आज से १५० बरस पहले मेरठ में साम्राज्यवाद के खिलाफ़ हमारे पहले स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल बजा..इसके पहले मंगल पान्डे और ईश्वरी प्रसाद को फाँसी हो चुकी थी.. और एक दिन पहले ९ मई को मेरठ की तीसरी लाइट कैवलरी के ८५ सैनिकों को दस साल की कै़द सुनाई गई थी..एक खास कारतूस इस्तेमाल करने से इंकार की सजा.. एक ऐसा कारतूस जो हिन्दू और मुसलमानों दोनो को अपने साझे दुश्मन अंग्रेज़ो के खिलाफ़ एक करता था.. खैर लड़ाई हुई.. शुरुआत में लगा कि हम लड़ाई जीत जायेंगे.. मगर १८५७ के अंत से अंग्रेज़ वापस पकड़ बनाने लगे.. और जुलाई १८५८ तक वो वापस सत्ता पर काबिज़ हो गये..
और इसके साथ ही शुरु हुआ आने वाले ९० सालों का रानी का राज.. जिसमें अंग्रेज़ शासक वर्ग ने इस लड़ाई से सीखे हुए पाठ को हमारे समाज में अच्छी तरह से लागू किया.. हिन्दू और मुसलमान समाज को बहुत सचेत रूप से एक दूसरे के खिलाफ़ भड़काया गया और इस तरह पैदा हुए वैमनस्य को बढ़ावा दिया गया..जिन लोगों ने पश्चिमी एशिया का इतिहास पढ़ा है वे जानते हैं कि ऐसी ही नीतियों का थोड़ा अलग मंज़र फिलिस्तीन में जारी था.. उसे भी हमारी तरह १९४८ में विभाजित किया गया..
मैं ऐसा नहीं कहता कि उसके पहले हिदू और मुसलमान एक थाली से खाते थे.. बिलकुल नहीं.. दो अलग अलग समुदाय थे.. दो ही नहीं. और भी कई समुदाय थे.. हिन्दू समाज तो नाम ही विभिन्नताओं का है.. तो वे अलग अलग रहते अलग अलग अपने अपने कार्य व्यापार करते.. मगर बीच में इस तरह का संदेह और शक़ का घना कोहरा तो न था.. ये कोहरा जिसमें कि आज के दिन एक तबक़ा दूसरे के बारे में अनर्गल बातें और मिथ्याचार के ज़रिये बेवज़ह भावनाओं को भड़काने के पापाचार में संलग्न है.. ये अंग्रेज़ो के उस नीति की विरासत है जिसकी परिणति हमारे प्यारे हिन्दुस्तान के विभाजन में हुई..
तो वह लड़ाई तो हम हारे ही हारे.. फिर ९० साल बाद जब हमें आज़ादी मिली तो विभाजित..दो टुकड़ों में फाड़ कर मिला हमें हमारा देश.. उनकी नीति जीती हमारी एकता हारी.. और आज़ादी के ६० साल बाद भी आज हम उनकी भाषा बोल रहे हैं और उनके मूल्यों का अनुगमन कर रहे हैं.. और उनकी संस्कृति को श्रेष्ठ मान कर अपनी संस्कृति को पद-दलित कर रहे हैं..और उनके फैलाये ज़हर से भी उबर नहीं पाये हैं.. हम उनके अवैतनिक एजेण्ट बन चुके हैं..वे और उनका नया सेनापति अमरीका पूरी दुनिया में उन्ही पुरानी नीतियों को अपनी दादागिरी के बल पर लोगों के हलक़ में ठेल रहा है.. और हम वाह वाह कर रहे हैं कि भई और कस के ठेलो.. साले इसी लायक हैं.. अपने जिन भाइयों के साथ मिलकर हमे १५० साल पहले एक लड़ाई छेड़ी थी साम्राज्यवाद के खिलाफ़.. आज उस समुदाय के अपने बन्धुओं को हमने अकेला ही नहीं छोड़ दिया.. अपना दुश्मन भी समझ लिया है.. वो लड़ रहे हैं.. अपने धर्म अपनी संस्कृति को बचाने के लिये.. हम खड़े हो के तमाशा देख रहे हैं..
कल प्रमेन्द्र ने अपने ब्लॉग पर लिखा कि किस तरह मंगल पान्डे के स्मृति स्मारक को माकपा ने गिरा दिया.. माकपा तो सत्ता का स्वाद चख चख कर पूरी तरह से जन विरोधी और वैचारिक रूप से खोखली हो चुकी है.. और दूसरी तरफ़ पिछले हफ़्ते कॉगेस के असली चरित्र को साफ़ करते हुए मंत्री जी अर्जुन सिंह ने बताया कि बहादुर शाह ज़फ़र की अस्थियों को भारत वापस लाने के प्रस्ताव को उन्होने नामंज़ूर कर दिया और कहा कि बर्मा के भी एक राजा के अवशेष यहाँ है.. यह है उनका अपने इतिहास और नायकों के प्रति आदर.. बहादुर शाह ज़फ़र चाहते थे कि उन्हे हिन्दुस्तान में दफ़नाया जाय.. पर ना जाने क्यों वे उम्मीद हार चुके थे..
कितना है बदनसीब ज़फ़र दफ़्न के लिये
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में
आज़ादी की लड़ाई के इस साझे प्रतीक को कम से कम अपने दिल की ज़मीन से बेदखल मत कीजिये..
हमारे एक पुराने मित्र अमरेश मिश्र इतिहासकार हैं जो कि आजकल १८५७ पर अपने २००० पृष्ठीय महाग्रंथ War of Civilisations: India, South Asia, Europe and the World 1857-1867 को अन्तिम रूप देने में तल्लीन है.. आज की जयन्ती के अवसर पर अमरेश ने आज के एशियन एज में एक लेख लिखा है इसी विषय पर.. देखें यहाँ..
13 टिप्पणियां:
कितना है बदनसीब ज़फ़र दफ़्न के लिये
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में
आज संसद भवन के केन्द्रीय कक्ष में गज़ल सम्राट जगजीत सिंह के स्वर में इन पंक्तियों को सुनते हुए आँखें भर आई। इस अवसर पर सन् 1857 को याद करते हुए गुलज़ार साहब द्वारा किया गया काव्य-पाठ तो अद्भुत अनुभव रहा। अभी तक रोमांचित हूं।
अभय जी; मैं शब्दहीन होकर बैठा हूं
अच्छा लिखा, खरा लिखा.
आप की बात ठीक है जरा अपने मित्र रियाजुल खांन को भी अकल सिखा दीजीये कल उसने मंगल पांडे की याद पर अपनी घटिया जहनियत से रुबरु कराया है उन्हे चाहिये कि अपने मह्ल्ले पडोस से सीख ले और घटियापन से बचें
बिल्कुल सही मुद्दा उठाया है, पर दिक्कत ये है कि अभी भी लोग इन दोनों समुदायों को ‘हम’ और ‘उन’ कहके संबोधित करते हैं । एक बिल्कुल स्पष्ट भेद बन गया है । ‘दंगों’ और मतभेदों की पॉलिटिक्स एक बिज़नेस बन गयी है । क्या सन 57 के गदर की डेढ़ सौ वीं सालगिरह पर हम इन मतभेदों से ऊपर उठकर एकता के सूत्र में बंध पाएंगे ।
आभार , सुन्दर आलेख के लिए। निरन्तर के अगले अंक में बहादुरशाह ज़फ़र पर नेताजी का लेख देखना न भूलें।नेताजी ने ज़फ़र की मजार पर उन्हें याद करते हुए आजाद हिन्द फौज को सम्बोधित करते हुए यह भाषण के रूप में दिया था ।
सार्थक लेख,
अमर शहीदों को शत् शत् नमन
सही मौक़े पर सही बात लिखी आपने। वामपंथियों की ये हरकत और अर्जुन सिंह के बयान की तो जितनी निंदा की जाए कम है।
http://kharikhoti.wordpress.com
शत शत नमन इन अमर शहीदों को। ईश्वर करे हर बार इनका जन्म हिन्दुस्तान में ही हो।
बहादुरशाह की अंतिम इच्छा को पूरा न करके अर्जुन सिंह ने अपने निकृष्ट व्यक्तित्व का परिचय दिया है। इससे मालूम होता है कि कांग्रेस सरकार को शहीदों की कितनी परवाह है वह भी तब जब वो १८५७ की क्रांति का १५० साला जश्न मनाने जा रही है।
अभय जी,1857 की यह सबसे बड़ी अहमियत है कि इसने पहली बार मजबूती से हिन्दुओं और मुसलमानों को एक साथ ला खड़ा किया। किसी प्रसिद्ध विद्वान ने कहा है कि जो लोग अपने इतिहास की गलतियों को भूल जाते हैं या इतिहास से सबक नहीं लेते, वो उसे दोहराने की गलती करते हैं। उत्सवधर्मिता अच्छी चीज है लेकिन उत्सव की मस्ती में हमें 1857 के सबक नहीं भूलने चाहिए। अंग्रेजों ने इस विद्रोह से सबक लिया और आगे यह साझापन न हो पाये, इसके लिए पूरे नब्बे साल तक जुटे रहे। हमने सबक नहीं लिया... आपने अपनी टिप्पणी में इस ओर इशारा भी किया है। क्यों हमें आज 150 साल बाद फिर से हिन्दू-मुसलिम या विभिन्न समुदायों के बीच साझेपन के बारे में बात करनी पड रही है। उस वक्त हम एक साथ, एक ही थाली में नहीं खाते थे लेकिन एक-दूसरे की भावनाओं की इज्जत करते थे। बंगाल आर्मी के एक लाख 20 हजार सैनिक, जिनके चूल्हे अलग-अलग जलते थे, लेकिन जब लड़ने की बारी आयी तो साझेपन के जज़्बे से लडे और जो लहू इस माटी पर गिरा उसे हिन्दू-मुसलमान में बांटना मुमकिन न था। ... आज डेढ सौ साल बाद हम साथ खाते हैं... सब कुछ खाते हैं... एकता की दुहाई देते हैं ... लेकिन जरा सा कुरेदने पर विष वमन करने से बाज नहीं आते। यह बताता है कि हम अपने अंदर कितनी कड्वाहट लेकर जी रहे है। साझेपन की बात तो दूर, एक-दूसरे पर सहज यकीन भी नहीं करते। ऐसा नहीं है कि सभी ऐसे हैं... सभी ऐसे होते तो ब्लॉग पर यह चर्चा ही नहीं हो पाती।... यह उम्मीद की लौ है... 1857 की साझी शहादत की साझी विरासत को आगे ले जाने की। आपको और दूसरे साथी जो इस बात में यकीन रखते हैं, बधाई।
भैय्या क्या लिखुं, बस अपने को नि:शब्द ही पाता हूं, क्योंकि जब भी विश्लेशण करने बैठता हू, यही सोचता हूं कि क्या यह वही भारत, वही समाज है, जिसका सपना, हमारे शहीदों ने, हमारे स्वतंत्रता सेनानियों नें देखा था।
हमें मिला क्या और जो मिला उसे हम किस दिशा में ले जा रहे हैं, नई पीढ़ी को क्या दे रहें हैं।
एकदम सधा हुआ, बहुत उम्दा आलेख.
बधाई.
बहुत सुंदर। हिंदू-मुसलमान के बीच वैमनस्य पैदा करने के लिए अंग्रेजों ने बहुत सचेत, सुनियोजित काम किए थे। 'आग का दरिया' में इसका जिक्र मिलता है, जो बहुत कन्िविंसिंग भी है।
मनीषा
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