मोहल्ले के अविनाश जी मेरे सामाजिक दायित्वबोध से खुश नहीं हैं.. मैं उनसे कहना चाहता हूँ कि निर्मल-आनन्द कोई बहस का मंच नहीं है.. मेरी तरंग मेरी मौज है.. मुझे जो मन आयेगा, लिखूँगा.. मैंने किसी बहस की शुरुआत नहीं की न किसी बहस का समापन.. एक घटना हुई मन में कुछ विचार आये, लिखे, छापे.. चन्द्रप्रकाश महोदय को बेल मिल गई.. अब क्या चाहते हैं आप.. हम गुजरात और हिन्दुत्व के खिलाफ़ रोज़ कुछ न कुछ न लिखें.. नारा लगायें.. धरना करें.. क्या करें कि आप खुश हो के हमें गरियाना बंद कर देंगे..
पहले तो ये समझिये कि चन्द्रप्रकाश ने कोई महान कलाकृति नहीं बनाई है.. जो बनाया है वह पतनशील ही है.. कुछ लोग उसे कुत्सित मानसिकता कह रहे हैं.. और ऐसा कहने के लिये मैं उनका विरोध नहीं कर सकता.. हमारे यहाँ वस्त्रहीनता और सम्भोग आदि विषयों के चित्रण के प्रति एक उदार सोच रही है.. जिसके पीछे एक निश्चित दार्शनिक-आध्यात्मिक आधार भी होता था..मगर उसकी नीयत किसी विद्रूप या उपहास की नहीं होती थी.. श्री चन्द्रमोहन ने देवताओ की तस्वीर उनकी आराधना हेतु नहीं बनाई.. जो कुछ भी मैं पढ़ रहा हूँ उसके बारे में वो कोई गुएरनिका तो नहीं प्रतीत हो रही .. उन्होने गुजरात के दंगों की विभीषिका पर नहीं बनाया है ये चित्र.. किसानों की आत्महत्याओं पर भी नहीं.. ग्लोबल वार्मिंग और आगामी पानी के संकट पर भी नहीं..
और फिर वे गुजरात में हैं.. जहां मोदी साब का उग्र हिन्दुत्व सत्तारूढ़ है.. उस माहौल में आप ऐसी तस्वीर बना के जान बूझकर विवाद को आमंत्रित कर रहे हैं.. और एक बात और समझिये अब चन्द्रमोहन कोई बेचारे-टेचारे नहीं रहे.. वो लाखों करोड़ों में खेलने काबिल हो गये हैं.. अच्छा नाम मिला हैं उन्हे इस विवाद से.. चित्रकला जैसे अवरुद्ध कला माध्यम में जो आम जनजीवन से अपना सम्पर्क खो चुकी है.. अब उसे बाज़ार में बिकाऊ बनाने के लिये सिर्फ़ विवाद ही काम आता है.. इसी तरह हुसेन भी कोई महान कलाकार नहीं हैं.. वो सिर्फ़ सनसनी बेचते हैं.. मैं उन पर हुए मुक़दमों और हिंसक विरोध का विरोध करता हूँ.. क्योंकि मैं कट्टरता और असहिष्णुता का विरोध करता हूँ.. और अपने समाज और धर्म को ज़्यादा स्वस्थ ज़्यादा उन्मुक्त देखने की कामना रखता हूँ.. इसका मतलब ये नहीं कि मैं उनकी कला का समर्थन करता हूँ..
अच्छा होता कि चन्द्रमोहन की पेंटिग के विचार का विरोध वैचारिक तौर पर ही किया जाता.. ब्लॉग की दुनिया में उनके खिलाफ़ विचार आये हैं.. और मेरा उनसे कोई विरोध नहीं है.. मेरा विरोध गुंडागर्दी से है.. हिंसा से है.. किसी समुदाय के प्रति या व्यक्ति विशेष के प्रति लोगों के मन में बसे पूर्वाग्रह से है.. जैसे आप संजय बेंगाणी के बारे में पूर्वाग्रह से ग्रस्त होंगे.. मैं नहीं हूँ.. मैं उनकी बात को उनकी बात के आधार पर तौलूँगा ना कि इस आधार पर कि ये कौन कह रहा है.. और अगर मुझे उनकी कोई बात उचित लगती है.. तो आप को मेरी इस बात में केसरिया रंग दिखने लगेगा .. दिखे.. मैं परवाह नहीं करता.. मेरे अन्दर सब रंग है.. मैं अपने अन्दर के रंगो को प्रतिबंधित नहीं करता और ना उन पर बिल्ले लगाता हूँ..
अविनाश समेत आप सब लोगों से निवेदन है कि भाई लोग बिल्लो को फेंक दें.. पूर्वाग्रहों को छोड़ें.. और आदमी को उसकी सम्पूर्णता में स्वीकार करने की कोशिश करें.. किसी ब्लॉगिये से टूटी हुई मूर्तियों का हिसाब सिर्फ़ इसलिये ना माँगने लगिये क्योंकि वह मुसलमान है.. किसी अन्य को सिर्फ़ इस आधार पर दंगाई मत समझ लीजिये कि वह अपने देवी देवताओं को अपमानित करने का समर्थन नहीं करता.. और मुझे भी बख्शिये.. मैं कुछ मुद्दों पर अपने विचार लिखता हूं इसका अर्थ यह मत लगाइये कि मैं किसी से पंगा लेने आया हूँ.. मैं किसी तरफ़ नहीं मैं अपनी तरफ़ हूँ.. मैं शांतिप्रिय आदमी हूँ.. मुझे अपनी शांति में रहने दीजिये.. और दाल भात खाने दीजिये..
25 टिप्पणियां:
दाल भात मुझे भी अच्छा लगता है। कमेंट ना करते-करते भी आप कमेंट कर गये। अविनाशजी का यही उद्देश्य था।
आलोक पुराणिक
"भाई लोग बिल्लो को फेंक दें.. पूर्वाग्रहों को छोड़ें.. और आदमी को उसकी सम्पूर्णता में स्वीकार करने की कोशिश करें.. किसी ब्लॉगिये से टूटी हुई मूर्तियों का हिसाब सिर्फ़ इसलिये ना माँगने लगिये क्योंकि वह मुसलमान है.. किसी अन्य को सिर्फ़ इस आधार पर दंगाई मत समझ लीजिये कि वह अपने देवी देवताओं को अपमानित करने का समर्थन नहीं करता.. "
साधो, बानी भली उचारी
वाह वाह ...भाई वाह वाह ..पहले तो हमारी बधाई ले लीजिये ..इतने अच्छे ढंग से अपनी बात रखने के लिये..फिर हमें भी अपनी दाल-भात मंडली में शामिल कर लीजिये..ना भाई ना ..हम ना कोई गुट बाजी कर रहे हैं और ना ही किसी रंग का समर्थन/विरोध .. हम तो यही कब्ब से कह रहे हैं आदमी को किसी खांचे में फिट ना करिये भाई...उसके लेखन को ..उसके विचार को अपनी समझ के मुताबिक तौल लीजिये ...अच्छा लगा तो कह दीजिये अच्छा है (वह व्यक्ति नहीं उसका विचार) बुरा लगा तो भी एक संयमित टिप्पणी कर दीजिये...उस व्यक्ति के खिलाफ नहीं उस विचार के खिलाफ...पर लेखक को किसी खांचे में फिट मत कीजिये...मत बनाईये उसे कठपुतली..और वो भी ऎसी कि....मीठा मीठा हप,कड़वा कड़वा थू..आपने कहा "मैं उनकी बात को उनकी बात के आधार पर तौलूँगा ना कि इस आधार पर कि ये कौन कह रहा है.. और अगर मुझे उनकी कोई बात उचित लगती है.. तो आप को मेरी इस बात में केसरिया रंग दिखने लगेगा .. दिखे.. मैं परवाह नहीं करता.. मेरे अन्दर सब रंग है.. मैं अपने अन्दर के रंगो को प्रतिबंधित नहीं करता और ना उन पर बिल्ले लगाता हूँ.."
ठीक हमारे मन की बात कह दी भैया... लेकिन कुछ लोगों को यही बात समझ क्यों नहीं आती..क्यों सब को एक ही तरह के चश्मे से देख्नने लगते हैं...अब तो चश्मा बदल डालो भाई...दुनिया नई है चश्मा पुराना...अपनी हर महफिल में किसी को भी इसलिये मत घसीटो कि कभी उसने आपकी महफिल के किसी मुजरे को पसंद किया था... हर आदमी का एक विचार है..कृपया व्यक्ति को विचार से अलग कर लो....फिर देखो ये दुनिया कितनी सुहानी लगती है...
हमारी नफरतों की आग में सब कुछ ना जल जाय,
यूं तो जलता हुआ घर अपना ही लगता है
स्वामी जी, मुझे समझ नहीं आ रहा आपलोग इतने आराम से भात दाल खाने की बातें कैसे कर रहे हैं? भात दाल खाना इतना आसान है क्या? आपके लिए और अविनाश बाबू के लिए होगा, हमें तो कला और समाज की चिंता से कहीं ज्यादा बड़ा सवाल लगता है. सुबह से खोज में निकला हूं, अभीतक दूर-नज़दीक कहीं नहीं दिख रहा. भात दाल.
अनुभवजन्य असमंजस है, इसे अपने तक ही रखियेगा. विज्ञजनों के सामाजिक संवाद के आजू-बाजू चढ़ाकर हमें भात दाल का छोटा आदमी न बनाइयेगा.
इतना व्याकुल , इतनी जल्दी मत होइये, मेरे भाई।
aap itna bhadakiye mat abhay ji ki blooger par aapka jo mann karega wahi lokhenge, aapka ek saamajik jeewan hai aur taakat ke shadyantra ko samajhne sochne wale log bahut kam hain isliye aap jaise hi logon se umeed hai, tabhi koi baat kahi jaati hai. aur koi vaad aur guut ka mamla nahi hai hum logon ko ek behtareen samaj banane ke kram me kai bhavuk aur parampragat baton ko chhodkar apne aap me bhi badlaav laana hoga. vichahron ka vikaas hote rahna chahiye taki tarkikta aur prasangikata barkarar rah sake.
आप एक सार्वजनिक स्पेस में अपने सृजन को ला रहे हैं- इसलिए उस पर बात-बहस होगी। अगर आपका ये एलान होता कि ये मेरी व्यक्तिगत रुचि-अरुचि से जुड़ी हुई मौज है- आप इस पर या तो प्रशंसा भाव से लिखें, या आलोचना की एक ग्राह्य शैली में ही अपनी बात रखें- तो शायद इतनी बात नहीं होती। दूसरी बात ये कि चंद्रमोहन या हुसैन की कला क्या है, और कला दरअसल क्या होती है, और इनकी कलाओं का कोई सामाजिक उपयोग है या नहीं- इस एक्सपर्ट कमेंट की इतनी जल्दबाज़ी न करें। जैसे आपने अपनी निर्मलता पाने में इतना वक्त लगाया, वैसे ही हुसैन ने अपनी कूची को दुरुस्त करने में उम्र गंवा दी। आधी उम्र तक तो उन्हें कोई जानता भी नहीं था। वे और विष्णु चिंचालकर सागर में साथ-साथ पेंटिंग बनाते थे। दोनों महान चित्रकार हैं- और आप हुसैन को जानते होंगे, विष्णु चिंचालकर कब गुज़र गये, आपको पता भी नहीं चला होगा। हुसैन को इसलिए जानते हैं, क्योंकि उन्होंने हमारी परंपरा के मिथकों-प्रतीकों पर अपनी कूची के माध्यम से संदेह करना सिखाया।
एक और बात, मुझे लगता है कि गुजरात ही वो जगह है, जहां हिंदू प्रतीकों पर बार-बार हमले करने और उनकी व्याख्या करने की ज़रूरत है- सिर्फ इसलिए क्योंकि इन्हीं प्रतीकों की महानता के नाम पर यहां अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया जाता है। हो सकता है आप संजय बेंगाणी के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रसित नहीं हों- आप तो नरेंद्र मोदी के प्रति भी पूर्वाग्रह से ग्रसित नहीं होंगे- लेकिन मैं हूं। नरेंद्र मोदी को नैतिक खुराक संजय बेंगाणी जैसे लोग ही पहुंचाते हैं। आप उनके साथ मिल कर अच्छा समाज बनाने के बारे में सोच सकते हैं, मैं नहीं सोच सकता। आखिरी बात, सार्वजनिक संवाद में इस कदर भावुक होंगे, तो काम नहीं चलेगा।
अनु जी
मैं चन्द्रमोहन को अपने मन से चित्र बनाने देने के पक्ष में हूँ.. वो जो बना रहा है उसके प्रति मैं निरपेक्ष हूँ.. मैं अपने मन का लिखने के भी पक्ष में हूँ.. किन्तु आप चन्द्रमोहन की मन की आज़ादी की तो वकालत करती हैं .. पर मेरे मन पर क्यों बेडि़यां डाल रही हैं.. क्यों..? ये पक्षपात क्यों..? मैंने क्या अपराध किया है आपका..?
अविनाश जी
उम्र तो जावेद अख्तर ने भी गवां दी है.. अमिताभ बच्चन ने भी.. महेश भट्ट ने भी और लाल कृष्ण आडवाणी ने भी.. सब अपने अपने तरह से महान हैं.. अगर उसी तरह से आप को हुसेन भी महान लगते हैं.. तो मैं आप की बात मान लेता हूँ..
और ये भम मत पालिये कि हुसेन से आपने मिथक प्रतीकों पर सन्देह करना सीखा.. ये कितनी हवाई बात है.. ज़रा रुक कर पूछिये अपने आप से..
जी नहीं.. मैं नरेन्द्र मोदी के बारे में पूर्वाग्रह ग्रस्त नहीं हूँ.. वो जो करते हैं.. मैं उस से उनके बारे में सही सही आकलन करता हूँ.. पूर्वाग्रह बीच में नहीं लाता..
मनुष्य हूँ.. भावनाएं हैं..
मित्र मैं नहीं जानता आप मेरे बारे में क्या सोचते है, और दुसरे क्या सोचते है, इसकि भी परवाह नहीं.
आपने जो लिखा है, सही लिखा है.
बाकि कुछ लोग सोचते है भगवान ने केवल उन्हे ही बुद्धी दी है सोचने समझने की, दुसरे जो सोचते है वे विचार नहीं, बात नहीं बल्कि लात है.
विचलित न हो. यह सब तो चलता रहेगा.
मैं किसी तरफ़ नहीं मैं अपनी तरफ़ हूँ.. मैं शांतिप्रिय आदमी हूँ.. मुझे अपनी शांति में रहने दीजिये.. और दाल भात खाने दीजिये..
अभय जी आपके पूरे पोस्ट में ये पंक्तिया सबसे मस्त हैं। दाल भात खाने दीजिए। चम्मच से नही हाथ से खाइएगा ज्यादा मजा आएगा।
मै लेख के बारे में कुछ नही कहना चाहूँगा इसके लिये खेद है क्योकि लेख पर कहने के लिये काफीपीछे जाना होगा।
हॉं दाल भात तो मुझे भी अच्छा लगता है। जब उसमें घी पड़ा हो। और इन दिनों की दाल भात की क्या बात जब उसमे अमिया होती है। मजा आ जाता है। :)
मुझे शायद यहा नही होना चाहिये था पर अब हू मैने अभी अभी थोडा सा किस्सा समझा है और एक किस्सा कल रात का भी है अभय जी मै आपको अगर आप ऐसे ही है जो अब दिख रहे है तो साधुवाद देना चाहूगा आप वक्त रहते निर्मल हो रहे है औए उम्मीद करता हू आनन्द भी आपसे दूर अब नही जायेगा कुछ लोग सिर्फ़ और सिर्फ़ अपनी सडी हुय़ी परिकल्पित दुनिया मे जीने के आदी होते है वह हर किसी को अपना भ्रमित सत्य दिखाना चाहते है और उससे जरा सा भी कोई असमर्थित हो ये उनहे पसंद नही आता फ़िर उनका अनर्गल मिथ्या प्रलाप शुरु हो जाता है वो अपने आपको प्रगतिशील बुद्धीजीवी और पता नही क्या क्या मान बैठते है मन के अन्दर समाई हुई असुरक्षा की भावना बाहर आने लगती है पुर्वाग्रह तो उनकी जीवन दाईनी शक्ती है.शायद कुछ बच्चॊ का बचपन कुन्ठाओ के बीच गुजरता है मा बाप के बीच अलगाव तनाव पैसे की समस्या या उनके अपने रिश्तो की समस्याये वहा बच्चो के मन मे गाठ पड जाती है माँ- बाप ध्यान नही दे पाते वही परवरिश की कमी आदमी को जिन्दगी भर सताती है बच्चा जिन्दगी भर के लिये समाज पर बोझ बन जाता है जिसकी वजह से वोह हर समाज हर वस्तु हर नियम को तोड़ने की कोशिश करने लगता है उसे सही गलत की कोई परवाह नही होती जानता है वो कि क्या सही है क्या गलत पर जिस से लोग उसकी और आकर्षित हो उसे उसी काम को करने मे आनन्द आता है वह कभी समान्य लोगो मे खुद को कभी शामिल नही कर पाता हमेशा कटा-कटा सा रहता है और फ़िर वो मानसिक रुप से अविकसित लोगो या अपनी तरह ही के साथियो का ग्रुप बना लेता है जैसे रास्ते चलते हुये खम्बो के बल्ब तोडना ,किसी जाते हुये आदमी से बिना मतलब बदतमीजी करना उसकी हसी उडाना हर आने जाने वाले पर व्यंग कर देना ,आप लोगो ने तो अकसर देखा ही होगा कुछ लोग ग्रुप बना कर हर आते जाते बच्चे को रोक कर चपत ही मारते रहते है खुद को बडा (दादा)दिखाने की लालसा मे यही लोग बडे होकर भी हमेशा किसी न किसी को छेडकर बेवजह तंग करने की कोशिश मे लगे रहते है इनका इलाज वही होता है बचपन वाला अगर बचपन मे ही इन्हे सही ट्रीटमेन्ट मिल जाये तो ठीक अगर वो न मिले तो बिमारी और बढ जाति है और यही लोग दंगो मे लूट मे चौरी डैकैती जैसी हरकतो मे शामिल हो जाते है इन्हे हर वक्त छोटी छोटी बातो मे फ़साद खडा करने और लडने झगड्ने मे मजा आता है अगर यह बाहर से बिना लडे झगडे लौटे तो घर मे छौटी छौटी बातो मे बखेडा खडा करते है" शोचालयो तथा दूसरो के ब्लाग पर जाकर गालिया लिख कर अपनी मानसिकता उजागर करते है" ये सभी मानसिक विकृतियो के शिकार युवक है अब इन से घृणा भी कैसे करे बस भगवान से प्रार्थना कर सकता हू कि इनके माता पिता अगर कही है तो उन्हे सद्ब बुद्धी दे ताकि वे इन्हे किसी अच्छे जगह अच्छे मानसिक चिकित्सक को दिखाये ताकी इलाज के बाद स्वस्थ होकर सामान्य जीवन का आनन्द उठा सके आमीन
अमां सब छोड़िये, अभयजी, यह बताइए बिल्लू कैसा है। बिल्लू को कुछ खबर भी है कि कैसी रार मची है, तकरार मची है। भईया बिल्लू से भी पूछ लो, कितनी बहस चलानी है।
बेनाम
अच्छी कही आपने, यानी आप अपने दाल-भात में मूसलचंद नहीं चाहते। अरे कोई भी नहीं चाहता है भाई। आज तो वाकई आपके यहाँ हल्का फुल्का दाल-भात पका है इसलिए मैं खाने आ गया। कई बार आप बहुत भारी किस्म का खाना पकाते हैं और मेरी पाचन शक्ति जरा कमजोर है इसलिए आपका थाली दूर से देख कर निकल जाता था, पर आज जी भर कर खाया है। आप ऐसे ही खाते खिलाते रहिए।
अच्छा है, आप एक ठीक ठाक संदर्भ को टिप्पणियों की जैसी बाढ़ से एक गर्हित दिशा में बढ़ा रहे हैं, मुझे चिंता हो रही है। लेकिन चलिए... आप सही हैं, हर मोर्चे पर आप सही हैं, आपके पास अंतिम सत्य आ गया है, आप बधाई के पात्र हैं।
हम किसी को कुछ करने या सोचने को मजबूर थोडे ही कर सकते हैं ... फिर तो क्या गुजरात के कलाकारों पर हमला करने वाले और क्या वामपंथी..?
दोनों में फ़र्क़ ही क्या रह जायेगा... खलनायकों का विरोध करते करते हम खुद ही खलनायक तो नहीं होते जा रहे हैं ? क्योंकि वे हमलावर भी तो यही चाहते हैं कि लोग उनकी तरह से सोचे....
हमें जैसे मन होगा, जो मन होगा, सोचेगें
हमे अपने समाजिक बोध के लिए किसी का मुँह थोडे ही ताकेंगे....
मुझे ताज्जुब है कि अविनाश जी इस तरह का आग्रह कैसे कर सकते हैं...
अरे अविनाश जी क्या कह रहे हो आपको तो बस यही कहना था ना "विनाश काले विपरीत बुद्धी
आप सब मित्रों का बहुत धन्यवाद कि आपने मुझे पढ़ा.. आखिर में सबसे एक अन्तिम बात कहना चाहूँगा.. जो आज सवेरे नवभारत टाइम्स के मुखपृष्ठ पर छपी है.. वेद व्यास की किसी संस्कृत सूक्ति का हिन्दी अनुवाद है यह:
"बुरा मनुष्य भला और भला मनुष्य बुरा हो जाया करता है। समय बदलने के साथ शत्रु मित्र और मित्र भी शत्रु बन जाता है।"
समय की इस अनोखी चाल के बावजूद मैं चाहता तो हूँ कि किसी से शत्रुता न हो..जो शत्रु हैं वो मित्र बन जायं और मित्र तो मित्र बने ही रहें.. एवमस्तु।
सबसे पहले अगर स्वस्थ बहस करनी है तो मुद्दे पर बहस करो...किसी व्यक्ति विशेष को काहे घसीटते हो।
अपने आपको पत्रकार कहने वाले बन्धु जरा ध्यान दें,अविनाश ने अपनी टिप्पणी में, संजय बेंगानी का नाम यहा जिस परिपेक्ष्य मे उठाया गया वो सर्वथा अनुचित है। हर बार बहस पटरी से उतर जाती है जो तू तड़ाक तक जा पहुँचती है। अविनाश जी, आपकी जो सोच और विचारधारा है, उस पर बहस करिए। क्यों व्यक्तिगत रुप से, दूसरों के नाम, अपनी बहस मे शामिल करते है?
इतनी बार समझा रहा हूँ, सबको कि मुद्दे पर बहस करो, विषय आधारित। एक दूसरे पर कीचड़ मत उछालो, लेकिन शायद आप लोग इस बात को समझते ही नही। नही तो कोई भी इस तरह की बहस को सीरियसली नही लेगा। बाकी आप लोगो की इच्छा।
पूर्वाग्रह रखेंगे तो अपनाएंगे कैसे? गुजरात में शासकों को बदला जा सकता है किंतु जनता को नहीं. जनभावना को बदलते वक़्त नही लगता. सकारात्मक एजंडा ही रखा जाना चाहिए. भाषा में तल्खी का यह मतलब नहीं कि व्यक्तिगत हमले किए जाएं. संजय जी को निशाना बनाए जाने का औचित्य नज़र नहीं आता.
किसी विचारधारा का इस स्तर तक विरोध करना कि आप अपने सद्भभाव और सौहार्दता के विचारों को ताक पर रख दें... यह भी कट्टरता है. ऐसी धर्मनिरपेक्ष कट्टरता से अब लोग तंग आ गए हैं और ग़ुस्से में वे किसी एक पाले के साथ नज़र आने लगते हैं. हिन्दू हिन्दुत्वादियों के और मुस्लिम अपने चरमपंथियों के पाले में. गांधी के दर्शन में घृणा की गुंजाइश नहीं.
लेखक बधाई का पात्र है. मैं उनके विचारों से सहमत हूं.
@भाई अविनाश, आप अध्ययनशील लेखक हो. पत्रकारिता का विशाल अनुभव भी है. मन में व्यवस्था के प्रति क्षोभ है जिसे ज़ाहिर कर देते हो. किंतु किसी ब्लागर साथी का नाम लेकर टीप मत उछाला करो. नाहक विवाद खड़े करने से वैचारिक बदलाव नहीं होता. हिट मिल सकती है. चैनल को टीआरपी मिल सकती है किंतु भरोसा जीता नहीं जाता. भरोसा बांटा जाता है.
भाई, जो आपसे राज़ी नहीं है उनके लिए एक शेर पढ़ा करो..
वो मुतमईन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकते.. मैं बेक़रार हूं आवाज़ में असर के लिए.
वैचारिक तौर पर साम्यता है किंतु तरीक़े पर ऐतराज रखता हूं. यह मेरी या आपकी समझ में फेर की वजह से होता है.
Aapane jo link lagayi hai "Can't see Hindi ki usame typo hai".
http://bhomiyo.com/en.xliterate/bhomiyo.com/en.xliterate/nirmal-anand.blogspot.com
Upar vali link aise honi chahiye:
http://bhomiyo.com/en.xliterate/nirmal-anand.blogspot.com
अभय भाई!
किस अज़ाब में फ़ंस गए . आपका उम्र और अनुभव कम है . छटंकियों का उम्र और अनुभव और ज्ञान और शायद अज्ञान भी आपसे बहुत-बहुत ज्यादा है . हथियार डाल दीजिए . काहे बहस करते हैं . ज़िन्न जब चराग से बाहर निकाल आता है तब कई बार आका के भी काबू में नहीं रहता .
बेनाम जी.. मैंने टाइपो की गलती सुधार ली है.. आपका धन्यवाद
present sir !! abhi koi tippani nahi kyonki abhi main khud taaple khaa raha hoon.isliye sirf haaziri laga raha hoon.
इसका एक दूसरा पहलू भी है: क्या लेखक, कवि, चित्रकार को अराजकत्व की एक-तरफा आजादी है?
स्वतंत्रता कभी भी एक-राहा नहीं है !! परस्पर एक दूसरे के विचारों का आदर एवं आदर-सहित मूल्यांकन ही इसका एकमात्र स्थायी हल है.
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