बुधवार, 9 मई 2007

पुरुष की इस प्रतिगामी प्रकृति का क्या करें ?

मनुष्य और प्रकृति का संघर्ष पुराना है.. भारतीय वाङ्मय में इसे पुरुष और प्रकृति के द्वैत से भी जाना गया है.. या सांख्य दर्शन में (कपिल के अनीश्वीरीय दर्शन नहीं, बल्कि भागवत के श्रीकृष्णीय दर्शन में )..एक पुरुष के मुकाबले में प्रकृति और उसके सहयोगी २३ या २४ या २७ तत्व... तर्क यह है कि पुरुष या जीव माया / प्रकृति के आवरण/ जंजाल में इतना लिप्त हो जाता है कि ईश्वर तक उसकी पहुँच बन ही नहीं पाती.. तो ईश्वर से सम्पर्क बनाने का तरीका है कि माया को, प्रकृति को किनारे किया जाय.. रास्ते से हटाया जाय.. और इस भौतिक बोझ को सर से उतार फेंक इतना हलका हो जाया जाय कि ईश्वर में लीन हो जाने में..सांसारिकता से ऊपर उठ जाने में .. अनन्त के साथ एक हो जाने में कोई बाधा न रहे..

दूसरी ओर इस दर्शन की उलट खड़ी पश्चिम की भौतिकवादी सभ्यता भी कुछ इसी प्रकार का अन्तर्विरोध चिह्नित करती आई है काफ़ी पहले से.. पुराने विधान के समय से.. खुदा ने पाँच दिन तक प्रकृति को बनाया और छठे दिन पुरुष को बनाया और उसे बताया ये सब उसके लिये है.. उसके अधिकार के अन्तर्गत है.. तो मूसा आये, ईसा आये और मुहम्मद भी आये पर ये ईश्वर-प्रदत्त धरती का अधिकार नहीं बदला.. औद्योगिक समाज ने अति ही कर दी.. मनुष्य के विकास का रास्ता प्रकृति के शोषण से होकर जाता है.. इस राह पर मनुष्य का भी शोषण होता है.. उसे कम मजूरी मिलती है.. पर मिलती तो है.. प्रकृति को तो मिलता है ठेंगा.. बाबा मार्क्स ने भी कहा है कि मनुष्य और मनुष्य के बीच के अन्तर्विरोध हल हो जाने के बाद मनुष्य प्रकृति के साथ पूरे ऊर्जा के साथ उलझ सकेगा..

तो क्या टंटा है ये पूर्व और पश्चिम के वैर का .. प्रतिमुख जीवन पद्धतियों का.. दो अलग दिशाओं में इंगित करती विचारधारा का.. भईया उद्देश्य तो एकै लौका रहा है.. फिर काहे के लिये बेबात में लट्ठमलट्ठा.. तो ऐसा लगता है कि अब वो दिन दूर नहीं.. जब पुरुष का प्रकृति के साथ का पुराना वैर.. ईश्वरीय और शुद्ध भौतिकवादी अनीश्वरीय .. दोनों प्रकार का.. सदा के लिये हल हो जायेगा.. कहते हैं ना भईया पूरब जाओ या पश्चिम घूम के एकै जगह आ जाओगे.. तो देखिये आ गये ना सब एक बिन्दु पर.. हो गया ना मेल.. का बोलते हैं.. ?

फ़रक बस इतना है कि अपनी भारतीय परम्परा के ज़रिये भारहीन हो कर प्राकृतिक मल से मुक्त हो जाने का स्वप्न तो नहीं पूरा हो सका.. किसी को हुआ हो हिमालय की किसी कन्दरा में तो वो हमें बताने नहीं आया.. और कबीर जैसों ने तो बताने से इंकार तक कर दिया गूँगे का फल कह कर.. मगर इस विस्फोटक पश्चिमी चिन्तन का असर तो हो गया है.. और जो अपने आस पास हम लगातार देख रहे हैं आजकल.. रोज़-ब-रोज़ हम प्रकृति से दूर होते जा रहे हैं.. इस औद्योगिक जीवन में.. महानगरीय जीवन जीते हुये.. सुबह शाम की नित्यता से भी मुक्त हो चुके हैं हम.. सूरज को उगते डूबते देखना तो दूर की बात है.. कब रौशनी हुई और कब अँधियारे ने हमें व्याप्त लिया इसका एहसास भी नहीं होने पाता हमें.. हमारे पैर घास और मिट्टी का मृदु एहसास भी भूल चुके हैं.. गर्मी में हम ए.सी. चला लेते हैं..सर्दियों में हीटर.. ज़्यादातर जंगलों का सफ़ाया हो चुका है.. जो बचे हैं उन पेड़ों से हमारा कितना परिचय है.. विशेषज्ञों की बात मत करिये.. कितने पेड़ों का नाम जानते हैं हमारे बच्चे..?

आज सारे पृथ्वी की ज़मीन पानी हवा आकाश पर पुरुष का कब्ज़ा है.. जानवर पक्षी और कीड़ों को पृथ्वी की विरासत से बेदखल किया जा चुका है.. प्रकृति को पुरुष ने काफ़ी कुछ घुटनो तले दबोच दिया है.. और परस्पर आवलंबिता की सारी बकवास अर्थहीनता की घूरे पर आखिरी साँसे गिन रही है.. विविधिता के चितकबरेपन की गपड़चौथ अब हमें व्याकुल नहीं करेगी .. अब सब कुछ एकरंगीय बनाया जा सकेगा..

देखिये प्रकृति रिरिया रही है.. पुरुष इस प्रकृति से सदा सदा के लिये मुक्त न भी हो सके तो कम से कम उसने सम्पूर्ण प्रकृति को पूरी तरह चूस कर शेष को मलवत कर ही दिया है.. और अब पुरुष की नज़र सौर मण्डल की सीमाओ के परे जा रही है..ये ग्रह नष्ट भी हो गया तो क्या.. किसी दूसरी प्रकृति की तलाश में निकल जाने की तैयारी हो रही हैं.. पुरुष आज मंगल पर बसने की बात कर रहा है.. बस एक ही चिन्ता मुझे खाये जाती है.. कि पुरुष की भीतर की इस प्रतिगामी प्रकृति का क्या करें.. जिसके चलते पुरुष एक दिशा में अपनी सहमति से चलते चलते नये तर्क पा कर या पुराने तर्कों की नई ज़मीन पाकर, अचानक असहमत हो जाता है.. और अपनी ही बनाई व्यवस्था के भंजन के लिये उद्धत हो जाता है..

6 टिप्‍पणियां:

azdak ने कहा…

इसी को आप निर्मल कहते हैं? कुछ भी निर्मल है इसमें? और आनन्‍द? ओह, कितनी मर्मांतक कड़वाहट है.. कृपया निर्मल-आनन्‍द का सफेद नकाब पहनकर ऐसे काले पोस्‍ट न चढ़ाया करें!.. हद है!

काकेश ने कहा…

अभय जी , आपकी चिंता वाजिब है . विकास के नाम पर प्रकृति से खिलवाड़ कहाँ तक जायज है यह एक विचारणीय प्रश्न है .लेकिन समाधान क्या है ? प्रकृति के नाम पर विकास की अनदेखी नहीं की जा सकती . क्या हम मंगल ग्रह की ओर ना देखकर फिर से जंगलों की ओर लौट चलें. हमें कोई बीच का रास्ता निकालना होगा. आप ही कुछ सुझायें.

Pratik Pandey ने कहा…

जब तक पुरुष की आंतरिक प्रकृति नहीं बदलती, वह बाह्य प्रकृति और स्वयं अपनी मिट्टी पलीद करता-करवाता रहेगा।

अनामदास ने कहा…

सुंदर...अति सुंदर. नारी को भी प्रकृति कहा गया है, उसके साथ भी पुरुष का व्यवहार वैसा ही है जैसा हवा, पानी, पेड़, पहाड़, जंगल के साथ..बिना खीस के ऐसा पीस नहीं निकलता. साधुवाद

उन्मुक्त ने कहा…

यह पृथ्वी हमें अपने पूर्वजों से नहीं मिली है। इसे हमने अपने बच्चों से उधार ले रखी है। यह हमारे ऊपर है कि हम किस तरह इस ऋण को वापस करते हैं।

बेनामी ने कहा…

बहुत अच्‍छा विश्‍लेषण है।
मनीषा

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