इस बात की तक्लीफ़ मुझे भी थी और बेनाम ने भी इसका ज़िक्र किया कि पत्रकार साथियों की प्रतिक्रिया नहीं आई.. उनकी कुछ तो मजबूरियां रही होंगी.. पर देर से ही सही .. अविनाश ने 'मीडिया चिंतन' पर अपनी प्रतिक्रिया भेजी है, मीडिया के चरित्र की हीनता की चर्चा की है और कुछ हद तक पेशेगत मजबूरियों पर भी रौशनी डाली है.. और इस मशवरे के साथ (विनम्र आदमी हैं अविनाश, मेरी तरह अक्खड़ नहीं ) कि उनकी इस प्रतिक्रिया को एक प्रविष्टि के बतौर छापा जाय.. इस मशवरे को क़बूल करने में हमें कोई उज्र नहीं.. (हाँ ये कई लोगों को ज़रूर लग सकता है कि निर्मल आनन्द, दूसरा मोहल्ला बनता जा रहा है..और इसके पीछे भी कोई एजेण्डा है.. पर गलतफ़हमी का इलाज तो लुक़्मान हकीम के पास भी नहीं था.. हम आप तो साधारण मनुष्य हैं..)
ज़ाहिर है, आपने जो लिखा और उस पर बेनाम की जिस तरह से सुसज्जित प्रतिक्रिया आयी, उसे आमतौर पर मीडिया चिंतन कहा जाता है। चिंतन भी एक कारोबार है। कारोबार से मेरा मतलब पैसे की आवाजाही से नहीं है, बल्कि एक पूरे काम से है। तो ऐसे काम में कई लोग लगे हैं। ये अच्छा काम है और सब के बस का नहीं। जैसे यह कहना कि राहुल के बयान का ताप शिल्पा-गेर मामले की बदली में छिप गया, यह अनायास नहीं था। काश, हिंदुस्तानी मीडिया चतुराई की ऐसी चादर फैलाने में कामयाब होता!
दरअसल आज जो मीडिया हमारे सामने है, उसका कोई चरित्र नहीं है। शायद कभी नहीं रहा। लोग कहते हैं, कई उदाहरण देते हैं, आजादी के दिनों की बात करते हैं- लेकिन हमेशा से मीडिया मुनाफे बटोरने का साधन रहा है। और कई बार मुझे लगता है कि इस बटोरन को नैतिकता के पेंट से रंगने के लिए ऐसे पत्रकारों की ज़रूरत होती है, जो संस्कार और कुछ कुछ आत्मबोध के कारण ईमानदार रह जाते हैं। आपको हर जगह कुछ पत्रकार मिलेंगे, जो मुद्दों की बात करते नज़र आएंगे। वरना, ज्यादा ऐसे होंगे, जो बाज़ार के हिसाब से ख़बरों के निर्धारण-प्रसारण-प्रकाशन में जुटे नज़र आएंगे।
बेनाम ने बिल्कुल सही व्याख्या की है। लेकिन इस व्याख्या में हम जैसे पत्रकारों से जिस किस्म का आग्रह झलकता है, उससे यही साबित होता है कि वे चाहते हैं कि मीडिया में छाये अनैतिकता के इस घटाटोप को हटाने के लिए हम आंदोलन करें। जबकि हम नौकरी कर रहे हैं। हर पत्रकार जो समाज की नज़रों में ख़बरों की आपाधापी से जुड़ा है, नौकरी कर रहा है। जैसे हिंदी के कथाकार संजीव बहुत दिनों तक एक कंपनी की नौकरी करते रहे थे। जैसे मैथिली के लेखक स्वर्गीय प्रभास कुमार चौधरी जीवन बीमा निगम की नौकरी करते रहे थे। जैसे हिंदी के कवि लीलाधर जगूड़ी भारतीय प्रशासनिक सेवा मेंजुटे हुए हैं। इन लेखकों का उदाहरण इसलिए, क्योंकि ये नौकरी की नैतिकताओं का निर्वाह भी करते रहे और अपनी रचनात्मक बेचैनियों को कविता-कहानी के माध्यम से बाहर भी लाते रहे। जो पत्रकार आपको अलग से नज़र आते हैं, वो अपनी निजी बेचैनियों की वजह से। न कि ये उनकी पेशागत नैतिकता है।
पेशागत नैतिकता ये है कि अगर हम एक टीवी में काम कर रहे हैं, तो उसे नंबर वन तक पहुंचाना हमारी ज़िम्मेदारी है। जबकि यह हकीकत है और हमारा देखा हुआ है कि उड़ीसा के किसी गरीब गांव की कहानी अगर एनडीटीवी दिखाता है, तो दशमलव कुछ कुछ में टीआरपी आती है, जबकि शिल्पा गेर मामले को दिखा कर दूसरे टेलीविज़न अप्रत्याशित टीआरपी का पुरस्कार पाते हैं। ऐसे में हमें क्या करना चाहिए? हम जैसों को क्या करना चाहिए? रवीश, अविनाश और बोधिसत्व को क्या करना चाहिए? खामोश ही रहना चाहिए दोस्त। चुपके से पतली गली पकड़ लेना चाहिए। जब दूसरा चैनल चुंबन से लहालोट हो, तो उसके तोड़ के लिए कुछ वैसा ही मसाला लाकर तत्काल टीवी पर चलाने से बेहतर यही रास्ता है।
इसका मतलब यह नहीं कि जो हो रहा है होने दें। जिसे हमारे मित्र यथास्थितिवादी होना कहते हैं। इसका मतलब यह है कि मीडिया जिस काम के लिए है और उसका जो चरित्र है, उसे ऐसा ही होना है। समाज के दुग्ध-धवल वर्ग का प्रचार और हित साधन। जैसा कि बेनाम महाशय ने लिखा है। तो हम सिर्फ यही कर सकते हैं कि इस अंधेरे में थोड़ी रोशनी, थोड़ा रास्ता बटोर लें.. अपनी बेचैनियों के लिए।
3 टिप्पणियां:
मगर इन अच्छी बेचैनियों का कोई करे क्या?.. थोड़ी रोशनी, थोड़ा रास्ता क्या.. आत्मग्लानि से अलग इसमें और क्या बताया जा रहा है?..
समझदारी भरा संतुलित लेख . छोटी-मोटी तथ्यात्मक भूलें हैं पर उनसे लेख के केन्द्रीय विचार पर कोई आंच नहीं आती .
आपका निर्मल चिंतन मोहल्ले की तरह विवादास्पद नहीं हो पायेगा। अविनाश की टिप्पणी अच्छी लगी।
प्रमोद सिंह जी के सवाल का जवाब कौन देगा! :)
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