुल के नीचे से ट्रेन गु़जरने वाली थी.. बिल्लू आती हुई ट्रेन को बिल्लू देखने लगा.. ट्रेन को पुल के नीचे से गुज़रते देखना बिल्लू को पसन्द था.. इस से उसे अचानक बड़े होने का अजीब सा एहसास होता था.. ट्रेन जै्सी विशालकाय हस्ती से भी बड़ा.. तो इस अनुभव को फिर से अनुभव करने के लिये बिल्लू ने साइकिल के पैडल से अपना पाँव हलका कर लिया ताकि ढलान शुरु होने के पहले ट्रेन का गुज़रना हो जाय..

बिल्लू के कुछ दोस्त पुल के नीचे से गु़ज़रती ट्रेन के ऊपर थूक कर मज़ा लेते थे.. बिल्लू को इस खेल में कभी मज़ा नहीं आया.. ऐसा करने के खयाल से ही उसे लगता कि वह ट्रेन में बैठे लोगों के सर पर थूक रहा है.. और ये सोच कर ही उसे याद आता कि उसे बताया गया है कि लोगों पर थूकना अच्छी बात नहीं है और वो ऐसा करने से अपने आप को रोक लेता क्योंकि वो एक अच्छा लड़का बने रहना चाहता था..

ट्रेन ने पुल के नीचे पहुँचने से पहले एक लम्बी सीटी मारी और दो छोटी.. थोड़ी देर के लिये बिल्लू के कानों से टेम्पो का भड़-भड़ करता शोर डूब गया.. और सिर्फ़ ट्रेन की सीटी की कनकनी उसके कानों को देर तक छेदती रही.. बिल्लू को ये कनकनी अच्छी लगती थी.. वह मुस्कुराया और एक बार दूसरी तरफ़ से निकल्ती ट्रेन को देखकर पेडल पर अपना पैर दबा दिया.. अब उसकी सायकिल ढलान पर फ़िसलने लगी तेज़ी से.. बिल्लू को पुल पर चढ़ना पसन्द था क्योंकि उसे पुल की ढलान से सायकिल का यूँ फ़िसलना अच्छा लगता था .. जितनी देर सायकिल ढ़लान से फ़िसलती रहती बिल्लू के माथे पर पड़े रहने वाले बाल पीछे की ओर उड़ते रहते.. उसकी कमीज़ सामने शरीर से एकदम चपक जाती और पीठ की तरफ़ से हवा भरने से फूल जाती.. और कानों में हवा के फ़ड़फड़ाने की आवाज़ उसे देर तक भीतर से गुदगुदाती रहती..

बिल्लू को सायकिल मिले ज़्यादा दिन नहीं हुए हैं.. पहले ये सायकिल उसके भैया के पास थी पर जब से उसका दाखिला एक बड़े स्कूल में हुआ है.. पापा जी ने साइकिल भैया से लेके उसे दे दी है.. भैया को अब साइकिल की ज़रूरत नहीं.. ज़रूरत को बिल्लू को भी नहीं है.. उसकी दुनिया में कुछ भी ज़रूरत का ग़ुलाम नहीं.. वो जो करता है मन की उमंग से भरकर करता है.. इसलिये सायकिल उसके लिये स्कूल जल्दी पहुँचने का और स्कूल से जल्दी घर लौट आने का एक ज़रिया भर नहीं है.. बड़े लोगों को ऐसा लगता है कि बिल्लू स्कूल जाने के लिये सायकिल चला रहा है.. जबकि सच्चाई यह है कि बिल्लू सायकिल चलाने के लिये स्कूल जा रहा होता है..

जब बिल्लू के पास सायकिल नहीं थी और उसका स्कूल भी पास में था..तो बिल्लू पैदल स्कूल जाता था..स्कूल का बस्ता जो अभी कैरियर पर दबा रहता है तब कंधो पर बद्धियों से लटका रहता.. बिल्लू को बार बार ढीली बद्धियो की वजह से झूल जा रहे बस्ते को सँभालने के लिये हाथों से ऊपर खींचना पड़ता, और बार बार कंधे उचकाने पड़ते..लेकिन इस उलझन के बावजूद बिल्लू रास्ते भर चिड़ियों, कुत्तों और सड़क के किनारे पौधों की जड़ों के पास रेंगते कीड़ों को देखते सुनते हुए जाता.. कई बार तो ये जीव इतने मनमोहक होते कि बिल्लू भूल जाता कि वो स्कूल जाने के लिये निकला है..और देर तक यूँ ही घर से स्कूल तक की छोटी सी दूरी पर भटकता रहता..

तीन चार बार तो वो इतनी देर से स्कूल पहुँचा कि प्रार्थना हो गई, बच्चे स्कूल के मैदान से कक्षाओं के भीतर चले गये, पहले पीरियड का घंटा बज गया, टीचर ने पढ़ाना शुरु कर दिया और स्कूल का गेट भी बंद हो गया.. एक बार स्कूल का गेट बंद हो जाने पर वह सिर्फ़ पूरी छुट्टी के बाद ही खुलता था..आधी छुट्टी यानी कि इन्टरवल में भी नहीं..यहाँ तक कि कुछ टीचरों ने प्रधानाचार्य से सिफ़ारिश भी की कि बच्चो को इन्टरवल के समय स्कूल के बाहर खड़े ठेले वालों और फेरी वालों से गेट की पतली झिरी से सामान लेने में बहुत कचर मचर हो जाती है..स्कूल का गेट खोल देना चाहिये.. पर प्रधानाचार्य नहीं माने.. उन्हे स्कूली बच्चों के पढ़ाई के प्रति आस्था में आस्था नहीं थी.. उनका खयाल था कि जो बच्चे सुबह अपनी मरज़ी से खुद स्कूल की कक्षाओं में आकर बैठे हैं वो इन्टरवल के समय गेट खोल देने पर भरभरा कर भाग निकलेंगे.. और वो ऐसा नहीं चाहते थे..शायद उनका ऐसा सोचना सही भी था.. क्योंकि कुछ बच्चे इन्टरवल में और कुछ इन्टरवल के भी पहले स्कूल की ऊँची दीवार फाँद कर बाहर की दुनिया में शामिल हो जाते थे..

(आगे फिर.. )

संस्कृति के रक्षकों से घुघूती बासूती की अपील

बड़ौदा में चन्द्रमोहन के साथ हुए हादसे के सम्बंध में मैंने जो प्रविष्टि दाखिल की थी.. उस पर अन्य प्रतिक्रियाओं के अलावा मेरी प्रिय महिला चिट्ठाकार घुघूती बासूती जी की भी प्रतिक्रिया आई और वह इतनी मार्मिक और सटीक लिखी गई है कि मैं चाह्ता हूँ कि आप सभी उसे पढ़ें.. आज मातृदिवस के अवसर पर इसे एक माँ की अपील समझ कर पढ़ें.. घुघूती जी मुझे क्षमा करें.. मैंने आपकी अनुमति के बिना ही यह फ़ैसला किया है..


ला के विषय में कोई कलाकार ही बोले तो बेहतर है । आम आदमी तो यही कह सकता है कि अमुक चित्र मुझे अच्छा लगा, अमुक नहीं । हो सकता है कि इस चित्र से किसी को ठेस लगी हो । किन्तु यह चित्र तो अभी प्रदर्शित ही नहीं किया गया था । यह कला विभाग का आन्तरिक मामला था । जिस संस्कृति को हम बचाना चाहते हैं वहाँ गुरु का आदर होता था । कला विभाग के गुरु जनों पर हमला कर उस संस्कृति को आप कैसे बचाएँगे ?

भारत की संस्कृति इतनी विशाल है कि कोई पूरा जीवन भी उसे जानने में बिता दे तो भी कम है । संस्कृति के रक्षक बनने से पहले उसका कुछ अध्ययन भी आवश्यक है । कुछ गहरे जाएँगे तो पाएँगे कि इसी संस्कृति में तंत्र भी था । ऐसा बहुत कुछ था जो हम विदेशी शासन के दौरान भूल गए । काम व नग्न शरीर गाली नहीं थे । कला के हाथ यहाँ बाँधे नहीं जाते थे । यदि ऐसा होता तो वात्स्यायन( क्या नाम सही लिखा है मैंने ?)को फाँसी लगा दी गई होती । खजुराहों के शिल्पकारों को जीवित गाढ़ दिया गया होता या हाथ तो काट ही दिये गए होते । बहुत से मन्दिरों में ताले लग गए होते ।

हमें पराये विक्टोरियन मूल्यों को कुछ पल ताक पर रख सोचना होगा कि संस्कृति के नाम पर कहीं हम अपनी संस्कृति को ही देश निकाला तो नहीं दे रहे । यह वह देश है जहाँ वाद विवाद होते थे धर्म पर व दर्शन पर । यहाँ तर्क करना मना नहीं था ।

लगभग एक सप्ताह पहले मैं इसी संस्कृति के विषय पर कुछ महिलाओं से पूछ रही थी कि वे किस संस्कृति की बात कर रही हैं ? यदि हम ये नए माप दंड अपनाएँ तो वह दिन दूर नहीं जब राधा का हमारे समाज में कोई स्थान नहीं होगा । हमारी मीराओं के भजन नहीं गाए जाएँगे । हमारी शकुन्तला कटघरे में खड़ी होगी । भरत के नाम से देश को नाम नहीं दिया जाएगा बल्कि शायद उसे किन्हीं और ही शब्दों से विभूषित किया जाएगा ।हो सकता है कि चित्र में कुछ गलत रहा हो किन्तु उसे प्रदर्शित तो होने देते । या फिर स्वयं कानून के दायरे में रह और विश्व विद्यालय से बाहर रह कानून का सहारा लेते ।

यदि भगवान किसी एक की धरोहर है और यदि हममें या किसी में भी उसका अनादर करने की क्षमता है तो वह अपनी परिभाषा के अनुसार भगवान रह ही नहीं जाता । अतः जब जब मैं अपने भगवान के लिए लड़ने जाऊँगी तब तब मैं उसके अस्तित्व को नकारूँगी । जिस भगवान को तुम पूजते हो उसे क्यों सर्वशक्तिमान के पद से उतार रहे हो ? क्यों स्वयं को उसके स्थान पर रख रहे हो ?

उत्साह व समाज में नव चेतना जगाने की भावना बहुत अच्छी है किन्तु इस उत्साह को किसी सकारात्मक दिशा में लगाओ । जिस धर्म के लिए प्राण हथेली में लिए हो उसे तो कुछ पढ़ो ।

यहाँ मैं यह कहना चाहती हूँ कि मेरा ज्ञान बहुत सीमित है । यदि मैंने कुछ भी गलत कहा हो तो कृपया मुझे बताइये, किन्तु उत्तेजित हुए बिना और यह माने बिना कि मैंने कुछ भी किसी की भावनाओं को चोट लगाने के लिए कहा है ।


घुघूती बासूती

शनिवार, 12 मई 2007

मत घोंटो कला का गला

९ मई को बड़ौदा की महाराज सयाजी राव यूनिवर्सिटी के फ़ाइनल वर्ष के छात्र चन्द्र मोहन को सेक्शन १५३ए के तहत धार्मिक वैमनस्य को बढ़ावा देने और धार्मिक भावनाओं को चोट पहुँचाने के आरोप में गिरफ़्तार किया गया और १० तारीख को उनकी ज़मानत देने से भी न्यायाधीश ने इंकार कर दिया.. (पूरा विवरण यहाँ देखें..) किया क्या है चन्द्रमोहन ने..? अपने एक आन्तरिक आकलन के हेतु से उसने एक चित्र बनाया जिसमें दुर्गा जीसस और शिवलिंग के प्रतीकों का प्रयोग किया.. ये कितना सही है कितना गलत.. यही सवाल है..

ये कौन तय करेगा कि कला का स्तर क्या हो.. कला की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की मर्यादा क्या हो..उसके अध्यापक करेंगे.. समाज का पढ़ा लिखा कलाकार तबका तय करेगा या संस्कृति के कुछ स्वनामधन्य ठेकेदार..?
कौन तय करेगा कि दवा में कैल्शियम की मात्रा कितनी हो.. ?
कौन तय करेगा कि पानी के नल में दबाव कितना हो..?
कौन तय करेगा कि बिजली के तार में आवरण प्लास्टिक का होगा या लोहे का.. ?

आप कहेंगे कि अगर कला धर्म के मामले में दखल देगी तो वो कला का मामला नहीं.. फिर वो धर्म का मामला है.. मैं माफ़ी चाहूँगा.. नहीं, आप अपने धर्म के अपमान मे लिये मुझे जेल नहीं भेज सकते.. मैं सांस लेता हूँ.. आपका अपमान होता है.. आप मुझे कहते हैं कि मैं अपनी कला को अपनी परिधि के भीतर करूँ.. आप अपने धर्म का पालन अपनी परिधि के भीतर करिये.. मैं क्या करता हूँ.. इस से आप का धर्म क्यों आहत होता है..

मैं भगवान को गोद में लेके पूजा करता हूँ.. आप मुझे मारने लगिये कि तुम ने अपमान किया..आप लोग मीरा को तो मार ही डालते.. वो तो कहती थी कि कृष्ण मेरा पति है.. फिर कुछ पुरुष ऐसे होते हैं जो कहते हैं कि मैं कृष्ण की पत्नी हूँ.. आप कहेंगे वो प्रेम है.. हम स्वीकार कर लेंगे.. पर ये शुद्ध अपमान है.. हमारे भगवान का.. हमारी परम्परा का..उन्हे भगवान से लेना देना नहीं वो सिर्फ़ अपमान करना चाहते हैं.. इस बात को समझिये कि हर पत्थर की मूर्ति भगवान नहीं होती.. हर रंगीन तस्वीर भी भगवान नहीं होती..

और फिर इस तरह की गई हर तुलना से भगवान आहत होते हैं तो राजस्थान के पोस्टरों का क्या जिसमें वसुन्धरा राजे को देवी और बीजेपी के नेताओं को भगवान का रूप दिया गया .. उस से आप को परेशानी क्यों नहीं होती.. जब कहा जाता है कि 'हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा विष्णु महेश है'.. तो आप उस भीड़ को बंद क्यों नहीं करते जेल में.. क्योंकि वहाँ आपके पास दम नहीं है कि मायावती जैसी शक्ति के साथ पंगा लें.. और इसके लिये जिस प्रकार की राजसत्ता की आवश्यकता है वो आपके पास गुजरात में है.. यू पी में नहीं..

तो आप क्या करते हैं..एक निरीह छात्र को निशाना बनाते हैं.. वी एच पी के एक नेता नीरज जैन जो एक वकील भी है, वि.वि. परिसर में एक भीड़ के साथ घुसते हैं जबकि छात्रों का आन्तरिक आकलन चल रहा है.. श्री जैन अध्यापकों के साथ और छात्रों के साथ गाली गलौज करते हैं और धक्कामुक्की भी करते हैं.. इस मौके पर पुलिस जिन्हे उन्होने पहले ही खबर कर दी थी, वहाँ पहुँचती है और मोहन को गिरफ़्तार कर लेती है.. समाज के धर्म निरपेक्ष चरित्र को भंग करने के आरोप में..

एक मिनट ज़रा समझे यहाँ हुआ क्या.. कौन किसके परिसर में घुसा.. क्या चन्द्र मोहन ने अपना चित्र चर्च और मन्दिर में रख दिया..और ये सुनिश्चित किया कि लोगों की धार्मिक भावनाएं आहत हो जाय.. या नीरज जैन साहब ने अपने साथियों के साथ कला विभाग में घुसकर कला व्यापार को और पुलिस को साथ लाकर सुनिश्चित किया कि कला की अभिव्यक्ति बाधित हो जाय.. वि.वि. में इस प्रकार बिना आधिकारिक अनुमति के आना भी एक प्रकार की उल्लंघन है.. तो कौन किसे आहत कर रहा है.. ये आप नहीं सोचना चाहते..

लेकिन चन्द्रमोहन को आप मार पीट कर जेल में बंद कर देंगे और ज़मानत भी नहीं देंगे क्योंकि आप की सरकार है और उसके पास कोई राजनैतिक ताकत नहीं है.. और इस से आप को अपने घटिया मुद्दे को जिलाये रखने की मौका मिलता है.. अगर आप सचमुच समाज के नैतिक पतन के बारे में चिंतित है तो विज्ञापनों में, टी वी में, अखबारों में.. गंदे अश्लील संदेश बंद कीजिये.. कला और कलाकार को अपना काम करने दीजिये.. नैतिकता की इतनी चिंता है तो व्यापारियों को अपने माल के बारे में उल्टे सीधे झूठ प्रचारित करने से रोकिये.. उस तरह के झूठे संदेश करोड़ो लोगों के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को प्रभावित कर रहा है.. एक झूठे विज्ञापन को करोड़ों लोग देख रहे हैं.. पर एक आपत्तिजनक पेंटिंग को कितने लोग देखते हैं.. किसकी धार्मिक आस्था में बदलाव आ जाने वाला है..

आप मुसलमानों को असहिष्णु कह कर प्रचारित करते हैं.. आप क्या कर रहे हैं.. उन्होने कार्टून मामलो में आन्दोलन किया.. आपने तो कोई जनतांत्रिक विरोध नहीं किया आप ने तो कुछ वीएच पी के कार्यकर्ता और राज्यतंत्र के सहारे का शार्टकट पकड़ लिया.. जबकि इस बार तो आपको ईसाई मत के पादरी इमैन्योल कान्ट का भी सहयोग मिला है.. क्या लोकतांत्रिक विरोध में आपकी आस्था नहीं है.. मुझे ऐसा लगता है कि आपकी आस्था लोक में नहीं है.. सिर्फ़ तंत्र(सिस्टम) में है..पर अगर आप हिन्दू तंत्र में उतर गये तो आप की आँखे फट के हाथ में आ जायेंगी.. क्योंकि वहाँ आपको जो 'अश्लीलता' मिलेगी, जिसकी एक झलक आप यहाँ दी गई परम्परागत तस्वीरों से ले सकते हैं, वो आपको एक पूरी ज्ञान की धारा और और ज्ञानियों को नष्ट करने के लिये प्रेरित करने लगेगी..जिस धारा के एक सिरे पर गोरखनाथ थे.. और दूसरे पर अपने ओशो..

कुछ लोग ये भी कहेंगे कि ये तो सीधा-सीधा का़नून का मामला है.. का़नून के खिलाफ़ कुछ होगा.. कोई रपट लिखायेगा तो उस पर कार्यवाही होगी और न्याय अपना रास्ता लेगा.. इस बात में कितनी निश्छलता है ये हम सब जानते हैं.. गुजरात के दंगो और वनज़ारा मामले के बाद इन सब तर्कों का सहारा न लिया जाय.. ये नीयत का मामला है.. और श्री मोदी साहब आप की नीयत में दोष है..

जूते का राज तिलक

तिलक तराजू और तलवार
इनको मारो जूते चार

ये नारा अस्सी के दशक के अन्तिम सालों और नब्बे के शुरुआती सालों का एक लोकप्रिय नारा था.. जिसे आप जनसमूह के स्वरघोष में नहीं सुनते थे.. मगर उत्तर प्रदेश के शहरों और छोटे बड़े कस्बों की लगभग सभी दीवारों पर पढ़ा जा सकता था.. इसकी एक वजह ये समझी जा सकती है कि दलित अपनी बात कहना तो चाहते थे पर स्वर ना होने के कारण दीवारों पर लिख कर ही काम चला लेते थे.. ऐसे ही सनसनीखेज और दलितों के भीतर के आक्रोश को अभिव्यक्ति देने वाले नारों की बुनियाद पर बहुजन समाज पार्टी की सफलता की इमारत खड़ी की गई..

उन्ही दिनों मैं इलाहाबाद के सडकों पर आरक्षण विरोधी और समर्थक छात्र गुटों में हिंसक झड़पों का भी साक्षी रहा.. बड़ी सामाजिक उथल पुथल का दौर था.. समाज के अलग अलग तबके एक दूसरे को अपने शत्रु के रूप में चिह्नित कर निशाना साध रहे थे.. वी पी सिंह साहब ने अपना मण्डल चुन लिया था और आडवाणी जी ने अपना कमण्डल खोल दिया था.. जब पूरा देश इन सारे मुद्दों में अपनी ऊर्जा स्वाहा कर रहा था.. पी वी नरसिंह राव और मनमोहन सिंह ने नई आर्थिक नीति लाकर भारत के भाग्य की एक अलग राह खोल दी थी. .ऐसा करने के पीछे उनकी नीयत देश के उद्धार की ही थी ऐसा उनका कहना है.. तो क्या हम इसका मतलब ये समझें कि १६ सालों में जिस वर्ग का उद्धार हुआ है क्या उसी का नाम देश है? खैर.. जो लोग देश की गिनती में नहीं आते थे उन्होने अपना अपना पाला चुन लिया और वो उन्ही को अगोरते रहे कि भैया भला करिहैं.. बहिनी करिहैं.. लेकिन इस सबके बीच अकेले देश का उद्धार होता रहा..

कल यू पी में चुनाव के नतीजे आ गये. और चौंकाने वाले आ गये.. देश को भी थोड़ा झटका लगा है कि देश का हित सोचने वाली पार्टियां हाशिये पर चलीं गई हैं..और हाशिये वाली पार्टी सत्ता पर काबिज हो गई है.. बहन मायावती सारे समीकरणों को ध्वस्त करती हुई बहुजन को बहुमत दिलाने में कामयाब रहीं..

इस चुनाव के कुछ दूरगामी परिणाम निकलने वाले हैं ऐसा मुझे लग रहा है.. आइये देखते हैं.. कि इन हालात का क्या मतलब है किसके लिये.. ?

सबसे पहले हारने वाले दल मुलायम सिंह के समजवादी दल की.. उनका मत प्रतिशत लगभग वही रहा है जो २००२ के पिछले चुनाव में रहा था.. बावजूद इसके कि कल्याण सिंह का लोध मत और बेनीप्रसाद वर्मा का कुर्मी मत इस बार उनके साथ नहीं था.. मगर अमर सिंह के सौजन्य से कुछ राजपूत मत भाजपा से टूट कर उनकी झोली में गिरा.. तो उनका अपना मतबैंक कमोबेश सुरक्षित है.. ये उनके लिये बड़े राहत की बात है.. उनके लिये इस चुनाव की हार का मतलब इसी चुनाव की हार है.. और आने वालों चुनावों में यादव समाज और मुसलमान समाज उनके पक्ष में ही मत डालेगा ऐसी एक सम्भावना है..

अब जीतने वाले दल बसपा की बात.. इसके पहले बहन जी तीन बार मुख्यमंत्री की गद्दी सँभाल चुकी है.. पर हमेशा दूसरे दलों के सहयोग से.. जिन्होने बहनजी को बेहद खफ़ा करते हुए बाद में कुर्सी खींच भी ली.. ये पहली दफ़ा है कि वे अकेले अपने बलबूते पर सत्ता पर आई हैं.. उनको ये मुकाम हासिल करने में मदद की ब्राह्मण समाज ने.. जिन्हे जम कर टिकट दिये गये.. और बदले में जम कर वोट डाला पंडिज्जी लोगों ने.. वो भी तो पिछड़ों के शासन से तंग आ गये थे.. और सत्त्ता से बहुत दिनों तक दूर रहने का अभ्यास नहीं है उन्हे.. साथ में मुसलमान समाज ने भी इस जीत में अपना योगदान किया.. खासकर पूर्वी उत्तर प्रदेश में.. तो दलित ब्राह्मण और मुसलमान.. ये विजयी समीकरण साबित हुआ.. ये वही समीकरण है जिसके सहारे कॉंग्रेस सालों साल राज करती रही.. फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि इस बार बागडोर ब्राह्मण के हाथ में नहीं.. एक दलित के हाथ में है.. अगर मायावती दो साल के अन्दर कुछ ऐसे काम कर देती हैं जिससे कि ब्राह्मण समाज को अपने फलते फूलते रहने की किरण झलक जाय और मुसलमान को उनमें एक नये सरंक्षक के दर्शन हो जायं तो बहुत सम्भब है कि २००९ के चुनाव में बहनजी देश में एक बड़े स्तर पर भी ये करिश्मा दोहरा दें..

सबसे बुरा हाल काँग्रेस का हुआ है.. पिछली बार २४ सीट थीं और इस बार २१ रह गई.. जिनमें से ७ अमेठी+रायबरेली से हैं..तो पूरे प्रदेश से कुल १४.. राहुल बाबा का रोड शो एक मामले में ज़रूर कामयाब रहा कि उसके चलते काँग्रेस की अब सड़क पर आने की सम्भावनएं प्रबल हो गई हैं.. सोनिया गाँधी ने सत्ता का बलिदान अपने बच्चों के भविष्य के लिये किया था.. पर राहुल बाबा के चमत्कारिक व्यक्तित्व ने तो पार्टी का भविष्य अँधेरे में कर दिया है.. कुछ लोगों को ऐसा लगता है कि राहुल की असफलता कॉंग्रेस के लिये उनकी वंशवाद पर आधारित नैया डूबने का संकेत तो ज़रूर है पर अन्तिम आस के रूप में प्रियंका अभी भी उनके पास है.. पर उनके आगे आने के लिये राहुल को राह से हटना होगा.. ऐसा करने के लिये एक बार एक बहन तैयार भी हो जाय, अपनी महत्वाकांक्षा के लिये पर माँ को कैसे गवारा होगा.. यानी आने वाले दिन काँग्रेस के बुरे दिन है.. अगर कुछ महीनों में आगे की तैयारी के लिहाज से काँग्रेस के भीतर तोड़ फोड़ शुरु हो जाय तो आश्चर्य की बात न होगी..
अब बाकी बचती है भाजपा.. अगर इस चुनाव में सबसे बड़ा नुक्सान हुआ है तो भाजपा को.. राजपूत सपा के साथ गये और ब्राह्मण बसपा के साथ.. ८ से ९ प्रतिशत की गिरावट आई है मतों में.. जातीय समीकरण तो टूटा ही टूटा.. जो साम्प्रदायिक कार्ड खेलने की कोशिश की गई थी वो भी बुरी तरह असफल रहा.. लोगों ने बड़े हिन्दू हित के आगे अपने परम्परागत जातीय पहचान और जातीय हित को तवज्जो दी.. १० में से ९ बार यही होगा आम तौर पर.. एक बार लोग हिन्दू हित में बह जाय मन्दिर जैसे मुद्दे के कारण.. पर काठ की हाँडी बार बार नहीं चढ़ती.. जाति ह्जारों साल की सच्चाई है, पहचान है.. हिन्दू एक कृत्रिम पहचान है.. थोपी हुई पहचान है.. इस वास्तविकता को भाजपा जानती तो है.. पर मानती नहीं है.. वो बदलते हुए समाज में उभरती हुई नई पहचानों के खेल में अपनी भी एक टोपी फेंक कर रोटी कमाना चाहते हैं.. पर अभी जो राजनैतिक स्थिति उभरी है वो उनके लिये बड़ी निराशाजनक है.. और पिछले दिनों नरमपंथियों और गरमपंथियों का जो संघर्ष भाजपा के भीतर चलता रहा है.. और जिस में विडम्बनापूर्ण तरह से नरमपंथी धड़े का नेतृत्व श्री आडवाणी कर रहे थे.. और गरमपंथियो को रोके हुए थे.. लगता है कि अब उन्हे भाजपा के नए स्वरूप के लिये रास्ता देना होगा.. इतना तो तय है कि वह स्वरूप गाँधी जी को अपना आदर्श नहीं बतायेगा.. और हो सकता है कि मोदी का उग्र रूप उसकी तीक्ष्णता निर्धारित करने में बड़ी भूमिका अदा करे.. मैं उस सम्भावना के प्रति भयभीत हूँ..

मैं एक दूसरी सम्भावना से भी भयभीत हूँ.. बहन जी के मुख्य मंत्री बनने से करोड़ों करोड़ दलित जनता को एक नया बल एक नया आत्मविश्वास मिला है.. यह भली बात है.. पर बहन जी का काम करने का ढंग कुछ विशेष लोकतांत्रक नहीं रहा है.. और जिस दलित ब्राह्मण मुसलमान के समीकरण के बदौलत नेहरू जी, इन्दिरा जी ने सालो साल सत्ता भोगी.. वो तो बहन जी ने जुटा ही लिया है.. और नेहरू जी और इन्दिरा जी की तरह उनकी जन्मलग्न भी कर्क है.. इन्दिरा जी की तरह वे भी एक स्त्री है.. वो इन्दिराम्मा थीं.. ये बहन जी हैं..और इनके भी व्यक्तित्व में इन्दिराजी की तरह एक तानाशाही परत है.. वह परत उनके सम्पूर्ण व्यक्तित्व पर छा जाय.. मैं उस सम्भावना से डरता हूँ..

बीस सालों में सामाजिक सच्चाई इतनी बदल गई है कि अब तिलक को जूता मारने की बात प्रासंगिक नहीं रही और अब तिलक ही जूते पर लगना चाहता है.. और मैं आशा करता हूँ कि जूते के राजतिलक का यह मौका भारतीय राजनीति में एक सुखद अध्याय की शुरुआत बनेगा और मेरे ये भय निर्मूल साबित होंगे और हमें देश में आने वाले दिनों में नये संस्करण की भाजपाई या मायाई तानाशाहियों का सामना नहीं करना होगा..

गुरुवार, 10 मई 2007

दो गज़ ज़मीन भी न मिली..

आज से १५० बरस पहले मेरठ में साम्राज्यवाद के खिलाफ़ हमारे पहले स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल बजा..इसके पहले मंगल पान्डे और ईश्वरी प्रसाद को फाँसी हो चुकी थी.. और एक दिन पहले ९ मई को मेरठ की तीसरी लाइट कैवलरी के ८५ सैनिकों को दस साल की कै़द सुनाई गई थी..एक खास कारतूस इस्तेमाल करने से इंकार की सजा.. एक ऐसा कारतूस जो हिन्दू और मुसलमानों दोनो को अपने साझे दुश्मन अंग्रेज़ो के खिलाफ़ एक करता था.. खैर लड़ाई हुई.. शुरुआत में लगा कि हम लड़ाई जीत जायेंगे.. मगर १८५७ के अंत से अंग्रेज़ वापस पकड़ बनाने लगे.. और जुलाई १८५८ तक वो वापस सत्ता पर काबिज़ हो गये..

और इसके साथ ही शुरु हुआ आने वाले ९० सालों का रानी का राज.. जिसमें अंग्रेज़ शासक वर्ग ने इस लड़ाई से सीखे हुए पाठ को हमारे समाज में अच्छी तरह से लागू किया.. हिन्दू और मुसलमान समाज को बहुत सचेत रूप से एक दूसरे के खिलाफ़ भड़काया गया और इस तरह पैदा हुए वैमनस्य को बढ़ावा दिया गया..जिन लोगों ने पश्चिमी एशिया का इतिहास पढ़ा है वे जानते हैं कि ऐसी ही नीतियों का थोड़ा अलग मंज़र फिलिस्तीन में जारी था.. उसे भी हमारी तरह १९४८ में विभाजित किया गया..

मैं ऐसा नहीं कहता कि उसके पहले हिदू और मुसलमान एक थाली से खाते थे.. बिलकुल नहीं.. दो अलग अलग समुदाय थे.. दो ही नहीं. और भी कई समुदाय थे.. हिन्दू समाज तो नाम ही विभिन्नताओं का है.. तो वे अलग अलग रहते अलग अलग अपने अपने कार्य व्यापार करते.. मगर बीच में इस तरह का संदेह और शक़ का घना कोहरा तो न था.. ये कोहरा जिसमें कि आज के दिन एक तबक़ा दूसरे के बारे में अनर्गल बातें और मिथ्याचार के ज़रिये बेवज़ह भावनाओं को भड़काने के पापाचार में संलग्न है.. ये अंग्रेज़ो के उस नीति की विरासत है जिसकी परिणति हमारे प्यारे हिन्दुस्तान के विभाजन में हुई..

तो वह लड़ाई तो हम हारे ही हारे.. फिर ९० साल बाद जब हमें आज़ादी मिली तो विभाजित..दो टुकड़ों में फाड़ कर मिला हमें हमारा देश.. उनकी नीति जीती हमारी एकता हारी.. और आज़ादी के ६० साल बाद भी आज हम उनकी भाषा बोल रहे हैं और उनके मूल्यों का अनुगमन कर रहे हैं.. और उनकी संस्कृति को श्रेष्ठ मान कर अपनी संस्कृति को पद-दलित कर रहे हैं..और उनके फैलाये ज़हर से भी उबर नहीं पाये हैं.. हम उनके अवैतनिक एजेण्ट बन चुके हैं..वे और उनका नया सेनापति अमरीका पूरी दुनिया में उन्ही पुरानी नीतियों को अपनी दादागिरी के बल पर लोगों के हलक़ में ठेल रहा है.. और हम वाह वाह कर रहे हैं कि भई और कस के ठेलो.. साले इसी लायक हैं.. अपने जिन भाइयों के साथ मिलकर हमे १५० साल पहले एक लड़ाई छेड़ी थी साम्राज्यवाद के खिलाफ़.. आज उस समुदाय के अपने बन्धुओं को हमने अकेला ही नहीं छोड़ दिया.. अपना दुश्मन भी समझ लिया है.. वो लड़ रहे हैं.. अपने धर्म अपनी संस्कृति को बचाने के लिये.. हम खड़े हो के तमाशा देख रहे हैं..

कल प्रमेन्द्र ने अपने ब्लॉग पर लिखा कि किस तरह मंगल पान्डे के स्मृति स्मारक को माकपा ने गिरा दिया.. माकपा तो सत्ता का स्वाद चख चख कर पूरी तरह से जन विरोधी और वैचारिक रूप से खोखली हो चुकी है.. और दूसरी तरफ़ पिछले हफ़्ते कॉगेस के असली चरित्र को साफ़ करते हुए मंत्री जी अर्जुन सिंह ने बताया कि बहादुर शाह ज़फ़र की अस्थियों को भारत वापस लाने के प्रस्ताव को उन्होने नामंज़ूर कर दिया और कहा कि बर्मा के भी एक राजा के अवशेष यहाँ है.. यह है उनका अपने इतिहास और नायकों के प्रति आदर.. बहादुर शाह ज़फ़र चाहते थे कि उन्हे हिन्दुस्तान में दफ़नाया जाय.. पर ना जाने क्यों वे उम्मीद हार चुके थे..

कितना है बदनसीब ज़फ़र दफ़्न के लिये
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में

आज़ादी की लड़ाई के इस साझे प्रतीक को कम से कम अपने दिल की ज़मीन से बेदखल मत कीजिये..



हमारे एक पुराने मित्र अमरेश मिश्र इतिहासकार हैं जो कि आजकल १८५७ पर अपने २००० पृष्ठीय महाग्रंथ War of Civilisations: India, South Asia, Europe and the World 1857-1867 को अन्तिम रूप देने में तल्लीन है.. आज की जयन्ती के अवसर पर अमरेश ने आज के एशियन एज में एक लेख लिखा है इसी विषय पर.. देखें यहाँ..

बुधवार, 9 मई 2007

सुगन्धित मूर्ख हैं आप..

मैं बाबा नागार्जुन से कभी नहीं मिला पर अनामदास मिले हैं.. मंत्र कविता की प्रतिक्रिया में उन्होने लिखा.. "बाबा के दर्शन दो बार करने का सौभाग्य मिला. औघड़ थे.. बाबा का हँसता चेहरा देखकर मन प्रसन्न हुआ, लोग तो भूल गए थे कि रामदेव, आसाराम और श्रीश्री रविशंकर से पहले एक और बाबा थे.." चन्दू भाई भी मिले थे..

मगर इसी कविता पर वरिष्ठ मित्र चन्द्रभूषण की प्रतिक्रिया आई वो बाबा की जयजयकारी छवि को थोड़ा ठेस पहुँचा रही थी.. "बाबा से पहली मुलाक़ात पटना में हुई थी । मुझे जनमत के लिये उनका इन्टरव्यू करना था । प्रेमचन्द रंगशाला के पास किसी धरने में शामिल होने आये थे । भीड़ छटने पर नमस्ते करके मैंने कहा,"बाबा आप से बात करनी थी"। छूटते ही बोले,"अब बात करने के लिये भी बात करनी पड़ेगी क्या? इस त्वरित जवाब से मैं इतना डरा कि टाइम लेकर भी बात करने नहीं गया । मेरे साथी इरफ़ान गये और झेलकर लौटे। बात के क्रम में बाबा ने उनसे कहा- "मूर्ख हैं आप, सुगन्धित मूर्ख..दो पैसे का चेहरा है आपका। सुन्दर को एक दिन सुन्दरी मिल जायेगी, फिर किनारे हो जायेंगे"..

पर बाबा कोई अवतार पुरुष, कोई मूर्ति तो थे नहीं.. थे तो एक समूचे मनुष्य.. तो इसी मनुष्य को और बेहतर जानने के लिये मैंने अपने पुराने मित्र इरफ़ान से सम्पर्क साधा तो उन्होने यह संस्मरण लिख मारा.. जिसमें बाबा ने उन्हे इस अनुपम उपाधि से नवाज़ा.. आप खुद ही पढ़ें इसे और आनन्द लें.. पर ये भी ध्यान रखें कि इरफ़ान मियां बाबा के हाथों सुगन्धित मूर्ख की उपाधि पाकर भी आहत नहीं है.. क्योंकि उनके व्यक्तित्व में कुछ तो था ऐसा कि बाबा को भी उसकी सुगन्ध को स्वीकारना पड़ा.. और इरफ़ान से मिलने वाला हर व्यक्ति इस सत्य को जानता है और मानता है..

बात १९९० की होगी शायद. चंदू भाई जिस वाक़ये की याद कर रहे हैं वो लम्बे समय तक हम लोगों के लिए चर्चा का विषय रहा. हम जिनको बड़ा कवि/शायर मानते हैं उनसे बड़ा आदमी होने की भी उम्मीद करते हैं. नागार्जुन ने इस घटना में जैसा व्यवहार किया उस से तब हमें उनके उसी बेलौस व्यवहार की झलक /पुष्टि मिली थी जिस पर हम जान छिड़कते हैं. अब यहाँ रुकिए, लगता है मैं जो कहने चला था उस से भटक रहा हूँ . अच्छा यही रहेगा कि मैं स्मृतियों की खंगाल करता हुआ आपको "उस" अनुभव का साझीदार बनाऊँ. अस्तु, मुद्दे की बात.

हम जनमत के लिए एक लम्बा इन्टरव्यू करने नागार्जुन के पास गए थे. वो अपने बेटे के साथ कंकरबाग,पटना के घर पर मिले . हम तीन मूर्तियाँ, संजय कुंदन, संजीव और मैं, पलंग के एक तरफ इस तरह बैठी थीं कि आज कुछ यादगार इन्टरव्यू सम्पन्न कर लेना है. सवाल अभी शुरू भी नहीं हुये थे कि बाबा ने बोलना शुरू किया. वो कोई चालीस मिनट तक वीपी सिंह की सरकार के बारे में बोलते रहे, जिसका निचोड़ ये था कि वीपी सरकार अभी बच्ची है इसे देखो, जल्दबाजी में इस सरकार के बारे में राय मत बनाओ और विरोध मत करो. हम इस उधेड़ बुन में कि उस इन्टरव्यू को कैसे संभव बनाया जाये जिसमें एक कवि का निजी जीवन, उसका रचनात्मक संघर्ष, उसकी सौन्दर्यबोधात्मक दुनिया, सुख दुःख, सपने सब आ जाएँ. अब तक जो बातें कही गयीं उनसे एक राजनीतिक पर्यवेक्षक की छवि बनती थी. तो जैसे ही हमें पंक्चुएशन में एंट्री की जगह मिली सबने एक दूसरे को देखा और मैंने सवाल पूछा. अब सवाल मैंने ही क्यों पूछा होगा इस पर अभय भाई कहेंगे 'तेरे को सस्ती लोकप्रियता जो चाहिये होती है'. बहरहाल.

इरफान: बाबा लेकिन अ अ आप तो कविता के आदमी हैं...(सवाल अधूरा और बाबा उवाच)बाबा: कविता के आदमी राजनीति के आदमी! आदमी को इतना बांटकर देखते हो?(स्वर में क्रोध)इरफान: लेकिन बाबा.....आप तो जे पी मूवमेंट में भी...(सवाल अधूरा और बाबा उवाच)बाबा: मूर्ख है ये...सुगन्धित मूर्ख. कविता के आदमी ..राजनीति के आदमी..अरे जे पी क्या.. मैं कहाँ कहाँ रहा. मैं बौद्ध भी रहा, जेल में भी रहा..तुम जानते क्या हो?...अरे मालूम है जीवन है इसमें क्या क्या उतार चढ़ाव आते हैं मालूम भी है कुछ? चले आये हैं मूँछ मुड़ाकर.. तुम्हारा चेहरा भी है दो पैसे का.. आज तुम यहाँ हो और जनमत में हो कल तुम बम्बई चले जाओगे.. हीरो-वीरो बन जाओगे.. फिर मैं आऊँगा, पूछूँगा, वो इरफान कहॉ गया?.. तो पता चलेगा वो बम्बई चला गया.. वैसे मैं दिल्ली जाकर विपिन से पूछूँगा तुम्हारे बारे में..
(सूचना:सादतपुर में पार्टी का ऑफिस था और बाबा रोज़ सुबह टहलते हुए चाय पर विपिन भाई के साथ होते अख़बार पढ़ते, हंसी ठट्ठा करते ,दुनिया जहान की चिंताएं शेयर करते. पार्टी ऑफिस उनके सादतपुर के कई घरों जैसा घर था)


इस पूरे संवाद क्रम में बाबा का स्वर उंचा और थकता जा रहा था.उन्होंने खिड़की की तरफ मुँह कर लिया, इससे पहले वे अपने बेटे को निर्देश दे चुके थे कि इन लोगों को हटा दिया जाये. हम ढीठ थे, भक्त थे या कर्मयोगी अब ठीक से तय नहीं कर पा रहा लेकिन एक दूसरे को देखते कुछ ज्वार के थमने की उम्मीद लिए बैठे रहे. खिड़की की तरफ मुँह किये अब वो धीरे धीरे किसी अनदेखी दुनिया से मुखातिब थे और उधर से आ रही टुकड़ा भर धूप या मुट्ठी भर हवा से बातें करते रहे. हमें किसी ने हटाया नहीं. यह एक कवि का घर था और सब परिजन कवि के स्वभाव से परिचित थे. इसमे १०-१५ मिनट गुज़रे. करीब था कि बाबा सो गए हों. किसी भीतरी स्वरयंत्र से आ रही या खींच कर लाई जा रही आवाज़ से यही एहसास होता था कि वो किसी अन्य दुनिया से संवाद में व्यस्त हैं. कब वो वापस इस दुनिया में आये नहीं मालूम लेकिन हमने सूना.. अरे भाई सुकांत! पानी वानी पिलाओ इन लोगों को.यह सुन कर हम एक ओर आश्वस्त हुए कि हम बेआबरू होकर नहीं निकलेंगे दूसरी ओर 'इन्टरव्यू जो हो ना सका' की एक पंक्ति हमारी असफलता की कहानी कह रही थी. अब मुझे उनकी मृत्यु का वर्ष याद नहीं लेकिन तब से थोड़े दिनों पहले उनके पैतृक गाँव में उनकी बीमारी का सुनकर जब कॉमरेड विनोद मिश्र और साथी मिलने पहुंचे तो मुझे मालूम हुआ कि वो दूसरी बातों के अलावा ये भी पूछने लगे, "इरफान का क्या हाल हैं ?"

पुरुष की इस प्रतिगामी प्रकृति का क्या करें ?

मनुष्य और प्रकृति का संघर्ष पुराना है.. भारतीय वाङ्मय में इसे पुरुष और प्रकृति के द्वैत से भी जाना गया है.. या सांख्य दर्शन में (कपिल के अनीश्वीरीय दर्शन नहीं, बल्कि भागवत के श्रीकृष्णीय दर्शन में )..एक पुरुष के मुकाबले में प्रकृति और उसके सहयोगी २३ या २४ या २७ तत्व... तर्क यह है कि पुरुष या जीव माया / प्रकृति के आवरण/ जंजाल में इतना लिप्त हो जाता है कि ईश्वर तक उसकी पहुँच बन ही नहीं पाती.. तो ईश्वर से सम्पर्क बनाने का तरीका है कि माया को, प्रकृति को किनारे किया जाय.. रास्ते से हटाया जाय.. और इस भौतिक बोझ को सर से उतार फेंक इतना हलका हो जाया जाय कि ईश्वर में लीन हो जाने में..सांसारिकता से ऊपर उठ जाने में .. अनन्त के साथ एक हो जाने में कोई बाधा न रहे..

दूसरी ओर इस दर्शन की उलट खड़ी पश्चिम की भौतिकवादी सभ्यता भी कुछ इसी प्रकार का अन्तर्विरोध चिह्नित करती आई है काफ़ी पहले से.. पुराने विधान के समय से.. खुदा ने पाँच दिन तक प्रकृति को बनाया और छठे दिन पुरुष को बनाया और उसे बताया ये सब उसके लिये है.. उसके अधिकार के अन्तर्गत है.. तो मूसा आये, ईसा आये और मुहम्मद भी आये पर ये ईश्वर-प्रदत्त धरती का अधिकार नहीं बदला.. औद्योगिक समाज ने अति ही कर दी.. मनुष्य के विकास का रास्ता प्रकृति के शोषण से होकर जाता है.. इस राह पर मनुष्य का भी शोषण होता है.. उसे कम मजूरी मिलती है.. पर मिलती तो है.. प्रकृति को तो मिलता है ठेंगा.. बाबा मार्क्स ने भी कहा है कि मनुष्य और मनुष्य के बीच के अन्तर्विरोध हल हो जाने के बाद मनुष्य प्रकृति के साथ पूरे ऊर्जा के साथ उलझ सकेगा..

तो क्या टंटा है ये पूर्व और पश्चिम के वैर का .. प्रतिमुख जीवन पद्धतियों का.. दो अलग दिशाओं में इंगित करती विचारधारा का.. भईया उद्देश्य तो एकै लौका रहा है.. फिर काहे के लिये बेबात में लट्ठमलट्ठा.. तो ऐसा लगता है कि अब वो दिन दूर नहीं.. जब पुरुष का प्रकृति के साथ का पुराना वैर.. ईश्वरीय और शुद्ध भौतिकवादी अनीश्वरीय .. दोनों प्रकार का.. सदा के लिये हल हो जायेगा.. कहते हैं ना भईया पूरब जाओ या पश्चिम घूम के एकै जगह आ जाओगे.. तो देखिये आ गये ना सब एक बिन्दु पर.. हो गया ना मेल.. का बोलते हैं.. ?

फ़रक बस इतना है कि अपनी भारतीय परम्परा के ज़रिये भारहीन हो कर प्राकृतिक मल से मुक्त हो जाने का स्वप्न तो नहीं पूरा हो सका.. किसी को हुआ हो हिमालय की किसी कन्दरा में तो वो हमें बताने नहीं आया.. और कबीर जैसों ने तो बताने से इंकार तक कर दिया गूँगे का फल कह कर.. मगर इस विस्फोटक पश्चिमी चिन्तन का असर तो हो गया है.. और जो अपने आस पास हम लगातार देख रहे हैं आजकल.. रोज़-ब-रोज़ हम प्रकृति से दूर होते जा रहे हैं.. इस औद्योगिक जीवन में.. महानगरीय जीवन जीते हुये.. सुबह शाम की नित्यता से भी मुक्त हो चुके हैं हम.. सूरज को उगते डूबते देखना तो दूर की बात है.. कब रौशनी हुई और कब अँधियारे ने हमें व्याप्त लिया इसका एहसास भी नहीं होने पाता हमें.. हमारे पैर घास और मिट्टी का मृदु एहसास भी भूल चुके हैं.. गर्मी में हम ए.सी. चला लेते हैं..सर्दियों में हीटर.. ज़्यादातर जंगलों का सफ़ाया हो चुका है.. जो बचे हैं उन पेड़ों से हमारा कितना परिचय है.. विशेषज्ञों की बात मत करिये.. कितने पेड़ों का नाम जानते हैं हमारे बच्चे..?

आज सारे पृथ्वी की ज़मीन पानी हवा आकाश पर पुरुष का कब्ज़ा है.. जानवर पक्षी और कीड़ों को पृथ्वी की विरासत से बेदखल किया जा चुका है.. प्रकृति को पुरुष ने काफ़ी कुछ घुटनो तले दबोच दिया है.. और परस्पर आवलंबिता की सारी बकवास अर्थहीनता की घूरे पर आखिरी साँसे गिन रही है.. विविधिता के चितकबरेपन की गपड़चौथ अब हमें व्याकुल नहीं करेगी .. अब सब कुछ एकरंगीय बनाया जा सकेगा..

देखिये प्रकृति रिरिया रही है.. पुरुष इस प्रकृति से सदा सदा के लिये मुक्त न भी हो सके तो कम से कम उसने सम्पूर्ण प्रकृति को पूरी तरह चूस कर शेष को मलवत कर ही दिया है.. और अब पुरुष की नज़र सौर मण्डल की सीमाओ के परे जा रही है..ये ग्रह नष्ट भी हो गया तो क्या.. किसी दूसरी प्रकृति की तलाश में निकल जाने की तैयारी हो रही हैं.. पुरुष आज मंगल पर बसने की बात कर रहा है.. बस एक ही चिन्ता मुझे खाये जाती है.. कि पुरुष की भीतर की इस प्रतिगामी प्रकृति का क्या करें.. जिसके चलते पुरुष एक दिशा में अपनी सहमति से चलते चलते नये तर्क पा कर या पुराने तर्कों की नई ज़मीन पाकर, अचानक असहमत हो जाता है.. और अपनी ही बनाई व्यवस्था के भंजन के लिये उद्धत हो जाता है..

सोमवार, 7 मई 2007

मंत्र कविता.. सदी की सबसे महान कविता

प्रगतिशील आन्दोलन के दादा कवि..
बाबा नागार्जुन!.. तुम पटने, बनारस, दिल्ली में.. खोजते हो क्या.. दाढ़ी सिर खुजाते.. कब तक होगा हमारा गुजर बसर.. टुटही मँड़ई में ऐसे.. लाई-नून चबा के..
लिखते हैं बोधिसत्व अपनी कविता घुमुन्ता फिरन्ता में.. और कुछ ऐसा ही जीवन रहा बाबा नागार्जुन का.. जन्म १९११ दरभंगा.. मूल नाम वैद्यनाथ मिश्र.. मातृभाषा मैथिली.. संस्कृत और प्राकृत के विद्वान.. एक समय बौद्ध हो गये.. फिर सहजानन्द सरस्वती के साथ किसान आन्दोलन में कूदे.. जेल गये..फिर थोड़ी दुनियादारी.. मतलब जीवन भर फक्क्ड़ी, घुमक्कड़ी, आन्दोलन, जेल.. लगा ही रहा.. सन १९९८ में निधन..


प्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंह ने बाबा की प्रतिनिधि कविताओं(राजकमल प्रकाशन) की भूमिका लिखी है.. उसमें एक जगह इस मंत्र कविता के विषय में वे कहते हैं.. "..नागार्जुन की.. साहित्यिक प्रतिभा की अमर सृष्टि है- मंत्र कविता, जो कलात्मक प्रयोग में भी अप्रतिम है। यदि निराला की कुकुरमुत्ता सन ४० की मनःस्थिति की ऐतिहासिक दस्तावेज़ है तो सन ६९ की मनःस्थिति को सशक्त वाणी नागार्जुन की मंत्र कविता में ही मिलती है । विडम्बना ये है कि "हमेशा हमेशा राज करेगा मेरा पोता" यह उक्ति जैसे भविष्यवाणी की तरह सच होने को आ गई है.."

मैंने किसी से सुना है कभी किसी अन्य प्रसंग में नामवर जी ने मंत्र कविता को सदी की सबसे बड़ी कविता भी घोषित किया था । और अगर उन्होने ने ना भी किया हो इस कविता में अपने आप में इतना गूदा है कि यह किसी आलोचक के अनुमोदन की मोहताज नहीं है, इसकी स्वतंत्र दावेदारी है..

म‌ंत्र क‌वित‌ा


ॐ श‌ब्द ही ब्रह्म है..
ॐ श‌ब्द्, और श‌ब्द, और श‌ब्द, और श‌ब्द
ॐ प्रण‌व‌, ॐ न‌ाद, ॐ मुद्रायें
ॐ व‌क्तव्य‌, ॐ उद‌ग‌ार्, ॐ घोष‌णाएं
ॐ भ‌ाष‌ण‌...
ॐ प्रव‌च‌न‌...
ॐ हुंक‌ार, ॐ फ‌टक‌ार्, ॐ शीत्क‌ार
ॐ फुस‌फुस‌, ॐ फुत्क‌ार, ॐ चीत्क‌ार,
ॐ आस्फ‌ाल‌न‌, ॐ इंगित, ॐ इश‌ारे
ॐ न‌ारे, और न‌ारे, और न‌ारे, और न‌ारे

ॐ स‌ब कुछ, स‌ब कुछ, स‌ब कुछ
ॐ कुछ न‌हीं, कुछ न‌हीं, कुछ न‌हीं
ॐ प‌त्थ‌र प‌र की दूब, ख‌रगोश के सींग
ॐ न‌म‌क-तेल-ह‌ल्दी-जीरा-हींग
ॐ मूस की लेड़ी, क‌नेर के प‌ात
ॐ ड‌ाय‌न की चीख‌, औघ‌ड़ की अट‌प‌ट ब‌ात
ॐ कोय‌ल‌ा-इस्प‌ात-पेट्रोल‌
ॐ ह‌मी ह‌म ठोस‌, ब‌ाकी स‌ब फूटे ढोल‌

ॐ इद‌म‌ान्नं, इम‌ा आपः इद‌म‌ज्य‌ं, इद‌ं ह‌विः
ॐ य‌ज‌म‌ान‌, ॐ पुरोहित, ॐ राज‌ा, ॐ क‌विः
ॐ क्रांतिः क्रांतिः स‌र्व‌ग्व‌ं क्रांतिः
ॐ श‌ांतिः श‌ांतिः श‌ांतिः स‌र्व‌ग्व‌ं श‌ांतिः
ॐ भ्रांतिः भ्रांतिः भ्रांतिः स‌र्व‌ग्व‌ं भ्रांतिः
ॐ ब‌च‌ाओ ब‌च‌ाओ ब‌च‌ाओ ब‌च‌ाओ
ॐ ह‌ट‌ाओ ह‌ट‌ाओ ह‌ट‌ाओ ह‌ट‌ाओ
ॐ घेराओ घेराओ घेराओ घेराओ
ॐ निभ‌ाओ निभ‌ाओ निभ‌ाओ निभ‌ाओ

ॐ द‌लों में एक द‌ल अप‌न‌ा द‌ल, ॐ
ॐ अंगीक‌रण, शुद्धीक‌रण, राष्ट्रीक‌रण
ॐ मुष्टीक‌रण, तुष्टिक‌रण‌, पुष्टीक‌रण
ॐ ऎत‌राज़‌, आक्षेप, अनुश‌ास‌न
ॐ ग‌द्दी प‌र आज‌न्म व‌ज्रास‌न
ॐ ट्रिब्यून‌ल‌, ॐ आश्व‌ास‌न
ॐ गुट‌निरपेक्ष, स‌त्त‌ास‌ापेक्ष जोड़‌-तोड़‌
ॐ छ‌ल‌-छ‌ंद‌, ॐ मिथ्य‌ा, ॐ होड़‌म‌होड़
ॐ ब‌क‌व‌ास‌, ॐ उद‌घ‌ाट‌न‌
ॐ म‌ारण मोह‌न उच्च‌ाट‌न‌

ॐ क‌ाली क‌ाली क‌ाली म‌ह‌ाक‌ाली म‌ह‌ाक‌ाली
ॐ म‌ार म‌ार म‌ार व‌ार न ज‌ाय ख‌ाली
ॐ अप‌नी खुश‌ह‌ाली
ॐ दुश्म‌नों की प‌ाम‌ाली
ॐ म‌ार, म‌ार, म‌ार, म‌ार, म‌ार, म‌ार, म‌ार
ॐ अपोजीश‌न के मुंड ब‌ने तेरे ग‌ले क‌ा ह‌ार
ॐ ऎं ह्रीं क्लीं हूं आङ
ॐ ह‌म च‌ब‌ायेंगे तिल‌क और ग‌ाँधी की ट‌ाँग
ॐ बूढे़ की आँख, छोक‌री क‌ा क‌ाज‌ल
ॐ तुल‌सीद‌ल, बिल्व‌प‌त्र, च‌न्द‌न, रोली, अक्ष‌त, ग‌ंग‌ाज‌ल
ॐ शेर के द‌ाँत, भ‌ालू के न‌ाखून‌, म‌र्क‌ट क‌ा फोत‌ा
ॐ ह‌मेश‌ा ह‌मेश‌ा राज क‌रेग‌ा मेरा पोत‌ा
ॐ छूः छूः फूः फूः फ‌ट फिट फुट
ॐ श‌त्रुओं की छ‌ाती अर लोह‌ा कुट
ॐ भैरों, भैरों, भैरों, ॐ ब‌ज‌रंग‌ब‌ली
ॐ ब‌ंदूक क‌ा टोट‌ा, पिस्तौल की न‌ली
ॐ डॉल‌र, ॐ रूब‌ल, ॐ प‌ाउंड
ॐ स‌ाउंड, ॐ स‌ाउंड, ॐ स‌ाउंड

ॐ ॐ ॐ
ॐ ध‌रती, ध‌रती, ध‌रती, व्योम‌, व्योम‌, व्योम‌, व्योम‌
ॐ अष्ट‌ध‌ातुओं के ईंटो के भ‌ट्टे
ॐ म‌ह‌ाम‌हिम, म‌हम‌हो उल्लू के प‌ट्ठे
ॐ दुर्ग‌ा, दुर्ग‌ा, दुर्ग‌ा, त‌ारा, त‌ारा, त‌ारा
ॐ इसी पेट के अन्द‌र स‌म‌ा ज‌ाय स‌र्व‌ह‌ारा
ह‌रिः ॐ त‌त्स‌त, ह‌रिः ॐ त‌त्स‌त‌

.........


बाबा की कुछ और कविताऐं उपलब्ध हैं.. कविता कोश की साइट पर.. रवि रतलामी के ब्लॉग रचनाकार पर और अनुराग बंसल के ब्लॉग पर..

इसके अलावा सृजन शिल्पी का एक आलोचनात्मक लेख है बाबा के ऊपर.. और एक संक्षिप्त जीवन चरित्र भी है.. जागरण की वेब साइट पर..

रविवार, 6 मई 2007

बाज़ार बनाता है मीडिया को: रवीश कुमार

पिछले तकरीबन एक महीने से रवीश जी यू पी के चुनाव में व्यस्त हैं.. इस बीच बेनाम ने जो उनके नाम शिकायती अंदाज़ में चिट्ठी लिखते हुये अपनी चिंतायें ज़ाहिर की थी.. आज आखिरी दौर के मतों के बैलट बॉक्स में पहूँचने के साथ ही रवीश कुमार का खत भी हमारे मेल बॉक्स में पहूच गया .. वे बेनाम के नाम अपने इस खुले जवाब में.. उन्ही चिंताओं पर अपनी बेबाक राय ज़ाहिर कर रहे हैं..



प्रिय बेनाम,

आपका लेख पढ़ा। जो चिंता आपकी है वही हमारी है। चुप रहने का सवाल नहीं है। मगर बोलने वाले का ही इम्तहान लिया जाता है। कि आपने आगरा पर बोला और बक्सर पर चुप रहे। हम कुछ लोग जो बोलते हैं क्रांतिकारी नहीं है। बल्कि मामूली या भारी नुकसान का जोखिम उठाते हुए बोल रहे हैं। हमारे बोलने का कुछ भी असर नहीं हुआ है। जैसा कि स्टार न्यूज पर हमला करने वाले धनंजय का कुछ नहीं हुआ।

अब आप यह सवाल करें कि मीडिया अपने संपादकों के खिलाफ खबर क्यों नहीं दिखाता तो चुप रहना ही पड़ेगा। क्योंकि संपादक और मीडिया कार्पोरेट की देन हैं। उनका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता। हां मीडिया से स्वतंत्रता की उम्मीद की जाती है। आप अपने मालिक या संपादक के खिलाफ ख़बर कैसे कर सकते हैं? और करेंगे तो दिखायेंगे कहां? इसके बाद भी मीडिया सापेक्षिक स्वतंत्रता की सांस लेते हुए कुछ करता रहता है। पर इस बड़े सवाल पर चुप्पी के अलावा मीडिया बोलता रहता है। अमर सिंह के खिलाफ कोई एक चैनल न बोल रहा हो तो उसी वक्त दूसरा बोल रहा होता है। ऐसा भी होता है कि सभी एक ही राग अलापने लगते हैं। ऐसा भी होता है कि विदर्भ की घटना एक चैनल पर न हो तो उसी वक्त दूसरे चैनल पर होती है। हम क्यों उम्मीद करें कि एक ही ख़बर एक ही समय में सभी चैनलों पर हो। जबकि ऐसा कई बार होता है। अमिताभ ऐश की शादी सब पर एक साथ दिखाई जा रही थी लेकिन विदर्भ के किसानों की आत्महत्या एक साथ नहीं। मीडिया को बाज़ार बनाता है। जब तक उसका अस्तित्व बाज़ार से स्वतंत्र नहीं होगा उसे उसकी शर्तों पर चलना ही होगा। अगर आप जनहित की खबरों को छाते हुए देखते हैं तो इसमें किसी ए बी सी डी ईमानदार पत्रकार के अलावा बाज़ार का भी सहयोग होता है। बाज़ार अपनी नैतिकता को बनाने के लिए कुछ ईमानदारी की खबरे दिखाता है। जिसकी बातें अविनाश अपने लेख में कर रहे हैं।

इसका अध्ययन किया जाना चाहिए कि आज़ादी की लड़ाई में जब टाटा बिड़ला सहित कई उद्योगपति गांधी जी का समर्थन कर रहे थे तो क्या उसी वक्त वो अपने काम काज में उदार थे। क्या वो सभी को काम के बराबर मेहनताना दे रहे थे? क्या वे अपने मज़दूरों का शोषण नहीं कर रहे थे? अगर ऐसा था तो उसी वक्त हमें मज़दूर आंदोलन का इतिहास देखने को क्यों मिलता है? क्यों मज़दूर मालिकों के खिलाफ लड़ रहे थे? फिर क्यों मालिक अंग्रेजों के ख़िलाफ गांधी जी का साथ दे रहे थे? मगर इसी स्पेस में बोलने की आज़ादी तो है। जिसका फायदा हम उठा रहे हैं।

नुकसान उठा कर।

मैं अपनी बात पर लौटता हूं। जिस वक्त एक चैनल शिल्पा को दिखाता है उसी वक्त कहीं न कहीं दूसरा चैनल या अखबार गरीबो की चर्चा करता है। शिखा त्रिवेदी,सुतपा देब बनारस के बुनकरों की दुर्दशा पर रोती हुई खबरें कर रही होती हैं। दफ्तर में बार बार मज़ाक उड़ाए जाने के बाद भी इनकी निष्ठा नहीं बदलती। लेकिन इनके बाद बनारस के बुनकरों का कोई हाल लेगा भी मुझे यकीन नहीं है। अनिरूद्ध बहल की चर्चा भी करनी होगी। उनके कोबरा पोस्ट ने बाबाओं की लंगोट उतार दी है। वो हर दिन बाज़ार के ही सहारे व्यवस्था से टकरा रहे हैं। बाज़ार के सहारे इसलिए क्योंकि उनकी खोजी रिपोर्ट का खरीदार बाज़ार ही है। हर चैनल खरीदना चाहता है। तो इससे एक रास्ता नज़र आता है। और इससे एक कमी भी। जब हम व्यवस्था के खिलाफ ऐसी ख़बरों की खरीद कर दिखाने का जोखिम उठा सकते हैं तो खुद क्यों नहीं करते? लगता है ईमानदारी अब आउटसोर्सिंग से हासिल की जा रही है। यह भी अच्छा है।

लेकिन बेनाम जी मैं यह नहीं मानता कि पत्रकारों का उदय किसी नेता के सहारे होता है। कुछ के साथ संयोगवश ऐसा हुआ हो मगर यह सच नहीं। बहुत से पत्रकार हैं जिनका नेताओं से कोई लेना देना नहीं और वो भी शिखर पर हैं। हम शिखर की धारणा भी बदल लें। शिखर किसी एक के खड़े होने की जगह नहीं रही। यहां पर कई लोग खड़े होते हैं। हिंदुस्तान में सिर्फ अपने अपने चैनलों और अखबारों के शिखर पर मौजूद संपादकों की संख्या हज़ारों में हो सकती है। इसलिए एक की नहीं उन हज़ारों की बात होनी चाहिए।

रही बात गिरावट की तो बोधिसत्व जी कह चुके हैं। हममें से ज़्यादातर लोग एक भ्रष्ट सामाजिक पारिवारिक और राजनीतिक माहौल से आते हैं। जिस समाज में दहेज की रकम घर के बड़ों के बीच तय की जाती है उसके दुल्हे समाज में ईमानदार हो सकते हैं। इसका यकीन आपको है तो मुझे कोई परेशानी नहीं। पर ये सवाल चैनलों और अखबारों में काम कर रहे पत्रकारों से मत पूछियेगा। और इस्तीफे की मांग तो कतई भी नहीं कीजिएगा। पता चलेगा सब चले गए और एक दो लोग बच गए।
आपका
रवीश कुमार

पूछ रहे हैं नासिर.. सब धान बाइस पसेरी ?

अपनी प्रतिक्रिया में बेनाम ने रवीश, अविनाश और बोधिसत्व का नाम लिया था.. अविनाश और बोधिसत्व ने तो अपना जवाब दे दिया और रवीश जी यू पी चुनाव के बीच से भी इस बहस में अपनी शिरकत करने के लिये समय निकाल कर जवाब लिख रहे हैं.. आज शाम तक भेजने का वादा है..
इस बीच हमारे एक नये चिट्ठाकार साथी नासिरुद्दीन ने लखनऊ से इस मसले पर अपनी राय हमारे बीच भेजी है.. नासिर प्रिंट मीडिया के पत्रकार हैं.. और हिन्दी दैनिक हिन्दुस्तान के लिये नौकरी बजाने के साथ भारतीय उपमहाद्वीप में मुस्लिम महिलाओं की सामाजिक और धार्मिक स्थिति पर विशेष अध्ययन भी कर रहे हैं.. पिछले दिनों मोहल्ला पर उनका तथ्यपरक और संतुलित लेख भी छपा था जो मोहल्ला के विवाद के बावजूद सब के द्वारा सराहा गया.. उस के बाद अविनाश की प्रेरणा से उन्होने एक निजी ब्लॉग भी खोला है - ढाई आखर.. हालांकि भगत सिंह के ऊपर शहीद-ए-आज़म नाम से एक ब्लॉग वे और उनके साथी काफ़ी पहले से चला रहे हैं.. आइये देखते हैं.. क्या कह रहे हैं नासिर.. मीडिया और उसकी सामाजिक भूमिका के बारे में..


भय जी के निर्मल-आनन्‍द पर पहले बेनाम फिर अविनाश और बोधिसत्‍व जी की टिप्पणियां पढ़ते हुए बार-बार लग रहा था कि यह सिर्फ इन चंद लोगों की बात नहीं है। यह हमारी बात हो रही है। हम यानी खबरनवीसी से जुड़े लोग। बेनाम साहब की बात में जितना सच है, उतनी ही हकीकत बयानी बाकियों के जवाब में भी है। इसीलिए जब‍ इन दोनों का जवाब आया तो लगा कि काफी हद तक इन्‍होंने हमारी ही बात की है। हमारे दिल को हल्‍का किया है।
वैसे ये लोग भले ही कुछ कहें, लेकिन मेरी समझ से आज भी ये ख़बरों के धंधे से इसलिए जुड़े हैं कि कहीं उन्‍हें कुछ कचोटता रहता है। इस‍ीलिए अविनाश ‘मोहल्‍ला’ बना रहे हैं तो रवीश ‘कस्‍बा’ तैयार करने में जुटे हैं। अगर महज नौकरी कर रहे होते तो उनके लिए इन मोहल्‍लों-क़स्बों में भटकने, बहस करने और अपने विचार रखने की जरूरत नहीं थी। यह सब, यानी इलेक्‍ट्रॉनिक माध्‍यम के अपने माहिर साथी, जितनी तनख्‍वाह पाते हैं, वे आराम से हर शाम सुखी परिवार की तस्‍वीर बन सकते हैं। लेकिन ऐसा है नहीं। इन्‍हें कुछ कचोटता है, इसलिए ये जूझते हैं। इसलिए यह महज इत्‍तेफाक नहीं है कि नौकरी के दौरान, नौकरी के साथ और नौकरी के इतर, यह लोग भीड़ से अलग दिखते हैं। यह अलग दिखना, मेरी समझ में इनकी शक्‍ल सूरत की वजह से नहीं है। तो हमें सोचना होगा कि फिर कौन सी वजह है जो हमें, ख़बरों की भीड़ में स्‍पेशल रिपोर्ट और बात पते की याद रखने पर बाध्‍य करता है। यह सिर्फ इन्‍हीं की बात नहीं है, ऐसे इस देश में कई खबरनवीस हैं। प्रिंट में भी इलेक्‍ट्रॉनिक में भी। कस्‍बों में भी और राजधानियों में भी।
इसलिए इन लोगों को भी तुरंत सुरक्षात्‍मक घेरा नहीं तैयार करना चाहिए। जो हम कर रहे हैं, वो भी बतायेंगे और जो नहीं कर पा रहे, उसकी सीमा समझने और समझाने की कोशिश करेंगे। पूरब की दो कहावत याद आर रही है- ‘सब धान बाईस पसेरी’ और सबको एक ही लग्‍घी से हॉंकना। यानी सबको एक तराजू पर तौलने की जरूरत नहीं है। फर्क करना जरूरी है।रही बात सामाजिक मुद्दों के उठाने और न उठाने की। मैं चंद घटनाएं सिर्फ याद दिलाना चाहता हूँ। गुजरात में नरसंहार के पहले दिन की बात है।
‘धर्मनिरपेक्ष दलों’ का एक दल विमान से अहमदाबाद पहुँचा लेकिन दंगे के बीच में वह शहर जाने की हिम्‍मत नहीं जुटा सका और गेस्‍ट हाउस से वापस लौट आया। ... फिर दुनिया ने गुजरात का सच कैसे जाना... दंगों के बीच पथराव और आग की लपटों से गुजरते यही खबरनवीस थे, जो जान की परवाह किये बगैर दुनिया को वह बता और दिखा रहे थे, जो इससे पहले इस देश ने देखा नहीं था। अगर वह न होते तो गर्भवती कौसर बानो के पेट फाड्कर उसके बच्‍चे को आग के हवाले किये जाने की बात हम सबको ‘कपोल कथा’ लगती।
पूरे देश में पिछले कुछ सालों में आतंकवादी होने के आरोप में कई (मुसलिम) नौजवान मुठभेड़ के नाम पर मारे डाले गये। लेकिन किसी दल या पार्टी ने कभी इन मुठभेड़ों की सच्‍चाई जानने की कोशिश नहीं की, उस पर सवाल उठाना तो दूर रहा। सोहराबुद्दीन का जो मामला अभी गर्म है, उसके पर्दाफाश का सेहरा भी इसी मीडिया के सर बँधता है।
या फिर तहलका का स्टिंग ऑपरेशन हो या आईबीएन-7 कोबरा पोस्‍ट का बाबाओं काले धन को सफेद करने का धंधा का ताजा स्टिंग ऑपरेशन। या फिर इंडियन ऑयल के अधिकारी मंजूनाथ की हत्‍या का मामला हो या फिर किसानों की आत्‍म हत्‍या का मुद्दा- इन सबके बारे में देश को किसने बताया। किसान सिर्फ महाराष्‍ट्र या आंध्र में ही नहीं बल्कि बुंदेलखंड, अवध में भी जान दे रहे हैं, यह बातें भी खबरनवीसों ने बतायी। लखनऊ में एक गरीब किशोरी के साथ चंद दबंग-पैसे वाले लडके अपहरण कर सामूहिक दुराचार करते हैं। यह लड़के राजनीतिक रूप से भी काफी शक्तिशाली हैं। दो साल हो गये हैं, इस घटना को। वो लड़की न तो प्रियदर्शनी मट्टू है और न ही जेसिका लाल लेकिन लखनऊ शहर के अख़बारों ने इस मुद्दे को आज तक दबने नहीं दिया। कहीं न कहीं कुछ तो बचा है। ... इसलिए यह कहना कि सब कुछ काला है... मुझे लगता है, ज्‍यादती होगी।
मुझे यह भी लगता है कि समाज मीडिया से बहुत ज्‍यादा उम्‍मीद करने लगा है। इसकी वजह भी है। राजनीतिक दलों या आंदोलनों को जो काम करना चाहिए, वह नहीं कर रहे। जो मुद्दे, सवाल उन्‍हें उठाने चाहिए वे नहीं उठा रहे। सामाजिक मुद्दों पर गोलबंदी का जो काम राजनीतिक पार्टियों को करना चाहिए, वे नहीं कर रहीं। आर्थिक उदारीकरण और वैश्‍वीकरण से उपजे सामाजिक सवालों से जूझने में राजनीति कहीं पीछे आँख चुराये खड़ी नजर आ रही है।
... आप अपने दिमाग पर जोर डालिये और याद कीजिये कि आखिरी बार राजनीतिक दलों ने कौन सा सामाजिक-राजनीतिक मुद्दा उठाया था, जिसने समाज को झकझोर दिया। ...और यह सारा काम जो वो नहीं कर पार रहे, उसे करने की अपेक्षा मीडिया से की जा रही है। वह खबर तलाश करे, सामाजिक आंदोलन करे, लोगों की गोलबंदी भी करे। भई, आम जन के साथ हम खबरनवीसों को भी भ्रम में नहीं रहना चाहिए, हम यह सारे काम नहीं कर सकते। हम सहयोगी की भूमिका ही अदा कर सकते हैं। हम कैटेलिस्‍ट (उत्‍प्रेरक) हो सकते हैं। बस...। इसलिए जो सवाल बेनाम ने उठाये वह सामाजिक आंदोलनों के न होने और राजनीतिक खालीपन से उपजे सवाल हैं। जब भी समाज या राजनीति के फलक पर कोई मजबूत गोलबंदी होगी या आंदोलन होगा तो बेनाम के सवालों के जवाब भी मिलेंगे... और असलियत में हमारा भी इम्‍तहान तभी होगा।
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