रविवार, 13 मई 2007

संस्कृति के रक्षकों से घुघूती बासूती की अपील

बड़ौदा में चन्द्रमोहन के साथ हुए हादसे के सम्बंध में मैंने जो प्रविष्टि दाखिल की थी.. उस पर अन्य प्रतिक्रियाओं के अलावा मेरी प्रिय महिला चिट्ठाकार घुघूती बासूती जी की भी प्रतिक्रिया आई और वह इतनी मार्मिक और सटीक लिखी गई है कि मैं चाह्ता हूँ कि आप सभी उसे पढ़ें.. आज मातृदिवस के अवसर पर इसे एक माँ की अपील समझ कर पढ़ें.. घुघूती जी मुझे क्षमा करें.. मैंने आपकी अनुमति के बिना ही यह फ़ैसला किया है..


ला के विषय में कोई कलाकार ही बोले तो बेहतर है । आम आदमी तो यही कह सकता है कि अमुक चित्र मुझे अच्छा लगा, अमुक नहीं । हो सकता है कि इस चित्र से किसी को ठेस लगी हो । किन्तु यह चित्र तो अभी प्रदर्शित ही नहीं किया गया था । यह कला विभाग का आन्तरिक मामला था । जिस संस्कृति को हम बचाना चाहते हैं वहाँ गुरु का आदर होता था । कला विभाग के गुरु जनों पर हमला कर उस संस्कृति को आप कैसे बचाएँगे ?

भारत की संस्कृति इतनी विशाल है कि कोई पूरा जीवन भी उसे जानने में बिता दे तो भी कम है । संस्कृति के रक्षक बनने से पहले उसका कुछ अध्ययन भी आवश्यक है । कुछ गहरे जाएँगे तो पाएँगे कि इसी संस्कृति में तंत्र भी था । ऐसा बहुत कुछ था जो हम विदेशी शासन के दौरान भूल गए । काम व नग्न शरीर गाली नहीं थे । कला के हाथ यहाँ बाँधे नहीं जाते थे । यदि ऐसा होता तो वात्स्यायन( क्या नाम सही लिखा है मैंने ?)को फाँसी लगा दी गई होती । खजुराहों के शिल्पकारों को जीवित गाढ़ दिया गया होता या हाथ तो काट ही दिये गए होते । बहुत से मन्दिरों में ताले लग गए होते ।

हमें पराये विक्टोरियन मूल्यों को कुछ पल ताक पर रख सोचना होगा कि संस्कृति के नाम पर कहीं हम अपनी संस्कृति को ही देश निकाला तो नहीं दे रहे । यह वह देश है जहाँ वाद विवाद होते थे धर्म पर व दर्शन पर । यहाँ तर्क करना मना नहीं था ।

लगभग एक सप्ताह पहले मैं इसी संस्कृति के विषय पर कुछ महिलाओं से पूछ रही थी कि वे किस संस्कृति की बात कर रही हैं ? यदि हम ये नए माप दंड अपनाएँ तो वह दिन दूर नहीं जब राधा का हमारे समाज में कोई स्थान नहीं होगा । हमारी मीराओं के भजन नहीं गाए जाएँगे । हमारी शकुन्तला कटघरे में खड़ी होगी । भरत के नाम से देश को नाम नहीं दिया जाएगा बल्कि शायद उसे किन्हीं और ही शब्दों से विभूषित किया जाएगा ।हो सकता है कि चित्र में कुछ गलत रहा हो किन्तु उसे प्रदर्शित तो होने देते । या फिर स्वयं कानून के दायरे में रह और विश्व विद्यालय से बाहर रह कानून का सहारा लेते ।

यदि भगवान किसी एक की धरोहर है और यदि हममें या किसी में भी उसका अनादर करने की क्षमता है तो वह अपनी परिभाषा के अनुसार भगवान रह ही नहीं जाता । अतः जब जब मैं अपने भगवान के लिए लड़ने जाऊँगी तब तब मैं उसके अस्तित्व को नकारूँगी । जिस भगवान को तुम पूजते हो उसे क्यों सर्वशक्तिमान के पद से उतार रहे हो ? क्यों स्वयं को उसके स्थान पर रख रहे हो ?

उत्साह व समाज में नव चेतना जगाने की भावना बहुत अच्छी है किन्तु इस उत्साह को किसी सकारात्मक दिशा में लगाओ । जिस धर्म के लिए प्राण हथेली में लिए हो उसे तो कुछ पढ़ो ।

यहाँ मैं यह कहना चाहती हूँ कि मेरा ज्ञान बहुत सीमित है । यदि मैंने कुछ भी गलत कहा हो तो कृपया मुझे बताइये, किन्तु उत्तेजित हुए बिना और यह माने बिना कि मैंने कुछ भी किसी की भावनाओं को चोट लगाने के लिए कहा है ।


घुघूती बासूती

5 टिप्‍पणियां:

संजय बेंगाणी ने कहा…

इस विषय पर घुघुती जी का लिखा सबसे सार्थक लग रहा है. टिप्पणी को पूनः प्रकाशित कर अच्छा किया, ज्यादा लोगो के ध्यान में आएगा. स्थानिय अखबारो ने इतनी गम्भीरता से नहीं लिया है. हाँ गुजरात व हिन्दुत्व के विरूद्ध तलवारे भांजने की ताक में बैठे लोगो ने कुछ ज्यादा ही तत्परता दिखाई है. :)

मेरा अनुरोध है,यह गम्भीर मामला है, इसे महज हिन्दुत्व के विरोध का हथियार न बनाएं. वरना खेमेबाजी में असली मकसद को नुकसान पहूँचेगा.

mamta ने कहा…

ये सही है कि कला के बारे मे वो ही बोले जिसे कला का ज्ञान हो। पर क्या कला का स्तर इतना नीचे करना ठीक है । अभी कल तक तो सभी हुसैन को उनकी बनाईं हुई पेंटिंग्स के लिए बुरा-भला कह रहे थे । जो कुछ भी उन लोगों ने किया माने तोड़-फोड़ ,मार-पीट और dean को निकलना गलत है पर क्या अब एक यही तरीका बचा है कला को दर्शाने का। अगर आप मंदिरों मे बनी हुई कलाकृति को इससे जोड़ेंगे तो ये कला का अपमान होगा और उन कलाकृति को बनाने वालों का भी।

अभय तिवारी ने कहा…

ममता जी आप की चिन्ता वाजिब है.. मैं खुद आप ही की तरह कला के गिरते स्तर के प्रति चिंतित हूँ.. पर कला कोई हवा में तैरती चीज़ तो है नहीं..उसकी जड़ें भी तो समाज में ही हैं..कलाकार को हम ये तो नहीं कह सकते कि तुम रहो इस समाज में पर कला करो तुलसीदास के समय की? अगर कला में कुछ हमको खटकता है तो कलाकार और कला का गला दबाने के पहले हमें ये सोचने की ज़रूरत है कि क्या गड़बड़ हो रहा है उसे ठीक किया जाय.. कलाकार हमारा वो बेबाक बच्चा है जो हमारी कमज़ोरियों को बिना लाग लपेट सबके सामने बक देता है.. बच्चे को चाँटा मार कर हम अपने आप को दुःख देते हैं.. और समस्या रहती है वहीं की वहीं..

ढाईआखर ने कहा…

इस टिप्पणी को अलग से देने के लिए शुक्रिया। संस्कृति कोई छुई मुई चीज नहीं जिसे हर क्षण मुरझाने का खतरा हो। छुई-मुई मानने वालों के लिए जरूरी टिप्पणी है। इन्हें यह भी बताना जरूरी है कि संस्कृति और मजहब दो चीजें हैं। संस्कृति और मजहब पर्यायवाची नहीं होते।

बेनामी ने कहा…

घुघुती बासुती जी की अपील पर मैं भी अपने हस्ताक्षर करता हूं .

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