रविवार, 13 मई 2007

बिल्लू का बचपन

बिल्लू ने गद्दी से उतरकर पैडलों पर ज़ोर मारते हुए चढ़ाई पार कर ली.. अब सायकिल हलकी हो गई थी.. दो चार पैडल मारकर वह गद्दी पर सुस्ताने लगा.. सायकिल में गति आ गई थी वह चलती रही..पुल के नीचे से ट्रेन गु़जरने वाली थी.. बिल्लू आती हुई ट्रेन को बिल्लू देखने लगा.. ट्रेन को पुल के नीचे से गुज़रते देखना बिल्लू को पसन्द था.. इस से उसे अचानक बड़े होने का अजीब सा एहसास होता था.. ट्रेन जै्सी विशालकाय हस्ती से भी बड़ा.. तो इस अनुभव को फिर से अनुभव करने के लिये बिल्लू ने साइकिल के पैडल से अपना पाँव हलका कर लिया ताकि ढलान शुरु होने के पहले ट्रेन का गुज़रना हो जाय..

बिल्लू के कुछ दोस्त पुल के नीचे से गु़ज़रती ट्रेन के ऊपर थूक कर मज़ा लेते थे.. बिल्लू को इस खेल में कभी मज़ा नहीं आया.. ऐसा करने के खयाल से ही उसे लगता कि वह ट्रेन में बैठे लोगों के सर पर थूक रहा है.. और ये सोच कर ही उसे याद आता कि उसे बताया गया है कि लोगों पर थूकना अच्छी बात नहीं है और वो ऐसा करने से अपने आप को रोक लेता क्योंकि वो एक अच्छा लड़का बने रहना चाहता था..

ट्रेन ने पुल के नीचे पहुँचने से पहले एक लम्बी सीटी मारी और दो छोटी.. थोड़ी देर के लिये बिल्लू के कानों से टेम्पो का भड़-भड़ करता शोर डूब गया.. और सिर्फ़ ट्रेन की सीटी की कनकनी उसके कानों को देर तक छेदती रही.. बिल्लू को ये कनकनी अच्छी लगती थी.. वह मुस्कुराया और एक बार दूसरी तरफ़ से निकल्ती ट्रेन को देखकर पेडल पर अपना पैर दबा दिया.. अब उसकी सायकिल ढलान पर फ़िसलने लगी तेज़ी से.. बिल्लू को पुल पर चढ़ना पसन्द था क्योंकि उसे पुल की ढलान से सायकिल का यूँ फ़िसलना अच्छा लगता था .. जितनी देर सायकिल ढ़लान से फ़िसलती रहती बिल्लू के माथे पर पड़े रहने वाले बाल पीछे की ओर उड़ते रहते.. उसकी कमीज़ सामने शरीर से एकदम चपक जाती और पीठ की तरफ़ से हवा भरने से फूल जाती.. और कानों में हवा के फ़ड़फड़ाने की आवाज़ उसे देर तक भीतर से गुदगुदाती रहती..

बिल्लू को सायकिल मिले ज़्यादा दिन नहीं हुए हैं.. पहले ये सायकिल उसके भैया के पास थी पर जब से उसका दाखिला एक बड़े स्कूल में हुआ है.. पापा जी ने साइकिल भैया से लेके उसे दे दी है.. भैया को अब साइकिल की ज़रूरत नहीं.. ज़रूरत को बिल्लू को भी नहीं है.. उसकी दुनिया में कुछ भी ज़रूरत का ग़ुलाम नहीं.. वो जो करता है मन की उमंग से भरकर करता है.. इसलिये सायकिल उसके लिये स्कूल जल्दी पहुँचने का और स्कूल से जल्दी घर लौट आने का एक ज़रिया भर नहीं है.. बड़े लोगों को ऐसा लगता है कि बिल्लू स्कूल जाने के लिये सायकिल चला रहा है.. जबकि सच्चाई यह है कि बिल्लू सायकिल चलाने के लिये स्कूल जा रहा होता है..

जब बिल्लू के पास सायकिल नहीं थी और उसका स्कूल भी पास में था..तो बिल्लू पैदल स्कूल जाता था..स्कूल का बस्ता जो अभी कैरियर पर दबा रहता है तब कंधो पर बद्धियों से लटका रहता.. बिल्लू को बार बार ढीली बद्धियो की वजह से झूल जा रहे बस्ते को सँभालने के लिये हाथों से ऊपर खींचना पड़ता, और बार बार कंधे उचकाने पड़ते..लेकिन इस उलझन के बावजूद बिल्लू रास्ते भर चिड़ियों, कुत्तों और सड़क के किनारे पौधों की जड़ों के पास रेंगते कीड़ों को देखते सुनते हुए जाता.. कई बार तो ये जीव इतने मनमोहक होते कि बिल्लू भूल जाता कि वो स्कूल जाने के लिये निकला है..और देर तक यूँ ही घर से स्कूल तक की छोटी सी दूरी पर भटकता रहता..

तीन चार बार तो वो इतनी देर से स्कूल पहुँचा कि प्रार्थना हो गई, बच्चे स्कूल के मैदान से कक्षाओं के भीतर चले गये, पहले पीरियड का घंटा बज गया, टीचर ने पढ़ाना शुरु कर दिया और स्कूल का गेट भी बंद हो गया.. एक बार स्कूल का गेट बंद हो जाने पर वह सिर्फ़ पूरी छुट्टी के बाद ही खुलता था..आधी छुट्टी यानी कि इन्टरवल में भी नहीं..यहाँ तक कि कुछ टीचरों ने प्रधानाचार्य से सिफ़ारिश भी की कि बच्चो को इन्टरवल के समय स्कूल के बाहर खड़े ठेले वालों और फेरी वालों से गेट की पतली झिरी से सामान लेने में बहुत कचर मचर हो जाती है..स्कूल का गेट खोल देना चाहिये.. पर प्रधानाचार्य नहीं माने.. उन्हे स्कूली बच्चों के पढ़ाई के प्रति आस्था में आस्था नहीं थी.. उनका खयाल था कि जो बच्चे सुबह अपनी मरज़ी से खुद स्कूल की कक्षाओं में आकर बैठे हैं वो इन्टरवल के समय गेट खोल देने पर भरभरा कर भाग निकलेंगे.. और वो ऐसा नहीं चाहते थे..शायद उनका ऐसा सोचना सही भी था.. क्योंकि कुछ बच्चे इन्टरवल में और कुछ इन्टरवल के भी पहले स्कूल की ऊँची दीवार फाँद कर बाहर की दुनिया में शामिल हो जाते थे..

(आगे फिर.. )

7 टिप्‍पणियां:

अफ़लातून ने कहा…

बिल्लू कथा की पहली कडी पढ कर खुशी हुई | जारी रहे |

azdak ने कहा…

बिल्‍लू सुनते ही लगता है अहा, बिल्‍लू है तो आसपास कहीं बचपन होगा ही.. और आपने दिखा भी दिया कि सिर्फ मेरी कपोल-कल्‍पना नहीं, वास्‍तव में बिल्‍लू का बचपन है.. किंचित अकेला और उदास है जो अच्‍छी बात नहीं.. रवीश कुमार जैसे चंचल मित्र नहीं, उसकी पीड़ा है.. मगर गनीमत है सायकिल है.. स्‍कूल तक लिये जानेवाला एक रास्‍ता भी है. और अच्‍छी बात. आप बिल्‍लू के बचपन और बचपने को उकेरें, द‍ेखियेगा बड़ी अनमोल और बेमेल दोनों तरह की चीज़ें बाहर आएंगी.. हमेशा प्रगतिशील संधानों से अलग ज़रा बचपन का भी बंटाधार करते रहें, स्‍वस्‍थ्‍य पतनशील मूल्‍य है.. बिल्‍लू का ही नहीं, आपका भी हाजमा दुरुस्‍त रहेगा.. केश और दाढ़ी के बाल काले बने रहेंगे.

आपका ही शुभचिंतक,
एक अप्रगतिशील सहयात्री

अनामदास ने कहा…

स्कूल के दिन याद आ गए, भागकर बहुत फ़िल्में देखी हैं. हमारे स्कूल में लंच की छुट्टी के बाद दोबारा हाज़िरी होती थी और आधे से बच्चे गायब पाए जाते थे, बच्चों ने दुनिया के सबक़ सीखने में हमेशा ज्यादा तत्परता दिखाई है. एक बच्चे का बाप हूँ, अब अपने को तैयार कर रहा हूँ कि जैसे मैंने अपने पिता की बात नहीं मानी वह भी नहीं मानेगा...इस हुकुमउदूली से डील करना आगे चलकर काफ़ी मुश्किल होने वाला है. अपना बचपन याद रखने से बच्चों को पालने में बहुत मदद मिलती है.
अनामदास

बेनामी ने कहा…

बिल्लू के बहाने हम भी अपना बचपन याद कर ही लेंगे...पर एक बात बोलें अचरज तो नाही करोगे ना भईया.. हम तो ट्रेन देखे थे जब 12 वीँ पास कर लिये थे.. और साइकिल तो कभी चलायी ही नहीं .. अभी भी चलानी नहीं आती ... आप सोचेंगे की मजाक कर रहा हूँ लेकिन ये सच बात है ..ऎसा ही होता पहाड़ के बच्चों का जीवन .. कभी लिखेंगे इस पर भी.

अभय तिवारी ने कहा…

मित्रों..आप सब को उत्साहवर्धन के लिए धन्यवाद..

Manish Kumar ने कहा…

वाह भाई, एक अलग तरह की ताजगी दिखी इस पोस्ट में । देखें आपके बिल्लू आगे क्या गुल खिलाते हैँ .:)

mamta ने कहा…

बहुत अच्छा लिखा है । हम भी १२ वी तक साइकिल से स्कूल जाते थे । इसे पढ़कर उन मस्ती भरे दिनों की याद ताजा हो आयी ।

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