बुधवार, 31 अक्तूबर 2007

बैंगन के ज़हर बुझे बीज

बीटी कपास की खेती करने वाले ३०००० किसान घाटे में डूब कर कर्ज़ के जाल में फंसे। उन्हें आत्महत्या तक करना पड़ी। इसी फसल के पेड़ और कपास के फल खाकर १६०० भेड़ें मर गई। जैव परिवर्धित बीजों (बीटी बीज) के कितने खतरनाक प्रभाव पड़ते हैं इसके ये दो स्थूल उदाहरण हैं।

पटना से प्रमोद रंजन द्वारा संचालित जन विकल्प नाम के एक पत्रिका आधारित ब्लॉग में सचिन कुमार जैन बता रहे हैं..कि अंतत: भारत दुनिया का ऐसा पहला देश बन गया जिसने जैव परिवर्धित खाद्यान्न उत्पादन के ज़मीनी परीक्षण की अनुमति दे दी। इसके अन्तर्गत अप्रैल २००८ तक ११ स्थानों पर चार किस्म के बीटी बैंगन के उत्पादन के परीक्षण किये जाएंगे। मानव सभ्यता के लिये यह एक खतरनाक कदम हो सकता है।

इस बेहद ज़रूरी लेख में पढ़िये कि कैसे एक तरफ तो भारतीय सरकार हेपेटाईटस-बी जैसी बीमारी से निपटने के लिये कार्यक्रम बना रही है तो वहीं दूसरी ओर इसी तरह की बीमारी फैलाने वाले कालीफ्लोवर मोसियेक वायरस को बीटी बैंगन के जरिये मानव शरीर में प्रवेश कराने की अनुमति बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को दे रही है।

हिंदी में इस तरह की सूचनाएं आ रही हैं अच्छी बात है.. धन्यवाद है प्रमोद रंजन और सचिन कुमार जैन को.. यह रहा लिंक

कॉन्डॉम गीत

यौन शिक्षा को लेकर अभी भी देश में एक सहजता नहीं बन सकी है, पर प्रयास जारी हैं। ऐसा ही एक प्रयास तेलुगु भाषा में नृत्यांजलि अकेडमी, सिकन्दराबाद द्वारा भी किया गया है जिसकी चर्चा विश्व के तीसरे सबसे लोकप्रिय ब्लॉग बोइंग बोइंग तक जा पहुँची है। यू ट्यूब पर उपलब्ध तमाम कॉन्डोम गीतों में से सब से अधिक देखा गया है यह वीडियो - १५४,३४० दफ़े। आप भी देखिये कि किस सहजता और सरलता से संचेतना का प्रसार कर रहा है यह वीडियो-गीत जिसके बोल हैं ना पेरे निरोधु रन्ना..


कुछ बन्धुओं को वीडियो में दिखाये एक रेखाचित्र से आपत्ति हो सकती है, उनसे निवेदन है कि कृपया वे इसे न देखें.. जो देखना चाहें वे यहाँ क्लिक करें!

मंगलवार, 30 अक्तूबर 2007

असफल रहे अनुराग

अनुराग कश्यप की नो स्मोकिंग बॉक्स ऑफ़िस पर बुरी तरह फ़्लॉप है। मुझको और मेरे मित्र को मिलाकर आज दोपहर के शो में कुल आठ लोग थे। किसी भी फ़िल्मकार के लिए दुःखद है यह, और खासकर अनुराग के लिए तो और भी जिन्हे मैं बहुत ही काबिल फ़िल्मकार मानता हूँ। उनकी फ़िल्म ब्लैक फ़्राईडे को मैं पिछले सालों में देखी गई सबसे बेहतरीन फ़िल्म समझता हूँ। मगर नो स्मोकिंग निराशाजनक है। एक स्वर से सभी समीक्षकों ने इसे नकार दिया है और दर्शको का हाल तो पहले ही कह दिया।

कहा जा रहा है कि अनुराग की अतिरंजना है यह फ़िल्म- इनडलजेंस। सत्य है आंशिक तौर पर। मगर उच्च कला, कलाकार की अतिरंजना ही होती है। जहाँ कलाकार सिर्फ़ और सिर्फ़ अपनी कल्पित संसार के प्रति प्रतिबद्ध होता है, और दूसरे के लिए उसका संसार कितना सुगम होगा इसकी चिंता नहीं करता। मेरा निजी खयाल तो यह है कि अनुराग अपनी अतिरंजना के स्तर एक तल और ऊपर ले जाते तो शायद फ़िल्म बेहतर बनती। अभी यह बीच में कहीं अटक गई है। ना तो यह अपने सररियल ट्रीटमेंट के कारण दर्शकों की एक सीधी सादी कहानी सुनने की भूख को पूरा करती है और न ही यथार्थ के बहुस्तरीय स्वरूप की परतें को अपनी बुनावट में उघाड़ने का कोई प्रयत्न। उलटे एक सरल रूपक के चित्रण में नितान्त एकाश्मी बनी रहती है। जिसकी वजह से सामान्य दर्शक और कला प्रेमी दोनो ही मुतमईन नहीं होते। फ़िल्म की असफलता इस बात में नहीं है कि यह आम दर्शक के लिए कुछ ज़्यादा जटिल बन गई या वित्तीय पैमाने पर चारों खाने चित है बल्कि अपने मूल मक़सद- अपने दर्शक तक अपने संदेश का अपनी कलात्मक एकता में संप्रेषण- में नाकामयाब रही है।

अपनी असफलता के बावजूद अनुराग ने हिस्सों में अच्छा प्रभाव छोड़ा है। बाबा बंगाली के पाताल-लोक का चित्रण देखने योग्य है। पर उनका आरम्भिक और आखिरी उजबेकी बरफ़ीले मैदानों का स्वप्न कोई प्रभाव नहीं छोड़ता। खैर! अब उनकी अगली फ़िल्म का इंतज़ार रहेगा।

बैक्टीरिया अच्छे हैं!

हार्वर्ड पत्रिका में एक दिलचस्प लेख छपा है। लिखते हैं कि बहुत पहले वैज्ञानिकों ने पृथ्वी पर पाए जाने वाले जीवों को जीन सम्बन्ध के आधार पर एक जीवन वृक्ष के रूप में प्रदर्शित किया था जिसमें जिसका चित्र कुछ यूँ था..

मगर हाल की कुछ खोजों से पता चला है कि पुराने लोग इस पूरे जीवन को टेलेस्कोप के गलत सिरे से देख रहे थे.. सच्चाई कुछ यूँ दिखती है..

वनस्पति, जन्तु और फ़न्गी जगत इस विशाल वृक्ष के अत्यन्त मामूली अंग है..जिसके मुख्य अंग का निर्माण करते हैं:
१)बैक्टीरिया यानी एककोशीय वे सभी जीव जिनके भीतर कोई नाभिक नहीं होता।
२)आर्किया या आर्किबैक्टीरिया यानी वे जीव जो अपने सरल रूप में बैक्टीरिया जैसे ही होते हैं पर उनकी कोशीय संरचना काफ़ी अलग होती है। और
३)यूकेरया यानी शेष सभी जीव जिनके कोश में नाभिक मौजूद होता है। इस श्रेणी में पशु, पक्षी पौधे सभी आयेंगे।

पुरानी समझ के चित्र में मोनेरा के अन्तर्गत बैक्टीरिया और आर्किया को रखा गया है और प्रोटिस्टा के अन्तर्गत बची हुई सारी नाभिकीय संरचनाएं। हम अपनी पृथ्वी में किस कदर अल्पमत में हैं, इसका एहसास इस नई खोज से हो रहा है।

अगर आप के मन इन जीवों को लेकर कोई विकार हो तो दूर कर लें। आप सोचते हों कि बैक्टीरिया मतलब बीमारी। तो समझें कि हम भी इन्ही के जैसे ही एक जीव हैं बस हमारी कोशिकाओं में एक नाभिक है और हमनें पौधों और अन्य पशुओं की तरह या उनके साथ एक लम्बी विकास की प्रक्रिया में एक जटिल संगठन बना लिया है.. अपनी ही विघटित कोशिकाओं का संगठन। आज भी मनुष्य का जीवन एक कोशिका से ही शुरु होता है, जो माँ के गर्भ में विघटित हो-हो कर एक जटिल संरचना के रूप में विकसित हो जाता है जिसे हम मनुष्य मानते हैं। और इस जटिल संरचना का ब्लू प्रिंट ही हमारा डी एन ए कहलाता है। और जहाँ तक डी एन ए का प्रश्न है तो एक आलू और मनुष्य ज़्यादा करीब के रिश्तेदार हैं बजाय कि दो बैक्टीरिया के। कल्पना कीजिये इस जगत की विविधता को।

हमारा जीवन इस अदृश्य माइक्रोबायल जगत से बुरी तरह प्रभावित है। वे बादल बनाते हैं, चट्टानों को तोड़ते हैं, खनिज जमाते हैं, पौधों को खाद देते हैं, मिट्टी को तैयार करते हैं, विषैले अवशिष्ट को साफ़ करते हैं। मनुष्य के शरीर में लगभग १० ट्रिलियन कोशिकाएं हैं, मगर १०० ट्रिलियन माइक्रोब्स हैं। जो हमारे लिए खाना पचाते हैं, विटैमिन्स बनाते हैं, और हमें इन्फ़ेक्शन से बचाते हैं। हाँलाकि कुछ माइक्रोब्स हमारे स्वास्थ्य के लिए खतरनाक भी हैं। लेकिन अगर हमें इन माइक्रोब्स से वंचित कर दिया जाय तो हम बुरी तरह बीमार पड़ जायेंगे। अभी भी इनकी पूरी भूमिका को जाना जाना है।

पूरा लेख पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें।

सोमवार, 29 अक्तूबर 2007

असली रोमांस की धमक

उदीयमान निर्देशक इम्तियाज़ अली की पहली फ़िल्म ‘सोचा न था’ भी कुछ छोटी-मोटी कमियों के बावजूद एक ऐसी ताज़गी से भरी फ़िल्म थी जो किसी नए फ़िल्मकार से ही अपेक्षित होती है। मगर अपनी दूसरी फ़िल्म ‘जब वी मेट’ से उन्होने अपने भीतर की कलात्मक ईमानदारी का मुज़ाहिरा कर के फ़िल्म इंडस्ट्री के मठाधीशों के चूहे जैसे दिल को भयाकुल हो जाने का एक बड़ा कारण दे दिया है। आम तौर पर सभी को दूसरों की सफलता व्याकुल करती है और खास तौर पर उन्हे जो सफल होने के लिए समीकरणों की लगातार गठजोड़ करते रहते हों।

मैं उनके दिल को चूहेसम बता रहा हूँ क्योंकि करोड़पति-अरबपति होने के बावजूद उनके भीतर अपनी ही बनाई किसी पिटी-पिटाई लीक छोड़कर कुछ अलग करने का साहस नहीं है। चूंकि पैसे के फेर में अपने दिल की आवाज़ सुनने का अभ्यास तो खत्म ही हो चुका है यह उनकी फ़िल्मों से समझ आता है। और दूसरों की दिलों की आवाज़ पर भरोसा करने की उदारता भी उनमें नहीं होती इसीलिए किसी नए को मौका देने के बावजूद उसकी स्वतःस्फूर्तता को लगातार एक समीकरण के अन्तर्गत दलित करते जाते हैं।

मैं इसे एक रोष के साथ लिख रहा हूँ क्योंकि मैंने इस धंधे में चौदह साल दिए हैं और अधिकतर टीवी की और कभी-कभी फ़िल्मों की दुनिया में भी इस प्रवृत्ति का सामना किया है और उसके आगे समर्पण किया है। भौतिक सुविधाओं के आगे कलात्मक प्रतिबद्धताओं की बलि देकर। और इसीलिए मुझे इम्तियाज़ अली की फ़िल्म देखकर एक आन्तरिक खुशी हो रही है कि उसने वह जीत हासिल की है जो मैं नहीं कर सका। फ़िल्मों की गुणात्मकता में बदलाव ला रहे नए निर्देशकों की उस सूची में उनका भी नाम लिया जाएगा जिसकी अगुआई अनुराग कश्यप और श्रीराम राघवन जैसे निर्देशक कर रहे हैं।

जब वी मेट एक रोमांटिक फ़िल्म है। एक लम्बी परम्परा है हमारे यहाँ रोमांटिक फ़िल्मों की। मगर पिछले सालों में मैने एक अच्छी रोमांटिक फ़िल्म कब देखी थी याद नहीं आता। ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे’ और ‘कुछ कुछ होता है’ को मात्र मसाला फ़िल्में मानता हूँ, उसमें असली रोमांस नहीं है। असली रोमांस देखना हो तो जा कर देखिये जब वी मेट

बुधवार, 24 अक्तूबर 2007

मेरा कार-मोह

ब्लॉग की दुनिया में अपना नाम है निर्मलानन्द.. सुनने में किसी स्वामी जी का नाम लगता है.. वैसे इस नाम को रखने के पीछे कोई गहरा विचार नहीं था.. अभय तिवारी के नाम से पता मिल नहीं रहा था.. और उस के एक दो रोज़ पहले ही मैंने संगीत सीखते हुए सही सुर लग जाने की अनुभूति की तुलना खूबसूरत फ़िल्म वाले 'निर्मल आनन्द' से की थी.. बस उसी लपेट में यह नाम भी आजमा लिया और मिल गया..

अब हालत यह है कि ब्लॉग का नाम निर्मल आनन्द होने से लोग मान कर चलते हैं कि मैं बड़े ही निर्मल स्वभाव वाला व्यक्ति हूँ.. लोग कहते हैं मन को बड़ा अच्छा लगता है.. अपनी ही निर्मलता पर मन झूम-झूम जाता है.. सोचने लगता हूँ कि मैं तो भौतिक जगत के बन्धनों से ऊपर उठ चुका आदमी हूँ.. साधारण मोह-माया, जगत के जंजाल जिनमें उलझा रहता है आम आदमी.. मेरा दूर-दूर का नाता नहीं उनसे.. लेकिन ये सारा भ्रम टूट कर धराशायी हो गया जब आखिरकार हमने एक ड्राइवर को मुलाज़िम रख लिया..

मुझे कार चलानी नहीं आती थी.. कार चलाने को लेकर कोई बहुत उत्साह भी नहीं रहा कभी.. मगर पाँच बरस पहले रिक्शे से एक दुर्घटना हो जाने के बाद फटाफट कार सीखी और आनन-फानन एक कार खरीद भी ली.. मगर मैं घरघुस्सु आदमी.. कहीं भी जाने से पहले बीस बार सोचता हूँ.. पाँच साल में बमुश्किल तेरह-चौदह हज़ार किलोमीटर चलाई गाड़ी.. जबकि बीबी को अपने काम के सिलसिले में काफ़ी आना जाना होता है..(मगर वह ड्राइव न करती है और न करेगी यह तय हो चुका है..) लेकिन इस बरस तो हालत ये हुई कि मैं एकदम ही घर पर बैठ गया और बीबी का काम कुछ ऐसा बढ़ा कि उसे दिन भर काफ़ी जगह जाना होता.. तो ड्राइवर रखा गया..

वैचारिक तौर पर मुझे कोई समस्या नहीं थी.. पर मेरे अन्दर अजीब-अजीब भाव जन्म ले रहे थे.. मुझे नफ़रत हो रही थी इस फ़ैसले से.. उस ड्राइवर से जो मेरी गाड़ी को चलाएगा.. उसी सीट पर बैठेगा.. जिस पर मैं बैठता हूँ.. हे राम.. मुझे ऐसा लग रहा था कि जैसे मेरा प्रिय खिलौना कोई मुझसे छीने लिये जा रहा है.. पहले दिन जाती हुई गाड़ी को मैंने ऐसे देखा जैसे कोई विदा होती बेटी को देखता है..दिन भर उसी के बारे में सोचता रहा.. शाम को ड्राइवर को मैने उसके तौर-तरीकों के बारे में एक झाड़ लगाई.. बीबी को भी उसके गाड़ी के प्रति दुर्व्यवहार के लिए लताड़ा.. मैं एक राक्षस होता जा रहा था.. और ये कोई पुरानी बात नहीं है.. करीब महीने भर पहले ही.. उस वक्त ब्लॉग की दुनिया में कोई न कोई मेरे निर्मलापे को लेकर भली बातें कह-लिख-सोच रहा होगा..

तब मुझे एहसास हुआ कि मैं कितना अधिक मोहासक्त था इस कार में.. कितना बँधा हुआ था इसके साथ.. शीयर अटैचमेन्ट.. मैं इस कार को लगभग एक मनुष्य का दरज़ा दिये हुए था.. शायद किसी मनुष्य से भी ज़्यादा मैं इस भौतिक वस्तु से जुड़ा हुआ था.. कि अभी भी दर्द होता है.. थोड़ा-थोड़ा..

रविवार, 21 अक्तूबर 2007

माँ के ब्लॉग-पते में परिवर्तन

हमारी ब्लॉग की दुनिया के साथियों ने तकनीक के बारे में सबसे ज़्यादा किसी से सीखा है तो रवि रतलामी जी से और श्रीश पण्डित से.. मैंने निजी रूप से श्रीश से ही.. आज भी वो मेरी मदद को स्वतः ही आगे आए.. मैंने कल मम्मी के ब्लॉग का पता अपनी मूर्खता में उनके ब्लॉग के शीर्षक को ही रख छोड़ा था.. http://jeevanjaisamainedekha.blogspot.com/ .. श्रीश ने अपनी प्रतिक्रिया में मेरी माँ के ब्लॉग पर खुशी ज़ाहिर तो की ही साथ-साथ एक सुझाव भी दे डाला..

तो मैंने जवाब में पूछा कि भाई ग़लती तो हो गई अब इसका कोई उपाय भी बताइये महाराज.. तो धड़ाक से उत्तर आया...

तो एक दिन के अन्तराल में ही मम्मी के ब्लॉग के पते में एक सुखद परिवर्तन हो गया है.. जिन मित्रों ने जीवन जैसा मैंने देखा को http://jeevanjaisamainedekha.blogspot.com/ के रूप में अपने ब्लॉगरोल में शामिल किया हो या अपने रीडर में सब्सक्राइब किया हो.. मेहरबानी कर के वे अब मम्मी के ब्लॉग के पते में आवश्यक बदलाव कर लें.. नया पता है आसानी से याद रहने वाला.. http://vimlatiwari.blogspot.com/

श्रीश पण्डित की जय हो..!!

शनिवार, 20 अक्तूबर 2007

मेरी माँ का अपना ब्लॉग


मेरी माँ की पारम्परिक शिक्षा सुव्यवस्थित तरह से नहीं हुई.. जो भी पढ़ा-जाना..स्वयं-शिक्षा से सम्भव हुआ.. एक पुरुषवादी समाज में एक स्त्री को जो हमेशा दोयम दरज़े पर धकेला जाता रहा है.. इस प्रवृत्ति के प्रति वे हमेशा सचेत रही हैं.. कहने का अर्थ यह नहीं कि मेरे पिता कोई राक्षस थे.. बस एक पुरुषवादी समाज में एक पुरुष थे.. और क्रांतिकारी नहीं थे.. फिर भी उन्होने अपने स्तर पर मेरी माँ की प्रतिभा को एक सामाजिक मंच देने की कोशिशें की.. पर वह उनके जीवन का उद्देश्य नहीं था.. मम्मी की प्रतिभा को दुनिया के सामने प्रकाशित कर देना मेरा भी जीवन उद्देश्य नहीं.. बस अपने स्तर पर जो कर सकता हूँ कर रहा हूँ..


काफ़ी दिनों से मम्मी की कविताओं का ब्लॉग खोलना चाह रहा था.. मगर मैं मुम्बई से निकल नहीं पा रहा था.. फोन पर मम्मी से कविताओं को लेना सम्भव नहीं था.. अब वे उमर के उस मकाम पर पहुँच गई हैं जहाँ आप को दूसरों की आवाज़े स्पष्ट नहीं सुनाई देतीं.. तो इस दफ़े कानपुर जा कर उनकी कविताओं को सहेज लाया हूँ और धीरे धीरे उनके अपने ब्लॉग पर चढ़ाता रहूँगा.. उम्मीद है आप लोग मेरी माँ के भीतर के कवि का उत्साह-वर्धन करेंगे.. अपने ब्लॉग का नाम उन्होने स्वयं चुना है.. जीवन जैसा मैंने देखा.. आप देखें और टिप्पणी अवश्य करें..

शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2007

कानपुर में खालिस की खोज

पिछली पोस्ट लिखने के बाद से अब तक एक बीमारी का अन्तराल हो गया.. सच बात तो यह है कि मैं इस बीमारी का इन्तज़ार भी कर रहा था.. जैसा कि मैं पहले भी कह चुका हूँ कि ब्लॉगिंग का शग़ल पैदा होने से पहले मेरा शग़ल ज्योतिष हुआ करता था और ज्योतिष के नियमों के अनुसार मैं एक लम्बी दशा भोग चुकने के बाद एक नई दशा में प्रवेश करने के आस-पास हूँ.. वैसे तो दशा के बदलाव का समय दिन, घंटो और मिनट-सेकण्ड में भी निकाला जा सकता है.. मगर असली बदलाव अनुभव करता है जातक अपने दिलो दिमाग़ और शरीर के तल की गुणात्मकता में.. इस दशा परिवर्तन के दौरान अक्सर जातक किसी छोटी-बड़ी बीमारी का शिकार होता ही है.. गुणे भाग से तो मेरी नई दशा शुरु हो चुकी थी कानपुर में ही मगर मेरा शरीर मुझे बता रहा है कि ये तीन दिन पहले शुरु हुई है..

आगे का हाल तो आगे देखा-लिखा जाएगा.. मगर पहले पीछे का हाल.. बात दिल्ली छोड़ने तक पूरी हो गई थी.. अब आगे कानपुर.. मेरी जन्मस्थली.. बचपन से ले कर अब तक मैंने कुल तेरह चौदह साल इस शहर में बिताए हैं.. पापाजी के रिटायर होने पर इसी कानपुर के आज़ाद नगर में एक प्लॉट पर मकान बनवाने में उनका सहयोग करने हेतु सब काम-धाम छोड़कर छै महीने भी गुज़ारे.. पापाजी का तो देहान्त हो गया तीन बरस पहले.. अब मम्मी, बीच वाला भाई, भाभी और उनके बच्चे रहते हैं यहीं कानपुर में.. पिछले सात-आठ साल से यही नियम चला आ रहा है.. जब भी मुम्बई से निकलता हूँ तो सीधे कानपुर के लिए.. दिल्ली के रास्ते से.. बड़े भाई से मिलते हुए कानपुर.. और फिर वापस.. घुमक्कड़ी के अरमान बहुत हैं मन में पर पूरे नहीं हुए अभी.. इस बार कुछ बदलाव आने की उम्मीद ज़रूर है.. साइकिल पर भारत भ्रमण करने वाले अनूप जी के साक्षात दर्शन जो हो गए.. इस मिलन का कुछ तो असर होना चाहिये..

कानपुर पहुँच कर एक दो दिन तो अपने खाने पीने का विशेष इन्तज़ाम करने में चले गए.. ये बात कम ही लोग जानते हैं कि मैं पिछले एक साल से ज्वार की रोटियाँ खा रहा हूँ..स्वास्थ्य के कारणों से.. चीनी की जगह खाँड और भैस के दूध-घी की जगह गाय का दूध-घी.. तो कानपुर में कुछ समय इन चीज़ों की तलाश में दिया गया.. परिणाम आश्चर्यजनक थे.. ज्वार सिवाय कलक्टरगंज के थोक के बाज़ार के कहीं नहीं मिला.. वहाँ भी खड़ा ज्वार ही मिला ज्वार का आटा नहीं.. देशी घी के बारे में एक स्वर से सभी डेरी वालों ने कहा.. पूरे कानपुर भर में कहीं नहीं मिलेगा..जो आप को दे दे वह झूठा.. वह धोखेबाज..

दो तीन दुधैय्यों से बात करने के बाद हम ने मान लिया कि यही सच है कि इस देश के अधिकांश भाग से गाय का असली दूध घी मिलना एक स्वप्न मात्र रह गया है.. गौ के नाम पर जान देने वाले आप को अभी भी मिल जायेंगे.. घी नहीं मिलेगा.. और उसके पॄष्ठ भाग में बिना इंजेक्शन ठोंके उसका दूध चाहने वाले.. न जी.. वे लोग भी नहीं मिलेंगे.. यहाँ यह बता देना विषयान्तर न होगा कि दूध और घी के जितने भी गुण बताये गाये गए हैं वे सभी गाय के दूध घी के हैं..

रह गई खाँड.. वो हमें मिल गई देश के इलीट दुकानों पर हेल्थ कांशस जनता को बेचने के लिए बनाई गई आम चीनी से लगभग दुगुनी मँहगी ‘सुनेहरा’.. जो एक कलक्टरगंज की एक थोक की दुकान से मिली.. अभी रिटेल तक पहुँची भी नहीं थी.. तो अब पहले जैसा हाल नहीं रहा कि असली दूध घी शुद्ध माल खाने के लिए आदमी शहर छोड़कर गाँव की तरफ़ जाए.. धीरे धीरे यह मामला उलटता जा रहा है.. गाँवों और छोटे शहरों में आप को रासायनिक औद्यौगिक कचरे से भरा माल मिलेगा.. जबकि बड़े शहरों की खास-खास दुकानों पर आप प्राप्त कर सकेंगे.. ऑर्गैनिक भोज्य पदार्थ.. जैसे मैं प्राप्त करता हूँ मुम्बई में.. लेकिन फिर भी मैं ने अपने विक्रम से हासिल ही कर ली खाँड और ज्वार..गाय का घी फिर भी नहीं मिला..

अगले दिन फोन लगाया गया अनूप भाई को मुलाक़ात के लिए.. वे तो खुद ही हमें लेने आने के लिए तैयार थे मगर हमने उन्हे अपने कनपुरिया होने का आश्वासान दिलाया और खुद ही पहुँचने का वादा किया.. मगर हमारे मेहरबान साले साहब नवेन्दु भैया ने हम अनूप जी के निवास नगर आर्मापुर कॉलोनी के रास्ते की कठिन पहाड़ की ऊँचाई दिखा के विचलित कर दिया.. तो खैर उनकी कार की सुखद ठण्डक में पहुँचे हम आर्मापुर के विस्तृत वैभव में.. जो मुम्बई दिल्ली के शहराती वैभव से एक दम अलग था.. प्रकृति और सभ्यता का एक संतुलित संगम...
हमारा स्वागत किया अनूप जी के छोटे बेटे अनन्य ने.. परिचय पाते ही उसने तुरन्त हमें गुड इवनिंग ठोंक दिया.. हम और नवेन्दु भैया दोनों उसकी इस अदा से थोड़े अचकचा गए.. अन्दर जा कर हम अनूप जी और भाभी जी से मिले.. भाभी जी की बचपन की सहेली और उनके पति शुक्ल दम्पति के मेहमान-नवाज़ी का आनन्द पहले से उठा रहे थे.. हम भी बातचीत में शामिल हो गए.. बैठते ही हमारा स्वागत रसगुल्ले से किया गया.. रसगुल्ला अभी मुँह में था ही कि शुक्ल जी के बड़े सुपुत्र सौमित्र लपक कर हमारे पैर छू गए.. बताइये अब कौन भला ऐसा मीठा और सम्मान पूर्ण स्वागत पाने के बाद कुछ भी उल्टा सुल्टा लिखने की हिम्मत कर सकता है शुक्ल जी की शान में.. हमारी फ़ुरसतिया की आँखों से छलकता खून-पार्ट टू लिखने की सारी योजनाओं पर पानी फिर गया..

थोड़ी देर में भाभी जी की सहेली और और उनके पति ने विदा ली और नवेन्दु भैया भी किसी फ़र्ज की पुकार सुनने चले गए.. और राजीव टण्डन जी पधारे.. राजीव जी कम ही लिखते हैं आजकल पर जब लिखते हैं तो सब की नज़र में आ जाते हैं..लेकिन हमारी नज़र तो उस वक़्त शुक्ला जी का वैभव से चौंधियायी हुई थी.. तो निकल कर अनूप जी ने हम अच्छी तरह से अंधा कर देने के लिए अपना खेत उपवन दिखाकर उपकृत किया.. हम तो ईर्ष्यालु हुए ही.. दिल्ली में बैठे प्रमोद भाई भी एक अनजानी अग्नि में जलने लगे हैं जब से उन्हे फ़ुरसतिया के इस ऐश्वर्य का पता चला.. जीतू चौधरी की एसयूवी का उल्लेख भी आया पर उसे इस ऐश्वर्य के आगे धूरिसम माना गया.. खैर.. जैसा आप लोगों ने पढ़ा ही है कि फ़ुरसतिया हमें अपने खेत का एक बोरी धान देने वायदा कर चुके हैं.. अब कम से कम चावल तो हमें मुम्बई की इलीट ऑर्गैनिक दुकानों से तो नहीं खरीदना पड़ेगा.. ये बड़ी राहत की बात है..
आगे हम इस ऐश्वर्य में लोट लगाने के तत्पर होते उसके पहले ही हमें भाभी जी नाश्ते के लिए वापस अन्दर ले गईं..और हमारे आगे शानदार क़िस्म की पकौड़े पेश कर दिये.. हमारा सत्यवादी चरित्र पुकार–पुकार कर कहने लगा कि मना कर दे.. कह दे कि मैं ने यह सब न खाने का प्रण लिया है.. मगर हमारे अन्दर जाग रहे नए घुमक्कड़ जीव ने लचीलापन दिखाते हुए प्लेट स्वीकार कर ली और गपागप सब उदरस्थ कर लिया.. और जिस मसाले से अन्दर तक जल जाने की शिकायत मैं दिल्ली भर करता रहा.. उस मसाले की किसी तपिश का एहसास तक नहीं हुआ हमें.. शायद यह भाभी जी के पाक-कला नैपुण्य के अलावा उनके स्नेह की ठण्डक भी होगी.. निश्चित ही.. उनके स्नेह की ठण्डक का भान तो हमें बाद में भी होता रहा जब उन्होने एक ही झटके में हमारी उमर में पन्द्रह बरस घटाकर हमारी आयु में पन्द्रह बरस जोड़ दिए.. हम भाभी जी को लगातार ब्लॉग लिखने की लिए उकसाते रहे ऐसा तो अनूप जी ने बताया ही है आप को.. सच है.. और यह भी सच है कि हम उनके इस उत्तर से लाजवाब हो गए कि वह अपने सबसे बड़ी रचना प्रक्रिया -अपने बेटों के चरित्र निर्माण- से ब्लॉग लेखन के लिए समय निकालना अभी ठीक नहीं समझती.. और इस बात को मैं फिर दोहराना चाहता हूँ कि जिस खालिसपन को वस्तुओं में- ज्वार,खाँड, देशी घी आदि- कानपुर भर में तलाश कर निराश हो चला था.. वह खालिसपन भारतीय संस्कार की शक्ल में शुक्ल जी के बेटों में पाकर अन्दर तक प्रसन्न हो गया.. और उस में सुमन भाभी का ही ज़्यादा श्रेय होगा ऐसा मान लेने में मुझे नहीं लगता कि अनूप जी को भी कोई ऐतराज़ होगा..

शेष समय किस तरह क्रिकेट खेलने में, फ़ुरसतिया द्वारा कविता सुनाकर हमें पीड़ित करने की कोशिश में, और मोर देखने में बीता यह वृतांत आप अनूप जी के ब्लॉग पर पढ़ ही चुके हैं.. लौटते में अनूप जी और राजीव जी हमें छोड़ने स्वरूप नगर तक आए.. रास्ते में मोती झील की प्रसिद्ध दुकान पर चाय पान भी हुआ..

दो रोज़ बाद अनूप जी और राजीव जी मेरे घर पर पधारे जिसकी रपट भी आपने देखी होगी.. उस दिन का अफ़सोस यह रह गया कि पता नहीं किस खामखयाली में उस मुलाक़ात के चित्र उतारने की बात ही मेरे दिमाग़ में नहीं आई..

फिर बड़े भाई सपरिवार दिल्ली से आ गए थे तो वे दो दिन उस पारिवारिक उल्लास में गए.. कानपुर का शेष समय मम्मी की कविताओं को पढ़ते, लैपटॉप पर छापते और मम्मी से प्रूफ़ चेक करवाते बीता.. जिस के पीछे योजना यह थी कि जिस बात का आग्रह अनूप जी सहित ब्लॉग की दुनिया के मित्र कर रहे थे, उसे पूरा कर लिया जाय.. मम्मी की कविताओं का एक अलग से ब्लॉग खोल दिया जाय.. जो शीघ्र ही होगा..

मंगलवार, 16 अक्तूबर 2007

घुमक्कड़ी के क़िस्से नहीं हैं अभी..

सभी मित्रों ने घुमक्कड़ी के क़िस्से सुनाने का आग्रह किया है.. अब मैं अजीब सी स्थिति में फँसा पा रहा हूँ अपने आप को.. सच तो यह है कि मैं घुमक्कड़ी के ‘घ’ को भी नहीं जानता.. घुमक्कड़ी के नाम पर महाघुमक्कड़ राहुल सांकृत्यायन का लिखा लेख ‘अथातो घुमक्कड़ जिज्ञासा’ याद आता है.. जिस की स्मृति से प्रेरित हो कर मैंने इस बार कानपुर के करेन्ट बुक डिपो से राहुल जी की घुमक्कड़ स्वामी और घुमक्कड़ शास्त्र खरीद ली.. घुमक्कड़ी के नाम पर यही उपलब्धि रही इन बीस दिनों में.. वरना तो अपने मुम्बई निवास की सुरक्षा से दिल्ली में भाईसाहब के घर की सुरक्षा में और फिर कानपुर में मम्मी और भाभी की ममता भरी सुरक्षा में सुखी रहा.. घुमक्कड़ी नहीं हुई.. नए और पुराने दोस्तों से मिलना ज़रूर हुआ.. उसकी तफ़सील पेश है..
एक दिन दिल्ली में दोस्तों के साथ फिर एक रोज़ दिल्ली में अपने छात्र जीवन के साथियों के साथ एक यादगार दोपहर बिताई गई.. जिसकी एक रपट चन्दू भाई ने अपने ब्लॉग पर चढ़ाई थी.. प्रमोद भाई तो बराबर मिलना होता ही रहता है मुम्बई में दिल्ली के साथियों में इरफ़ान और चन्दू भाई से भी लगातार बात होती रहती है.. और राजेश अभय जो मेरे साढ़ू भाई भी हैं.. उनसे भी सम्पर्क बना रहता है.. पंकज श्रीवास्तव भी मुम्बई जब भी आते हैं मिलते ही हैं.. बावजूद उसके इन पुराने दोस्तों से रू-ब-रू मिलना दिल को देर तक गरमाता रहा.. जिन नए साथियों से सालों बाद मिला वे थे रवि पटवाल और मनोज सिंह.. जिनसे लगभग पन्द्रह सोलह बरस बाद मिला.. रवि, जो डी जे हॉस्टल के मेरे कमरे में काफ़ी दिनों तक मेहमान भी रहे, से मिलना सचमुच सुखद रहा.. और जैसा कि चन्दू भाई ने भी लिखा कि उसके बाद दरिया गंज की पटरी बाज़ार में किताबों की ताकाझांकी बेहद भूल जाने योग्य रही.. बाद के कुछ दिन अपने धँधे के लिए दिए.. एक आने वाले सीरियल का एक एपीसोड लिखा.. और भेजा.. आम तौर पर इस तरह के काम में होता यह है कि आप काम करने की आखिरी घड़ी का इंतज़ार करते रहते हैं.. जिसे ‘डेडलाइन कहा जाता है.. काम आकर एक हफ़्ते से आप की मेल में पड़ा रहेगा.. इस बीच आप सब कुछ करेंगे पर काम नहीं करेंगे.. फ़ालतू से फ़ालतू काम करेंगे.. जिसके शीर्ष पर होगा अधलेटे हो कर टीवी पर क्रिकेट या न्यूज़ देखना.. पर काम.. नहीं करेंगे.. अर इस बीच दूसरा भी कोई काम नहीं होगा.. न तो कोई किताब पढ़ी जायेगी.. न कुछ सार्थक लिखा जा सकेगा.. काम आने से काम किए जाने के बीच का समय एक विचित्र प्रकार की ऊहापोह में बीतता है.. फिर आखिर कार वो घड़ी आ पहुँचती है जिस के बाद काम किए जाने पर पूरा न होगा.. और आप हार कर लिखने बैठ जाते हैं.. तो इसी ऊहापोह में गुज़रे चार पाँच दिन..


फिर जिन दोस्तों से मिलना नहीं हो पाया था उनसे सम्पर्क साधने की कोशिश की गई.. काकेश मिलने के लिहाज़ से निहायत व्यस्त पाए गए..हालांकि मेल पर वो मुझसे तमाम तरह की शिकायत करते रहे.. अरुण अरोड़ा और मैथिली जी से मिलना हुआ मैथिली जी के दफ़्तर में.. जहाँ अरुण जी हमसे और प्रमोद भाई से पंगा लेने की बराबर कोशिश करते रहे.. हम बचते रहे.. और प्रमोद भाई भिड़ते रहे..
मैथिली जी शांत भाव से विचार मुद्रा साधते रहे.. भूपेन बराबर प्रमोद भाई के बल बने रहे.. चाय पी गई.. भोजन पाया गया.. चलते चलते मैथिली जी ने मुझे मेरे पुराने शग़ल ज्योतिष से सम्बन्धित दो सॉफ़्टवेयर भेंट में दिए..जिसे उनके सुपुत्र सिरिल ने अपनी लगन से आला दरजे का बनाया है.. उसकी उन्नति के लिए मेरी ढेरों शुभकामनाएं..

फिर एक रोज़ ज.ने.वि. कैम्पस की सैर पर रहे हम.. हम यानी मैं, प्रमोद भाई और भूपेन.. मामू के ढाबे पर खाना भी खाया गया उस रोज़..ज़ुबान, गला और आँते जला सकने योग्य मसालेदार खाना और घास पर पड़ा भी रहा गया..

चलने से एक रोज़ पहले यूँ ही बातचीत में संजय तिवारी का ज़िक्र आया और मैथिली जी से उनका नम्बर भी मिल गया.. सोचा कि लगे हाथ उनसे भी मिल लिया जाय.. संजय तिवारी अपनी स्वरूप पर हमारी हैरानी के प्रति आश्वस्त थे.. और निश्चित ही वे हमारी कल्पना की तुलना में कहीं ज़्यादा गँवई निकले.. हमारे इस विशेषण से संजय प्रसन्न रहे कि उनका अवांछित शहरीकरण नहीं हुआ है.. भूमण्डलीकरण की पूँजीवादी शक्तियों के खिलाफ़ किए जा रहे तमाम छोटे-छोटे प्रयासों के बारे में चर्चा होती रही.. खाना भी खाया गया दरियागंज के एक पंजाबी ढाबे में जहाँ सब्ज़ी के नाम पर शाही पनीर और मटर पनीर ही मिलता है.. जैसे मटर टमाटर और गोभी के सिवा किसी अन्य शाक सब्ज़ी के बारे में कोई ज्ञान नहीं पंजाब में.. मरता क्या न करता खाया गया.. धुआँ निकालने योग्य मसालेदार..
और फिर दरियागंज स्थित राजकमल प्रकाशन और वाणी प्रकाशन में उत्तरोत्तर महँगी होती किताबों को देखा गया.. और अनुवाद के मेहनताने को लेकर एक निराशाजनक चर्चा हुई राजकमल के मालिक अशोक महेश्वरी से.. अनुपम मिश्र की बहुचर्चित पुस्तक ‘आज भी खरे हैं तालाब’ की एक प्रति प्राप्त हुई संजय से.. बतौर भेंट..व्यक्तिगत तौर पर असहमति के तमाम बिन्दु हो सकते हैं हमारे बीच मगर संजय तिवारी जैसे आदर्शवादी नौजवानों की बहुत ज़रूरत है इस देश को..

दिल्ली से निकलने के आखिरी दिन एक मित्र से मिलने के लिए सिविल लाइन्स तक चला गया.. जो फ़ौज में कर्नल हैं.. कर्नल साब ने मेरे सम्मान में जो भोज दिया वह अपनी मसालगी में किसी से कम नहीं था.. हमने धन्यवाद के सिवा कुछ नहीं कहा.. लचीले होने की कोशिश जो कर रहे थे.. शाम को लौटते हुए रिक्शे में फोन में सृजन शिल्पी का नाम चमका.. नाम देखते ही मैं शर्मसार हो गया.. मैं सृजन के बारे में बिलकुल भूल गया था.. यह भी कि उनका नम्बर मैं अपने फोन में स्टोर कर चुका था.. सरल-सहज सृजन ने मेरी इस भुलक्कड़ी को बिलकुल दिल पर नहीं लिया.. और कुछ ही देर बाद वसन्त कुंज स्थित मेरे भाई के निवास पर चले आए जो वसंतविहार स्थित उनके निवास से काफ़ी पास ही है..
पहली बार मिलते हुए हमने एक दूसरे के बारे में निजी विवरण भी लिए दिए और ब्लॉग्स, ब्लॉगरी, और ब्लॉगर्स वर्ल्ड पर भी बातचीत करते रहे.. इस बीच मेरे भाईसाहब भी आ गए और वे भी हमारी बातचीत में शामिल हो गए.. वे सृजन द्वारा बताई गई तमाम योजनाओं के प्रति काफ़ी प्रभावित दिखे.. समय कम था.. मुझे कुछ देर में निकलना भी था.. चलते-चलते नेताजी पर सृजन के शोध की भी संक्षिप्त चर्चा हुई.. सृजन द्वारा दिए कुछ तथ्यों से मेरे भाईसाहब दुबारा काफ़ी सनसनी में रहे.. सृजन आजकल कम लिख रहे हैं क्योंकि एक लम्बी योजना पर कार्यरत है.. जो शीघ्र ही वे लोगों के सामने प्रस्तुत करेंगे.. ऐसी आशा है..
सृजन शिल्पी के साथ इस मीठी मुलाकात के साथ ही मेरा दिल्ली प्रवास समाप्त हुआ और मैं कानपुर के लिए रवाना हो गया.. जहाँ मेरी मुलाकात ब्लॉग जगत के पुरोधा भाई अनूप शुक्ला और सुदर्शन व्यक्तित्व के स्वामी राजीव टण्डन जी से हुई.. उसका विवरण अगली पोस्ट में..

(घुमक्कड़ी के किस्से न सुना पाने के लिए दोस्तों से माफ़ी चाहता हूँ.. पर एक दिन सच में घुमक्कड़ की तरह घूमूँगा.. और तब ज़रूर सुनाऊँगा असली घुमक्कड़ी के सच्चे किस्से.. तब तक इस डालडा से सन्तोष करें..)

सोमवार, 15 अक्तूबर 2007

घर से निकलकर..

इस बार जब लगभग दो साल के अन्तराल के बाद मुम्बई से बाहर निकला तो अपने जीवन की सीमाओं को मस्तक में भरे हुए और जड़ताओं को बैग्स में ढोते हुए निकला। ताकि जहाँ भी जाऊँ उसी मुम्बीय जीवन को वहाँ भी रच सकूँ। उसी तौलिया से मुँह पोँछने और उसी चप्पल को घसीटने के अलावा वैसा ही खा सकूँ और उसी समय पर सो सकूँ जैसे नियमों का पालन भी करता रह सकूँ, जैसा मुम्बई में करता रहा हूँ। और इसमें नियमित रूप से ब्लॉग लिखना और दूसरे मित्रों के ब्लॉग्स देखना भी शामिल रहा है, जीवन के नए विकास के रूप में। लेकिन दिल्ली और उसके बाद कानपुर पहुँचकर मैं अपने इस प्रिय शग़ल को जारी नहीं रख सका। जिसके लिए मैं सभी मित्रों से माफ़ी चाहता हूँ, खास तौर पर भाई बोधिसत्व और उनके परिवार से।

इस आई हुई रुकावट के पीछे पहले तो किसी अच्छे इन्टरनेट कनेक्शन का अभाव था और बाद में एक सचेत निर्णय भी था जो मैंने नए हालात के आगे समर्पण करते हुए किया। अगर कोशिश करता तो लड़-भिड़कर रोज़ एक पोस्ट डाल सकना ऐसा कोई कठिन पहाड़ न होता, मगर फिर घर से निकलने का मक़सद अलग खड़ा मुझ पर हँसता होता।

क्योंकि घर से निकलना अपने जमे-जमाये जीवन से निकलना होता है, उसके ठोस हो गए आकार की सीमाओं से बाहर निकलना होता है। घर से काम पर जाना, काम से निकल कर घर को आना, ज़रूरत पड़ने पर बाज़ार जाना और ज़रूरत की ही तरह मनोरंजन की दुकानों पर जाना- इन्ही जड़ताओं में फँसता जाता है रोज़मर्रा का ढर्रा। सभ्यता ने जहाँ एक तरफ़ मनुष्य के जीवन में अनन्त सम्भावनाओं के रंग भरे हैं वहीं दूसरी ओर ऐसी निहायत उबाऊ एकरसताओं का भी उत्पादन किया है, बड़े पैमाने पर। हम सब अपनी-अपनी एकरसताओं के शिकार हुए पड़े रहते हैं अपने-अपने कोटरों में - कल्पना में, किताबों में और अब के इन्टरनेटीय जीवन में एक आभासी दुनिया में एक समान्तर जीवन की रचना करते हुए।

मैंने चाहा था अपनी एक ओर ठोस हो चुकी मगर सीमित, और दूसरी ओर विस्तृत मगर वायवीय और आभासी दुनिया से निकलकर एक सच्ची, वास्तविक, तरल दुनिया में बहना। दिल्ली और कानपुर में पुराने और नए मित्रों के साथ समय गुज़ारते हुए और ढर्रे से कुछ अलग तरह समय को जीते हुए वह कुछ हद तक किया भी गया, जिसका विवरण एक अलग पोस्ट में दिया जायेगा। फ़िलहाल तो इतना ही कहना चाहता हूँ कि घुमक्कड़ी सम्भावनाओं के अनोखे द्वार खोल विविधताओं के अद्भुत दर्शन कराती है तो आदमी से एक लचीलापन भी माँगती है मगर आदमी नियम के नियंत्रण से नियति को बाँध रखने का इच्छुक रहता है।

इस खींचतान पर ग़ालिब का एक शेर याद आता है; आशिक़ी सब्रतलब और तमन्ना बेताब, दिल का क्या रंग करूँ खूने जिगर होने तक।

इसी अन्तरविरोध पर एक ज़ेन मास्टर ने अलग तरह से टिपियाया कि जब भूख लगती है खा लेता हूँ और जब नींद आती है सो जाता हूँ।
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