शुक्रवार, 4 मई 2007

बोधिस‌त्व क‌ा ज‌व‌ाब‌: बीस‌न ल‌प्प‌ड़ पउते ब‌ापू

बोधिस‌त्व‌ एक क‌वि के रूप में आप से तो पिछ्ले ह‌फ्ते मिल‌ ही लिये थे.. फिर बेन‌ाम के लेख ने एक प‌त्रक‌ार के रूप में उन‌की‌ स‌ाम‌ाजिक भूमिक‌ा प‌र प्रश्न चिह्न ख‌ड़‌ा ‌क‌र दिय‌ा.. तो उन‌से भी रह‌ा न ग‌य‌ा.. और अविनाश के ज‌व‌ाब के ब‌ाद व‌ह भी इस पूरे म‌ाम‌ले प‌र अप‌नी स‌म‌झ ह‌म‌ारे बीच रख रहे हैं.. एक मीडिय‌ाक‌र्मी के ब‌तौर..
भय भाई मैं चुप था,क्योंकि आपने एक दम चुप कर देनेवाला मुद्दा ही उठाया है। यहाँ जो कुछ लिख रहा हूँ आपद्-धर्म मान कर । मैं ना आप से असहमत हूँ, ना बेनाम प्रतिक्रिया देनेवाले से और ना ही अविनाश के उत्तर से । मैं उस तरह का पत्रकार नहीं हूँ । 1997 में कुछ महीने अमर उजाला के इलाहाबाद ब्यूरो में रिपोर्टर के रूप में काम करने के बाद 2006 में स्टार न्यूज से जुड़ा हूँ । यहाँ सलाहकार हूँ और चैनल में अपनी हैसियत को लेकर फिलहाल किसी तरह के मुगालते में नहीं हूँ ।

भाई मैं मानता हूँ कि आज कोई पत्रकार नहीं है बल्कि आज का पत्रकार खबर लानेवाला एजेंट है। शाम होते-होते एसाइनमेंट पर बैठा आदमी उस पत्रकार से पूछता है कल क्या खबर दे रहे हो । और पत्रकार मरते-जीते कुछ खबरनुमा बातें देने की बात कबूल कर खुश या परेशान हो उठता है। वह खबर देने को मजबूर है । कोई इन पत्रकारों या तमाम चैनलों से यह क्यों नहीं पूछता कि क्या जो वो दिखा रहे हैं वो वाकई खबर है। कुछ एक चैनलों को छोड़ दें तो महाराष्ट्र और बुंदेलखंड के किसानों की आत्महत्या की खबर कहीं भी जगह नहीं बना पाई। जबकि लालू या तमाम नाचने गाने वाले अभिनेताओं की चालीसा को कई चैनलों ने शान से चलाया। एक गड्ढे में गिरा प्रिंस देश के तमाम चैनलों पर जीवन और मौत का मंजर पेश करता रहा तो पटना का एक आशिक अध्यापक अपनी सुधड़ छात्रा के साथ अपना इश्किया आंदोलन चलाता रहा लेकिन इन दोनों खबरों या ऐसी तमाम खबरों के बीच तमाम आवाजे अनसुनी रह गईं या रह जाती हैं । मैं तमाम फालतू और रची-रचाई खबरों का क्या करूँ । क्योकि प्रिंस और प्राध्यापक की खबरों में ड्रामा था, इमोशन था, रूप-रस था या कहें कि मसाला था । इसलिए ये खबरे दनदनादन चलती रहीं । किसानों और कामगारों की नीरस खबरें कौन देखता-दिखाता है। आज अनशन और सविनय अवज्ञा आंदोलन का नहीं ड्रामा का युग है। अगर विदर्भ के खुदकुशी करने वाले वही किसान मुंबई में मंत्रालय के सामने ताम-झाम के साथ अपनी जान दें या बुंदेलखंड के किसान कसाई बन कर ददुआ बन जाएं तो तमाम चैनलों को खबर दिखेगी और सबकुछ गरमागरम रहेगा। लेकिन इसलिए सवाल यही है कि भाई खबर क्या है । और इसे तय करने का अधिकार फिलहाल चैनलों के संपादकों और कर्ता-धर्ताओं के विवेक पर है । और उनका विवेक जो कहेगा से बड़ा सवाल यह है कि उनके चैनल को धनबल देने वाले लोग कितना कुछ बिना ड्रामे का करने देते हैं ।

आप को जान कर हैरत होगी सदी के महानायक के नाम से प्रचारित अमिताभ बच्चन और लोकनायक जय प्रकाश जी का जन्म दिन एक ही तारीख यानि 11 अक्टूबर को पड़ता है। अगर 11 गलत हो तो जो भी तारीख हो एक ही है। सारे चैनलों ने अमिताभ की अखंड आरती उतारी लेकिन मैने कहीं भी लोकनायक से जुड़ी एक लाइन की खबर भी नहीं देखी । तर्क वही जेपी की खबर कौन देखता है भाई। यानि जो हिट है वो फिट है । चाहे वो राखी हो या शिल्पा ।

बेनाम ने सही ही कहा है कि पत्रकार और संपादक भी इसी भारतीय समाज की देन हैं । उनमें भी वो तमाम कमजोरियाँ हो सकती है जो आरटीओ ऑफिस के बाबुओं या पुलिस के दारोगा में होती हैं । आज मुन्नाभाई भले लगे रहें लेकिन यह बात माननी पड़ेगी कि वक्त गांधी-लेनिन नहीं गुंडों-लुच्चों का है और हम सब तमाशाई हैं । महाभारत के कुरुक्षेत्र के बाहर खड़े विदुर से अधिक हमारी कोई भूमिका फिलहाल मुझे नहीं दिखती।

चलते-चलते सुल्तान पुर के अवधी के एक कवि इंदु जी की एक कविता का अंश लिख रहा हूँ, अभी इतनी ही याद आ रही है-

एक बार जौ अउते बापू
नेक बात समझउते बापू
सत्य-अहिंसा कहतइ भर में
बीसन लप्पड़ पउते बापू।

भावार्थ यह है कि यदि बापू तुम एक बार फिर आ जाते और अपनी नेक बातें समझाते । तो सत्य-अंहिसा कहने की देर थी तुम्हे बीसियों थप्पड़ लग जाते ।भाई अगर कुछ ऊंच-नीच हो गया हो तो थप्पड़ से बचाना। मार खाने से बहुत डर लगता है । और मैं बेनाम से आग्रह करूँगा कि वो खुल कर अपनी बात कहे । नाम और पहचान क्यों छिपाते हो भाई। डरते क्यों हो, हम हैं ना ।

6 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

सुना है ;
एक अंग्रेजी खबरिया चैनल में 'सामाजिक न्याय' पर चर्चा चल रही थी । एक चर्चित, तेज, वरिष्ठ पत्रकार ने पूछा इस मामले में किसकी बुनियादी सोच है? हिन्दी भाषी कनिष्ठ ने जवाब दिया लोहिया की। तुरन्त पूछा गया,'कन्टैक्ट नम्बर है ?'

रंजन (Ranjan) ने कहा…

शायद जो आप कह रहे है.. वो ही सच्चाई है.. इसी पर कुछ दिन पहले मैने "मुफ़्त का मनोरंजन" लिखा था...

लेकिन एक और बात हम पत्रकारो को या मिडिया को केवल "मुफ़्त का मनोरंजन वाले चैनल" क्यों मान बैठे है.. क्या केवल ये चन्द चैनल ही मिडिया है ? हमे क्यो अपेक्षा है कि ये सामाजिक सरोकरो के मुद्दे उठाये.. वो भले ही खुद को पत्रकार माने / कहे.. हम क्यु माने/कहे.

मै इन चैनलो को पत्रकार या इनके पेशे को पत्रकारिता नहीं मानता...

वैसे इन सभी कि दौड मे. अखबार आज भी समाचार की और पत्रकारिता की रिढ है.. अखबार चाहे हिन्दी हो या english या प्रादेशीक.. आज भी प्रचुर मात्रा मे पढे जाते है.. संपादकीय आज भी सटीक होते है.. हर आवाज वहा स्थान पाती है.. दुर दराज गावो कि खबर आज भी हाथ से लिख भिजवाई जाती है..


दिन भर ये चैनल देखने वाले और इनको दिखाने वाले सुबह चाय के साथ अखबार जरुर पढते होगें.

क्योंकि अखबार मे

अगर ११ अक्टुबर को ’अमिताभ’ पर एक पेज होगा तो एक पेरा "JP" पर जरुर मिलेगा.

वक्त आ गया कि हम चैनलो को पत्रकारीता से अलग माने..

हाँ कुछ "असली पत्रकार" न्युज चैनलो मे ’घुसपैठ’ किये हुए है.. और वो अक्सर ’सामाजिक सरोकारो’ की बाते करते हुए पाए जाते है..

Sanjeet Tripathi ने कहा…

सत्य! पत्रकारिता में जितने साल मैंने गुजारे है वह बहुत ही कम है लेकिन उसके आधार पर कह सकता हूं कि आपका कथन सत्य ही है। आज का पत्रकार खबर लाने वाले एक एजंट से ज्यादा कुछ भी नहीं। या कहें कि खबर संग्राहक से ज्यादा कुछ भी नहीं। एक पत्रकार तो सिर्फ़ खबरों का भूखा होता है, चाहे कैसी भी हो, यह तो डेस्क पर बैठे महानुभावों को तय करना होता है कि कौन सी खबर चलेगी या छपेगी।
यही डेस्क पर बैठे महानुभाव किसी पत्रकार को दिशा-निर्देश भी देते हैं कि यह नही वह खबर करो और वह भी इस खास एंगल से तब ही मजा आएगा।

बेनामी ने कहा…

"क्योकि प्रिंस और प्राध्यापक की खबरों में ड्रामा था, इमोशन था, रूप-रस था या कहें कि मसाला था ।
..... अगर विदर्भ के खुदकुशी करने वाले वही किसान मुंबई में मंत्रालय के सामने ताम-झाम के साथ अपनी जान दें या बुंदेलखंड के किसान कसाई बन कर ददुआ बन जाएं तो तमाम चैनलों को खबर दिखेगी और सबकुछ गरमागरम रहेगा। "

एकदम सही कह रहे हैं बोधिसत्व जी आप.
इमोशन, रूप-रस या मसाला के कारण जमीन से जुड़े सरोकार पीछे रहते जा रहे हैं.

कोई आशा की किरण नहीं बची क्या ?

बेनामी ने कहा…

बहुत बहुत अच्छा लिखा है.

अविनाश जी ने, अभय जी ने, बोधिसत्व जी ने और बेनाम जी ने. चारो प्रविष्टियां मुझे बेहद पसंद आयीं.

Rising Rahul ने कहा…

mujhe bhi lagta hai ki main ek agent ki tarah kaam kar raha hu, kahi se khabre utha kar lana fir kuch paison ke liye unhe banakar nech dena.. lekin bodhisatv ji , ek baat bataiye , kya koi aur tareeka hai ? jisme aap patrkaar bane rah sake ? sare tareeko me bajaar ka rahna pahle se hi tay hai , ya to aap kahiye ki patrkaar to kabhi hua hi nahi kyonki agar kisi vishes yug kee baat karen to mujhe bataiye ki kya tab bajaar nahi tha ? aur agar tha to kya wo mahaan mahaan log jinhe patrkaar ka darza diya jata hai , wo agent nahi the .. jahan tak meri baat hai , lic ka agent tha to jeevan beema ki policy becha karta tha , khabar ka agent hoon to khabar bechta hoon.. bajaar me..

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