रविवार, 6 मई 2007

पूछ रहे हैं नासिर.. सब धान बाइस पसेरी ?

अपनी प्रतिक्रिया में बेनाम ने रवीश, अविनाश और बोधिसत्व का नाम लिया था.. अविनाश और बोधिसत्व ने तो अपना जवाब दे दिया और रवीश जी यू पी चुनाव के बीच से भी इस बहस में अपनी शिरकत करने के लिये समय निकाल कर जवाब लिख रहे हैं.. आज शाम तक भेजने का वादा है..
इस बीच हमारे एक नये चिट्ठाकार साथी नासिरुद्दीन ने लखनऊ से इस मसले पर अपनी राय हमारे बीच भेजी है.. नासिर प्रिंट मीडिया के पत्रकार हैं.. और हिन्दी दैनिक हिन्दुस्तान के लिये नौकरी बजाने के साथ भारतीय उपमहाद्वीप में मुस्लिम महिलाओं की सामाजिक और धार्मिक स्थिति पर विशेष अध्ययन भी कर रहे हैं.. पिछले दिनों मोहल्ला पर उनका तथ्यपरक और संतुलित लेख भी छपा था जो मोहल्ला के विवाद के बावजूद सब के द्वारा सराहा गया.. उस के बाद अविनाश की प्रेरणा से उन्होने एक निजी ब्लॉग भी खोला है - ढाई आखर.. हालांकि भगत सिंह के ऊपर शहीद-ए-आज़म नाम से एक ब्लॉग वे और उनके साथी काफ़ी पहले से चला रहे हैं.. आइये देखते हैं.. क्या कह रहे हैं नासिर.. मीडिया और उसकी सामाजिक भूमिका के बारे में..


भय जी के निर्मल-आनन्‍द पर पहले बेनाम फिर अविनाश और बोधिसत्‍व जी की टिप्पणियां पढ़ते हुए बार-बार लग रहा था कि यह सिर्फ इन चंद लोगों की बात नहीं है। यह हमारी बात हो रही है। हम यानी खबरनवीसी से जुड़े लोग। बेनाम साहब की बात में जितना सच है, उतनी ही हकीकत बयानी बाकियों के जवाब में भी है। इसीलिए जब‍ इन दोनों का जवाब आया तो लगा कि काफी हद तक इन्‍होंने हमारी ही बात की है। हमारे दिल को हल्‍का किया है।
वैसे ये लोग भले ही कुछ कहें, लेकिन मेरी समझ से आज भी ये ख़बरों के धंधे से इसलिए जुड़े हैं कि कहीं उन्‍हें कुछ कचोटता रहता है। इस‍ीलिए अविनाश ‘मोहल्‍ला’ बना रहे हैं तो रवीश ‘कस्‍बा’ तैयार करने में जुटे हैं। अगर महज नौकरी कर रहे होते तो उनके लिए इन मोहल्‍लों-क़स्बों में भटकने, बहस करने और अपने विचार रखने की जरूरत नहीं थी। यह सब, यानी इलेक्‍ट्रॉनिक माध्‍यम के अपने माहिर साथी, जितनी तनख्‍वाह पाते हैं, वे आराम से हर शाम सुखी परिवार की तस्‍वीर बन सकते हैं। लेकिन ऐसा है नहीं। इन्‍हें कुछ कचोटता है, इसलिए ये जूझते हैं। इसलिए यह महज इत्‍तेफाक नहीं है कि नौकरी के दौरान, नौकरी के साथ और नौकरी के इतर, यह लोग भीड़ से अलग दिखते हैं। यह अलग दिखना, मेरी समझ में इनकी शक्‍ल सूरत की वजह से नहीं है। तो हमें सोचना होगा कि फिर कौन सी वजह है जो हमें, ख़बरों की भीड़ में स्‍पेशल रिपोर्ट और बात पते की याद रखने पर बाध्‍य करता है। यह सिर्फ इन्‍हीं की बात नहीं है, ऐसे इस देश में कई खबरनवीस हैं। प्रिंट में भी इलेक्‍ट्रॉनिक में भी। कस्‍बों में भी और राजधानियों में भी।
इसलिए इन लोगों को भी तुरंत सुरक्षात्‍मक घेरा नहीं तैयार करना चाहिए। जो हम कर रहे हैं, वो भी बतायेंगे और जो नहीं कर पा रहे, उसकी सीमा समझने और समझाने की कोशिश करेंगे। पूरब की दो कहावत याद आर रही है- ‘सब धान बाईस पसेरी’ और सबको एक ही लग्‍घी से हॉंकना। यानी सबको एक तराजू पर तौलने की जरूरत नहीं है। फर्क करना जरूरी है।रही बात सामाजिक मुद्दों के उठाने और न उठाने की। मैं चंद घटनाएं सिर्फ याद दिलाना चाहता हूँ। गुजरात में नरसंहार के पहले दिन की बात है।
‘धर्मनिरपेक्ष दलों’ का एक दल विमान से अहमदाबाद पहुँचा लेकिन दंगे के बीच में वह शहर जाने की हिम्‍मत नहीं जुटा सका और गेस्‍ट हाउस से वापस लौट आया। ... फिर दुनिया ने गुजरात का सच कैसे जाना... दंगों के बीच पथराव और आग की लपटों से गुजरते यही खबरनवीस थे, जो जान की परवाह किये बगैर दुनिया को वह बता और दिखा रहे थे, जो इससे पहले इस देश ने देखा नहीं था। अगर वह न होते तो गर्भवती कौसर बानो के पेट फाड्कर उसके बच्‍चे को आग के हवाले किये जाने की बात हम सबको ‘कपोल कथा’ लगती।
पूरे देश में पिछले कुछ सालों में आतंकवादी होने के आरोप में कई (मुसलिम) नौजवान मुठभेड़ के नाम पर मारे डाले गये। लेकिन किसी दल या पार्टी ने कभी इन मुठभेड़ों की सच्‍चाई जानने की कोशिश नहीं की, उस पर सवाल उठाना तो दूर रहा। सोहराबुद्दीन का जो मामला अभी गर्म है, उसके पर्दाफाश का सेहरा भी इसी मीडिया के सर बँधता है।
या फिर तहलका का स्टिंग ऑपरेशन हो या आईबीएन-7 कोबरा पोस्‍ट का बाबाओं काले धन को सफेद करने का धंधा का ताजा स्टिंग ऑपरेशन। या फिर इंडियन ऑयल के अधिकारी मंजूनाथ की हत्‍या का मामला हो या फिर किसानों की आत्‍म हत्‍या का मुद्दा- इन सबके बारे में देश को किसने बताया। किसान सिर्फ महाराष्‍ट्र या आंध्र में ही नहीं बल्कि बुंदेलखंड, अवध में भी जान दे रहे हैं, यह बातें भी खबरनवीसों ने बतायी। लखनऊ में एक गरीब किशोरी के साथ चंद दबंग-पैसे वाले लडके अपहरण कर सामूहिक दुराचार करते हैं। यह लड़के राजनीतिक रूप से भी काफी शक्तिशाली हैं। दो साल हो गये हैं, इस घटना को। वो लड़की न तो प्रियदर्शनी मट्टू है और न ही जेसिका लाल लेकिन लखनऊ शहर के अख़बारों ने इस मुद्दे को आज तक दबने नहीं दिया। कहीं न कहीं कुछ तो बचा है। ... इसलिए यह कहना कि सब कुछ काला है... मुझे लगता है, ज्‍यादती होगी।
मुझे यह भी लगता है कि समाज मीडिया से बहुत ज्‍यादा उम्‍मीद करने लगा है। इसकी वजह भी है। राजनीतिक दलों या आंदोलनों को जो काम करना चाहिए, वह नहीं कर रहे। जो मुद्दे, सवाल उन्‍हें उठाने चाहिए वे नहीं उठा रहे। सामाजिक मुद्दों पर गोलबंदी का जो काम राजनीतिक पार्टियों को करना चाहिए, वे नहीं कर रहीं। आर्थिक उदारीकरण और वैश्‍वीकरण से उपजे सामाजिक सवालों से जूझने में राजनीति कहीं पीछे आँख चुराये खड़ी नजर आ रही है।
... आप अपने दिमाग पर जोर डालिये और याद कीजिये कि आखिरी बार राजनीतिक दलों ने कौन सा सामाजिक-राजनीतिक मुद्दा उठाया था, जिसने समाज को झकझोर दिया। ...और यह सारा काम जो वो नहीं कर पार रहे, उसे करने की अपेक्षा मीडिया से की जा रही है। वह खबर तलाश करे, सामाजिक आंदोलन करे, लोगों की गोलबंदी भी करे। भई, आम जन के साथ हम खबरनवीसों को भी भ्रम में नहीं रहना चाहिए, हम यह सारे काम नहीं कर सकते। हम सहयोगी की भूमिका ही अदा कर सकते हैं। हम कैटेलिस्‍ट (उत्‍प्रेरक) हो सकते हैं। बस...। इसलिए जो सवाल बेनाम ने उठाये वह सामाजिक आंदोलनों के न होने और राजनीतिक खालीपन से उपजे सवाल हैं। जब भी समाज या राजनीति के फलक पर कोई मजबूत गोलबंदी होगी या आंदोलन होगा तो बेनाम के सवालों के जवाब भी मिलेंगे... और असलियत में हमारा भी इम्‍तहान तभी होगा।

4 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

"लखनऊ में एक गरीब किशोरी के साथ चंद दबंग-पैसे वाले लडके अपहरण कर सामूहिक दुराचार करते हैं। यह लड़के राजनीतिक रूप से भी काफी शक्तिशाली हैं। ...लेकिन लखनऊ शहर के अख़बारों ने इस मुद्दे को आज तक दबने नहीं दिया। कहीं न कहीं कुछ तो बचा है। "

मेरा बोधिसत्व जी से सवाल था कि "कोई आशा की किरण नहीं बची क्या ?"
हां आशा है, आप तो कम से कम आशा दिखा रहे हैं

azdak ने कहा…

"समाज मीडिया से बहुत ज्‍यादा उम्‍मीद करने लगा है। इसकी वजह भी है। राजनीतिक दलों या आंदोलनों को जो काम करना चाहिए, वह नहीं कर रहे। जो मुद्दे, सवाल उन्‍हें उठाने चाहिए वे नहीं उठा रहे। सामाजिक मुद्दों पर गोलबंदी का जो काम राजनीतिक पार्टियों को करना चाहिए, वे नहीं कर रहीं। आर्थिक उदारीकरण और वैश्‍वीकरण से उपजे सामाजिक सवालों से जूझने में राजनीति कहीं पीछे आँख चुराये खड़ी नजर आ रही है।"

भई, ये तो नासिर साहब सही बात कह रहे हैं. और सब धान बाईस पसेरी नहीं ही होता. भावना में बहकर सबको चबुकवाने बंधुगण इस पर ज़रूर विचार करें.

Farid Khan ने कहा…

aapaki baat sahi hai, lekin jab media (electronic media) ki charitra-heenata ki baat hoti hai to darasal us vyavastha ki aalochana hoti hai jo ghairzimmedaar tareeke se khabaro ko hamare saamane parosati hai, vahan TRP ki ladai saaf dikhai deti hai....

aur jahan tak chand Avinash,Abhay tiwari,Raveesh ya un jaise logon ki zimmedaar bhoomika ki baat hai ,Gujrat dango mein kuch zimmedaar patrakaaron ki bhoomika ki baat hai ,to iska shrey sirf us vyakti ko hi jaata hai jisne khud ko zimmedaar samajhaa, na ki 'media system' ya vyavashta ko.

smagrata mein mujhe aaj ki tareekh mein media "baazaar ka mukh-patra" hi lagta hai.

apoorvanand ने कहा…

well written nasiruddin, avinash, ravish. my thanks to you all.
hindi media does need a serious discourse. not in a perfunctory manner. also we need to discuss the lang, the effect it has in trivializing the issues.
apoorvanand

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