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मैं उनके दिल को चूहेसम बता रहा हूँ क्योंकि करोड़पति-अरबपति होने के बावजूद उनके भीतर अपनी ही बनाई किसी पिटी-पिटाई लीक छोड़कर कुछ अलग करने का साहस नहीं है। चूंकि पैसे के फेर में अपने दिल की आवाज़ सुनने का अभ्यास तो खत्म ही हो चुका है यह उनकी फ़िल्मों से समझ आता है। और दूसरों की दिलों की आवाज़ पर भरोसा करने की उदारता भी उनमें नहीं होती इसीलिए किसी नए को मौका देने के बावजूद उसकी स्वतःस्फूर्तता को लगातार एक समीकरण के अन्तर्गत दलित करते जाते हैं।
मैं इसे एक रोष के साथ लिख रहा हूँ क्योंकि मैंने इस धंधे में चौदह साल दिए हैं और अधिकतर टीवी की और कभी-कभी फ़िल्मों की दुनिया में भी इस प्रवृत्ति का सामना किया है और उसके आगे समर्पण किया है। भौतिक सुविधाओं के आगे कलात्मक प्रतिबद्धताओं की बलि देकर। और इसीलिए मुझे इम्तियाज़ अली की फ़िल्म देखकर एक आन्तरिक खुशी हो रही है कि उसने वह जीत हासिल की है जो मैं नहीं कर सका। फ़िल्मों की गुणात्मकता में बदलाव ला रहे नए निर्देशकों की उस सूची में उनका भी नाम लिया जाएगा जिसकी अगुआई अनुराग कश्यप और श्रीराम राघवन जैसे निर्देशक कर रहे हैं।
जब वी मेट एक रोमांटिक फ़िल्म है। एक लम्बी परम्परा है हमारे यहाँ रोमांटिक फ़िल्मों की। मगर पिछले सालों में मैने एक अच्छी रोमांटिक फ़िल्म कब देखी थी याद नहीं आता। ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे’ और ‘कुछ कुछ होता है’ को मात्र मसाला फ़िल्में मानता हूँ, उसमें असली रोमांस नहीं है। असली रोमांस देखना हो तो जा कर देखिये जब वी मेट।
8 टिप्पणियां:
अब अगले शनिवार या इतवार को देखना तय रहा।
अभय भाई,
"जब वी मेट " पर ये प्रविष्टि दीलचस्प है -
आपने तारीफ की तब तो जुरुर देखेँगे इसे !
लिखते रहिये --
--लावण्या
आपका अप्रूवल हो लिया, अब जरुर देखते हैं इसे.
सत्यवचन प्रभु....
देखकर आता हूं।
सहमत हूं । जब वी मेट कई बनाना कई मायनों में जोखिम रहा होगा ।
कुछ कमियों के बावजूद ये एक ताज़गी भरी फिल्म है ।
बहुत कुछ नया है इस फिल्म में ।
अच्छी और सच्ची फिल्म ।
मैं आजकल फिल्म ज्ञान लेने में लगा हूं। अत: यह पोस्ट जमी। धन्यवाद।
चवन्नी रोष की बातें पढ़ना चाहता था.अाप ने सही लिखाएइस पर गौर करने की जरूरत है कि इम्तियाज ने हिंदुस्तान में रह कर ही एक सुंदर फिल्म दी.चवन्नी काे रतलाम की रात पसंद नहीं आई...बस.
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