तिलक तराजू और तलवार
इनको मारो जूते चार
ये नारा अस्सी के दशक के अन्तिम सालों और नब्बे के शुरुआती सालों का एक लोकप्रिय नारा था.. जिसे आप जनसमूह के स्वरघोष में नहीं सुनते थे.. मगर उत्तर प्रदेश के शहरों और छोटे बड़े कस्बों की लगभग सभी दीवारों पर पढ़ा जा सकता था.. इसकी एक वजह ये समझी जा सकती है कि दलित अपनी बात कहना तो चाहते थे पर स्वर ना होने के कारण दीवारों पर लिख कर ही काम चला लेते थे.. ऐसे ही सनसनीखेज और दलितों के भीतर के आक्रोश को अभिव्यक्ति देने वाले नारों की बुनियाद पर बहुजन समाज पार्टी की सफलता की इमारत खड़ी की गई..
उन्ही दिनों मैं इलाहाबाद के सडकों पर आरक्षण विरोधी और समर्थक छात्र गुटों में हिंसक झड़पों का भी साक्षी रहा.. बड़ी सामाजिक उथल पुथल का दौर था.. समाज के अलग अलग तबके एक दूसरे को अपने शत्रु के रूप में चिह्नित कर निशाना साध रहे थे.. वी पी सिंह साहब ने अपना मण्डल चुन लिया था और आडवाणी जी ने अपना कमण्डल खोल दिया था.. जब पूरा देश इन सारे मुद्दों में अपनी ऊर्जा स्वाहा कर रहा था.. पी वी नरसिंह राव और मनमोहन सिंह ने नई आर्थिक नीति लाकर भारत के भाग्य की एक अलग राह खोल दी थी. .ऐसा करने के पीछे उनकी नीयत देश के उद्धार की ही थी ऐसा उनका कहना है.. तो क्या हम इसका मतलब ये समझें कि १६ सालों में जिस वर्ग का उद्धार हुआ है क्या उसी का नाम देश है? खैर.. जो लोग देश की गिनती में नहीं आते थे उन्होने अपना अपना पाला चुन लिया और वो उन्ही को अगोरते रहे कि भैया भला करिहैं.. बहिनी करिहैं.. लेकिन इस सबके बीच अकेले देश का उद्धार होता रहा..
कल यू पी में चुनाव के नतीजे आ गये. और चौंकाने वाले आ गये.. देश को भी थोड़ा झटका लगा है कि देश का हित सोचने वाली पार्टियां हाशिये पर चलीं गई हैं..और हाशिये वाली पार्टी सत्ता पर काबिज हो गई है.. बहन मायावती सारे समीकरणों को ध्वस्त करती हुई बहुजन को बहुमत दिलाने में कामयाब रहीं..
इस चुनाव के कुछ दूरगामी परिणाम निकलने वाले हैं ऐसा मुझे लग रहा है.. आइये देखते हैं.. कि इन हालात का क्या मतलब है किसके लिये.. ?
सबसे पहले हारने वाले दल मुलायम सिंह के समजवादी दल की.. उनका मत प्रतिशत लगभग वही रहा है जो २००२ के पिछले चुनाव में रहा था.. बावजूद इसके कि कल्याण सिंह का लोध मत और बेनीप्रसाद वर्मा का कुर्मी मत इस बार उनके साथ नहीं था.. मगर अमर सिंह के सौजन्य से कुछ राजपूत मत भाजपा से टूट कर उनकी झोली में गिरा.. तो उनका अपना मतबैंक कमोबेश सुरक्षित है.. ये उनके लिये बड़े राहत की बात है.. उनके लिये इस चुनाव की हार का मतलब इसी चुनाव की हार है.. और आने वालों चुनावों में यादव समाज और मुसलमान समाज उनके पक्ष में ही मत डालेगा ऐसी एक सम्भावना है..
अब जीतने वाले दल बसपा की बात.. इसके पहले बहन जी तीन बार मुख्यमंत्री की गद्दी सँभाल चुकी है.. पर हमेशा दूसरे दलों के सहयोग से.. जिन्होने बहनजी को बेहद खफ़ा करते हुए बाद में कुर्सी खींच भी ली.. ये पहली दफ़ा है कि वे अकेले अपने बलबूते पर सत्ता पर आई हैं.. उनको ये मुकाम हासिल करने में मदद की ब्राह्मण समाज ने.. जिन्हे जम कर टिकट दिये गये.. और बदले में जम कर वोट डाला पंडिज्जी लोगों ने.. वो भी तो पिछड़ों के शासन से तंग आ गये थे.. और सत्त्ता से बहुत दिनों तक दूर रहने का अभ्यास नहीं है उन्हे.. साथ में मुसलमान समाज ने भी इस जीत में अपना योगदान किया.. खासकर पूर्वी उत्तर प्रदेश में.. तो दलित ब्राह्मण और मुसलमान.. ये विजयी समीकरण साबित हुआ.. ये वही समीकरण है जिसके सहारे कॉंग्रेस सालों साल राज करती रही.. फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि इस बार बागडोर ब्राह्मण के हाथ में नहीं.. एक दलित के हाथ में है.. अगर मायावती दो साल के अन्दर कुछ ऐसे काम कर देती हैं जिससे कि ब्राह्मण समाज को अपने फलते फूलते रहने की किरण झलक जाय और मुसलमान को उनमें एक नये सरंक्षक के दर्शन हो जायं तो बहुत सम्भब है कि २००९ के चुनाव में बहनजी देश में एक बड़े स्तर पर भी ये करिश्मा दोहरा दें..
सबसे बुरा हाल काँग्रेस का हुआ है.. पिछली बार २४ सीट थीं और इस बार २१ रह गई.. जिनमें से ७ अमेठी+रायबरेली से हैं..तो पूरे प्रदेश से कुल १४.. राहुल बाबा का रोड शो एक मामले में ज़रूर कामयाब रहा कि उसके चलते काँग्रेस की अब सड़क पर आने की सम्भावनएं प्रबल हो गई हैं.. सोनिया गाँधी ने सत्ता का बलिदान अपने बच्चों के भविष्य के लिये किया था.. पर राहुल बाबा के चमत्कारिक व्यक्तित्व ने तो पार्टी का भविष्य अँधेरे में कर दिया है.. कुछ लोगों को ऐसा लगता है कि राहुल की असफलता कॉंग्रेस के लिये उनकी वंशवाद पर आधारित नैया डूबने का संकेत तो ज़रूर है पर अन्तिम आस के रूप में प्रियंका अभी भी उनके पास है.. पर उनके आगे आने के लिये राहुल को राह से हटना होगा.. ऐसा करने के लिये एक बार एक बहन तैयार भी हो जाय, अपनी महत्वाकांक्षा के लिये पर माँ को कैसे गवारा होगा.. यानी आने वाले दिन काँग्रेस के बुरे दिन है.. अगर कुछ महीनों में आगे की तैयारी के लिहाज से काँग्रेस के भीतर तोड़ फोड़ शुरु हो जाय तो आश्चर्य की बात न होगी..
अब बाकी बचती है भाजपा.. अगर इस चुनाव में सबसे बड़ा नुक्सान हुआ है तो भाजपा को.. राजपूत सपा के साथ गये और ब्राह्मण बसपा के साथ.. ८ से ९ प्रतिशत की गिरावट आई है मतों में.. जातीय समीकरण तो टूटा ही टूटा.. जो साम्प्रदायिक कार्ड खेलने की कोशिश की गई थी वो भी बुरी तरह असफल रहा.. लोगों ने बड़े हिन्दू हित के आगे अपने परम्परागत जातीय पहचान और जातीय हित को तवज्जो दी.. १० में से ९ बार यही होगा आम तौर पर.. एक बार लोग हिन्दू हित में बह जाय मन्दिर जैसे मुद्दे के कारण.. पर काठ की हाँडी बार बार नहीं चढ़ती.. जाति ह्जारों साल की सच्चाई है, पहचान है.. हिन्दू एक कृत्रिम पहचान है.. थोपी हुई पहचान है.. इस वास्तविकता को भाजपा जानती तो है.. पर मानती नहीं है.. वो बदलते हुए समाज में उभरती हुई नई पहचानों के खेल में अपनी भी एक टोपी फेंक कर रोटी कमाना चाहते हैं.. पर अभी जो राजनैतिक स्थिति उभरी है वो उनके लिये बड़ी निराशाजनक है.. और पिछले दिनों नरमपंथियों और गरमपंथियों का जो संघर्ष भाजपा के भीतर चलता रहा है.. और जिस में विडम्बनापूर्ण तरह से नरमपंथी धड़े का नेतृत्व श्री आडवाणी कर रहे थे.. और गरमपंथियो को रोके हुए थे.. लगता है कि अब उन्हे भाजपा के नए स्वरूप के लिये रास्ता देना होगा.. इतना तो तय है कि वह स्वरूप गाँधी जी को अपना आदर्श नहीं बतायेगा.. और हो सकता है कि मोदी का उग्र रूप उसकी तीक्ष्णता निर्धारित करने में बड़ी भूमिका अदा करे.. मैं उस सम्भावना के प्रति भयभीत हूँ..
मैं एक दूसरी सम्भावना से भी भयभीत हूँ.. बहन जी के मुख्य मंत्री बनने से करोड़ों करोड़ दलित जनता को एक नया बल एक नया आत्मविश्वास मिला है.. यह भली बात है.. पर बहन जी का काम करने का ढंग कुछ विशेष लोकतांत्रक नहीं रहा है.. और जिस दलित ब्राह्मण मुसलमान के समीकरण के बदौलत नेहरू जी, इन्दिरा जी ने सालो साल सत्ता भोगी.. वो तो बहन जी ने जुटा ही लिया है.. और नेहरू जी और इन्दिरा जी की तरह उनकी जन्मलग्न भी कर्क है.. इन्दिरा जी की तरह वे भी एक स्त्री है.. वो इन्दिराम्मा थीं.. ये बहन जी हैं..और इनके भी व्यक्तित्व में इन्दिराजी की तरह एक तानाशाही परत है.. वह परत उनके सम्पूर्ण व्यक्तित्व पर छा जाय.. मैं उस सम्भावना से डरता हूँ..
बीस सालों में सामाजिक सच्चाई इतनी बदल गई है कि अब तिलक को जूता मारने की बात प्रासंगिक नहीं रही और अब तिलक ही जूते पर लगना चाहता है.. और मैं आशा करता हूँ कि जूते के राजतिलक का यह मौका भारतीय राजनीति में एक सुखद अध्याय की शुरुआत बनेगा और मेरे ये भय निर्मूल साबित होंगे और हमें देश में आने वाले दिनों में नये संस्करण की भाजपाई या मायाई तानाशाहियों का सामना नहीं करना होगा..
11 टिप्पणियां:
आमीन!
यूपी विधानसभा के चुनाव नतीजों को लेकर आपकी व्याख्या और आपकी चिंता दोनों ही पटरी पर है। लेकिन मैं चाहता हूं कि आप राजनीति के कुछ खास पहलुओं पर भी बात करें। जैसा कि आपको लगता है कि मायावती का लोकतंत्र उतना उदार नहीं है, जिसे सूबे की सूरत सुंदर हो सकेगी। यह सही है, क्योंकि मायावती भी उसी राजनीति का प्रतीक है, जिसका पहरुआ बीजेपी, कांग्रेस और सपा जैसी पार्टियां रही हैं। ऐसे में सोशल इंजीनियरिंग की अपनी अपनी समझ के हिसाब से सत्ता की डोर हासिल करने में हर चुनाव में अलग अलग पार्टियों को कामयाबी मिलती है। मायावती का आना भी इसी वजह से हुआ है, न कि उनकी अपनी राजनीति की वजह से। लेकिन मैं बात करना चाहता हूं, राजनीति के इसी प्रपंच में दलित ठेकेदारों को जो हिस्सेदारी मिल रही है, उसकी। आज सत्ता की पूरी लड़ाई ठेकेदारी में हिस्सेदारी की लड़ाई। पहले सवर्ण थे, पिछड़े आये, और दलितों के बीच का आदमी इसमें हिस्सा लेगा। यह सामाजिक बदलाव की पहली पगडंडी है, इसको मानना चाहिए। आप जिस अराजकता को लेकर चिंतित हैं, वह लोकतंत्र का पहला पड़ाव है। लोकतंत्र का रास्ता सभ्यता की सवर्ण गलियों से गुज़र कर नहीं आता, वह हमेशा व्यापक तोड़ फोड़ और अवर्ण अराजकताओं से होकर ही आता है। इसीलिए ठेकेदारी को प्रश्रय देने वाली भारतीय राजनीति में मायावती की धारा को जगह मिलने का स्वागत कीजिए।
"मैं एक दूसरी सम्भावना से भी भयभीत हूँ.. बहन जी के मुख्य मंत्री बनने से करोड़ों करोड़ दलित जनता को एक नया बल एक नया आत्मविश्वास मिला है.. यह भली बात है.. पर बहन जी का काम करने का ढंग कुछ विशेष लोकतांत्रक नहीं रहा है.. और जिस दलित ब्राह्मण मुसलमान के समीकरण के बदौलत नेहरू जी, इन्दिरा जी ने सालो साल सत्ता भोगी.. वो तो बहन जी ने जुटा ही लिया है.. और नेहरू जी और इन्दिरा जी की तरह उनकी जन्मलग्न भी कर्क है.. इन्दिरा जी की तरह वे भी एक स्त्री है.. वो इन्दिराम्मा थीं.. ये बहन जी हैं..और इनके भी व्यक्तित्व में इन्दिराजी की तरह एक तानाशाही परत है.. वह परत उनके सम्पूर्ण व्यक्तित्व पर छा जाय.. मैं उस सम्भावना से डरता हूँ."
कटु सत्य, मुंह की बात छीन ली आपने अभय भाई। लेकिन मुंह की बात छीनने पर कापीराईट का उल्लंघन भी तो नही होता ना तो अपन कुछ नही कर सकते।
बहुत सही विश्लेषण किया है आपने
भाई हम तो जूता देख के कुछ और ही समझ गये थे.... पर आप तो बहुत ही अच्छा विश्लेषण कर गये. आपने माया बहन जी को इंदिरा जी के बराबर बना दिया...पर मुझे लगता है अभी दिल्ली दूर है पर समीकरणों का कोई भरोसा नहीं .
जैसाकि अविनाश बाबू बता रहे हें- लोकतंत्र का रास्ता सभ्यता की सवर्ण गलियों से गुज़र कर नहीं आता, हमेशा व्यापक तोड़ फोड़ और अवर्ण अराजकताओं से होकर आता है- तो हम अपने संशयी मानस में डैटा फीड कर रहे हैं. शायद अविनाश जी की बात देर-सबेर सही साबित हो. मगर चूंकि अपने यहां जातिय व राजनीतिक ठेकेदारी का एक अनोखा कॉम्बिनेशन प्रदेशों की किस्मत चलाता और बिगाड़ता है, हमें ज़रा दो महीने ठहरकर पता चलेगा माया बहिनी किस करवट बैठ रही हैं. सब बाद की बात है. फिलहाल सपा गई, बीजेपी का खेल बेमतलब हुआ, कांग्रेसी राजकुंवर दो कौड़ी के साबित हुए- यह सबसे ज्यादा हर्ष की बात है.
राहुल बाबा का रोड शो एक मामले में ज़रूर कामयाब रहा कि उसके चलते काँग्रेस की अब सड़क पर आने की सम्भावनएं प्रबल हो गई हैं..
सत्य वचन
मसला ऐसे भी देखा जा सकता है कि लंका में सभी बावन गज के हो जाते हैं। पर ये बावनगजी भी बदलते रहने चाहिए। लोकतंत्र की खूबी यही है कि यहां एक लुच्चे को दूसरे लुच्चे से रिप्लेस करने का विकल्प होता है। बहन मायावती अगर अब मेच्योर्ड होकर काम करती हैं, तो अच्छा, वरना मुलायम सिह-अमरसिंह से बुरी क्या साबित होंगी। पब्लिक की ऐसी-तैसी हो, तो भी वैराइटी-वैराइटी के नेताओ द्वारा हो, तो यह सुकून बना रहता है कि देखो पुराने वाले को बदल दिया। लोकतंत्र यह भ्रम देता है, यह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है।
अच्छा लगा आपका यह विश्लेषण..बधाई.
कमण्डल का चरम बाबरी मस्जिद का गिराया जाना था और इसके बाद के चुनाव में सपा/बसपा का चुनाव-पूर्व गठबन्धन जीत कर आया था।बाद के चुनावों में भी अलग-अलग लड़ने के बावजूद सपा और बसपा की सीटों का योग आधे से अधिक रहता था।'हिन्दू-राष्ट्र' की समाज-व्यवस्था वर्णाधारित होगी इसलिए असवर्णों द्वारा उसकी अस्वीकृति सहज होती है। तीनों बड़े दलों द्वारा इसी तबके के नेता मुख्यमन्त्री के रूप में पेश किए गए।
द्विज नेतृत्व के तमाम दुर्गुणों को अपना कर और बहुजन समाज की आर्थिक स्थिति में तब्दीली लाने वाली किसी आर्थिक नीति के अभाव की वजह से इस वर्ग की आकांक्षा पूरी होना मुमकिन नहीं है ।
आरक्षण १६ वर्षों में किसी वर्ग के उद्धार की नीति या औजार नहीं है।उस वर्ग को नुमाइन्दगी देने भर से सामाजिक यथास्थिति में हलचल मचने लगती है। १६ साल पहले जैसी। १६ साल बाद बसपा (और सपा) के टिकट पर जीतने वाले ब्राह्मणों की संख्या उल्लेखनीय है।
मुलायम सरकार के देश के प्रमुख पूँजीपतियों से सम्बन्ध की बाबत क्या तब्दीली आती है,यह भी गौरतलब होगा।
देखते हैं क्या होता है । आशा का दामन थामे वोट दिये जाओ । कुछ नहीं तो जैसा कि आलोक पुराणिक जी कह रहे हैं वैरायटी वैरायटी के नेताओं के हाथों सताए जाते रहो । क्या ही अच्छा हो कि इस बार मायावती जी सबको गलत सिद्ध कर अच्छे काम कर जाएँ ।
घुघूती बासूती
कितना अच्छा विश्लेषण है . पर शीर्षक कैसा दिया है अविनाशनुमा . क्या सनक गए हो .
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