अब हालत यह है कि ब्लॉग का नाम निर्मल आनन्द होने से लोग मान कर चलते हैं कि मैं बड़े ही निर्मल स्वभाव वाला व्यक्ति हूँ.. लोग कहते हैं मन को बड़ा अच्छा लगता है.. अपनी ही निर्मलता पर मन झूम-झूम जाता है.. सोचने लगता हूँ कि मैं तो भौतिक जगत के बन्धनों से ऊपर उठ चुका आदमी हूँ.. साधारण मोह-माया, जगत के जंजाल जिनमें उलझा रहता है आम आदमी.. मेरा दूर-दूर का नाता नहीं उनसे.. लेकिन ये सारा भ्रम टूट कर धराशायी हो गया जब आखिरकार हमने एक ड्राइवर को मुलाज़िम रख लिया..
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वैचारिक तौर पर मुझे कोई समस्या नहीं थी.. पर मेरे अन्दर अजीब-अजीब भाव जन्म ले रहे थे.. मुझे नफ़रत हो रही थी इस फ़ैसले से.. उस ड्राइवर से जो मेरी गाड़ी को चलाएगा.. उसी सीट पर बैठेगा.. जिस पर मैं बैठता हूँ.. हे राम.. मुझे ऐसा लग रहा था कि जैसे मेरा प्रिय खिलौना कोई मुझसे छीने लिये जा रहा है.. पहले दिन जाती हुई गाड़ी को मैंने ऐसे देखा जैसे कोई विदा होती बेटी को देखता है..दिन भर उसी के बारे में सोचता रहा.. शाम को ड्राइवर को मैने उसके तौर-तरीकों के बारे में एक झाड़ लगाई.. बीबी को भी उसके गाड़ी के प्रति दुर्व्यवहार के लिए लताड़ा.. मैं एक राक्षस होता जा रहा था.. और ये कोई पुरानी बात नहीं है.. करीब महीने भर पहले ही.. उस वक्त ब्लॉग की दुनिया में कोई न कोई मेरे निर्मलापे को लेकर भली बातें कह-लिख-सोच रहा होगा..
तब मुझे एहसास हुआ कि मैं कितना अधिक मोहासक्त था इस कार में.. कितना बँधा हुआ था इसके साथ.. शीयर अटैचमेन्ट.. मैं इस कार को लगभग एक मनुष्य का दरज़ा दिये हुए था.. शायद किसी मनुष्य से भी ज़्यादा मैं इस भौतिक वस्तु से जुड़ा हुआ था.. कि अभी भी दर्द होता है.. थोड़ा-थोड़ा..
9 टिप्पणियां:
तब तो हम आपसे कहीं ज्यादा निर्मल हैं. गाड़ी चलानी नहीं आती (पंगेबाज जी ने कहा है वो सिखा देंगे पता नहीं कब) लेकिन फिर भी नयी गाड़ी ड्राइवर के हवाले कर देते हैं.अब तो लगता है सीखनी ही पड़ेगी.
कार तो नई है अपनेराम के पास लेकिन इस पोस्ट को पढ़कर चलाना तो सीखई लेते हैं!!
भाई मोह का भी तो एक निर्मल आनन्द है...क्या आप नहीं मानते....मोहानन्द को
हो जाता है भाई ऐसा..जैसे मानो बचपन का प्रिय खिलौना.
यह भी आपके संवेदनशील हॄदय का एक पहलू है.
पहली बात् तो यह कि घर से निकलने से पहले सोचना बंद् कर् दें।निकल लें फिर् पचीस बार् सोचें कि कैसे निकल लिये! कहां जायें? क्यों निकले?
गाड़ी का मोह् कुछ् दिन् में कम् हो जायेगा बशते खुद् चलाने लगें और् एकाध खरोंचे लग जायें कार् में। :)
अच्छा लगा यह लेख। कार का किस्सा तो मात्र आवरण है। दरअसल आप तो आत्म-विश्लेषण की बात कर रहे हैं और अपनी छवि की वास्तविकता भी परख रहे हैं। यह अच्छा ही है। यदि छवि ग़लत भी हो तो यह आत्म-विश्लेषण उस पर भी सकारात्मक प्रभाव छोड़ता है
।
बहुत पहले एक फिल्म देखी थी - गाईड। उसमें भी मात्र आत्म-विश्लेषण और अपनी मिथ्या छवि को सत्यता में बदल देने का निश्चय ही नायक के जीवन में आमूल-चूल परिवर्तन कर देता है।
यू आर लुकिंग लाइक अ हाइपर सेंसिटिव मैन। दैट्स नॉट अप्रोप्रियेट रिस्पॉंस!
आई फील लैक मीटिग एण्ड ब्लास्टिंग यू ऑन मैनी ऑफ योर नोशंस! :-)
अच्छा है। इस तरह का आत्म-निरीक्षण चलते रहना चाहिए। वैसे, मैंने भी जोश में आकर कार खरीद ली थी तीन साल पहले। अभी तक चार हज़ार किलोमीटर भी नहीं चली है। ड्राइविंग सीख चुका हूं। लेकिन उससे पिंड छुड़ाना चाहता हूं। मगर, वह है कि नीचे खड़ी-खड़ी ही मुझे चिढ़ाती रहती है।
Interesting ! Just consider the car as a means of going from point A to point B and nothing more ( ofcourse a bit expensive means ).
Ghughuti Basuti
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