बाबा नागार्जुन!.. तुम पटने, बनारस, दिल्ली में.. खोजते हो क्या.. दाढ़ी सिर खुजाते.. कब तक होगा हमारा गुजर बसर.. टुटही मँड़ई में ऐसे.. लाई-नून चबा के..
लिखते हैं बोधिसत्व अपनी कविता घुमुन्ता फिरन्ता में.. और कुछ ऐसा ही जीवन रहा बाबा नागार्जुन का.. जन्म १९११ दरभंगा.. मूल नाम वैद्यनाथ मिश्र.. मातृभाषा मैथिली.. संस्कृत और प्राकृत के विद्वान.. एक समय बौद्ध हो गये.. फिर सहजानन्द सरस्वती के साथ किसान आन्दोलन में कूदे.. जेल गये..फिर थोड़ी दुनियादारी.. मतलब जीवन भर फक्क्ड़ी, घुमक्कड़ी, आन्दोलन, जेल.. लगा ही रहा.. सन १९९८ में निधन..
प्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंह ने बाबा की प्रतिनिधि कविताओं(राजकमल प्रकाशन) की भूमिका लिखी है.. उसमें एक जगह इस मंत्र कविता के विषय में वे कहते हैं.. "..नागार्जुन की.. साहित्यिक प्रतिभा की अमर सृष्टि है- मंत्र कविता, जो कलात्मक प्रयोग में भी अप्रतिम है। यदि निराला की कुकुरमुत्ता सन ४० की मनःस्थिति की ऐतिहासिक दस्तावेज़ है तो सन ६९ की मनःस्थिति को सशक्त वाणी नागार्जुन की मंत्र कविता में ही मिलती है । विडम्बना ये है कि "हमेशा हमेशा राज करेगा मेरा पोता" यह उक्ति जैसे भविष्यवाणी की तरह सच होने को आ गई है.."
मैंने किसी से सुना है कभी किसी अन्य प्रसंग में नामवर जी ने मंत्र कविता को सदी की सबसे बड़ी कविता भी घोषित किया था । और अगर उन्होने ने ना भी किया हो इस कविता में अपने आप में इतना गूदा है कि यह किसी आलोचक के अनुमोदन की मोहताज नहीं है, इसकी स्वतंत्र दावेदारी है..
मंत्र कविता
ॐ शब्द ही ब्रह्म है..
ॐ शब्द्, और शब्द, और शब्द, और शब्द
ॐ प्रणव, ॐ नाद, ॐ मुद्रायें
ॐ वक्तव्य, ॐ उदगार्, ॐ घोषणाएं
ॐ भाषण...
ॐ प्रवचन...
ॐ हुंकार, ॐ फटकार्, ॐ शीत्कार
ॐ फुसफुस, ॐ फुत्कार, ॐ चीत्कार,
ॐ आस्फालन, ॐ इंगित, ॐ इशारे
ॐ नारे, और नारे, और नारे, और नारे
ॐ सब कुछ, सब कुछ, सब कुछ
ॐ कुछ नहीं, कुछ नहीं, कुछ नहीं
ॐ पत्थर पर की दूब, खरगोश के सींग
ॐ नमक-तेल-हल्दी-जीरा-हींग
ॐ मूस की लेड़ी, कनेर के पात
ॐ डायन की चीख, औघड़ की अटपट बात
ॐ कोयला-इस्पात-पेट्रोल
ॐ हमी हम ठोस, बाकी सब फूटे ढोल
ॐ इदमान्नं, इमा आपः इदमज्यं, इदं हविः
ॐ यजमान, ॐ पुरोहित, ॐ राजा, ॐ कविः
ॐ क्रांतिः क्रांतिः सर्वग्वं क्रांतिः
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः सर्वग्वं शांतिः
ॐ भ्रांतिः भ्रांतिः भ्रांतिः सर्वग्वं भ्रांतिः
ॐ बचाओ बचाओ बचाओ बचाओ
ॐ हटाओ हटाओ हटाओ हटाओ
ॐ घेराओ घेराओ घेराओ घेराओ
ॐ निभाओ निभाओ निभाओ निभाओ
ॐ दलों में एक दल अपना दल, ॐ
ॐ अंगीकरण, शुद्धीकरण, राष्ट्रीकरण
ॐ मुष्टीकरण, तुष्टिकरण, पुष्टीकरण
ॐ ऎतराज़, आक्षेप, अनुशासन
ॐ गद्दी पर आजन्म वज्रासन
ॐ ट्रिब्यूनल, ॐ आश्वासन
ॐ गुटनिरपेक्ष, सत्तासापेक्ष जोड़-तोड़
ॐ छल-छंद, ॐ मिथ्या, ॐ होड़महोड़
ॐ बकवास, ॐ उदघाटन
ॐ मारण मोहन उच्चाटन
ॐ काली काली काली महाकाली महाकाली
ॐ मार मार मार वार न जाय खाली
ॐ अपनी खुशहाली
ॐ दुश्मनों की पामाली
ॐ मार, मार, मार, मार, मार, मार, मार
ॐ अपोजीशन के मुंड बने तेरे गले का हार
ॐ ऎं ह्रीं क्लीं हूं आङ
ॐ हम चबायेंगे तिलक और गाँधी की टाँग
ॐ बूढे़ की आँख, छोकरी का काजल
ॐ तुलसीदल, बिल्वपत्र, चन्दन, रोली, अक्षत, गंगाजल
ॐ शेर के दाँत, भालू के नाखून, मर्कट का फोता
ॐ हमेशा हमेशा राज करेगा मेरा पोता
ॐ छूः छूः फूः फूः फट फिट फुट
ॐ शत्रुओं की छाती अर लोहा कुट
ॐ भैरों, भैरों, भैरों, ॐ बजरंगबली
ॐ बंदूक का टोटा, पिस्तौल की नली
ॐ डॉलर, ॐ रूबल, ॐ पाउंड
ॐ साउंड, ॐ साउंड, ॐ साउंड
ॐ ॐ ॐ
ॐ धरती, धरती, धरती, व्योम, व्योम, व्योम, व्योम
ॐ अष्टधातुओं के ईंटो के भट्टे
ॐ महामहिम, महमहो उल्लू के पट्ठे
ॐ दुर्गा, दुर्गा, दुर्गा, तारा, तारा, तारा
ॐ इसी पेट के अन्दर समा जाय सर्वहारा
हरिः ॐ तत्सत, हरिः ॐ तत्सत
.........
बाबा की कुछ और कविताऐं उपलब्ध हैं.. कविता कोश की साइट पर.. रवि रतलामी के ब्लॉग रचनाकार पर और अनुराग बंसल के ब्लॉग पर..
इसके अलावा सृजन शिल्पी का एक आलोचनात्मक लेख है बाबा के ऊपर.. और एक संक्षिप्त जीवन चरित्र भी है.. जागरण की वेब साइट पर..
12 टिप्पणियां:
jai ho baba naga ki
aur abhay ki
bahut dino ke bad baba ki chavi dikhi
baba to sapna ho gaye bhayi
aap ne baba ki chavi dikhayi
achcha laga
अभय जी;
इस कविता को मेरे प्रियजन संजय झा ने अपनी फिल्म स्ट्रिंग्स (String) में भी पेश किया है. जुबीन गर्ग के संगीत में सजी यह कविता लाजबाब है. आप भी कभी जरूर सुनिये. (संजय झा बाबा के भक्तों मे से एक हैं)
ये मेरी पसंददीदा कविताओं में से एक है,
बहुत पहले यह कविता पढ़ी थी। तब भी इस गूढ़ कविता का आशय न समझ सका था और आज भी कमोबेश वही हालत है। कृपया अल्पबुद्धि लोगों के लिए इसकी कुछ व्याख्या करें।
प्रतीक बबुआ.. तुम अभी भुवनेश के चिट्ठे पर बुद्धिजीवियों को गरिया के आये हो.. हम वहाँ तुम्हारा कमेन्ट न देखे होते तो हम सचमुच तुम्हे कविता समझाने बैठ जाते.. वैसे इस कविता की सच्ची समझ तुम्हे मसिजीवी दे सकेंगे.. वो अध्यापक भी हैं.. और मसिजीवी भी.. :)
अन्न ब्रह्म ही ब्रह्म है बाकी ब्रह्म पिशाच
औघड़ मैथिल नाग जी अर्जुन यही उवाच
प्रतीक की बातों से क्यों घबराते हैं? ये बताना ज्यादा प्रामाणिक और उद्देश्यपूर्ण होगा कि बाबा की ये कविता सदी की महान कविता क्यों और कैसे है। बात इस पर भी होनी चाहिए कि कविता क्या है... और अगर कोई कविता किसी को कम्युनिकेट नहीं हो रही है, तो ये कविता की ग़लती है या किसी नासमझ प्रतीक की? आप अपने ब्लॉग पर इस पर बात शुरू करवाइए... हम बहस करेंगे...
प्रतीक से कैसा घबराना.. देखिये कैसी मोहक तस्वीर है उनकी..फिर वो मान नहीं रहे.. मगर वो स्वयं एक बुद्धिजीवी है.. कौन सा हल ले के खेत पर जाते हैं..कुर्सी पर बैठ के मगज ही तो खपाते हैं.. बस हो गये बुद्धिजीवी..
मगर अब आप कह रहे हैं और प्रतीक प्रिय का भी अल्पबुद्धि की आड़ से विनम्र आग्रह है तो मैं कविता के बारे में एक दो मूलभूत सूचनायें देना चाहूँगा..
एक तो यह कविता मोटे तौर पर इन्दिरागाँधी के भारतीय राजनीतिक आकाश पर उदय के सन्दर्भ में लिखी गई कविता है..दूसरे धार्मिक मंत्रों के इस शिल्प का अपने कथ्य के लिये अपहरण शायद नागार्जुन ने पहली मर्तबा किया था..और लगभग मखौल बना दिया उस पूरी परम्परा को.. तो दोहरे स्तर पर चोट कर रही है कविता.. एक तो राज्नीतिक विवेचना तो कर ही रही है.. आगे आने वले समय की झाँकी भी दे रहे है.. दूसरे ये कथ्य शिल्प के खिलाफ़ खड़ा हो कर उस शिल्प के मूल कथ्य के निहित स्वार्थों की पोल भी खोल रहा है..
बाद में हिन्दी फ़िल्मों मे भी तरह की मन्तरबाजी इस्तेमाल हुई है.. पर इस धार के साथ नहीं ..ये आज भी अप्रतिम है..
शेष कविता में एक खास तरह का मदारीपन है.. जो भारतीय राजनीति की एक विशेषता है.. और इससे ज़्यादा दिमाग लड़ाने लायक इस कविता में कुछ नहीं है.. जो है सतह पर है .. आप से सीधे बात करते हुये.. ये सरलता नागार्जुन की लगभग सभी कविताओ में देखने को मिल जायेगी आपको..
अभय भाई, कविता समझाने के लिए धन्यवाद। लेकिन मुझे बुद्धिजीवि कह कर न गरियाएँ, क्योंकि मैं क़ुर्सी पर बैठकर विचार नहीं करता हूँ। प्राय: सड़कों पर आवारागर्दी करते हुए यह काम (अगर इसे 'विचार' कहा जा सके तो) अपने आप हो जाया करता है।
बहस के लिए सदैव उद्यत अविनाश भाई, मैं तो पहले ही खुद को निपट नासमझ कह रहा हूँ और कविता की बजाय अपनी अक़्ल की ग़लती मान रहा हूँ।
बुद्धिजीवी गाली नहीं मेरे लिये.. एक तरह के मजदूर का नाम है..बैठ करो या घूम के..रहेगा बुद्धिकर्म ही..
बाबा की कविता बहुत अच्छी लगी. आपको साधुवाद इस प्रस्तुति के लिये.
अर्थ भी बहुत सुंदरता से समझाया है. बधाई.
:)
बाबा बहुत बड़े कवि थे. अभय भाई, बाबा के दर्शन दो बार करने का सौभाग्य मिला. औघड़ थे, मंत्र मे ध्वनि की जो शक्ति होती है जिसे कल्याणकारी समझा जाता है, उसी शक्ति को बाबा ने विद्रूप को सामने रखने के लिए किया. बाबा का हँसता चेहरा देखकर मन प्रसन्न हुआ, लोग तो भूल गए थे कि रामदेव, आसाराम और श्रीश्री रविशंकर से पहले एक और बाबा थे. 'कालिदास सच बतलाना' और 'बादल को घिरते देखे है' जैसी सुंदर कविताएँ भी प्रकाशित करें. बाबा की स्मृति को शत शत नमन.
अनामदास
baba se pahli mulakat patna me hui thi. mujhe janmat ke liye unka interview karna tha. premchand rangshala ke pas kisi dharne me shamil hone aaye the. bheed chhatne par namaste karke maine kaha 'baba aap se baat karni thi.' chhutate hi bole 'ab baat karne ke liye bhi baat karni padegi kya?' is tvarit javaab se main itana dara ki time lekar bhi baat karne nahin gaya. mere saathi irfaan gaye aur jhelkar laute. baat ke kram me baba ne unse kaha- 'murkh hain aap. sugandhit murkh. do paise ka chehra hai aapka. sundar ko ek din sundari mil jaayegi, fir kinare ho jaayenge'. in donon ghatnaon se hamaari yay unke baare me mili-juli hi rahi hamesha. ek baat saaf hai. ve flashes me sochte the aur vaise hi likhte the. svatah sfurtata unki sabse badi takat thi aur satah ke neeche na dekhna sabse badi kamjori. unki panktiyan jubaan par jyaada chadhti hain, dil par unka asar kam padta hai.
https://youtu.be/7CNW0pDPkKY
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